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________________ ११६ जैन पूजा पाठ सद छन्द रूपक सवैयां शान्तिनाथ-जिनके पद-पंकज, जो भवि पूजै मन वच काय । जनम जनमके पातक ताके, ततछिन तजिकै जाय पलाय ॥ मनवांछित सुख पावै सो नर, वांचें भगति-भाव अति लाय । वातै 'वृन्दावन' नित बंदे, जातैं शिवपुर- राज कराय ॥ १ ॥ इत्याशीर्वाद. पुष्पाजलि क्षिपामि । रत्नत्रय ■ यदि रत्नत्रय की कुशलता हो जावे तब यह सब व्यवहार अनायास छूट जावे । जो जीव दर्शन, ज्ञान, चारित्र में स्थित हो रहा है उसी को तुम् 'स्व - समय' जानो और इसके विपरीत जो पुद्गल कर्म प्रदेशों में - - स्थित है उसे ' पर समय' जानो। जिसके ये अवस्थायें हैं उसे अनादि, अनन्त, सामान्य जीव समझो। केवल राग द्वेष की निवृत्ति के अर्थ चारित्र की उपयोगिता है । - ■ सम्यकदृष्टि जोव का अभिप्राय इतना निर्मल है कि वह अपराधी जीव का अभिप्राय से बुरा नहीं चाहता। उसके उपभोग क्रिया होती है । इसका कारण यह है कि चारित्र मोह के उदय से बलात् उसे उपभोग क्रिया करनी पड़ती है । एतावता उसके विरागता नहीं है, ऐसा नहीं कह सकते । - 'वर्णी वाणी' से
SR No.010139
Book TitleSanatkumar Chavda Punyasmruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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