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वैष्णव तीरथ जहा रच्यो सोइ, चैष्णव पूजत आनन्द होइ । जानें चल रेढ सु कोस जाप, फिर छोटे पर्वत को चढ़ाव ।। ७॥ वहां तीन कुण्ड सोहे महान, श्रीजिन के युग मन्दिर वखान। मन्दिर दिगम्बरी दोय जान, श्वेतांबर के बहुते प्रमान ॥ ८॥ जहां पनी धर्मशाला सु जोय, जलकुण्ड तहां निर्मल सु तोय । श्वेताम्बर यात्री वहां जाय, ताकुण्ड माहि नितही नहाय ॥ ६ ॥ फिर आग पर्वत पर चढ़ाय, चढि प्रथम कूट को चले जाय । तहां दर्शन कर आगें सु जाय, तहां दुतिय टोंक के दर्श पाय ॥१०॥ तहां नेमनाथ के चरण जान, फिर है उतार भारी महान । तहाचढ कर पञ्चम टोंक जाय, अति कठिन चढ़ाव तहा लखाय॥११॥ श्रीनेमनाथ का मुक्ति थान, देखत नयनों अति हर्ष मान । इक विंय चरणयुग तहा जान, भवि करत चन्दना हर्ष ठान ॥१२॥ कोउ करते जय जप भक्ति लाइ, कोऊ थुति पढते तहा सुनाय । तुम त्रिभुवनपति त्रैलोक्यपाल, मम दुःख दूर की दयाल ॥१३॥ तुम राजमद्धि भुगती न कोइ, यह अथिररूप संसार जोइ । तज मात पिता घर कुटुमा द्वार तज राजमती-सी सती नार ॥१४॥ द्वादशभावन भाई निदान, पशुवदि छोड दे अभय दान । शेसा वन में दीक्षा सुधार, तप करके कर्म किये सु छार ॥१५॥ ताही बन केवल ऋद्धि पाय, इन्द्रादिक पूजे चरण आय । तहां समवशरण रचियो विशाल, मणि पञ्चवर्ण कर अति रसाल ॥१६॥ तहा वेदी कोट सभा अनूप, दरवाजे भूमि बनी सु रूप । वसुप्राविहार्य छत्रादि सार, वर द्वादश सभा वनो अपार ॥१७॥ करके विहार देशों मझार, भवि जीव करे भव सिन्धु पार ।। पुन टोंक पञ्चमीको सु जाय, शिव नाथ लयो आनन्द पाय ॥१८॥