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शंभर
जवे तन भोग-जगत-उदास, धरै तव सवर-निर्जर-मास । फरे जब फर्म फलंक विनास, लहै तब मोक्ष महासखराश ॥ तपा यह लोक नगएन नित, विलोफिय ते पट द्रव्य-विचित । गमातम-जानन-यो-विहीन, धरै पिन तत्त्व-प्रतोत प्रवीन ॥ जिनागम-शानर मजम माय, सर्व-निज मान चिना विसराव । गदुम र नशे काल, सुभाव सर्व जिहते शिव हाल । लयो अब जोग स्तन्य वाय, कहो किमि दीजिय ताहि गंवाय । विचारत यो स्वकांतिस नाय, नमे पद-पकण पुप्प चढाय ॥ गायो प्रभु पन्य फिी मुविचार, प्रबोधि सु येम कियो तु विहार । नये गय धर्म सनो हरि नाय, रच्यो मिविफा चदि आप जिनाय ।। परे प पाय मोवान-बोध, दियो उपदेश सुमव्य संबोध । नियो पिर मोर महानुग-गा, नमें नित भक्त सोई सुख आश ॥
मसाएर निन बागव-वदत, पाप- निहायत, यासपूज्य व्रत-ब्रह्म-पती। भय ममट गान, मानद मडित, जे जे जे जैवत जती ॥
श्री पापा पूर्णान शिपागीति साहा । वानपूज- पद सार, जजो दरब विधि भावसों। गा पायें मुखमार, मुक्ति मुक्ति को जो परम ॥
1ो । परिपुष्पांजलि दिपागि]