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________________ भक्तामर भाषा ( लेखक - हजारीलाल 'काका' घुन्देलखण्डी ) ( वीरवाणी, पाक्षिक पत्र के वर्ष ३५, अक ८ एव ६ से साभार उद्धृत ) देवों के मुकुटो की मणिर्थी, जिन चरणो में जगमगा रही, जो पाप रूप अंधियारे को दिनकर बन कर के भगा रही, जो भव सागर में पडे हुये जीवो के लिये सहारे हैं, मन-वचन्तन से उन श्री जिन के चरणो में नमन हमार है || १ | श्रुतज्ञानी सुरपति लोकपति जिनके गुण गाते हर प्रकार, स्तोत्र विनय पूजन द्वारा वन्दन करते हैं बार-बार, आश्चर्य आज मैं मन्द बुद्धि उन आदिनाथ के गुण गाता, उनकी भक्ति में भक्तामर भाषा मे लिख कर हर्षाता ॥ २ ॥ जो देवो द्वारा पूज्य प्रभु मैं उनके गुण गाने जाया, होकर जल्पन ढीठता हो, अपनी दिखलाने को लाया, मतिमद हूँ उस बालक समान जिसके कुछ हाथ न जाता है, प्रतिविम्ब चन्द्र का जल में लख लेने को हाथ डुदाता है || ३ ॥ जब प्रलयकाल की वायु से सागर लहराता जोरो से, तिस पर भी मगरमच्छ घूमें मुँह बाये चारों जोरो से ऐसे सागर का पार भुजाओ से क्या कोई पा सकता, बस इसी तरह मैं मन्द बुद्धि प्रभु के गुण कैसे गा सकता ॥ ४ ॥ जिस तरह सिंह के पंजे मे बच्चा लख हिरणी जातो है, ममता वश सिंह समान बलो को अपना रोष जताती है, बस इसी तरह से शक्ति मेरी मुनिनाथ न स्तुति करने को, जो कहा भक्तिवश ही स्वामी है शक्ति न मक्ति करने की ॥ ५ ॥ ज्यों आम्र मजरी को लख कर कोयल मधुराग सुनाती है, वैसे ही तेरी भक्ति प्रभु जबरन गुण गान कराती है, है अल्प ज्ञान विद्वानो के सन्मुख यह दास हँसी का है, तेरी भक्ति की शक्ति ने जो कहा ये काम उसी का है || ६ | '
SR No.010139
Book TitleSanatkumar Chavda Punyasmruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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