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५. बलमद-शारीरिक शक्तिको दृष्टिसे गर्व करना बलमद है।
६. ऋद्धिमद-बुद्धि आदि ऋद्धियो अथवा गृहस्थकी अपेक्षा धनादि वैभवका गर्व करना ऋद्धिमद है।
७ तपमद-अनशनादि तपोका गर्न करना तपमद है। ८. शरीरमद-अपने स्वस्थ एव सुन्दर शरीरका गर्व करना शरीरमद है।
वस्तुत सम्यग्दृष्टि विचार करता है कि क्षयोपशमजन्य ज्ञान, पूजा आदि वस्तुएं मेरे अधीन नहीं है, किन्तु कर्माधीन हैं और कर्मोदय प्रतिक्षण परिवर्तित होता रहता है, अतएव शरीर, ज्ञान, ऐश्वर्य आदिका मद करना निरर्थक है। रत्नत्रयरूप धर्म ही जोवात्माके स्वाधीन है, कालानवच्छिन्न है, पवित्र-निर्मल और स्वय कल्याणस्वरूप है । ससारके अन्य सब पदार्थ 'पर' हैं और आत्मोत्थानमे सहायक नही हैं । अतः सम्यग्दृष्टि यदि अपने अन्य समिओके साथ ज्ञान, पूजा, कुल, जाति आदि आठ विषयोमेसे किसीका भी आश्रय लेकर तिरस्कारभाव रखता है, तो वह उसका 'स्मय' नामक दोष कहलाता है। इससे उसकी विशुद्धि नष्ट होती है और कदाचित् वह अपने स्वरूपसे च्युत भी हो सकता है। यहां यह ज्ञातव्य है कि ज्ञानादि हेय नही हैं, अपितु ज्ञानादिके मद हेय हैं। आस्था सम्बन्धी अन्धविश्वास __ अन्धश्रद्धालु बनकर आत्महितका विचार किये बिना ही लोक, देव, एव धर्म-सम्बन्धी मूढतायुक्त क्रियाओमे प्रवृत्त होना अन्धश्रद्धा या मुढता है। ये मूढताएं तीन हैं:-१ लोकमूढता, २ देवमूढता और ३ पाषण्डमूढता।।
ऐहिकफलकी इच्छासे धर्म समझकर नदी, समुद्र एवं पुष्कर आदिमे स्नान करना, बालुका एव पत्थरके ढेर लगाना-पर्वतसे गिरना, एव अग्निमे कूदकर प्राण देना मूढता या अन्धश्रद्धामे समाविष्ट है। जो आत्मधर्मसे विमुख होकर लौकिक क्रिया-काण्डोको ही धर्म समझता है और धर्म-साधनाके रूपमे प्रवृत्ति करता है वह लोकमूढ कहा जाता है। ___ लौकिक अभ्युदय एव वरदान प्राप्तिकी इच्छासे आशायुक्त हो राग-द्वेषसे मलिन देवोकी आराधना करना देवमूढता है । वस्तुत देवसम्बन्धी अन्धविश्वास एव उस विश्वासको पूर्तिके साधन देवमूढतामे समाविष्ट हैं। देव सर्वज्ञ, वीतराग और हितोपदेशी होता है। इसके विपरीत जो रागद्वेषसे मलिन है वह कुदेव है और ऐसे कुदेवोकी आराधना करनेसे धर्माचरण नही होता है। यदि सम्यग्दृष्टि सासारिक फलकी इच्छासे वीतरागदेवकी उपासना भी करता है तो भी सम्यक्त्वमे दोष आता है । जो मिथ्या आशावश सराग देवोकी आराधनासे लौकिक फल प्राप्त करना चाहता है उसकी आस्था पड्गु और अन्ध है। ५०६ . तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा