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छिपा नही रह सकता है। वस्तुत मैत्री भावना समाजकी परिधिको विकसित करती है, जिससे आत्मामे समभाव उत्पन्न होता है ।
प्रमोद-भावना
गुणीजन को देखकर अन्त करणका उल्लसित होना प्रमोद - भावना है । किसीकी अच्छी बातको देखकर उसकी विशेषता और गुणोका अनुभव कर हमारे मनमे एक अज्ञात ललक और हर्षानुभूति उत्पन्न होती है । यही आनन्दकी लहर परिवार और समाजको एकताके सूत्रमे आबद्ध करती है । प्राय देखा जाता है कि मनुष्य अपनेसे आगे बढे हुए व्यक्ति को देखकर ईर्ष्या करता है और इस ईर्ष्यासे प्रेरित होकर उसे गिरानेका भी प्रयत्न करता है । जब तक इस प्रवृत्तिका नाश न हो जाय, तबतक अहिंसा और सत्य टिक नही पाते । प्रमोदभावना परिवार और समाजमे एकता उत्पन्न करती है । ईर्ष्या और विद्वेष पर इसी भावनाके द्वारा विजय प्राप्त की जा सकती है। ईर्ष्याकी अग्नि इतना विकराल रूप धारण कर लेती है कि मनुष्य अपने भाई और पुत्रके भी उत्कर्ष - को फूटी आंख नहीं देख पाता । यही ईर्ष्याकी परिणति एव प्रवृत्ति ही परिवार और समाजमे खाई उत्पन्न करती है । समाज और परिवारको छिन्न-भिन्नता ईर्ष्या, घृर्णा और द्वेषके कारण ही होती है । प्रतिस्पर्धावश समाज विनाशके कगारकी ओर बढता है । अत 'प्रमोद - भावना' का अभ्यास कर गुणोके पारखी बनना और सही मूल्याकन करना समाजगठनका सिद्धान्त है । जो स्वयं आदरI सम्मान प्राप्त करना चाहता है, उसे पहले अन्य व्यक्तियोका आदर-सम्मान करना चाहिए। अपने गुणोके साथ अन्य व्यक्तियोके गुणोकी भी प्रशसा करनी चाहिए। यह प्रमोदकी भावना मनमे प्रसन्नता, निर्भयता एव आनन्दका सचार करती है और समाज तथा परिवारको आत्मनिर्भर, स्वस्थ और सुगठित बनाती है ।
करुणा भावना
करुणा मनकी कोमल वृत्ति है, दुखी और पीडित प्राणी के प्रति सहज अनुकम्पा और मानवीय संवेदना जाग उठती है । दु खोके दुखनिवारणार्थं हाथ बढते हैं और यथाशक्ति उसके दुखका निराकरण किया जाता है ।
करुणा मनुष्यकी सामाजिकताका मूलाधार है । इसके सेवा, अहिंसा, दया, सहयोग, विनम्रता आदि सहस्रो रूप सभव हैं। परिवार और समाजका आलम्बन यह करुणा भावना ही है ।
मात्राके तारतम्यके कारण करुणाके प्रमुख तीन भेद हैं-१ महाकरुणा, २ अतिकरुणा और, ३ लघुकरुणा । महाकरुणा निस्वार्थभावसे प्रेरित
५७० तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा