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स्पर में अन्योन्याश्रय सम्वन्ध है और परस्परमे दोनोंके सहयोगसे हो समाजकां विकास और उन्नति होती है ।
समाजघटक, सामाजिक संस्थाएं एवं समाजमें नारीका स्थान
सामाजिक जीवनके अनेक घटक हैं । व्यक्ति माँके उदरसे जन्म लेता है । मी उसका पालन-पोषण करती है। पिता आर्थिक व्यवस्था करता है । भाईबहन एवं मुहल्लेके अन्य शिशु उसके साथी होते हैं । शिक्षाशालामे वह शिक्षकोंसे विद्याध्ययन करता है। बडा होनेपर उसका विवाह होता है । इस प्रकार एक मनुष्यका दूसरे मनुष्यके साथ अनेक प्रकारका सम्वन्ध स्थापित होता है । इन्ही सम्बन्धोंसे वह बंधा हुआ है । उसका स्वभाव और उसकी आवश्यकताएं इन सम्वन्धोमे उसे रहनेके लिए बाध्य करती हैं । फलत मनुष्यको अपनी अस्तित्व रक्षा और सम्बन्व-निर्वाह के लिये समाजके बीच रहना पडता है । एकरूपता, सहयोग सहकारिता, सघटन और अन्योन्याश्रितता तो पशुओंके बीच भी पायी जातो है, किन्तु पशुओमे क्रिया-प्रतिक्रियात्मक सम्बन्धो के निर्वाह एव सम्बन्ध-सम्बन्धी प्रतिवोधका अभाव है। सामाजिक सम्बन्धोके घटक अनेक तत्त्व हैं। इनमें निम्नलिखित तत्त्वो की प्रमुखता है
१ वैयक्तिक लाभके साथ सामूहिक लाभकी ओर दृष्टि २. न्यायमागं की वृत्ति
३. उन्नति और विकासके लिये स्पर्द्धा
४ कलह, प्रेम, एव सघर्षके द्वारा सामाजिक क्रिया-प्रतिक्रिया । ५. मित्रताकी दृष्टि
६ उचित सम्मान प्रदर्शन
७. परिवारका दायित्व
८. समानता और उदारताको दृष्टि
९ आत्म-निरीक्षणको प्रवृत्ति
१०. पाखण्ड - आडम्बरका त्याग
११. अनुशासनके प्रति आस्था
१२ अर्जनके समान त्यागके प्रति अनुराग
१३ कर्त्तव्यके प्रति जागरूकता
१४ एकाधिकारका त्याग और स्वावलम्बनकी प्रवृत्ति १५ सेवा-भावना
सामाजिक जीवन अर्हाओ ओर नैतिक नियमोपर अवलम्बित है । रक्षाविधि और अस्तित्व निर्वाह समाजके लिये आवश्यक है । सामाजका आर्थिक
• तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना : ५९७