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जैन पूजा पाट सह
है त्रिभुवनपति तुम में सब ही उत्तम गुण दिये दिखाई हैं, हैं पूर्ण चन्द्र से कनावान जो त्रिभुवन को सुखदाई हैं, इसलिये उन्हे इच्छानुसार विचररा से कौन रोक सकता, जो त्रिभुवनपति के जाप्रय हैं उनको फिर कौन टोक सकता ॥ १४ ॥ जो प्रलयकाल को तेज वायु पर्वत करती कम्पायमान, वह पर्वतपति सुमेर राज कर सकती नही चलायमान, दस उमी तरह से जो देवी देवों का मन हर सकती है,
वह सभी देवियों मिल प्रभु को विचलित न जरा कर सकती हैं ॥ १५ ॥ हे ना दोप जितने जग के जो नजर हमारो जाते हैं, जरते जो तेल दाति द्वारा वायु लगते वुम जाते हैं, पर नाथ जाप वह दीपक हैं जो त्रिभुवन के प्रकाशक हो, निर्धूम जला करते निशदिन त्रिभुवन के तभी उपासक हो ॥ १६ ॥
हैं सतत् प्रकाशो सूर्य जाप ग्रस सके न राहू पाप रूप, इक समय एक सग तीन लोक का प्रकाशित होता स्वरूप, यह सूर्य मेघ से जाच्छादित होकर दिन में छिप जाता है, पर हे मुनीन्द्र वह सूर्य जाप जो सदा प्रकाश दिखाता है ॥ १७ ॥ मुखचन्द्र जाप का हे स्वामी मोहान्धकार का नाश करे, राहू मेघो से दूर सदा नित त्रिभुवन में प्रकाश करे, पर यह साधारण चन्द्र प्रभु राहू मेघो से घिर जाता, इतने पर भी यह सिर्फ रात में ही प्रकाश कुछ दे पाता | 15 | जब धान्य खेत में पक जाता जल को रहती परवाह नही, जल भरे बादलों को जग को रहतो फिर किंचित चाह नही, दस उसी तरह मुखचन्द्र तेरा जज्ञान तिमिर जब हर लेता,
तो सूर्य चन्द्रमा को पाने पर कोई ध्यान नही देता ॥ १६ ॥ मणियों पर पडने से प्रकाश को जाभा जितनी बढ़ जाती, वह छटा कांच के टुकड़ों पर पड़ने से कभी न जा पाती, बस उसी तरह हे देव जापका स्वपर प्रकाशक तत्व ज्ञान,
वह अन्य देवताओं से है कितना उज्ज्वल कितना महान ॥ २० ॥