________________
३. स्वदया-आत्मालोचन करना एवं सम्यग्दर्शन धारण करनेके लिये प्रयासशील रहना और अपने भीतर रागादिक विकार उत्पन्न न होने देना।
४. परदया-पटकायके जीवोंकी रक्षा करना ।
५ स्वरूपदया-सूक्ष्म विवेक द्वारा अपने स्वरूपका विचार करना, आत्मा के ऊपर कर्मोका जो आवरण आ गया है, उसके दूर करनेका उपाय विचारना।
६. अनुवन्वदया-मित्रो, शिष्यों या अन्य प्राणियोको हितको प्रेरणासे उपदेश देना तथा कुमार्गसे सुमार्गपर लाना।
७. व्यवहारदया-उपयोगपूर्वक और विधिपूर्वक अन्य प्राणियोकी सुख सुविधामोका पूरा-पूरा ध्यान रखना।
८. निश्चयदया-शुद्धोपयोगमे एकताभाव और अभेद उपयोगका होना। समस्त पर-पदार्थोसे उपयोगको हटाकर आत्म-परिणतिमें लीन होना निश्चय दया है। आस्तिक्य ___ जोवादि पदार्थोके अस्तित्वको स्वीकार करने रूप वुद्धिका होना आस्तिक्य भाव है। आत्मा स्वतन्त्र द्रव्य है, अनन्त है, अमूर्त है, ज्ञान-दर्शनयुक्त है, चेतन है और है ज्ञानादिपर्यायोका का। इस आत्म-स्वरूपके साथ अजीवादि छह तत्त्वोंके सम्बन्धको स्वीकार करते हुए आत्माकी विकृत परिणतिको दूर करने के हेतु सात तत्त्वोंके स्वरूपपर दृढ़ आस्था रखना आस्तिक्यभाव है । आत्मा अस्तित्वरूपमे विश्वास करनेसे हो सम्यक्त्वको उपलब्धि होती है।
ज्ञानप्रधान निमित्तादिककी अपेक्षासे सम्यक्त्वके दश भेद हैं:
१. आज्ञासम्यक्त्व'-जिनाज्ञाको प्रधानतासे सूक्ष्म, अन्तरित और दूरखता पदार्थों की उत्पन्न श्रद्धा।
२. मार्गसम्यक्त्व-निर्गन्य मार्गका अवलोकनसे उत्पन्न । ३. उपदेशसम्यक्त्व-आगमवेत्ता पुरुषोंके उपदेशके श्रवणसे उत्पन्न ।
आज्ञामार्गसमुद्भवमुपदेशात्सूत्रबीजसंक्षेपात् । विस्तारार्थाभ्यां भत्रमवपरमावादिगाढं च ॥ आज्ञासम्यक्त्वमुक्तं यदुत विरचितं वीतरागायव त्यक्तप्रन्यप्रपञ्चं शिवममृतपथं श्रद्दधन्मोहशान्तः । मार्गश्रद्धानमाहु पुरुषवरपुराणोपदेशोपजाता
या संज्ञानागमाधिप्रसृतिमिरुपदेशादिरादेशि दृष्टि ।। ५०० . तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा