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रहनेके कारण यह ममत्व चिरस्थायी नही हो सकता है । जव भी समाजके इन क्षमतापूर्ण व्यक्तियोको अवसर मिलेगा, स्माजमे आर्थिक असमता उत्पन्न हो ही जायगी । अतएव इस सम्भावनाको दूर करने के लिए आध्यात्मिक समाजवाद अपेक्षित है । भौतिक समाजवादसे न तो नैतिक मल्योकी प्रतिष्ठा ही सम्भव है और न वैयक्तिक स्वार्थका अभाव ही। वैयक्तिक स्वार्थोका नियन्त्रण आध्यात्मिक आलोकमे ही सम्भव है। रहन-सहनका पद्धतिविशेषमे किसीका स्थान ऊँचा और किसीका स्थान नीचा हो सकता है, पर आध्यात्मिक और नैतिक मूल्योके मानदण्डानुसार समाजके सभी सदस्य समान सिद्ध हो सकते है । परोपजीवी और आक्रामक व्यक्तियोकी समाजमे कभी कमी नही रहती है । कानून या विधिका मार्ग सीमाएं स्थापित नही कर सकता । जहाँ कानून और विधि हे, वहाँ उसके साथ उन्हें तोडने या न माननेकी प्रवृत्ति भी विद्यमान है। अतएव आध्यात्मिक दृष्टिसे नैतिक मूल्योकी प्रतिष्ठा कर समाजमे समत्व स्थापित करना सम्भव है। सभी प्राणियोकी आत्मामे अनन्त शक्ति है, पर वह कर्मावरणके कारण आच्छादित है । कर्मका आवरण इतना विचित्र और विकट है कि आत्माके शुद्ध स्वरूपको प्रकट होने नही देता । जिस प्रकार सर्यका दिव्य प्रकाश मेघाच्छन्न रहनेसे अप्रकट रहता है उसी प्रकार कर्मोके आवरणके कारण आत्माकी अनन्त शक्ति प्रकट नही होने पाती । जो व्यक्ति जितना पुरुषार्थ कर अहता और ममताको दूर करता हुआ कर्मावरणको हटा देता है उसकी आत्मा उतनी ही शुद्ध होती जाती है । ससारके जितने प्राणी है समीकी आत्मामे समान शक्ति है । अत विश्वकी समस्त आत्माएँ शक्तिकी अपेक्षा तुल्य हैं और शक्ति-अभिव्यक्तिकी अपेक्षा उनमे असमानता है। आत्मा मलत समस्त विकार-भावोसे रहित है। जो इस आत्मशक्तिको निष्ठा कर स्वरूपकी उपलब्धिके लिए प्रयास करता है उसको आत्मामे निजी गुण और शक्तियाँ प्रादुर्भूत हो जाती है । अतएव सक्षेपमे आत्माके स्वरूप, गुण और उनकी शक्तियोको अवगत कर नैतिक और आध्यात्मिक मूल्योको प्रतिष्ठा करनी चाहिए। सहानुभूति, आत्मप्रकाशन एव समताकी साधना ऐसे मल्योके आधार है, जिनके अन्वयनसे समाजवादको प्रतिष्ठा सम्भव है । ये तथ्य सहानुभूति और आत्मप्रकाशनके पूर्वमे बतलाये जा चुके हैं। समताके अनेक रूप सम्भव है । आचारकी समता अहिंसा है, विचारो की समता अनेकान्त है, समाजकी समता भोगनियन्त्रण है और भाषाकी समता उदार नीति है। समाजमे समता उत्पन्न करनेके लिए आचार और विचार इन दोनोकी समता अत्यावश्यक है । प्रेम, करुणा, मैत्री, अहिंसा, अस्तेय, अब्रह्म, सत्याचरण समताके रूपान्तर हैं। वैर, घृणा, द्वेष, निन्दा, राग, लोभ, क्रोध विषमतामे सम्मिलित हैं। ५९४ . तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा