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जैन पूजा पाठ समह
९ निर्जरा भावना ।
ज्यों सरवर जल रुका सूखता, तपन पडै भारी । सवर रोकै कर्म निर्जरा, है सोखनहारी ॥ उदय भोग सविपाक समय, पक जाय आम डाली । दूजी है अविपाक पकावे, पालविषै माली ॥ २० ॥ पहली सबके होय नहीं, कुछ सरै काम दूजी करें जु उद्यम करके, मिटै जगत संवर सहित करो तप प्रानी, मिलै मुकत रानी । इस दुलहिन की यही सहेली, जाने सब ज्ञानी ॥ २१ ॥ १० लोक भावना ।
तेरा ।
फेरा ॥
लोक अलोक आकाश माहि थिर, निराधार जानो । पुरुषरूप कर कटी भये षट्, द्रव्यनसो मानों ॥ इसका कोइ न करता हरता, अमिट अनादी है । जीवरु पुद्गल नाचै यामें, कर्म उपाधी है ॥ २२ ॥ पाप पुन्यसों जीव जगत में, नित सुख दुःख भरता । अपनी करनी आप भरै शिर, औरन के धरता ॥ मोहकर्म को नाश मेटकर, सब जग की आसा । निज पद मे थिर होय, लोक के, शीश करो बासा ॥ २३ ॥ ११ बोधिदुर्लभ भावना ।
दुर्लभ है निगोद से थावर, अरु नरकाया को सुरपति तरसे, सो
सगति प्रानी । दुर्लभ प्रानी ॥