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जैन पूजा पाठ समह
उत्तम संजय गहु मन मेरे, भव-भवके भाजें अब तेरे | सुरंग - नरक - पशुगति नाहीं, आलस-हरन करन ठाहीं पृथ्वी जल आग मारुत, रूख त्रस सपरसन रसना घ्राण नैना, कान मन व जिस विना नहिं जिनराज सीझे, इक घरी मत दिसरो करो नित आयु जम-मुख पीचमें ||६||
तू रुलो जग - कीच में ।
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सुख ठाहीं ॥
करुना धरो । वश करौ ॥
ॐ ह्रीं उत्तम तयन धर्माज्ञाय अवं निर्वपामीति स्वाहा ।
तर चाहें सुरराय, करम - शिखरको वज्र हैं । द्वादश विधि सुखदार क्यों न करें निज शक्तिसन ||७|| उत्तम तप सब साहिं बखाना, करम शैल को बज-समाना । बस्यो अनादि-निगोद-सझारा, भू-विकलत्रय - पशु-वन धारा ॥ धारा मनुष तन महादुर्लभ, सुकुल आव निरोगता । श्रीजैनवानी तत्वज्ञानी, भई विषय योगता ॥ अति महादुरलभ त्याग विषय कषाय जो तप आदरै । नर-भव अनूपम कनक घरपर, मणिमयी कलसा धरै ॥ ७ ॥
ॐ ही उत्तम तपो दगलक्षण धर्मानाय पूर्णार्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
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दान चार परकार, चार संघको दीजिये । धन बिजुली उनहार, नर-भत्र लाहो लीजिये ॥८॥ उत्तम त्याग को जग सारा, औषधि शास्त्र अभय आहारा । निहचै राग-द्वेष निरदारै ज्ञाता दोनों दान सम्भारै ॥