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चोरी, कुशील और परिग्रहणरूप क्रियाओसे निवृत्ति करना सम्यक्चारित्र है। चारित्र वस्तुत आत्मस्वरूप है। यह कषाय और वासनाओसे सर्वथा रहित है। मोह और क्षोभसे रहित जीवको जो निर्विकार परिणति होती है, जिससे जीवमे साम्यभावकी उत्पत्ति होती है, चारित्र है। प्रत्येक व्यक्ति अपने चारित्रके बलसे ही अपना सुधार या बिगाड करता है। अत मन, वचन और कायकी प्रवृत्तिको सर्वदा शुभ रूपमे रखना आवश्यक है। मनसे किसीका अनिष्ट नही सोचना, वचनसे किसीको बुरा नही कहना तथा शरीरसे कोई निन्द्य कार्य नही करना सदाचार है।
विषय-तृष्णा और अहकारकी भावना मनुष्यको सम्यक् आचरणसे रोकती है। विषयतृष्णाकी पूर्तिहेतु ही व्यक्ति प्रतिदिन अन्याय, अत्याचार, बलात्कार, चोरी, बेईमानी हिंसा आदि पापोको करता है । तृष्णाको शान्त करनेके लिये स्वय अशान्त हो जाता है तथा भयकर-से-भयकर पाप कर बैठता है। अत विषय-निवृत्तिरूप चारित्रको धारण करना परमावश्यक है।
मनुष्यके सामने दो मार्ग विद्यमान है -शुभ और अशुभ | जो राग-द्वेषमोहको घटाकर शुभोपयोगरूप परिणति करता है वह शुभमार्गका अनुगामी माना जाता है और जो रागद्वेष-कषायरूप परिणतिमे सलग्न रहता है वह अशुभमार्गका अनुसरणकर्ता है। अज्ञान एव तीन रागद्वेषके अधीन होकर व्यक्ति कर्त्तव्य-च्युत होता है । जीव अपनी सत्प्रवृत्तिके कारण शुभका अर्जन करता है और असत्प्रवृत्तिके कारण अशुभका । एक ही कर्म शुभ और अशुभ प्रवृत्तियोके कारण दो रूपोमे परिणत हो जाता है । शुभ और अशुभ एक ही पुद्गलद्रव्यके स्वभावभेद है | शुभ कर्म सातावेदनीय, शुभायु, शुभ नाम, शुभगोत्र एव अशुभ कर्म, पाति या असाता वेदनीय अशुभायु, अशुभ नाम, अशुभगोत्र है। यह जीव शुद्धनिश्चयसे वीतराग, सच्चिदानन्दस्वभाव है और व्यवहारनयसे रागादिरूप परिणमन करता हुआ शुभोपयोग और अशुभोपयोगरूप है। यो तो आत्माकी परिणति शुद्धोपयोग, शुभोपयोग और अशुभोपयोगरूप है। चैतन्य, अखण्ड आत्मस्वभावका अनुभव करना शुद्धोपयोग, कषायोकी मन्दतावश शुभरागरूप परिणति होना शुभोपयोग एव तीव्र कषायोदयरूप परिणामोका होना अशुभोपयोग है। शुद्धोपयोगका नाम १ असुहादो विणिवित्ती सुहे पवित्ती य जाण चारित्त । ____ वदसमिदिगुत्तिरूव ववहारणया दु जिणभणिय ॥ -द्रव्यसग्रह ४५ २ साम्यतुदर्शनचारित्रमोहनीयोदयापादितसमस्तमोहक्षोभाभावादत्यन्तनिर्विकारो जीवस्य परिणाम ।
-प्रवचनसार, गाथा ७ को अमृतचन्द्र-टीका ५०८ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा