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सप्तऋपि का अर्थ जल गन्ध अक्षत पुष्प चरुवर, दीप धूप सु लावना । फल ललित आठों द्रव्य मिश्रित अर्घ कीजे पावना ।। मन्वादिचारणद्धिधारक, मुनिन की पूजा करूँ। ताकरं पातक हरे सारे, सकळ आनन्द विस्तरूँ॥ * मामाभासदो अनिर्णमालिम्पादन ॥ १॥
यतों का अप उदक चन्दन तन्दुल पुष्पकैश्चरुसुदीपसुधूपफलार्घकः । धवल मंगल गानरवाकुले जिनगृहे जिनवतमहंयजे ॥ गरिमाको भनाल निपानीति म्याहा ।
ममुच्चय अर्ध प्रभुजी अप्ट द्रव्यजु ल्यायो भावसों। प्रभु यांका हर्प-हर्ष गुण गाऊँ महाराज ॥ यो मन हरग्यो प्रभुथाकी पूजाजी रेकारणे। प्रभूजी यांकी तो पूजा भविजन नित करें। जाका अशुभ कर्म कट जाय महाराज यो मन०॥ प्रभुजी थांकी तो पूजा भवि जीव जो करें। सो तो मुरग मुकतिपट पात्र महाराज ॥ यो मन० ॥