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जन पूजा पाठ सह
ते नीरोग शरीर लहि दिनमे होय अनंग ।। पांच कटते जकर बांध माफल अति भारी । गाढी बेड़ी पैरमाहि जिन जाघ निदारी ॥ भूख प्यास चिंता शरीर दुख जे विललाने । सरन नाहि जिन कोय सृपके पदीखाने ।। तुम सुमरत स्वयमेव ही पंधन सब खुल जाहि । छनमें ते संपति लहँ चिंता भय विनलाहिं ।। महासत्त गजराज गौर नगराज ददानह । फणपति रण परल्ड दीर-निधि रोग महावल ।। पंधन ये गय आठ डरपान मानों नाश । तुम सुपरत छिनमाहिं अभय थानक परकाश ॥ इस अपार संसारमे शरन नाहि प्रशु लोय । सातै तुम पद-सक्तको भक्ति लहाई होय ।। यह गुनमाल विशाल नाथ तुम गुनन सँवारी । शिषिध-वर्णमय-पुडुप गूंथ में सक्ति विक्षारी ॥ जे नर पहिरे कंठ भावना मनमे आवै । 'भानतुंग' ते निजाधीन शिव-लछमी पावै ॥ भाषा भक्तामर कियो 'हेमराज' हित हेत । जे नर पढे सुलावसों ते पाच शिव-खेत ।।
वर्णी-वाणो की डायरी से - मन को शुद्धि बिना काय शुद्धि का कोई महत्व नहीं ।