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न पूजा पाठ उप्रह
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स्तुति [कविवर दौलतरामजी ]
दोहा
सकल ज्ञेय जायक तदपि, निजानन्द-रस-लीन । सो जिनेन्द्र जयवंत नित, अरि-रज-रहस-विहीन ॥१॥..
जय वीतराग विज्ञान-पूर, जय मोह-तिमिरको हरन सूर । जय ज्ञान अनंतानंत धार, दृग-सुख-वीरज-मण्डित अपार ।। जय परम शांत मुद्रा समेत, भवि-जनको निज अनुभूति हेत। भवि-भागनवश जोगेवशाय, तुम धुनि है सुनि विभ्रम नशाया। तुम गुण चिंतत निज-पर-विवेक, प्रगटै विघटै आपद अनेक । तुम जग-भूपण दपण-वियुक्त, सब महिमायुक्त विकल्प-मुक्त। अविरुद्ध शुद्ध चेतनस्वरूप, परमात्म परम पावन अनूप । शुभ अशुभ विभाव अभाव कीन,स्वाभाविक परिणतिमय अछीन अष्टादश दोप विमुक्त धीर, स्व चतुष्टयमय राजत गभीर । मुनि गणधरादि सेवत महंत, नव केवल-लब्धि-रमा धरंत ।। तुम शासन सेय अमेय जीव, शिव गये जाहिं जैह सदीव । भव-सागरमें दुस छार वारि, तारनको अवर न आप टारि ॥ यह लखि निज दुख-गद-हरण-काज,तुम ही निमित्त कारण इलाज जाने तात में शरण आय, उचरों निज दुख जो चिर लहाय ।। में भ्रम्यो अपनपो विसरि आप, अपनाये विधि-फल-पुण्य-पाप निजको परको करता पिछान, परमें अनिष्टता इष्ट ठान ।।