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महाकवि स्वयम्भूदेव विरचित पउमचरिउ (पद्मचरित)
भाग 5
मूल सम्पादन डॉ. य.सी. भायाणी
अनुवाट डॉ, देवेन्द्रकुमार जेन
भारतीय ज्ञानपीठ
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प्रधान सम्पादकीय (प्रथम संस्करण : 19700
स्वयम्भूकृत अपभ्रंश पउमचरिउ श्री देवेन्द्रकुमार जैन के हिन्दी अनुवाद के साथ ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला में प्रकाशन के लिए लगभग पन्द्रह वर्ष पूर्व लिया गया था।
प्रथम भाग विद्याधर-काण्ड (20 सन्धि) 1957 में प्रकाशित हुआ; द्वितीय भाग अयोध्याकाण्ड 21 से 42 सन्धि तक तथा तृतीय भाग सुन्दरकाण्ड (43 से 56 सन्धि) 1958 में। और अब 1969-70 में चतर्थ भाग (57 से 74 सन्धि) तथा पंचम भाग (75 से 90 सन्धि) अर्थात् युद्धकाण्ड (75 से 77) तथा उत्तरकाण्ड (78 से 90) उसी प्रकार प्रकाशित हो रहे हैं।
यह महाकाव्य स्वयम्भू द्वारा आरम्भ हुआ तथा उनके पुत्र त्रिभुवन द्वारा पूर्ण हुआ। इसके समालोचनात्मक संस्करण का तीन पाण्इलिपियों की सहायता से डॉ. एच.सी. भायाणी ने विभिन्न पाठभेदों तथा टिप्पणों के साथ सिंधी जैन सीरीज, संख्या 34-36, बम्बई 1452-62 में विद्वत्तापूर्वक सम्पादन किया है। इस संस्करण में प्रथम भाग में प्रस्तावना दी गयी है, जिसके अन्तर्गत स्वयम्भ का समय तथा व्यक्तिगत परिचय, उनकी कृतियाँ
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पचरित
I
तथा उपलब्धियों एवं पञ्मचरित्र का एक सर्वागीण अध्ययन- इसके स्रोत, व्याकरण सम्बन्धी विशेषताएँ, छन्द तथा विषयसूची प्रस्तुत की गयी है। सम्पूर्ण शब्दावली भी दी गयी है। विषयसूची तथा छन्दों की व्याख्या प्रत्येक भाग के साथ ही है। तीसरे भाग की प्रस्तावना में डॉ. मायागी ने छन्दों का अध्ययन स्वयम्भु की दूसरी कृति रिट्णेमिचरिउ से किया है। उसमें उन्होंने स्वयम्भू के समय तथा कृतियों विषयक अपनी पूर्व सामग्री पर और -अधिक प्रकाश डाला है। जो भी स्वयम्भू और उनको कृतियों का अध्ययन करना चाहे, उनसे अनुरोध है कि वे डॉ. भायागी की विद्वत्तापूर्ण प्रस्तावना अवश्य पढ़ें। कुछ अन्य अतिरिक्त संदर्भों के लिए देखें- डॉ. एच. एल. जैन स्वयम्भू एण्ड हि पाए नागपुर टी जरनल म- नागपुर 1935 एच्.डी. वेलणकर- स्वयम्भूछन्दाज बाई स्वयम्भू, जरनल ऑव द बाम्बे ब्रांच रॉयल एशियाटिक सोसाइटी, एन.एस. वॉल्यूम - 1, पेज 88 एफ-एफ, बम्बई 1935 एन. प्रेमी महाकवि स्वयम्भू और त्रिभुवन स्वयम्भू : जैन साहित्य और इतिहास, पृष्ठ 370, बम्बई 1942, एच. कोछड़ अपभ्रंश साहित्य पृष्ठ 51, दिल्ली 1956 1
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स्वयम्भू मायदेव या मारुतदेव तथा पद्मिनी के पुत्र थे। इस परिवार में अध्ययन की परम्परा थी। उनकी दो पत्नियाँ थीं अमृताम्बा और आदित्याम्बा, जिन्होंने उनकी साहित्यिक प्रवृत्तियों में उनका सहयोग किया, जिनके लिए उनके मन में पूर्ण अभ्यर्धना है । सम्भवतया उनकी तीसरी पत्नी भी थी। उनके कृतित्व से हमें ज्ञात होता है कि वे एक विलक्षण प्रतिभाशाली व्यक्ति थे। उन्होंने अपनी शारीरिक स्थिति का एक चित्रण दिया है। उनका शरीर दुबला, नाक चिपटी, दाँत बिखरे हुए तथा ओट लम्बे थे। उनके कई पुत्र थे, किन्तु उनमें से केवल त्रिभुवन ने ही पैत्रिक काव्यप्रतिभा को पाया तथा अपने परिवार की परम्परागत उच्च बौद्धिकता को आगे बढ़ाया। उन्होंने अपने कतिपय संरक्षकों-धनंजय तथा धवलैय्या का उल्लेख किया है। उनके द्वारा निर्दिष्ट व्यक्तिगत नाम से प्रतीत होता है कि वे तेलुगु कन्नड़ क्षेत्र में रहे थे। सम्भवतया में यापनीय
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प्रधान सम्पादकीय
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संघ के थे, जैसा कि पुष्पदन्त के महापुराण की टिप्पणी में उल्लेख मिलता है। उन्होंने ज्ञान की विविध शाखाओं का अध्ययन किया था और उनका दृष्टिकोण विशाल था। वे 677 और 960 ईसवी, प्रत्युत अधिक सम्भव है कि 840 और 920 ईसवी के मध्य हार। वह तिथि इससे अनमित होती है कि उन्होंने रविषेण तथा जिनसेन का उल्लेख किया है। तथा स्वयं उनका उल्लेख पुष्पदन्त ने किया है।
स्वयम्भू की कृतियाँ हैं-पउमचरिउ, रिट्ठणेमिथरिउ, स्वयम्भूछन्ट तथा एक स्तोत्र । पटमचरित की 84 सन्धियाँ स्वयम्भू ने लिखी तथा शेष उनके पुत्र त्रिभुवन ने पूर्ण की, जिसने अपने पिता का सम्माननीय शब्दों में विवश्य दिया है। संयम्भू के दोनों भहाकाव्यां की बहुलेखकता सूक्ष्म अध्ययन का एक संचिकर विषय है।
पउमचरित के स्रोतों के सन्दर्भ में रविपेण के संस्कृत पद्मपुराण तथा चतुर्मुख की कतिपय अपभ्रंश कृतियों का, जो अभी तक प्रकाश में नहीं आयीं, उपल्लेख अवश्य किया जाना चाहिए।
स्वयम्भू की कृतियों अपभ्रंश साहित्य की श्रेष्ठतम कुतियां हैं : समकालीन पुष्पदन्त जैसे उच्चकोटि के ग्रन्थकार ने उनका आदर के साथ उल्लेख किया है। हम डॉ. एच.सी. भायाणी के अत्यधिक ऋणी हैं कि उन्होंने सम्पूर्ण मूल पामचरित का समालोचनात्मक संस्करण तथा लेखक का विस्तृत अध्ययन हमें दिया । और यह भी उनकी तथा उनके प्रकाशक को कृपा है कि उन्होंने हमें अपने मूल को इस संस्करण में देने की अनमति दी।
डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन ने इसके हिन्दी अनुवाद करने में कठिन परिश्रय किया है, जो अनुवाद स्वयम्भू-त्रिभुवन के अध्ययन की ओर और अधिक पाठकों का ध्यान आकर्षित करेगा। हिन्दी के विद्वान्, हिन्दी तथा अन्य आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं तथा उनकी विविध काव्यविधाओं को समझने के लिए अपभ्रश के अध्ययन का महत्त्व अनुभव करने में नहीं भूलंगे। हम डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन के आभारी हैं।
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पउमचरिउ
ग्रन्थमाला सम्पादक, भारतीय ज्ञानपीट के संस्थापक श्रीमान् साहू. शान्तिप्रसाद जैन तथा उनकी विदुषी पत्नी श्रीमती रमा जैन, अध्यक्ष, के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हैं जिनके द्वारा इन प्रकाशनों, जो भारतीय साहित्य की अनेक उपेक्षित शाखाओं तथा सांस्कृतिक विरासत को प्रकाशन में लाते हैं, के लिए उदारतापूर्वक संरक्षकता दी गयी है।
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हीरालाल जैन आ.ने. उपाध्ये
सम्पादक मूर्तिदेयी ग्रन्थमाला
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अनुक्रम
पषहसरवी सन्धि
२-३२ युद्धका वर्णन, युद्धके नामा पादोंकी ध्वनि, युद्ध जन्य-विनाश, हनुमान द्वारा उत्पात, सुग्रीवका अपना रथ आगे हाँकना । विभीषणके बाप रामने युद्धको वागडोर हाथमें ली । राम और रावणका आमना-सामना। सीताके सन्दर्भमें घोगोंकी मानसिक स्थितिका चित्रण, भयंकर अस्त्रोंके प्रयोगका वर्णन, तीरोंसे युद्धभूमिका भर जाना, सात दिवसकी घमासान लड़ाई के बाद लक्ष्मणका युद्ध में प्रवेश, रावणका प्रकोप, प्रबल तोरों से संघर्ष, दोनों में सुमुल मुद्ध । एकके बाद एक रावणके सिरोंफा काटा जाना, रावण द्वारा अन्तमें पनका प्रयोग, पक्रका कुमार
लक्ष्मणके हाथमें आ जाना, चक्रसे रावणका आहत होना । छिहत्तरषी सन्धि
देवताओं द्वारा कलकल ध्वनि, निशाघरों में गहरी निराशात्मक प्रतिक्रिया, देवताओं द्वारा राम सेनाका अभिमन्दन, राक्षस वंशका पतन, मन्दोदरीका विलाप, उसके द्वारा स्वयं युद्ध-स्थलमें अपने पतिकी पहचान, युद्धजन्य विनाशका वर्णन, रावणकी मृत्युका करुण विषण, अन्तःपुरका मूठित होना, मन्दोदरीफा करुण क्रन्दन, अन्तःपुरकी दीनहीन दशाका विवरण, इन्द्रजीत
और कुम्भकर्णको रावणकी मृत्युका पता लगना, कुम्मकर्णको मूर्छा माना। इन्द्रजीतका म्याकुल होना । राम पक्षका भाग्योदय ।
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पउमपरित
सतहत्तरी सन्धि
५०-३२ रावणको मृत्युपर विभीषणका वियोग, आहत और मृत शरीरका वर्णन, राम द्वारा विभीषणको सम्बोधन, रावणकी आलोचना, उसके महान् व्यक्तित्वको प्रशंसा, विभीषणके उद्गार, रावणके लिए विभीषणका पश्चात्ताप, रावणकी शवयात्रा, लकड़ियों का वर्णन, रिताका वर्णन, रावणके परिजनोंका शोक, अन्तःपुरका मूर्छित होना, उस दु:षका वर्णन, मागकी लपटोंका वर्णन, प्रत्येक अंगकी वाह-क्रियाका चित्रण, रावणके अंतपर जनताको प्रतिक्रिया, राम द्वारा रावणके परिजनोंको समझामका प्रस्ताव, मन्त्रिवृद्धों द्वारा विरोष, शम्भकर्णसे आशंफा छका विभीषण के प्रति सन्देह, राम द्वारा उन्हें समझाया जाना, लोकाचारसे रावणको जलदान और तर्पण क्रिया, मुवतियों द्वारा सरोवरमें स्नान, शुद्धिक्रिया, मन्दोदरी द्वारा संन्यास ग्रहण करनेका संकल्प । अठहत्तरवीं सन्धि
८०-१०३ राबणकी मृत्युकी प्रतिक्रिया, प्रभातका होना, अप्रमेय बल नामक महामुनिका नगरमें आगमन, दोनों ओरको लोगोंका महामुनिके दर्शनके निमित्त जाना । मुनि द्वारा धर्मका उपदेश, कालचक्रका वर्णन, नागसे उसके रूपकका चित्रण, मेघनाय और इन्द्रजीत द्वारा दीक्षा ग्रहण, रामके बिना सीतादेवीका जामेसे इन्कार, नारीके प्रति लोकमानसकी धारणाका वर्णन, राम और लक्ष्मणका सीतादेवीके पास जाना, सपत्नीक लक्ष्मणका सीता देवीको प्रणाम, सीता सहित राम-लक्ष्मणके प्रबंशसे समचा नगर प्रसन्नतासे खिल उठा। नागरिकोंकी प्रतिक्रियाएँ, राम द्वारा रायणके भवन में प्रवेश 1 रावणके भवनका चित्रण, शान्तिनायके जिनालयमे जाकर राम द्वारा जिनेन्द्र भगवानको स्तुति,
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अनुक्रम
(xv)
विदग्धा द्वारा रामका स्वागत, विभीषणका राज्याभिषेक, माता कोशल्याका पुत्र-वियोगमै दुख, नारव मुनि द्वारा उन्हें सान्त्वना और यह सूचना कि वे लंकामें विभीषणके आतिश्यका उपभोग कर रहे है, महामुनि भारषका प्रस्थान, लंकामं जाकर रामको सूचना देना, रामका पुष्पक विमान द्वारा अयोग्याके लिए
प्रस्थान, यात्रा मार्ग के प्रमुख स्थलोंका वर्णन । उन्नासवीं सन्धि
१०५-११९ रामके आगममपर भरत द्वारा स्वागत के लिए प्रस्थान, सवारियों का मार्गमें रेलपेल, रामका अयोध्यामें प्रवेश, अनता द्वारा स्थागत, रामका माताओं से मिलन, भरतकी विरक्ति, जलक्रीड़ा
द्वारा भरतको प्रलोभन, भरत की दृढ़ता, रामका राज्याभिषेक । अस्सीपी पनि
२२०-१३४ विभिन्न लोगों के लिए राज्यका वितरण, शत्रुपनका मथुरापर साक्रमण, मथुराके राजा मयुका पनाम, समाधिमरणपूर्वक राजा
मभुको महागजपर मृत्यु । इक्यासीवीं सन्धि
१३४-१५५ रामकी सीताके प्रति बिरक्ति, सौताका अन्तर्वनी होसा, सीताको दोहद, लोकापवाद, रामकी चिन्ता, नारीके सम्बन्धमें रामके विचार, रामका सीता निर्वासनका प्रस्ताव, लक्ष्मण द्वारा विरोध, सीताका बियावान अटवी में निर्वासन, इस पर नारीजनको प्रतिक्रिया, सीताका वनमें आत्मचिन्तन, मनुष्यजाति पर आरोप, सोताको असहाय अवस्था, राशा वचषका सोता देवी को आश्रय, लवण अंकुशका जन्म ।
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पडमचरि
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व्यासीवी सन्धि
१५६-१७८
1
लवण और अंकुदाका यौवनमें प्रवेश, राजा पृथुसे उनकी कन्याओं की मँगनी, उसके द्वारा विशेष लक्षण और अंकुशको उसपर चढ़ाई, सीतादेवीका आशीर्वाद, राजा चुकी हार, कन्याओंसे लवण और अंकुशा विवाह, नारद मुनि द्वारा लवण अंकुशको राम और लक्ष्मणके सम्बन्ध बताना, दोनोंका सुनकर भड़क उठना, सीताका दोनों पुत्रोंको समझाना परन्तु दोनों पुत्रोंका विरोध, रामके पास उनका दूत भेजना, चढ़ाई, लक्ष्मणका दूतकी बात सुनकर भड़क उठना, दोनों की सेनाओं में भिड़न्त युद्धका वर्णन, लक्ष्मणका चक्रसे प्रहार करना, चक्रका व्यर्थ जाना, परिचय, मिलन, युद्धकी आनन्द में परिसमासि ।
तेरासीर्वी सन्धि
१७९-२०३
लवण और अंकुशका अयोध्या में प्रवेश, उन्हें देखकर स्त्रियोंकी प्रतिक्रिया, जनता द्वारा अभिनन्दन, राम सीता के विषय में अपने विचार, सीता के लिए रामका जाना, सीताका आना, अग्नि परीक्षाका प्रस्ताव स्वयं सीता देवी द्वारा रखा जाना, अग्निज्वालाका वर्णन, उसकी विश्वव्यापी प्रतिक्रिया, कमलपर सिंहासनके बीच सीतादेवीका प्रकट होना, सबके द्वारा सीता देवीको साधुवाद, सीता द्वारा दीक्षा, रामका मूर्च्छित होना, सबका उद्यानमें महामुनिके दर्शनके लिए जाना, राम द्वारा धर्मस्वरूप पूछा जाना, मुनि द्वारा धर्मका उपदेश !
चौरासीवी सन्धि
२०४-२३४
विभीषण द्वारा पूछे जानेपर मुनिवर द्वारा रामके पूर्व जन्मोंका वर्णन, लक्ष्मणके पूर्व जन्मका पर्णन, नयदत्त के जन्मसे लेकर इस
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अनुक्रम
(xvii)
भब तकके जन्मोंका वर्णन- इस प्रसंगमें रात्रि-भोजन त्यागका महत्त्व, णमोकार मन्त्रका प्रभाव, विभीषण के अनुरोधपर रामा बलिके जन्मान्तरोंका काषन ।
पचासीवी सन्धि
२३४-२५१ विभीषण पूछने पर सकलभूषण मुनि द्वारा लवण और अंकुशके पूर्व भवोंका वर्णन. कृतान्तपत्रकी विरक्ति, उसकी दोक्षा ग्रहण कर लेना, राघवका घरके लिए प्रस्थान । सीताक अभावमैं उनका दुःखी होना, रामका अयोध्यामे प्रवेश, नागरिकों की प्रतिक्रिया, लक्ष्मण द्वारा सीता देवोकी प्रशंसा ।
छयासीवी सन्धि
२५२-२७७ सीताको इन्द्रबको उपलब्धि, राजा श्रेणिक द्वारा पूछनेपर गौतम गणधर राम लक्ष्मण, उनकी माताएं सीतादेवी, लवण अंकुशके भावी जन्मोंका वर्णन करते है। लवण और अंकुशका कननरथ स्त्रयंवरम जाला, उनके गलोंमें वरमाला पड़ना स्वयंवरका वर्णन, लक्ष्मण पुत्रोंसे मुठभेड़की नौबत, लोगों द्वारा बीच बचाव, लवण और अंकुशका जनता द्वारा स्वागत, लक्ष्मण पुत्रोंकी विरक्ति और दीक्षा, लक्ष्मणका अनुताप, भामण्डलका वैभव और दिनचर्या, बिजली गिरने से उसके प्रासादके अग्रभागका गिर पड़ना, भामण्डलकी विरक्ति, जिनभगवानको स्तुसि, निशाभर उसका चिन्तन, प्रभातमें दीक्षा, हनुमान द्वारा दोक्षा। सत्तासीवी सन्धि
२७८-२९९ राम द्वारा हनुमान की आलोचना, इन्द्रका रामकी विरक्ति के लिए योजना बनाना, दो देवोंका आगमन, 'राम मर गया' उनका यह
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(xviii)
पदमचरित
कहना, लक्ष्मणकी मृत्यु, अन्तःपुरमें विलाप, रामका भाईकी मृत्यु होनेपर विलाप, मूर्षित होना, दर-दर भटकमा, विभीषण
का उन्हें समझाना ! समका मोहमें पड़े रहना । अठासीवीं सन्धि
३००-३१८ रामका लक्ष्मणके दाह-संस्कारसे मना करमा, रावणके सम्बन्धियों द्वारा रामपर घड़ाई, राम द्वारा प्रतिकार, इन्दजोत और खरके पुत्रों द्वारा जिनदीमा ग्रहण करना, देवों द्वारा उदाहरण देकर रामको समझाना, रामको प्रात्मबोध होना, देवताओं द्वारा भात्मालय, शत्रुघ्नको राज्य सौंप कर राम द्वारा दीक्षा ग्रहण
करमा । नवासीधी सन्धि
३१८-३३५ स्वर्गमें सौतेन्द्र द्वारा अवधिज्ञानसे रामको विरनिकी खबर पा लेना, उसका आगमन, रामके दर्शन, कोटिशिलापर रामकी इस स्वयंप्रभ देव द्वारा परिक्रमा, उसके द्वारा रामको परीक्षा, रामका अडिग रहना, रामके ज्ञानको प्राप्ति । स्घयप्रभदेवका नरक में प्रवेश, लक्ष्मण और रावणके जीवोंको सम्बोधन, क्रोधकी
निन्दा, दोनों द्वारा कृतज्ञताका नापन । नन्धेवी सन्धि
३३६-३५३ दशरथके भवोंका वर्णन, लवण अंकुशको भविष्य कथन, भामण्डलके पूर्वभवका कयम, रावण और लक्ष्मण और सीतेन्द्र देवके भविष्य कथन, लवण और अंकुशको विरक्ति, दीक्षा और भुक्ति, कुम्भकर्णका दीक्षा ग्रहण करना और मोक्ष प्राप्त करना। प्रशस्ति त्रिभुवन स्वयंभू द्वारा ।
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कइराय-सयम्भूएव-किउ
पउमचरिउ
[७५. पचहत्तरिमो सैधि ] जम-धणय-पुरन्दर-डामरहों स-उस्म-जग-जगडावणहाँ। जिह उत्तर-गउ दाहिण-गयहाँ मिबिउ रामु रणे रावणही ।।
__ [१] ॥ दुवई || तुझ-तुरङ्ग-सिक्ख-पक्लुक्खय-रय-क्रय-जलप्ण-जालए।
दुरम-दन्ति-दन्त-णि सुटिय-सिहि-सिह-विजुमाछए ॥१॥ दप्पुब्भर-भर-यव-संकछिल्लं । हय-फेण-सरङ्गिणि-सरिरुले ॥२॥ गय-मय-गह-काम-मम्ग-मग्नें। करि-कण-पवण-पेल्लिय धमर्गे ॥६॥ चामीयर-चामर-दिग्ण-सोहैं। छत्तोह-पिहिय-दिणयर-करो ॥४॥ धय दण्ड-सपन-मण्डिय-दियन्ा। गर-रुण्ड-खण्ड खाइय-क्रियन्त ॥५॥ हय-हिसिष-भेसिय-रधि-तुर। रह-वा-चार-घरिप-भु ॥॥ रहसुद्ध-खन्ध चिय-कान्धे। काल-माल-किम-सेउ-वन्धे ॥॥ सर-णियर-दिपण-भुवणन्तरालें। पहु-पडह-स-मालरि-बमाले ॥४॥ सुर-बहु-विमाणे छड्यन्तरिक्खें। दुब्बिसमें दु-संघरै दुषिणरिक ॥१॥
तहि तेहएँ दाहणे भाइयण गजमत-मत्त-माया जिह
घसा गन्धबहुधुअ-धघल-धय । भिडिय परोप्परु हणुवसाय ॥१०
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पदाचरित
पचहत्तरवों सन्धि यम, धनद और इन्द्र के लिए भयंकर, नागलोक सहित संसारमें झगड़ा मचानेवाले रावणसे रामको उसी प्रकार भिडन्त हो गयी जिस प्रकार उत्तरायणसे दक्षिणायन की।
[१] वह युद्ध अत्यन्त भयानक था। ऊँचे-ऊंचे अश्वोंके तीखे खुरोंके आघातसे उठी हुई धूलसे ज्वालामाला छूट रही थी। जो युद्ध दुर्दमनीय हाथियों के दाँतोंके और अग्निशिखाके समान विद्युत्प्रभासे भास्वर था। जो युद्ध दर्पसे उद्धत योद्धाओंसे संकुल एवं अश्वोंके फेनकी नदीसे अत्यन्त दुर्गम था । हाथियोंके मदजलको कीचड़से रास्ते लथपथ हो रहे थे। हाथियोंके कानरूपी चामरोंसे ध्वजोंके अग्रभाग उड़ रहे थे। स्वर्ण चामरोंको अनूठो शोभा हो रही थी। छत्रसमुहने सूर्यको किरणोंको ढक दिया था | ध्वजदण्डोंके समूहने दिशाओंको ढक दिया था। कृतान्त मनुष्योंके घड़ोंके टुकड़ोंको वा रहा था। हीसते हुए अश्योंसे सूर्य के अश्व कर रहे थे। रथके पहियोंसे सर्प चूर-चूर हो रहे थे। वेगसे भरे ऊंचे-ऊंचे कन्धोंपर धड़ नाच रहे थे। हवियोंकी मालाका सेतुबन्ध तैयार किया जा रहा था । तीरोंके जालसे धरतीका अन्तराल पट चुका था। पट पटह, झल्लरि और शंखादि वाद्योंका कोलाहल हो रहा था। सुरवधुओंके विमान आकाशमें छाये हुए थे। इस प्रकार वह युद्ध विषम दुर्गम और दुदर्शनीय हो उठा। उस भयंकर युद्ध में पवनसे धवल ध्वज फहरा रहे थे । गरजते हुए मैगल हाथियों के समान, माय और हनुमान आपसमें भिड़ गये ।। १-१८ ।।
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पउमचरित
[२] ॥ दुबई ॥ दुद्दम-देह दो वि दूरुजिमय-वणुहर पवर-विकमा ।
जणिय जणाणुराय जस-लालस स-रहस सुर-परकमा ॥१॥ पहरन्ति परोप्परु पहरणेहि । दणु-इन्द-बिन्द-दप्पहरणेहिं ॥२॥ खलबल-गह-यल-उछायणेहि। तटि-सामस-तषणुप्पायणेहिं । गिरि गारुड-पाहण-पायवेहि। घारणा-भग्गेयहि वायवेहि ।।१।। जो अहिमह-दहिमुह-माउरोग। उसिमय-धुय-धयमालाडळेण ||| कवणगिरि-सारस-महारण । सुर-वाय-किणतिय विगहेण ।।६।। पजालियकोव-शुभासगे। आर्यादय-ससर-सरासणेण ।७।। बम्दइ-कुमार-मायामहेण । हणुवन्त-महन्दउ लिण्णु तेण ॥४॥ तो रावण-उबवण-महणेण । चक-मणही पवहीं गान्दणेण॥।॥
पत्ता
स-तुरा स-सारहि स-घउ र हणे वि स हि सब-खण्डु का। गह-लसण-करणे हिं उप्पऍवि अण्णाहि सन्दणे चहिउ मह ।।१०।।
[३] ॥दुवाई।। रण-भर-धवल-धूलि धूसरिय-धयवदाढोम-डम्बरो।
पक्कल- मि-गिग्योस-पिरन्ता-वहिरियम्वरी ॥१॥ सो वि परण पुत्तेय सन्दगी । जणिय-बन्दि-मन्दाक्षिणम्दणो ॥२॥ महिहरो व तद्धि-बडण-ताद्धि भो । दारुणयन्देश पारिभो ।।३।। तो तहिं गिएऊण णिय-भड ! भग्ग-रहबरं छिपण यवा ॥४॥ दह मुहेण माया-विणिमिओ। करि विमुक-सिकार-तिम्मिश्रो ।।५।।
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पंचहत्तरिमो संधि [२] दोनों ही दुर्दम शरीरवाले थे। दोनोंने धनुष दूर छोड़ हिप के . दोनों पानी थे। भलों से एक दूसरे पर प्रहार कर रहे थे। उन अस्त्रोंसे जो दानव और इन्द्रका घमण्ड चूर-चूर करनेवाले थे । जो जल, थल और नभको ढक सकते थे, बिजली अन्धकार और सूर्यको अस्तित्व विहीन कर सकते थे। उन्होंने पहाड़, गरुड़, पत्थर,पादप, वारुण, आग्नेय और वायव्य अत्रोंसे एक दूसरेपर आक्रमण किया । तब अभिमुख और दधिमुखके मामा मय दोनोंकी कॉपती हुई ध्वजमालासे व्याकुल हो रहा था। उसका रथ स्वर्णपर्वतकी तरह था, देवताओंके आघातोंके धाव उसके शरीरपर अंकित थे। उसकी कोपज्वाला वेगसे जल रही थी, उसने वीरों के साथ अपना धनुष उठा लिया था। इन्द्रकुमारके नाना मयने हनुमान के ध्वजके टुकड़े-टुकड़े कर दिये। यह देखकर रावण के नन्दनवनको उजाड़ देनेवाले उसने तीरोंसे आघात पहुँचा कर, अश्व, सारथि और ध्वजसहित उसके रथके सौ टुकड़े कर दिये। सब मयने आकाशगामिनी विद्यासे दूसरा रथ उत्पन्न कर लिया और उसपर चढ़ गया ।। १-१०||
(३] हनुमानने वन्दीजनोंसे अभिनन्दनीय उस रथको तोड़ दिया। बुद्धभारकी धवलधूलसे धूसरित वह रथ, ध्वजपटके आटोपसे विशाल दिखाई दे रहा था । मजबूत चाकोंके आरोंकी आवाजसे समूचा आसमान जैसे बधिर हो उठा। पवनसुतने उस रथको इस प्रकार तोड़ दिया जैसे बिजली गिरनेसे पहाड़ टूट जाता है, या जिस प्रकार अन्धड़ पेड़को उखाड़ देता है। रावणने जब देखा कि उसके सैनिक आहत हो चुके हैं, रथवर नष्ट हो चुके हैं, ध्वजपट फट चुके हैं, तो उसने अपना मायाले बना विशाल रथ भेजा जो हाथियों के सीत्कार (जल मिश्रित
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पउमचरित
संचरन्त-चामियर-चामरो। साहिलास-परिओसियामरों ॥६॥ मच्छर-उपवि-च्छोह-फललिभी। टगणन्त घण्टालि-मुहलिओ 1१७।। कणय किङ्किणी-माल-भूसिओ। रहनरो तुरन्सेग घेसिओ ॥८॥ तो सहिं बलम्पो मिसायरी। तोण-वाण-घणु-गुण-कियायरो ॥५॥
घन्ता
मन्दोयरि-चप्पं कुछऍण हणुवन्ते मिहलाहभऍग
विक्रम-खुरुरि खण्डियउ । रख दुपुत्तु इच छण्डियउ ॥१०॥
।। दुवई ।। जं णिरियर-खुरुप्प-पहराहिहउ हणुवन्त-सन्दपों।
सं कोवगि-जाक-मालाप(१)पलीविउ जणय-गन्दणी ॥१॥ मामा मपडल-धम्मपाल । असोमि-दस-सब-सामिसालु।।२।। सोलह-आहरण-विहूसिया। माणुस-वेस थिउ अणा ।।३।। सिय-चामरु धरिय-सियायवत्तु । बाहें वि रम् कोवाइधु पसु ॥४॥ 'रयणीयर-लन्छण थाहिं थाहिं। बलु वल्ल उरि रहबरु वाहि पाहि ।।५ पइँ मुएवि महीयले मणुसु कषशु। दहसीस-ससुरु सुर-मन्ति-दमणु' ॥६ तो एवं मणेवि भामण्डलेण। रिउ छाइव सहुँ रवि-मण्डलेय ॥७॥ सर-जालें जकहर-सणिण। विण्णाग-माण-णाणाविहेण ॥ll . तो मऍण वि रोस-वसंगपण । वइदेहि-समाहव सर-सपण ।।९।।
सण्णाहु छत्तु धयवर-तुरय भामण्डलु भ-विणयमन्तु जिह
धत्ता सारहि रहु रणे सजरिख । पर एलउ उचरिउ ॥१०॥
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पंचहत्तरिमो संघि फूत्कार ) से गीला था । जिसपर सोनेके घामर हिल-डुल रहे थे, देवता जिसकी स्वेच्छासे सेवा कर रहे थे, जो अप्सराओंकी सौन्दर्यशोभासे सुन्दर था, टन-टन करती हुई घण्टियोसे मुखरित हो रहा था, जो स्वर्णिम किंकणियोंके जालसे अलंकृत था । तरकस, माण, धनुष और डोरोंका संग्रह कर रायण उस रथमें बैठ गया। इसी बीच मन्दोदरीके पिताने क्रुद्ध होकर, अपने तीखे खुरपेसे हनुमान्के रथके टुकड़े-टुकड़े कर दिये, तब हनुमान्ने खोटे पुत्रकी भौति उस रथको छोड़ दिया ।।१-१०॥
[४] निशाचर के खुरपेसे हनुमानका रथ इस प्रकार खण्डित होनेपर जनकपुत्र भामण्डल क्रोधकी ज्वालासे भड़क उठा। मण्डल धर्मपाल भामण्डल भी क्रोधसे अभिभूत होकर रथ बढ़ाकर शत्रुके पास पहुँचा | उसके पास दस हजार अझोहिणी सेना थी। उसमा गादीर सोलर कारके आकारोंमे शोभित था । वह ऐसा लगता था, मानो मनुष्यके रूपमें कामदेव हो। वह श्वेतचमर और श्वेत आतपत्र धारण किये था । निकट पहुँचकर उसने कहा, "हे निशाचर फलंक, तुम रुकोरुको, मुड़ो-मुड़ो और मेरे ऊपर अपना रथ चढ़ाओ ! तुम्हें छोड़कर, धरतीपर दूसरा मनस्वी कौन है ? तुम राषणके ससुर हो, देवताओंके मन्त्री (बृहस्पति) का दमन तुमने किया है। यह कहकर भामण्डलने सूर्यमण्डलके समान शत्रुको घेर लिया। जब मेघोंके समान अपने तीर, जाल और नाना प्रकारके विज्ञान-शानसे निशाचर मयको घेर लिया, तो उसने भी ऋद्ध होकर सैकड़ों तीरोंसे भामण्डलको आहत कर दिया। कवच, छत्र, श्रेष्ठध्वज, सारथि और रथ, सब कुछ युद्धमें ध्वस्त हो गया, अविनीतकी भाँति एक अकेला भामण्डल ही बच सका ? ॥ १-१०॥
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एडमचरित
पदुवई। ताव सुसार-सार-तारावइ ताराकइ-समयहो ।
सुरवर-पवर-करि-करायार कराहय-हय-महारहो ॥ ६ ॥ सो जणय-तणय-मय-कम-बमाले। सुग्गीड परिडिङ अन्तरालें ॥२॥ विगु व जिह दाहिण-उसराहूँ। अब्मिट्ट परोपर समर साहूँ ॥३१॥ स्यीयर-वाणर-लणाहूँ। धवलिय-णिय-कुलह श्र-लज्छणा।।४ विजाहर-पुर-परमेसराहँ। एक्कम किरण महारहाहै ।।।। सर-वडण-विद्यारिय-साहणाहूँ। जसिरि-जय दिएन-पसाहणाहँ ॥६॥ संचरइ कहउ जहि जि जहि। रिनु सरहि णितमइ तहि जे तहि १७ जहिं हिं रहवरें भारहाइ गम्पि। इन्दइ-मायामहु हणइ तं पि |6|| जं जं धशुहरु सुग्गीवु लेइ। तं तं रयणीयह खयहाँ जेइ ।।२।।
पत्ता
किं एकहाँ किकिन्धाहिवहाँ हियइरिष्ठयउ ण संपवइ । धणु सम्बही लक्षण-बिरहियहाँ लहर लहड इत्यहाँ पबह ॥१०॥
[१] ॥दुबई।। ताव विहींसपेण धूवन्त-धयवालिद्ध-णयको 1
सूल-महाउहेण रहु वाहिंड' बहुलच्छलिय-कलयलो ॥१॥ 'वल्लु बलु मय माम मणीहिराम । सुर-समर-सहास-पयास-णाम ||२|| मई मुफै वि विहीसणु शE-REE I को सहह तुहारी गर-च' ॥३॥ तं गिसुर्णेवि मन्दोयरि-षणेरु । किम्पु परिट्टि माइ मेरु ।।४।। 'ओसरु ओसरु म पुरउ धादि। उल-विरहित रणु परिहवि जाहि॥५
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पंचहत्तरिमो संधि [५] सुनयना ताराके पति सुग्रीवने जो चन्द्रमाके समान कान्तिवाला था, ऐरावतकी सूड़के समान अपनी प्रबल मुजाओंसे महारथको हाँक दिया। वह भामण्डल और मय के संघर्ष के बीच में जाकर खड़ा हो गया। वह उनके बीच में उसी प्रकार स्थित हो गया, जिस प्रकार उसरे भारत और दक्षिण भारतके बीच विंध्याचल स्थित है। अब उन दोनों में युद्ध छिड़ गया। दोनों क्रमशः निशाचरों और वानरों के चिह्नोंसे युक्त थे। दोनों अकलंक थे और दोनोंने अपने कुल का नाम बढ़ाया था। विद्याधर लोकके उन स्वामियोंने एक दूसरेका रथ खण्डित कर दिया। तीरोंकी बौछारसे सेना ध्वस्त कर दी। दोनों विजयलक्ष्मी और 'जय' को प्रसार दे रहे थे। कपिध्वजी जैसे-जैसे आगे बढ़ता वैसे-वैसे शत्रु तीरोंसे उसे रोकनेका प्रयास करना ! जहाँ कहीं भी बह रथ पर चढ़ता, मय उसपर आघात करता। सुग्रीव जिस धनुषको उठाता, शत्रु उसे नष्ट कर देता। क्या एक अफेले किष्किन्धानरेशके मनकी बात नहीं होगी, लक्खण ( लक्षण और लक्ष्मण ) से रहित सभीके हाथसे धनुष गिर गिर पड़ता है ।।१-१०।।
[६] यह देखकर शूल महायुध लिये हुए विभीषणने अपना रथ आगे बढ़ाया। उसमें बहुत कोलाहल हो रहा था। उस रथकी उड़ती हुई पताकाएँ आकाशनलको छू रही थीं। उसने ललकारते हुए कहा, "देवताओंके शत शत युद्धोंमें अपना नाम प्रकाशित करनेवाले हे मय, तुम ठहरो-ठहरो, मुझ विभीषणको छोड़कर भला तुम्हारी यह प्रबल चपेट कौन सहेगा।" यह सुनते ही, मन्दोदरीका पिता मय, सुमेर पर्वतकी भाँति अचल हो गया। उसने कहा “इटो हटो, सामने मत रहो, छल छोड़कर सीधे युद्धसे भाग जाओ, माना कि रावणमें एक भी गुण
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पउमचरित पारबऐं श्राएँ हंस-दी। गुणु जङ्ग वि पाहि पीसद्ध-गी ॥६ तहि अवसरें कितउ मुवि सुत । जइ सबाट स्वणासवहाँ पुतु' ।।७।। तो पु. भर्गेवि षवगय-मएण। रहु कवउ छातु छिमइ मएण ॥८॥ किड कलयलु णिसियर साहणेण । वाशिमा सुर-कामिणि-जणेण ।।९॥
धा 'मारुइ भामण्डलु पमयषद स-विहीसण विच्छाइयाँ । गय-पाएं बुढीहूयण मण जि कह व प मारिया ॥१०॥
|दुवई।। तो खर-णहर-पहर-धुव-केसर-केसरि जुत्त-सन्दणः ।
धवल-महन्दूओ समुद्धाइड दसरह-जेट्ट-गन्दगी ॥१॥ जस-धवल-धूलि-धूसरिय-बॉ। धवलम्वरु धवलावर तुरशुः ।।२१५ धवलाणणु धवल-पलम्व-वाछु। धवलामाल-कोमल-कमलणाहु ॥३॥ धवलड जें सहावें धवल-सु1 धवलास्टि-मरालिहें रायहंसु ॥ धवलाहँ धवलु धवलायवस। रहुणम्दणु दगु पहरन्तु पत्तु ।।५।। हेल' में विणासिउ मय-मरष्टु। रहु खो वि परुछामुहु पयट्टु ।।३।। तहि अवसर सुर-संताबणेण। रहु अन्तरै दिनइ रावणेण ॥७॥ बहुरूविणि-रूप-णिरूवियनु । गय-दल-सय-संचालिय-रहनु ।1८॥ दस सहस परिट्रिय गत्त-रक्ख । सारच्छ कराविय भग्गलक्ख ।।५।।
घत्ता
णं माण-महिहर-तुहिण-गिरि बहु-कालहाँ एकहि पश्यि । कोपारणे दारुण भाइयण रामणराम पि मिडिय ॥१०॥
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पंचहरिमो संधि नहीं है, परन्तु जश्च हंसद्वीपमें शत्रुसेना प्रवेश कर चुकी थी, तब रत्नाश्रवके सच्चे बेटे होते हुए भी, तुम्हें इस प्रकार छोड़कर पलायन करना क्या उचित था ?" यह कहकर, निडर होकर मयने उसके रथ कवच और छत्रके टुकड़े-टुकड़े कर दिये। निशाचर सेना में कोलाहल होने लगा। देववनिताएँ आपस में बातें करने लगी। विभीषण सहित हनुमान, भामण्डल
और सुग्रीव अपना तेज खो चुके हैं। गतपाप मयने वृद्ध होनेके कारण किसी तरह उनके प्राण भर नहीं लिये ॥१-१०॥
[७] तब दशरथके बड़े बेटे रामने सिंहोंसे जुते हुए अपने रथको आगे बढ़ाया। जुते हुए सिंहोंके नख एकदम पैने थे
और उनकी अयाल चंचल थी। रथ पर सफेद महाध्वज लगे हुए थे । यशकी धवल धूलसे उनके अंग धवल थे। धवल और स्वच्छ कमलकी तरह उनकी नाभि थी । उनका वंश धवल था और यह स्वभावसे मी धवल थे । पुरुष लक्ष्मीके लिए राजहंसके समान थे । वह सफेदों में सफेद थे | उनका आतपत्र भी सफेद था। इस प्रकार निशाचरोंपर प्रहार करते हुए राम वहाँ पहुँचे । खेल खेलमें, उन्होंने मयका घमण्ड चूर-चूर कर दिया, रथ रोक कर, उसे वापस कर दिया । ठीक इसी समय, देवताओंको सतानेवाले रावणने अपना रथ बीच में लाकर खड़ा कर दिया । बहरूपिणी विद्याके सहारे, वह तरह-तरहके रूपोंका प्रदर्शन कर रहा था। दस हजार हाथी उसके रथको खींच रहे थे। उसके शरीरके दस हजार अंगरक्षक थे । सारथि उसे अप्रिम लक्ष्यका संकेत दे रहा था । राम और रावण ऐसे लगते थे मानो हिमगिरि और अञ्जनगिरिको बहुत समयके बाद एकमें गढ़ दिया गया हो। उस भयंकर युद्धमें क्रोधाभिभूत राम और रावण आपस में भिड़ गये ।।१-१०||
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पउमचरित'
।। दुबई । जाणइ-जळण-जाल-मालाब कीविया वे वि दारुणा ।
कुछ-मयन्ध-गन्ध-सिन्धुर व बलधुर राम-रामणा ॥१॥ तो रण-मर-श्वर-धुरन्धरण। अल्फालिउ धणु दस-कम्धरेग ||२|| णं गजिङ पलय-महाषणेग। गं घोरिउ धोरु जमाणणेण ।।३।। अप्पाणु धित्त णं पाहयलेण। णं विरसिठ निरसु रसायलेण ॥१ गं महियले णिवडिङ धज्ज-घाउ । चलें रामहौँ कम्पु महन्तु जाउ ।।५।। मय वियलिय मत्त-महागया। रह फुट तुट्ट पगाह हयाह ।।६।। हल्लोहलिहा परिन्द सम्व। णिफन्द गिराउह गलिय-गन्ध ।। घय-छते हि कडयाह-सदु घुछ । कायर वाणर थाहरिन सुट्छ ।।८।। योलन्ति परोप्पर 'णा कज्ज। संघार-कालु लागु दु अज्जु ||९||
घत्ता
एतह रमणायर दुप्पगम एतहे दारुणु दहबयण । एहि जोवेवड हि तणउ दिडु ण परिमणु घरु सयणु' ॥१०॥
[२] । दुबई ।। तो जग्गोह-रोह-पारोह-पईहर माहु-
दणं । विसुग्गीव-जोच हरणेपा रणे मसण्ड-चण्डेणं ॥१॥ अपफालिड पजावतु चाट। तहाँ सहै कहाँण वि गयङ गाउ।।२।। तहों सहें बक्षिरित पाहु असेसु । थिउ जगु जे गहुँ मरणावसेसु ।।३।। तहाँ सो णं णायउलु तुट्टु। कह कह चि ण फम्म कसा फु१ ।।१।। स्सरसिय सुसाविय सायरा बि। कम्पाविय चन्द-विधायरा धि ।।५।। डोलात्रिय कुलगिरि दिग्गया वि । अप्पंपरिहूम सुरिन्दया वि ।।६।।
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. पंच सास्नी मांध
[८] वे दोनों ही जानकी रूपी आगको ज्वालमालासे जल रहे थे । राम और रावण दोनों ही क्रुद्ध और मदान्ध गजकी भाँति बलसे उद्धत थे। तब युद्धभार उठानेमें अत्यन्त निपुण रावणने अपना धनुष चढ़ाया। वह ऐसा लगा, मानो प्रलयमहामेघ गरजा हो, या मानो यममुखने घोर गर्जना की हो, या आकारातल स्वयं आ गिरा हो, या रसातलने विरूप शब्द किया हो, मानो महीतलपर वन गिर पड़ा हो। उससे रामकी सेनामें हड़कम्प मच गया। मतवाले महागजोंका मद गलित हो गया, रथ टूट गये और अश्वोंकी लगामें टूट गयी । सब राजाओंमें हलचल मच गयी। सबके सत्र निस्पन्द; अस्त्रविहीन और गलितमान हो उठे। ध्वज और छत्रोंसे कड़कड़ ध्वनि सुनाई देने लगी 1 कायर वानर भयके मारे थर्रा उठे । आपस में वे कह रहे थे कि अब काम बिगड़ गया, लो अब तो विनाशका समय आ पहुँचा । एक ओर दुर्गम समुद्र था, और दूसरी ओर दारुण रावण था, अब किसके लिए कैसे जीवित रहें, परिजन घर और स्वजन कोई भी दिखाई नहीं दे रहे हैं ॥१-१०॥
[९] तब, वटवृक्षके प्ररोहोंके समान दीर्घ बाहुदण्डवाले और मायावी-सुमीवके प्राणोंका हरण करने वाले सूर्य के समान प्रचण्ड रामने अपना वावर्त धनुष बढ़ाया। उसके शब्दसे ऐसा कौन था, जिसका गर्ष न गया हो। उस शब्दने समूचे आकाशको बहरा बना दिया, संसार ऐसा लगा मानो मरणाय शेष बचा हो, उस शब्दसे नागकुल पीडित हो उठा। किसी प्रकार कछुएकी पीठ नहीं फूदी। समुद्र तक रिसकर चूने लगा। सूर्य और चन्द्रमा तक काँप गये। कुलपर्वत और दिग्गज डोल
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दलकर रह - करि गियरु रडिउ । युद्ध-धवल हूँ गयणाणदिराएँ । कवि पाहि सुक्कु अणाहवो त्रि 'हु णासहुँत्र मयरहरु हर-कार जे पाणहरु
पउमचरिउ
लङ्कहें पायारु दढति पदि ॥७॥ पढिया हूँ असेस हूँ मन्दिराएँ ||८|| । गरु कायरु का मिकहहको जि॥ ॥ एत्थ वसन्तहँ नाहि घर । जहाँ भाइयराम सर || १० |
[20]
तावदसाणण अपसारी हि बाणेंहिं चं छं । दसरहणन्दण से छिन हँ थिय पडिए पवि ॥१॥
रामादिमं ॥२॥
सी हसिड मे | उच्छसि पाण
कवारिथामेण || ३ || ओसरु पराग ॥श्रा
'अणुवेय-परिहीण ।
जाहिं आवासु |
धणु-लक्षणं बुभु
पुण जि पयावेण ।
संतात्रिया देव |
अह असार ।
विचखम्ति सता हूँ ।
तो मिसियरिन्द्रेण ।
जम-क्षण
पेण ।
सहसयर धरणेण ।
सुर-मवण- भीसेण ।
कोन रिंग-दितेण ।
तम- पुअ - देहेण ।
भू-मङ्गुरच्छेण ।
अण्णम गुरु पासु दिवसेहिं पुणु जुज् ॥६॥
दुष्णय सहावेण ॥७॥
काराविया सेवा
र चोर - आराई ||९॥ ण वहन्ति गप्ताहूँ ।। १० ।
निजिय- सुरिन्द्रेण ॥ ११ ॥
कइलास कम्पेण ||१२||
वर वरुण श्ररणेण ॥१३॥
बीस - सीसेण ॥१४॥
हक्क-वित्तेण ॥ ५॥ णं पलय- मेहेण ॥१६॥
मण-पण दुरण ||१७||
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पंचहत्तरिमो संधि
गये । इन्द्रने भी पराजय मान ली। रावणके रथमें जुते हुए हाथी चिंघाड़ने लगे। लंका नगरीका परकोटा तड़क कर टूट गया । नेत्रोंके लिए आनन्द देनेवाले सभी प्रासाद ध्वस्त हो गये। किसी-किसीने तो आहत हुए बिना ही अपने प्राण छोड़ दिये । कोई एक योद्धा कह रहा था कि उस कायरने वह सब क्या किया ? लो अब तो मरे, समुद्रको लाँधकर यहाँ रहते हुए भी धरती नहीं है। जय रामके धनुषकी टंकार इतनी प्राणघातक है, तो तब क्या होगा, जब रामके तीर आयेंगे ॥१-१॥
[१०] इतनेमें रावणने अनगिनत तीरोंसे आसमान छा दिया | रामने उन्हें छिन्न-भिन्न कर दिया, और वे तीर उल्टे शत्रुकी सेना पर जा गिरे । स्त्रियों के लिए रमणीय, सुप्रसिद्धनाम और दुश्मनको शक्ति पा लेनेवाले रामने हँसते हुए कहा, "अरे, धनुर्यरसे अपरिचित, और पराधीन, तुम हटो, अपने घर जाओ, किसी दूसरे गुरुसे सीख कर आओ। पहले धनुषका लक्षण समझो कुछ दिनों तक, फिर मुझसे युद्ध करने आना । इसी प्रताप और अपने अन्यायी स्वभावसे तुमने देवताओंसे अपनी सेवा करवायी और सताया है, अथवा चोरों और डकैती करने वालोंके पास कुछ नहीं टिकता। उनका पौरुष गल जाता है, सत्ता क्षीण हो जाती है। उनके शरीर काम नहीं करते।" देवताओंको कंपा देनेवाले और कैलास पर्वतको उठानेवाले, सहस्रकरको पकड़नेवाले, श्रेष्ठ वरुणका वारण करनेवाले, दस सिरवाले, सुरलोकके लिए भयंकर, क्रोधकी ज्वालासे दीप्त, मनमें वधका संकल्प लिये हुए, वह श्यामशरीर रावण ऐसा लगता था मानो प्रलयका मेघ हो। भू-भंगिमासे भयंकर और मन
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१६
पउमचरिउ
धत्ता
श्रीसह मि करें कि बीसाउहहूँ एक बार रण मुखाहूँ । परा किविला
[११]
दुबई। वर दसाणणेग वामोहु समोहु सरो विसजिलो । सो विवधुरेण रामेण पयंग-सरेण निजिओ ॥ १॥
रामणें विसज्जित कुलिस-दण्ड । सोंचि में क्रिउ सय खण्ड- बण्डु २ रामन समाउ पायवेण । सघि मग्गु मध्ये वायवेण ॥३॥ रामण विज्जिड गिरिं विचिसु । स विरामे वलि जिह दिसहि वित्तु अगर मुकु दस-कन्धरेण 1 उल्हाविड सो बि वारण- सरेण ||५|| रामणेन विसजिउ पयस्थु | सौंषि गारुषाहि किउ गिरत्थु ६ रामजन गयाणण-सर विमुक्त | ताह मिल वाण मइन्द बुक || ५ || रामण विसजिव सारथ । तं मन्दर-घाएं पिट शिशु ॥२॥ जं जं आमेल्लर णिसियरिन्दु | सं तं विशिवार राम चन्दु ॥ ९ ॥
॥१८॥
रण रामण- राम सरे िवलहूँ दुष्पुतहि जिह पतन्त हि
विहि हत्थे हि पहरइ रामचन्छु । अपवाणं वाण राहवहीं तो वि
घत्ता
समर-भूमि महावियहूँ । उह कुछ हूँ संताषिय हूँ ॥ १० ॥
[१२]
|| दुवई || विणि शिसुद्ध-वंस रयणासव- दसरह जेटुणा । विष्णि घिदिण्ण-स कर-कंसरि जोतिय-पवर- सन्दणा || १ बीस हि भुव दण्डहिँ णिसियरिन्दु ॥ २ जजश्यि लङ्क स्थणायशे वि ||३||
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पंचतरिम संधि
रूपी पवनसे वह चंचल था । उसने अपने बीसों हाथोंसे बोस हथियार एक साथ युद्ध में छोड़ दिये, परन्तु वे घूमते हुए भी रामके पास उसी प्रकार नहीं पहुँचे, जिस प्रकार याचक किसी कंजूसके पास नहीं पहुँच पाता ।। १-१८।।
[११] तब रावणने व्यामोह और तमोह नामके तीर छोड़े, परन्तु रामने उन्हें भी अपने पतंग तीरसे जीत लिया। इसपर रावणने वदण्ड फेंका, रामने उसके भी दो टुकड़े कर दिये । रावणने तब वृक्ष मारा, रामने उसे भी अपनी बहुमूल्य तलवार से काट दिया। तब रावणने एक विचित्र पर्वतसे आक्रमण किया, रामने उसे भी बलिके अन्नकी तरह सब दिशाओं में बखेर दिया । तब रावणने आग्नेय बाण छोड़ा, रामने वारुणीसे उसे शान्त कर दिया। रावण ने पन्नगतीर विसर्जित किया, परन्तु रामके गरुड बाणने उसे भी व्यर्थ कर दिया । रावणने तब गजमुख तीर छोड़ा, परन्तु रामके सिंहमुख तीरके सम्मुख वह भी नहीं ठहर सका। रावणने सागर बाण मारा, उसे भी रामने मन्दराचल तीरसे व्यर्थ कर दिया । इस प्रकार निशाचरराज जो भी तीर छोड़ता, राघवेन्द्र उसीको निरर्थक कर देते । इस प्रकार समूची युद्धभूमि और सेना राम और रावणके तीरोंसे उसी प्रकार संतप्त हो उठी जिस प्रकार खोटे मार्गपर जाती हुई पुत्रियोंसे दोनों कुल पीड़ित हो उठते हैं ॥१- १०॥ [१२] रावण और राम दोनों शुद्ध वंशके थे । वे क्रमशः वैश्रवण और दशरथके पुत्र थे। दोनोंने शंख बजवा दिये और अपने रथों में उत्तम सिंह जुतवा दिये। रामचन्द्र दोनों हाथोंसे उस पर प्रहार कर रहे थे, जब कि रावण अपने बीसों हाथोंसे | तब भी राघवके तीर गिने नहीं जा सकते थे। उनसे लंका
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परमचरिर छाइनई गयणु चान्तपहिं। भखलिय-सर-सहि-भिवान्तपहिं ॥४॥ याएवज पत्तु पहाणेग। रहु खचिउ अदिसिह णम्दोण ।।५।। दिस करिहुँ असेसहुं गलिउ गाउ । काजि मार ॥i मिमन्ति बलर जस्ले जलयरा पि । णहें पट्ट देव थले यजयरा वि ॥७॥ सो ण वि मयत्रह सो गा वि तुरङ्ग । सो ण षि रहबरु तपण वि रहा ॥८॥ सो | वि घाउ तण चि आयवत्तु ! जहिं राम-सरह सउ सउ ण पतु ॥९॥
घता
गप सत्त दिवह जुजान्ताएं तो पछेउ महाहवहीं । लहु लक्षणु अन्तरे देवि रतु विजउ गाई थिउ राहवहीं ॥१०॥
[१३] ॥दुवई।। 'वल मई किकरण किं कीरह जइ तुहुँ धरहि धणुहरं ।
मिसियर-कुल-कियन्सु ह भस्कृमि रावण या रहवरं ॥१॥ दुग्मुह दुचरिय दुराय-राय। तउ राहय-केरा कुछ पाय ।।२॥ बलु उरें कर चुकहि म जियन्तु । बहु-काल पावड घउ कियन्तु' ॥३॥ तो कोष-जलण-मालोलि-जलिउ । 'हणु हणु' भणन्तु लक्खणहाँवलिउ।।। से वासुएव-पश्विासुएव । कुल-धवल धणुन्दर सावळेच ।।पा। गय-गान-सन्दण कसण-देह । जग्णय गाई पहें पलय-मेह ॥१॥ णं सोह महीहर-मत्थयस्थ । गं विश्न-सजमा डअयाचलस्य ।।७।। णं अक्षण-महिहर विणिहू। गंगा-णिहेण थिय काल-दूम !!८!
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न सूर्यको गत
मच गयो । सेमर गलने लगे।
मातीठो संधि
९ नगरी और समुद्र जर्जर हो गया था । ऊपर चढ़ते और धरती पर गिरते हुए अस्खलित तीरोंने आसमान ढक लिया। इवाका बहना बन्द था। दशरथनन्दन रामने सूर्यकी गति रोक दी। दिग्गजों के शरीर गलने लगे। समूचे विश्व में खलबली मच गयी । सेनाएँ नष्ट होने लगी। जलके जलचर प्राणी, आकाशके देवता और धरतीके थलचर प्राणी नष्ट होने लगे। ऐसा एक भी गजबर नहीं था, अश्व नहीं था, रथवर और चक्र नहीं था, ऐसा एक भी ध्वज और आतपत्र नहीं था, जिसके रामके तोरोंसे सौ-सौ टुकड़े न हुए हों। इस प्रकार लड़ते हुए उनके सात दिन बीत गये। फिर भी युद्धका अन्त नहीं दीख रहा था। इतने में अपना रथ बीच कर लक्ष्मण इस प्रकार खड़ा हो गया, मानो रामकी विजय ही आकर खड़ी हो गयी हो ॥१-१०॥
[१३] उसने निवेदन किया, "हे राम, यदि आप स्वयं शस्त्र उठाते हैं तो फिर मुझ सेवकका क्या होगा ? मैं निशाघरकुलके लिए साक्षात् यम हूँ ! हे रावण, तुम अपना रथ आगे बढ़ाओ । हे दुर्मुख दुश्चरित, दुराजराज, तुम सचमुच रामके क्रुद्ध पाप हो । आगे बढ़, क्या तू मुझसे जीवित बच सकता है, आज बहुत समयके बाद, यमराज सन्तुष्ट होगा।" यह सुनकर रावण कोधकी ज्वालासे जल उठा ! यह 'मारो-मारो' कहता हुआ दौड़ा। तब लक्ष्मण और रावण, दोनों वासुदेव
और प्रति घासुदेव तैयार हो उठे। दोनोंका ही वंश धवाल था। दोनों ही स्वाभिमानी और धनुर्धारी थे दोनोंके रथोंमें गज
और गरुड़ जुते हुए थे, दोनो श्यामशरीर थे मानो आकाशमें प्रलय मेघ हों। मानो पहाड़की चोटीपर सिंह हों, मानो विन्ध्याचल और उच्च्याचल पहाड़ हों, मानो अजनगिरिके
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पडमचरित
णं रवि-स्तुप्पल तोहणस्थ ।
णं धर पसारिय उदय हस्थ ॥१॥
पत्ता
लकेसर-लक्षण उत्थरिय बेपाल-सहास, णश्चियइँ
पलय-जलय-गम्भीर-रव । 'जह पर होसह मज धद।।१०11
[१५] ॥दुईं।। जं कि रावण संतुहु मि करेसहि भूमि-गायरा' ।
दह दाहिण-करहिं दह-वयणे दह कळिय महा-सरा ||३|| पहिलेण पवर जग्गोह-रुक्षु । वीएण महग्गिरि दिण्ण-दुक्खु ।।२।। जल तइपं जलगु चउस्थएण। पज्ञमण सीड फणि छटएण ||३३ सतमण मस-मायग-कीलु । अट्ठमण णिसायह विसम-सी ।।३।। पवमेण महन्तु महन्धयारु ! दहमण महोवहि-हस्थियार ||५|| दस दिन्च महा-सर पलय-माय । दस दिसउणिरुम्मे विठन्ति जाय॥६॥ तो लकखणु वुत्तु विहीसणेण । 'दिग्वत्थई लक्ष्य है रावणेण ॥७॥ एक जै होइ अणेय-माय । एकपाले दरिसह विविध माय ! एक जै अगु जगवि समत्थु । लइ एहएँ अवसर वाहि हत्थु ॥१॥
जई आयई पई णिवारियई तोगविहउँण विनुहुँ रामुणषि
धत्ता मायामप्पिणु भुभ-जुभलु । ण वि सुग्गीड ण पमप-बल' ॥१०॥
।। दुबई ॥ तो लच्छीहरंण तरु उजाइ हुभयह-तुणा-
फर्ण । माया-महिहरो वि मुसुमूरिट दारुण बज्ज-दपणे ॥१॥
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पंचहत्तरिमो संधि दो टुकड़े हो गये हों, मानो मनुष्यके रूपमें कालदुत हों, मानो धरतीने रविरूपी लाल कमल तोड़ने के लिए अपने दोनों हाथ फैला दिये हों । प्रलयमेषके समान सान्द्रम्बर लक्ष्मण और रायण उछल पड़े। यह देखकर सैकड़ों बेताल नाच उठे, उन्हें लगा, चलो आज खूब तृप्ति होगी ॥ १-१०॥ __ [१४] लक्ष्मणको देखकर रावणने कहा, "जो कुछ राघवने किया है, लगता है, वही तुम सब करोगे।" उसने अपने दसों दायें हाथों में दस महातीर निकाल लिये | पहलेमें महान घट वृक्ष था। दूसरे में दुखदायी महागिरि था, तीसरेमें पानी था
और चौथेमें आग थी, पाँचमें सिंह और छठे में नाग था, सातवेंमें महागज था, आठ में विषम स्वभाव निशाचर था। नमें महान्धकार था, दशमें महोदधि था। इस प्रकार जब उसने प्रलय स्वभाववाले दसों महातीर ले लिये और दसों दिशाओंको रोक कर स्थित हो गया, तो विभीषणने कहा, "लक्ष्मण, रावणने अपने दिव्य अस्त्र ले लिये हैं । एक होकर भी उनके अनेक भाग हो सकते हैं। उनमें से एक-एक भी विविध मायाका प्रदर्शन कर सकता है। उनमें एक भी समूचे संसारका विनाश करने में समर्थ है । लो यह है अबसर, बढ़ाओ अपना हाथ । यदि तुमने अपने दोनों बाहुओंको फैलाकर इन अस्त्रोंको नहीं रोका तो न मैं चचूंगा, न तुम, न राम, न सुनीष और न ही वानर सेना" ॥१-१०॥
[१५] यह सुनकर, लक्ष्मणने अपने अग्नि-बाणसे उस यट महावृक्षको भस्म कर दिया और वजदण्डसे मायामहीधरको भी मसल डाला, वायव्य तीरसे उसने वारुण-अस्त्र नष्ट कर दिया और वारुण अस्त्रसे हुताशन अस्त्रको व्यस्त कर दिया । सरभसे
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१२
वायवेण विशासित वारुणत्थु ।
सरहेण सीहु गरुडेण
निसियरु मिरुद्ध नारायणेण ।
सोसिव समुद्दु वाण | वर कण अनु मगोहरा | सचिण-विज्जाहर हुआउ । 'वदेहि सयम्बरें युक्तियाउ । जयपद व सिद्ध होहि ।
-
पउमचरित
सिद्धत्धु अन्धु म सम्भरें वि
तमि (?) धरिउ कुमारें एन्तु
वारण
फिट रिस् ॥ २ ॥
पचार
( शिशु धाः॥५॥
तमु णासि दियर -पहरणेण ॥४॥ तहिं अवसरे आयड हयलेण ॥५॥
सुर- करि कुम्भयल - पोहराड ॥ ६ ॥ माल-माला - कोमल-भुभाउ ॥ ७ ॥ कच्छीहर तुह कुछ उत्तिया ॥८॥ संणिलुषि हरिसिङ हरि-धिरोहि ||९ ॥
घत्ता
हुआ सणु
मुक्कु णिसायर-पाय र्गेण ।
विग्व-विणायण ॥१०॥
[ १६ ]
सोसियस-विन्द कन्दावणेण |
'दे वे आसु' भणन्ति आय । 'ज अट्ट दिवस भराहिया-लि । में सहल मणोरद्द करहि अज्जु । दहवयों केरव रूयु लेवि । उत्थरिय विज्ञ सहुँ लक्खणेश । दरिसाबिय विजऍ परभ माय ।
॥ दुबई ॥ जं जं किंपि पहरणं सुइ मिसायर व दसाणणी । तं तं सर-सएहिं विणिवारह अब वह ज्जे लक्षणो ॥१॥ वहुरूपि चिन्तिय राखणेण ॥२॥ मुद्द- कुहरें विणिमाय वहाँ वि वाय ॥३॥ बहु-मन्तर्हि थोसेंहिँ साहिया-सि ॥४॥ भू-गोयर-महिहरें होहि कज्जु ॥५॥ मायामय रहब होहि देवि ॥ ६ ॥ दोशविय तेण वि तक्वणेण ॥७॥ अथक रावण वेण्णि जा ||८||
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पंचहत्तरिमो संधि सिंहको और गरुड़से नाग अस्त्रको नष्ट कर दिया। पंचानन ( सिंह ) से उसने गजपर आघात कर दिया। नारायण तीरसे उसने निशाचरको रोक लिया और दिनकर अस्त्रसे अन्धकारको नष्ट कर दिया, बड़वानलसे समुद्रका शोषण कर लिया । ठीक इसी अवसरपर आकाशतलसे आठ सुन्दर कन्याएँ नीचे उतरीं । उनके स्तन ऐरावत के कुम्भस्थल के समान विशाल थे। वं शशिवर्धन नामके विद्याधरको कन्याएँ थी। मालतीमालाके समान उनकी भुजाएँ कोमल थीं। किसीने कहा, "हे लक्ष्मण, सीताके स्वयंवर में दी गयीं ये कुलपुत्रियाँ तुम्हारे लिए हैं । तुम्हारी जय हो, बढ़ो, सफलता तुम्हें वरे।" यह सुन कर लक्ष्मणका दुश्मन रावण बहुत प्रसन्न हुआ। निशाचरराजने अपने मनमें सिद्धार्थ अस्त्रका ध्यान किया और उसे कुमार लक्ष्मणपर छोड़ दिया । उसने भी अपने विविनाशन अस्त्रसे, आकाशमें आते हुए उस अस्त्रको रोक लिया ।। १-१०॥ __ [१६] निशाचरस्वामी रावण जो-जो अस्त्र छोड़ता लक्ष्मण अपने शत-शत तीरोसे उन्हें आधे रास्ते में ही रोक लेता। तब देवताओंको सतानेवाले रावणने अपने मन में बहुरूपिणी विद्याका ध्यान किया। वह एकदम आयी और बोली, "आदेश दीजिय, आदेश दीजिए"! यह सुनकर रावणने अपने मुखसे कहा, "अनेक मन्त्रों और स्तुतियों-स्तोत्रोंसे मैंने आठ दिनों तक तुम्हारी आराधना की है, तुम आज हमारी समस्त कामनाएँ पूरी करो। इस मनुष्यरूपी पहाइपर वन लेकर गिर पड़ो। तुम रावणका रूप धारण कर लो और अपना मायामय रथ ले लो"। यह सुनकर विद्या लक्ष्मणके सम्मुख उछली । उसने भी उसके दो टुकड़े कर दिये । तब विधाने अपनी उत्कृष्ट विद्याका प्रदर्शन किया। शीघ्र ही उसने दो रावण बना दिये ।
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२४
ते पहय चयारि सोध्थरन्ति ।
पउमचरिङ
पपिय चयारिवि अट्ट । ति ॥ ९ ॥
धत्ता
सो पत्तोस वूणक्रमेण विविह रूय-दरिसावणहुँ । चहुरुविण विजऍ निम्मविय रणें अक्षौणि रावणहुँ ॥ १० ॥
सिरु स-मउड पट्ट - विहूलियत णं मेरु-सिङ्ग सधैं विडिय
[ १७ ]
|| दुबई ॥ जलें थलें गयणे कत्ते घएँ तोरणें पच्छ पुरे षि रावणो । तो लच्छीवरेण सह मेल्लिउ माया उवसमावणो || ११|
तह सों पहावे विज पर उत्थरि भणहि सरबरेहिं । वावरलेहिं महलेहिं कणिएहिं । सोमित्ति से सर-जालु टिष्णु 1 अण्ण रहवरें आरहई जान | णं हंसें तोषि आरणालु । कह कह कहन्तु लखक- चयणु । उमड-मिउडा भरिय मालु |
9
fra एक्कु दसाणु होवि णवर || २ || पाराएँहि तीरे हि तोमरेहि ॥ ३ ॥ अवरहि मि असेस हि वणिहिं ॥४॥ रवि पुशुबलि दिसहिँ दिष्णु॥५॥ सिरुषि खुरु छिष्णु ताव ॥ ६ ॥ सल- -जी बियड-दाढा करालु || || जालोलि फुलिङ्ग - मुअम्स - जयणु ॥ ८ ॥ कम्पिर-कषोल्लु वल-दाढियालु ॥ ९ ॥
घता
सहद्द फुरन्ते हि कुहिँ चन्द- दिवायर मण्डले हिँ ॥५०॥
[14]
|| दुबई | ताव समुग्याइँ रिठ-देहही अण्ण हूँ बेणि सीखई ।
'मरु मरु' 'पहरु पहरू' पमणन्ताएँ उमड
3-faafz-shog ||1||
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पंचहत्तरिमो संधि जब वे आहत हुए, उसने चार उत्पन्न कर दिये। जब वे चारों आहत हुए तो वे आठ हो गये। फिर आठसे सोलह और सोलह से बत्तीस, इसी द्विगुणित क्रममें बहुरूपिणी विधाने विविध रूपोंमें टिश्चाई पड़नेवाले रामणोली एक अक्षौहिणी सेना ही उत्पन्न कर दी ।। ९-१०॥
[१७] जल, थल, आकाश-छत्र, ध्वज, तोरण, पीछे और आगे सब तरफ रावण ही रावण दिखाई देते थे। तब कुमार लक्ष्मण ने मायाका शामक तीर चलाया । उस तीर के प्रभाषसे बहुरूपिणी विद्या, केवल एक रावण होकर स्थित हो गयी। अब उसने अनन्त तीरों नाराचों वावल्ल भालों कणिकाओं आदि तीरोंसे आक्रमण किया, परन्तु लक्ष्मणने उसे भी छिन्न-भिन्न कर विया । उसका रथ नष्ट कर उसकी बलि दसों दिशाओं में अखेर दी। रावण दूसरे रथ में बैठ ही रहा था कि लक्ष्मणने खुरपेसे आक्रमण कर उसका सिर काट डाला, मानो हंसने कमलनाल तोड़ दी हो, उसकी जीभ चंचल थी, वह विकट दाढ़ीसे भयंकर दीख पड़ता था। उसका मुख कुछ पुकार सा रहा था, नेत्रोंसे आगके कण बरस रहे थे। उसका भाल उठी हुई भौंहोंसे विकराल विस्ताई देता था। गाल कर रहे थे और दादी हिल रही थी। मुकुट सहित उनका सिर पट्टसे अलंकृत था। वह चमकते हुए कुण्डलोंसे शोभित था । वह ऐसा लगता था, मानो चन्द्र और सूर्यमण्डलोंके साथ मेरु पर्वतका शिखर गिर पड़ा हो ॥१-१०॥
[१८] इतने में दुश्मनके शरीरसे दो और सिर निकल आये। उद्धट भौंहोंसे भयंकर वे कह रहे थे, "मारो मारो, प्रहार करो, प्रहार करो।" कोलाहल करते हुए उन सिरोंको भी लक्ष्मणने
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पडमचरिउ
साई वि तोदियई सकरूपलाई महवपणदुपार ।। तो णवरि चयारि समृदिया। कथळ कमलिणि कमला थिमाई ॥३॥ पुणु अण्णई अटु समुग्गया। णं फणसहाँ फणस, णिग्गयाइँ ॥१॥ पुणु सोलह पुण बत्तीस होन्ति । चउसद्वि सिर, पुणु णीसरंति ।।५।। सड अट्ठाधीस तपसणेण । पानिमइ सीसहुँ लक्षणेण | छप्पण्ण विणि खगई कियाइँ । छिण्णा कुमार जिह दुनिया 11। पुशु पज्ञ सयाई स-बारहाई। कमका. व तोडइ सुरिउ ताई ॥६॥ पुणु चउबीसोतरु सिर-सहासु। पारइ पछ-स्थल-सिरि-णिवासु ॥९॥
घत्ता
सीसइँ छिन्दन्तहाँ लक्षणहाँ बिउणउ विडणउ वित्थरह । रणे दक्लवन्तु बहु-रूबाई रावणु छन्दही अणुहरइ ।।१।।
[१९] ॥ दुबई ।। जिह निन्ति णाहि रिड-सीस. तिइ लबरसण-महासा ।
'दुकर यत्ति एषु रणे होसई' बोलम्ति सुरवा II तो जण-मण-णयपाणन्दणेण । पहरात दसरह-जन्दणेण ॥३॥ रिस-सिरई ताप विणिवाया। रग-भूमिहि जाव " माइयाई ।।३।। जिह सोसई विह इय बाडु-दण्ड । प गरुहें विसहर कय दु-खण्ड ।। सय सहस सक्ख अ-परिप्पमाण । एकेक सहि मि अणेय वाण ||4|| णमोहहाँ गं पारोह छिपण । सुर-करि-कर केग चि पहष्ण ॥६॥ सम्बखि सम्ब-णाहुनखा। णं पश्च-फणावलि थिय मुभा ॥३॥ फौं वि करपलु सहइ स-मण्डलग्गु । णं तरुवर-पाल लयहाँ लग्गु ॥८॥ की वि सहा सिलिम्मुइ-सङ्गमेण | बाट भुबा भुषामेण ॥१||
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पंचहत्तरिमो संधि इस प्रकार तोड़ दिया मानो जैसे रावणकी अनीतिके फल हों। वो फिर चार सिर उठ खड़े हुए, मानो धरती पर गुलाबके फूल खिले हों, उनके काटे जाने पर, फिर आ गिर निभाये, मानो फणसमें फणस (नागफन) निकल आये हों। फिर सोलह, फिर बत्तीस, और चौंसठ, इसी क्रमसे सिर निकलते रहे। तब लक्ष्मणने एक सौ अट्ठाईस सिर धरती पर गिरा दिये, फिर वे दो सौ छप्पन हो गये, लक्ष्मणने उन्हें भी पापोंके समान काट डाला, फिर चे पाँच सौ बारह हो गये, उन्हें भी लक्ष्मणने कमलकी भाँति तोड़ डाला। वे एक हजार चौबीस हो गये, कुमारने बहुरूपिणीविद्याके निवासरूप उन्हें भी तोड़ डाला। सिरोंके काटते-काटते लक्ष्मणकी निपुणता दुनियामें प्रकट होने लगी । इस प्रकार युद्ध में विविध रूपोंका प्रदर्शन कर रावण अपने स्वभावका ही अनुकरण कर रहा था ॥१-१०॥
[१९] जिस प्रकार राषणके सिर नष्ट नहीं हो रहे थे, उसी प्रकार लक्ष्मणके महातीर भी अभय थे। यह देखकर आकाशमें देवताओंकी बातचीत हो रही थी कि युद्ध में कड़ी स्थिरता रहेगी। उसके बाद जनोंके नेत्रों और मनोंको आनन्द देनेवाले, दशरथनन्दन लक्ष्मण शत्रुके सिरोंको तबतक गिराता चला गया, जबतक युद्धभूमि पट नहीं गयी। सिरोंकी ही भौति, उसने उसके हाथ ऐसे काट गिराये मानो गरुड़ने साँपके दो टुकड़े कर दिये हों । सो, हजार,लाख, अगिनत हाथ थे, और हाथोंमें अगिनत तीर थे । मानो वटवृक्षसे उसके तने ही टूट गये हों। या किसीने हाथीकी सूंड़ काट दी हो, पाँचों अंगुलियाँ थीं और उनमें सुन्दर नख ऐसे चमक रहे थे, मानो पाँच फनोवाला नागराज हो। कोई हाथ तलवार लिये ऐसा सोह रहा था मानो वृक्षका पत्ता लतामें जा लगा हो। कोई भ्रमरोंके साथ
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2
पउमचरित
घत्ता
माहि-मण्डलु मण्डिड कर-सिर हिं छुद्ध खुखिपहि स-कोमलेहि। रण-वेबय अञ्चिय लक्षणेण गाई स-णा हिं उप्पले हि॥10॥
[२.]
॥ दुबई ॥ गय इस दिवस विहि मि जुमन्तहँ तो वि ग णिष्टियं रणे ।
माया रावण कोलिन 'जह जीवेण कारण ||१|| तो जं जागहि न करें दवत्ति। सकेसर महु एसत्रिय सन्ति' ॥२२॥ स-विलक्खु रक्स्यु सयमेव थक्कु । पलयक-सम-पहलइउ चक्कु ॥३॥ परिकाश जएस-सडाम जल। दिमाहरणार-सुरतर-णिय-तासु ||१|| दुपरिसणु मीसणु णिसिय-घारु । मुत्ताहल-मालामालियारु ।।५।। सकुसुम-चन्दण-पश्चिक्कियङ्ग। णिय-णासु गाई दरिसिज रहा ।।६।। तं गिरवि गट गहें सुरखरा वि | भोसरवि दूरै थिय घागरा वि ।। तो बुसु कुमार णिसिमरिन्दु । 'पइँ जेण पया धरित इन्दु ।।४। लाइ तेण पयावे दुटु-माव । मुऍ चा चिरावहि काई पाव' ॥९॥
घसा
दुश्वयणदीवि दहमुहँण कर रहा उग्गामियउ । नहूँ तेण ममामिम्सऍण जगु जै सम्बु गं मामिया ॥१॥
[३५] ।। दुवई । तो लपछीहरेण छिग्ण समारम्भिउ रहायं ।
तीरिप-सोमरहिं पाराएँ हि सही वि पहा समागवं ॥१॥
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पंचहस रिमो संधि
२५ ऐसा मालूम होता था मानो साँपने साँपको पकड़ लिया हो। हाथों और सिरोंसे, कुमार लक्ष्मणने धरती मण्डलको पाट दिया मानो कुमार लक्ष्मणने कोमल नाल और कमल खोटखोटकर युद्धके देवताकी अर्चा की हो ॥१-१०॥
[२०] दोनोंको लड़ते हुए दस दिन बीत गये, फिर भी युद्धका फैसला नहीं हो सका । इतने में माया रावणने ( बहुरूपिणी वियाने ) रावणसे कह।, - यदि तुम जीवित रहना चाहते हो, तो जो और विद्या जानते हो, उससे काम लो, लंकेश्वर । मुझमें वस इतनी ही शक्ति है ।" यह सुनकर, रावण विकलतासे स्तंभित रह गया। उसने अपना प्रलय सूर्य के समान चमकता हुआ चक्र हाथ में ले लिया। एक हजार या उसकी रक्षा कर रहे थे । वह विषधर, मनुष्य और देवताओंमें त्रास उत्पन्न कर देता था । यह अत्यन्त दुर्दशनीय और भयानक था । उसकी धार तेज थी । वह मोतियोंकी मालाके आकारका था। फूलों
और चन्दनसे चर्चित चक्रको रावणने इस प्रकार दिखाया मानो अपने नाशका ही प्रदर्शन किया हो। उसे देखते ही आकाशके देवता भाग गये। वानर भी हटकर दूर जा खड़े हुए । तब कुमार लक्ष्मणने निशाचरराज रावणसे कहा, "तुमने जिस प्रतापसे इन्द्रको पकड़ा था, उसी प्रतापसे, हे कठोर स्वभाव रावण, तुम अपना चक मुझपर चलाओ । देर क्यों कर रहे हो।" लक्ष्मणके दुर्वचनोंसे उत्तेजित रावणने हाथमें चक उठा लिया । उसने जब उसे आकाशमें घुमाया तो सारा संसार घूम गया ।।१-१०॥
[२१] तब लक्ष्मीको धारण करनेवाले रावणने छिमनख अपना चक्र पलाया। परन्तु वीर, तोमर और वाणोंसे उसका
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परमवरित
रिउ-कर-विमुक्षु मण-पवण-घेउ । घण-धोर-घोसु पलमगिाउ || रणे धरवि ण समिद लक्षणेण । पहणन्ति असेस वितरपणेण ॥३॥ सुग्गीबु गएं राहट हलेण। सूलेग चिहीसणु पञ्चलेण ॥४॥ भामण्डलु पसल-असिवरेण । हणुवन्तु महन्से मोगगरेग ॥५ भगड विपर्वण कुट्टारएग। जल स वरि-वियारणेण ॥९॥ जम्बड झसेण फलिहण णीलु। कणएण विराहिउ विसम-सीलु ||७॥ कुम्तेण कुन्दु दहिमुदु धणेण । केण विण णिवारिंड पहरणेण ॥८॥ मजन्तु असेसाउह-सया। गं नुहिणु दहन्तु सरोरुहार ॥९॥ परिममिड वि-धारउ तरल-नगा। णं मेरह पासे हि माणु-विम्बु ।।१०।।
जं अपण मवन्सरे अजियङ भाणा-विहेड सु-कल सुजिह
तं श्रप्पगहि (1) समावरिउ । चाकुमारही करें चडिउ ||१||
[२२] ।। दुवई ॥ अं उत्पण्णु चक्कु सोमित्तिह तं सुर-णियह तोसिट।
दुन्दुहि दिषण मुक कुसुमाधि साहुकारु बीसिड ॥१॥ महिणन्टि लपलणु घाणरहि। 'जय पाद पर मङ्गल-रवेहि ॥२॥ चितवइ विहीसा जाय सङ्क। 'लइ पट्ट कज्नु उच्छिपण कक ॥३॥ मुउ राषणु सन्तइ सुह अजु । मन्दोयरि बिहब विण रज' ॥ पभणइ कुमार 'कर चित्तु धीरु । मुख सीय समापद खमह वोरु' ॥५॥ तो गहिय-चन्ददासाउहण । हारिड लक्ष दहमुहण ॥३॥ 'खा पहर पहरू कि फरहि खेत । तुहुँ एच सावलेड ॥॥
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पंचतरिम संधि
२३
भी बल समाप्त हो गया। शत्रुके हाथसे मुक्त, मन और पवनके तरह बेगशील, मेघकी तरह घोषवाला, और प्रलय सूर्यकी तरह तेजस्वी उस चकको जब लक्ष्मण नहीं झेल सका तो बाकी सब लोग उसपर फौरन आक्रमण करने लगे । सुग्रीवने गदासे, राघव ने हलसे, विभीषण ने शूलसे, भामण्डलने तीखी तलवारसे, हनुमान ने एक बड़े मोगरसे, अंगदने तीखे कुठारसे और नलने बैरीका विहारण करनेवाले चक्रसे, जम्बूकने झपसे, नीलने फलकसे, विराध विषमशीले, कुसे और मुखने घनसे । फिर भी हथियारसे कोई भी उसका निवा रण नहीं कर सका। सैकड़ों हथियार बरबाद हो गये, जैसे हिम सैकड़ों कमलोंको जला देता है। चंचल और ऊँचाई पर घूमता हुआ 'चक्र' तीन बार घूमा, मानां सुमेरु पर्वत के चारों ओर सूर्यका विम्ब घूमा हो । जो हम पूर्वजन्ममें कमाते हैं वह इस जन्म में अपने आप मिलता है। आज्ञाकारी अच्छी स्त्रीकी तरह वह चक्र कुमार लक्ष्मण के हाथ में आ गया | ॥१-११॥
[२२] कुमारके हाथ में चक्र के इस प्रकार आ जानेपर सुरसमूह सन्तुष्ट हो उठा। नगाड़े बज उठे । फूलोंकी वर्षा होने लगी, और जयध्वनिले आसमान गूँज उठा । वानरोंने लक्ष्मणका अभिनन्दन किया, 'जय, प्रसन्न होओ, बढ़ो' आदि आदि शब्दों से आशंकित होकर विभीषण सोच रहा था, 'आज कार्य नष्ट हुआ । टंका नगरी मिट जायगी। रावण मारा जायगा, सन्तति नष्ट हुई । मन्दोदरी, वैभव और राज्य सब कुछ नष्ट हुआ ।' तब कुमारने कहा - 'अपने हृदय में धीरज धारण करो, सोता अर्पित करने पर रावणको क्षमा कर दूँगा । इसके बाद चन्द्रहास कृपाण धारण करनेवाले रावणने लक्ष्मणको ललकारा, 'ले, कर प्रहार, कर प्रहार, देर क्यों करता
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३२
महु हूँ पुणु आएं कवणु गष्णु सं सुवि विष्फुरिया हरेण ।
पउमचरिउ
किं सांहों होड़ सहाउ अणु' || || मेल्लिउ रहभु लच्छ: हरंग ॥९॥
धत्ता
रहणं अत्थरि ग सभुऍ
सूर-विम्बु कर मण्डि । दहहह मण्ड उरत्थ खण्डित्य ॥१०॥
[ ७६. असचरिम संधि ]
हिऍप किउ सुरें हिं लोअ-पाल सच्छन्द थिय
कलयलु भुत्रण मणोरह- गारउ | दुन्दुहि पय पणचि पार ॥
[1]
कुल- मङ्गल- ककरों व विसहऍ ॥११॥ - वरण-हारे व तुट्टएँ ॥ २ ॥ रणबहु-जोवणे व दरमलियऍ ॥ ३ ॥ णीसारिएँ व सुरासुर सल्लऍ ॥४॥ तोदषाण वंसें व विष्णऍ ॥५॥ काहीँ दिय व भरथमिएँ ॥ ६ ॥ सीय-सयस व विडिय |७|| अक्षण से व यायहीँ चुक्कएँ ||4||
।
विडि राचर्णे सिहुअण-कण्टऍ। ह - सिरि-दपणे व चिच्छुएं पुर- विलासिणि माणें व गलियएँ दाहिण दिस गएँ व ओपल्लएँ । रण- देवय- मंसिऍ व दिएँ । 'वण पुरन्दरें संकमिएँ । काउरि पाया व पडियएँ । सम-सङ्काएँ, व पुषि मुकएँ ।
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छसत्तरिमी संधि
है? अरे ! तुम्हें एक ही चकमें इतना घमण्ड हो गया, पर मेरे लिए इसकी क्या गिनती। क्या कोई दूसरा सिंहकी समानता कर सकता है।" यह सुनते ही लक्ष्मणके ओठ फड़क उठे। उसने चक्र दे मारा । जिस प्रकार किरणोंसे शोभित सूर्यबिम्बका उदयगिरि वातपिरिएट अन्न हो जाता है, उसी प्रकार अपने हाथोंसे प्रहार करते हुए भी रावणका वक्षःस्थल खण्डित होकर गिर पड़ा ।। १-१०॥
लिहसरवीं सन्धि [१] रावणके मारे जाने पर देवताओंने संसारको प्रिय लगनेवाला कोलाहल किया । अब लोकपाल स्वच्छन्द हो गये । नगाड़े बजने लगे। नारद नाच उठे । त्रिभुवन कंटक रावणका ऐसा पतन हो गया जैसे कुलका मंगल कलश नष्ट हो जाये, या नमश्री के दर्पणकी कान्ति जाती रहे, या लक्ष्मीका हार टूट जाये, या पृथ्वी-विलासिनीका मान गलित हो जाय, या युद्धबधूका यौवन दलित कर दिया जाये, दक्षिणदिशा का गज झुक जाये । ऐसा जान पड़ने लगा जैसे सुर-असुरोंके मनकी शल्य निकल गयी हो, रणदेवताको जैसे नमस्कार कर दिया गया हो, तोयदवाहनका वंश ही छीन लिया गया हो,जैसे पवन पुरंदरको अतिक्रान्त किया गया हो, जैसे प्रलयका दिनकर अस्त हो गया हो, लंका नगरीका परकोटा ही टूट-फूट गया हो, सीता देवीका सतीत्व निभ गया, अन्धकार समूह, जैसे इकट्ठा होकर बिखर गया हो, अंजनपर्वत जैसे अपने स्थानसे
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पडमचरित
तण पाइन्त पाडियइँ पास महारहें महिहरहों
धत्ता चिप्त रणे रयणीयर-णामहुँ ।
कुसुमई शिवरवण-सा !!
अमरहिं साहुकारि हरि-वलें। विजय पधुढे समुट्टिएँ कलयलें ॥ तहि अवसर मणि-गण-विष्फुरियह । उप्परे करु कवि पिय-छुरिया ॥३॥ अप्पड़ गणइ विहीमणु जावे हि । मुच्छएँ णा णिधारित तावेहिं ।।३11 णिवडिउ धरणि-पढ़ें णिचेयणु। दुषखु समुट्टिन पसरिय-वेग्रणु ॥४॥ घरण घरघि रुएवएँ लागउन 'हा भायर मई मुऍधि कहिं गउ ||५|| हा हा मायर का कि णिवारिध । जग-बिरुद्ध धवहरिज णिरारिउ ।।३॥ हा मायर सरीरें सुकुमारएँ। कम पियारिउ चकहाँ धार ॥७॥ हा मायर दुपिणदएँ भुस । सेज नुएँ बि कि महियले सुसङ ॥६॥
किं अवहेरि करेवि थिङ भरुमि सुटुम्माहियत
धत्ता सीसें चडाविय चलण तुहारा । थिउ फुटु आसिक्ति महारा' ॥९॥
[३] रुअा विहीसशु सोयमियड। 'तुहुँ पस्थमिड बसु भयभियउ ॥1॥ तुहुँ ण जिओऽसि सयलु जिउ तिहुअणु मुहुँण मुओऽसि मुअर वन्दिय-जणुार, तुकै पद्धिोऽसि ण पडिङ पुरन्दरु। मउगु ग भगा भग्गु गिरि-मन्दर ॥३॥ दिहि ण ण णट्ट लकाउरि । वाय ण ण णट्ठ मन्दोरि ।।३।।
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छतरिम संधि
३५
चूक गया हो। रात्रणके धराशायी होते ही, निशाचरोंके मन बैठ गये। महारथी राजाओंके प्राण सूख गये, राम-उक्ष्मण के सिरों पर देवताओंने फूल बरसाये ॥ १-२ ॥
[२] देवताओंने रामकी सेनाको साधुवाद दिया, विद्याके नम्र होते ही आदत होने लगी। इस अवसर इसी बीच, विभीषणका हाथ, मणिगणसे चमकती हुई अपनी छुरीके ऊपर गया। वह आत्महत्या करना ही चाह रहा था कि मानो मूर्छाने उसे थोड़ी देर के लिए रोक दिया, वह धरती पर अचेतन होकर गिर पड़ा। बड़ी कठिनाई से वह दुबारा उठा, उसकी बेदना बढ़ने लगी। पैर पकड़ कर, वह रो रहा था, "हे भाई, मुझे छोड़कर तुम कहाँ चले गये। हे भाई, मैंने मना किया था, तुम नहीं माने। तुम्हारा आचरण एकदम लोक विरुद्ध था । हे भाई, अपने सुकुमार शरीरको तुमने चक्रधारासे कैसे विदीर्ण किया। हे भाई, तुम इस समय खोटी नींद में सो रहे हो, सेज छोड़कर तुम धरतीपर सो रहे हो। तुम उपेक्षा क्यों कर रहे हो, मैं तुम्हारा चरण पकड़े हुए हूँ। मैं तुम्हारे सामने बैठा हूँ। हृदयके दो टुकड़े हो चुके हैं, हे आदरणीय, आलिंगन दीजिए" ॥१-९॥
[३] शोकसे व्याकुल होकर विभीषण विलाप करने लगा, “हे भाई, तुम नहीं डूबे, सारा कुटुम्ब ही डूब गया है। तुम नहीं जीते गये, त्रिभुवन ही जीत लिया गया। तुम नहीं मरे, वरन् तुम्हारे सब आश्रितजन ही मर गये हैं। तुम नहीं गिरे, बल्कि इन्द्र ही गिरा है। तुम्हारा मुक्कुट भग्न नहीं हुआ प्रत्युत मन्दराचल ही नष्ट हो गया। तुम्हारी दृष्टि नष्ट नहीं हुई, वरन् लंकानगरी ही नष्ट हो गयी । तुम्हारी वाणी नष्ट नहीं हुई प्रत्युत
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पउमचरित
हारु ग तुष्टु तुष्टु तारायण । हियउ ण भिण्णु भिग्णु गयणगणु ।।५।।
कुण तुफ हुकु एन्तर । आउ ण खुद्द खुटु रमणायक ||६|| जीउ ण गउ गत आसा-पोद्दल । सु? ण मुत्तु सुत्तउ महि-मण्डलु ॥ ७॥ सीय ण माणित गणिय जयगर : मारे-मक मटन पण कन्नर केसरि ८11
पत्ता
सुरवर सपढ-वराणा रावण पई सोहेश घिणु
सयल-काल जे मिग सम्भूया । ते वि अनु सरधन्दीहया ।।९।।
[ ] सयल-सुरासुर-दिण्ण-पसंसहाँ। अञ्जु अमाल रक्तस-वंसहो ॥१॥ खल खुरहुँ पिसुणहुँ दुवियन हुँ । अनु मणीरह सुरवर सपनहुँ ॥२॥ दुन्दुहि वजाउ गजउ मायरु। अजु तब सच्छन्दु दिवायरु ।।३।। अज मियङ्घ होउ परवन्त 31 बाउ बाउ नगे अजु सहस्तउ ||१|| अअ धणउ धण-रिद्धि प्रियच्छत । अल जलन्तु जल णु अगें अच्छउ ||५|| अजु जम हों णिचहउ जमत्तणु । अजु झरंड इन्दु इन्दत्तणु ।।६।। अजु घणहैं परन्तु मणोरह। अजु गिरगल होन्तु महागह ।।७।। भजु पफुल्लउ फलउ वणासह। अजु गाउ मोकलउ सरासई' ।।८।।
पत्ता
ताव दसाणणु आहयणे धाइड मन्दोयरि-पमुह
पडिड सुचि स-दोरु स-णेउरु । पाहावन्तु सयलु अन्तंडरु ॥५॥
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सत्तरिमो संधि
मन्दोदरी नष्ट हो गया है । तुम्हारा हार नहीं टूटा, परन्तु तारागण ही टूट गये है। तुम्हारा हृदय भग्न नहीं हुआ, प्रत्युत आकाश ही भग्न हो गया है। चक्र नहीं आया है प्रत्युत्त एक महान र आ गया है : हुमना नहीं हुई, परन्तु समुद्र हो सूख गया है। तुम्हारे प्राण नहीं गये, प्रत्युत हमारी आशाएँ ही चली गयी हैं । तुम नहीं सो रहे हो, प्रत्युत यह सारा संसार सो रहा है। तुम सीताको नहीं लाये थे, प्रत्युत यमपुरीको ले आये थे । रामकी सेना कुद्ध नहीं हुई थी, प्रत्युत सिंह ही क्रुद्ध हो उठा था। हे रावण, बेचारे देवताओंका जो समूह, सदैव तुम्हारे सम्मुख मृग रहा, हे रावण, वह तुम जैसे सिंह के अभाव में, अब स्वच्छन्द हो गया है॥१-२॥
[४] जिस निशाचरवंशकी समस्त सुर और असुरोंने प्रशंसा की थी आज उस राक्षस वंशका अमङ्गल आ पहुँचा है । खल, क्षुद्र, चुगलखोर और मूर्ख देवसमूहकी कामना आज पूरी हो गयी। नगाड़े बजे | समुद्र गरजे, अब सूर्य स्वतन्त्र होकर तपे, अब चन्द्र प्रभासे भास्वर हो जाये, हवा अब दुनियामें आजादीसे बहे, कुबेर भी अब अपना वैभव देख ले । अब आग दुनियामें जी भर जल ले। आज यमका यमत्व निभ ले। अब इन्द्र अपनी इन्द्रता चला ले। आज मेघोंके मनोरथ सफल हो लें, और महामह उच्छखल हो लें। आज वनस्पतियाँ भी फूल-फल लें, सरस्वती भी आज मुक्तकंठ होकर गाले । जब रावणके सडोर और नूपुरसहित अन्तःपुरने यह सुना कि युद्धमें रायण मारा गया है, तो वह मन्दोदरीको लेकर रोसा-बिसूरता वहाँ आया ॥१-९॥
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पउमारत
[५] दुम्मा दुव-महपणवें वित्तउ। पिय-विभोय-जालोलि-पमित्त: ।। ३।। मोकल-कैसु विमण्टाल गत्तर। विह हफा मिवतन्तुहन्तर ।।२।। उद-हत्थु उदाहायन्तउ । अंसु-जोग पसुह सिञ्चन्तउ ।।३।। गेउर-हार दौर-गुणपन्त । चन्दग-इ-कदमें खुष्पन्न ||१| पोप-पश्रीहर-मारकाम्नउ । कजल-जल-मल-महलिजन्तउ ।।५॥ ण कोइल-कुल कहि मि पयउ। पर्ण गणियारि-गहु बिच्छुदृउ ।।६। गं कमालणि-वणु धामहो चुका णं हभिउलु महासर-मुकउ ||3|| कलुग-मरेण रसन्तु पचाइउ । णिविसें रण-धरित्ति सम्पाइस ३० ।।
घत्ता
हयगय मड-रुहिरारुणिय रत्ता परिहे वि पर वि
समर-वसुन्धरि सोह ण पाबइ। थिय रावण-अणुमरणे गावह ।।९।।
दिट्ट महाहवु चिणिवाइय-महु । मामिस-सोणिय-रस-बस-वीस ॥१॥ हैल-रुण्ड-विच्छह-मय रु। लोहाविय-धय-चिन्ध-णिान्तरु ॥२॥
चिय-उद्ध-कवन्ध-विसन्धुलु । वायस-धोर-गिद्ध-सिच-सङ्कुलु ॥३॥ कहि मि आयवत्तइँ ससि-धवल है। गं रण-देवय-अक्कण-कमकर॥४॥ कहि मि तुरङ्ग वाण-विणिभिण्णा । स्प-देवयाँ गाई लि दिण्णा ॥५॥ कहि मि सहि धरिय गहें कुक्षर । जल-धारा ऊरिय जलहर ।।६॥
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रिम संधि
३९
[3] उसे देखकर ऐसा लगता था, मानो दुर्मन वह दुःखके समुद्र में डाल दिया गया हो। प्रियके वियोगकी आगमें जैसे वह जल उठा हो । उसके बाल बिखर गये, शरीर अस्त-व्यस्त हो गया, उठता-पड़ता वह नष्ट हो रहा था। ऊँचे हाथ कर, वह दहाड़ मार कर विलाप कर रहा था । आँसुओंसे धरती गीली हो चुकी थी। नूपुर, हार, डोर, सब चन्दन के छिड़काव की कीच में खच गये थे। पीन पयोधरोंके भारसे वह आकान्त श्रा । काजलकै जलमलसे वह मैला हो रहा था । मानो कोयलोंका समूह ही कहीं जा रहा हो, या इथिनियों का समूह ही विखर गया, या मानो, कमलिनियोंका वन ही अपने स्थानसे भ्रष्ट हो गया हो । वा मानो हंसिनीकुल किसी महासरोवरसे छूट गया हो । करुणस्वर में रोता हुआ वह वहाँ आया और एक ही पलमें पूर्वपर न पहुँ। अश् गज और योद्धाओंके खूनसे रँगी हुई युद्धभूमि बिलकुल अच्छी नहीं लग रही थी, ऐसा जान पड़ता था मानो वह लाल वस्त्र पहनकर, रावणके साथ अनुमरण करने जा रही हो ॥१६॥
·
[६] अन्तःपुरने जाकर देखा वह महायुद्ध | कितने ही योद्धा मरे पड़े थे, मांस, रक्त, रस और मजासे लथपथ । हड्डियों और धड़ों से भयंकर था वह । उसमें ध्वज और दूसरे चिह्न लोटपोट हो रहे थे। नाचते हुए कुद्ध कबन्धोंसे अस्तव्यस्त और वायस (कौवा), भयंकर गीध और सियारोंसे वह व्याप्त था। कहीं पर चन्द्रमाके समान सफेद छत्र पड़े थे, मानो युद्धके देवताकी पूजाके लिए कमल रखे हुए हों। कहींपर तीरों से क्षत-विक्षत अश्व थे, भानो युद्धके देवता के लिए बलि दी गयी हो। कहीं पर तीरोंने हाथको आकाशमें छेद रखा था, वह ऐसा लगता था, मानो जलधाराओंसे भरे हुए मेघ हों,
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पउमचरित
कहि मि रहा-मग थिय रहवर । णं जासणि-सूडिय महिहर ।।७।। तहि दहस्यणु दिह बहु-धाहट । कम्प-तरु व पलोटिय-साहउ |८|| रज-गयालण-रखम्भु व छिपगढ़। लक्षण-चक्करयपा-चिणि मियाउ ।।९॥
पत्ता
दह दियहाई स-रसियर तेग चल से जहिं चवि
ज जुमन्तु | णिहएँ भुप्तउ | रण-बहुअएँ समाणु णं सुत्तउ ॥३०॥
[ ] दि पुणो वि णाहु पिय णारिहि । सुनु मत्त-हत्थि व गणियारिहिं ॥३॥ वाहिमिहि व सुकर यणायरु। कमलिणिहि व अत्यषण-दिवायरु ।।२।। कृमुइणिहि ब जरद मयलञ्छणु । विजुहिन छुन छुद्ध वरिसिय-घागु ||३|| अमर-बाहिं व चषण-पुरन्दर। गिम्भ-दिसाहि व अक्षण महिहरु ।।४।। भमरावलिहि म्व सूडिय-तरुषरु । कलहसीहि म्व अ-जलु महा-सरु ||६|| कल्यण्ठीहि म माइच-णिग्गम् । पाइणिहिं वहय- गरुड भुयामु ॥३॥ बहुल-पओसु व तारा-पन्तिदि। सेम दलास-मासु तुकम्तिहिं ||७|| दस-सिरु दम-सेहरु दस-मउडउ । गिरिव स-कन्दा स-तरु स-डउ ॥८॥
धत्ता
गिएँ वि भवरथ दसाणणहाँ अन्तेउरु मुच्छा-दिहल
हा हा सामि' मगातु स-चेयणु । गिरिउ महिहि झत्ति णिश्यणु ॥५॥
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उसत्तरिमो संधि
"
कहींपर टूटे-फूटे पहियोंके रथ थे, कहींपर वनाशनिसे चकनाचूर पहाड़ थे। कहींपर बहुत-से हाथोंवाला रावण उस अन्तःपुरको दिखाई दिया, मानो छिन्न शाखौवाला कल्पवृक्ष ही हो । मानो राजकीय हाथियों के बाँधनेका टूटा-फूटा खूटा हो । रावण, लक्ष्मणके चक्ररत्नसे विदीर्ण हो च का था । अनुरक्त दशों दिशाओंसे जूझते-जूझते जो यह नींद नहीं ले पाया था, मानो वह आम पक्रकी से जपर चढ़ कर, युद्धरूपी वधूके साथ सानन्द सो रहा है ।।१-१८॥
[७] उसकी प्रिय पनियों ने अपने स्वामोको इस प्रकार देखा, जैसे इथिनियाँ सोये हुए हाथीको देखती हैं या जैसे नदियाँ सूखे हुए समुद्रको देखती हैं, या जैसे कमलिनियाँ अस्त होते हुए सूरजको, या जैसे कुमुदिनियाँ बूढ़े चाँदको देखती हैं, या जैसे बिजलियाँ रिमथिम बरसते मेघको देखती हैं, या जैसे अमरांगनाएँ च्युत्त इन्द्रको देखती हैं, या जैसे प्रीष्मकालकी दिशाएँ, अंजनागिरिको देखती हैं, या जैसे भ्रमरमाला सूखे हुए पहाड़को देखती है, या जैसे कलहंसियाँ जलविहीन किसी महासरोवरको देखती हैं, या जैसे सुरषाली कोयलें माधषके बीत जानेको देखती हैं, या जैसे नागिनें गरुड़से आहत सर्पको देखती हैं, या तारा मालाएँ जैसे कृष्णपक्षको देखती हैं, उसी प्रकार वह अन्तःपुर रावणके निकट पहुँचा । उसके दस सिर थे, दस शेखर और दस ही मुकुट थे, वह ऐसा लगता था मानो गुफाओं, वृक्षों और चोटियोंके सहित पहार ही हो। रावणकी वह दशा देखते ही अन्तःपुर–"हे रात्र" कहकर बेदनाके अविरेकसे व्याकुल हो उठा, और शीघ्र हो धरतीपर बेहोश गिर पड़ा ॥१-२॥
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४२
पउमचरित
[८] तारा-चाव थाणहाँ चुछ। दुक्खु दुक्खु मुच्छ आमुछउ ।।३।। लग रुएश्वएँ तहिं मन्दायरि। उम्बसि रम्म तिलोसिम-सुन्दरी ।।२।। चन्दवयण सिस्किन्ताद्धारे । कमलाणण गन्धारि वसुन्धरि ।।३।। मालइ चम्पयमाल मणोहार। जयसिरि चन्दणलेह तरिं ।।४।। लच्छि वसन्तलेह मिगलोयण। जोयणगन्ध गोरि गोरोयण ||५|| रयणावलि मयणालि सुप्पह । कामलेह कामलय सयमह ।।६।। सुहय वसन्तनिलय मलयावइ । कुकमतह परम पउमावई ।।७।। उप्पलमाल गुणावलि णित्रम कित्ति त्रुद्धि जयलरिछ मगोरम ||4I
ঘনা
भा, हिं सोभाऊरियहि अट्ठारहहि मि शुषइ-सहा हि । गव-घण-मालाडम्वहिं छाइउ बिम्स जैम घउ-पासे हि । ९॥
[२] रोबइ लका-पुर-परमेसरि । 'हा रावण तिहुमग-जग-केसरि ॥११॥ र विणु समस्तूरु कहाँ कमा । पर विणु वाल-कोल कहाँ छाई ।।२।। पर पिणु णवभाइ-एकीकरणक। को परिहेसह काठाहरगउ ||३|| पर विणु को वि विज आराखड। पर विष्णु चन्द्रहासु को साहा ।। को गन्धव-वावि मारोहह। कृण्मा छ वि महासु संखोहह ।।। पर विणु को कुबेरु मजेसइ । तिजगविहसणु कहाँ वसिहोसह ॥॥ पई विणु को जमु विणिवारेसा । को कहलासुन्दरण करेसह ।।। सहसकिरणा-णक्षकुम्बर-साकहुँ। को अरि होसइ ससि-वरुणकहुँ 11८।। को णिहाण-स्यगई पालेसह को बहुरूविणि विज लएसा |||
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छसप्तरिमो संधि
[८] ऐसा लग रहा था मानो ताराचक्र अपने स्थानसे च्युत हो गया हो। बड़ी कठिनाईसे रनिवासकी मूछी दूर हुई। मन्दोदरी, उर्वशी, तिलोत्तमा, सुन्दरी, चन्द्रवदना, श्रीकान्ता, अनुद्धरा, कमलमुखी, गान्धारी और वसुन्धरा, मालती, चम्पकमाला, मनोहरी, जयश्री, चन्द्रलेखा, तनूदरी, लक्ष्मी, वसन्तलेखा, मृगलोचना, योजनगन्धा, गौरी, गोरोचना, रत्नावली, मदनावली, सुप्रभा, कामलख:, कामलता, स्वयंप्रना, सुहृदा, वसन्ततिलका, मलयावती, कुंकुमलेखा, पद्मा, पद्मावती, उत्पल. माला, गुणावली, मिरुपमा, कीर्ति, बुद्धि, जयलक्ष्मी, मनोरमा आदि सभी रोने बैठ गयीं। शोकसे व्याकुल रोती विसूरती हुई स्त्रियांसे घिरा हुआ, रावण ऐसा जान पड़ता था, मानो नब मेचमालाओंसे विन्ध्याचल सब ओरसे घिरा हुआ हो ।।-२||
[९] लंकानगरीकी स्वामिनी फूट-फूट कर रोने लगी, "निमुवनजनके सिंह, हे रावण, अब तुम्हारे बिना युद्धका नगाड़ा कौन यज्ञबायेगा ! अब कौन, तुम्हारे अभावमें बालक्रीड़ाएँ करेगा ! तुम्हारे बिना नवग्रहोंको कौन इकट्ठा करेगा! कौन कण्टाभरण पहनेगा ! तुम्हारे बिना कौन विद्याकी आराधना करेगा ! कौन चन्द्रहासको साधना करेगा ! गन्धवोंकी वापिकामें कौन प्रवेश करेगा! छह हजार कन्याओंके मनमें कौन क्षोभ उत्पन्न करेगा! तुम्हारे बिना कुबेरका नाश कौन करेगा! त्रिजगभूषण महागज किसके वश में होगा! तुम्हारे बिना यमको कौन रोक सकेगा ! और कौन कैलासपर्वतका उद्धार करेगा ! सहस्रकिरण, नल-कूबर, इन्द्र, चन्द्र, वरुण और सूर्यसे अब कौन दुश्मनी लेगा ! अब कौन रत्नकोशको संरक्षण देगा!
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पउमरिड
पत्ता
सामिय पहूँ मविएण विणु पुष्फ विमाण चवि गुरु-मत्तिएँ । मेरु-सिहरें जिण-मन्दिर को मई णेसइ बन्दग-हत्तिएँ' ।।१०॥
पुणु वि पुणु वि गमणझणगोयरि । कलुणकन्दु करइ मन्दोपरि ॥१॥ 'णन्दण-वणे दिज्जन्ति मनोहरि । सुमरमि परियाय-तरु मारे ।।२।। पाण-वाविहें यण-परिचता । सुमरमि ईसि ईसि अवरुष्माणु ॥३॥ सयण-मवणे णह-शिवर-वियारणु | सुमरमि कीला-
पय-तारण ||१|| पयण-रोस-समए मय-बादणु। सुमरमि रसणा-दाम-णिबन्धणु || सुभरमि दिनमाणु दणु-दावणि। धरणिन्दहाँ के रउ धूम-मणि ॥६॥ सुमरमि सामि कुमााहों केरउ । घरहिण-पेहुण-कणेऊरउ ।।७।। सुमरमि सुर-करि-मय-मल-सामलु । हारें विजमाणु मुताइलु ॥८॥
घत्ता
सुममि सइँ सुस्यालहणे णेउर-घर-मार विलासु । नो ह महारट पजमउ हियड ण वे-दलु होइ णि राषु' ।।९।।
पुणु वि पुणु वि भन्दायरि जम्पद । 'उहूँ मडारा केत्तिउ सुष्पइ ।।१।। जइ वि पिरारिड णि सुतः। तो वि ण सोइहि महियाले सुत्तउ॥२॥ सामिय को अवराहु महारउ | सीयह पूई गय सय-वारउ ।।३।। तो इ अ-कारणे जे भाण्टुर। जेण परिहिउ पाराउटुट' ॥१॥
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छसत्तरिमो संधि अय कौन बहुरूपिणी विद्याको प्रहण करेगा! हे स्वामी, आपके न रहनेपर, अव कौन पुष्पकविमानमें चढ़ाकर वन्दनाभक्तिके लिए, सुमेरुपर्वतके जिनमन्दिरोंके लिए मुझे ले जायेगा!" ॥१-१०||
[१०] विद्याधरी मन्दोदरी बार-यार करुण क्रन्दन कर रही थी । वह कह रही थी-"मुझे पारिजातकी वह मंजरी याद आ रही है जो तुमने नन्दन वनमें मुझे दी थी, याद आता है वह समय मुझे जबकि तुम स्नानामिका में मेरे पानपः. सात थे, और धीरे-धीरे मेरा आलिंगन करते थे | याद करती हूँ जब शयन भवन में तुम अपने नखोंसे मुझे क्षत-विक्षत कर देते थे। याद आता है, आपका उस लीलाकमलसे मुझे प्रताड़ित करना। मुझे याद आ रही है कि जब मैं प्रणयकोपमें बैठी होती, तब तुम अपने हाथों मुझे करधनी पहनाते और मैं पागल हो उठती। मुझे याद आता है कि तुमने दानवोंको चौंका देनेवाला नागराजका चूड़ामणि मुझे लाकर दिया था। हे स्वामी, मैं याद करती हूँ कुमारके मयूरपंखका कर्णफूल | मुझे याद है कि ऐरावतके गन्ध जलकी तरह श्यामल तुमने मेरे हारमें मोती लगाया था। हे प्रिय, मैं याद करती हूँ सुरतिसमारम्भकाल में नू पुरोंकी स्वरलहरियोंका लीलाविलास, फिर भी मेरा यह बच्चका बना हुआ निराश हुनय टूटकर टुकड़े-टुकड़े नहीं होता! ।। १-२॥
[१] मन्दोदरी बार-बार कह रही थी, "हे आदरणीय उरें, तुम कितना और सोओगे ! जानती हूँ कि तुम गहरी नींदमें सो गये हो। फिर भी धरतीपर सोते हुए तुम शोभित नहीं होते । हे स्वामी, हमारा क्या अपराध है, मैं हजार बार सीतादेवीकी दूती अनकर गयी। फिर आप मुझपर अकारण अप्रसन्न हैं, जो आप मुझसे इस प्रकार विमुख हो गये हैं !” उस करुण प्रसंग
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पत्रमरित तहि अवसर विउ पक्रवि धाइउ । कावि करेह अलीयह (?) साइड ॥२॥ आलिम्पिशु सध्यायामें। का वि णिवन्ध रसणा-दाम ॥६॥ का विवरसुमि हारे । मिस गरें । का वि उरे ता.वि लीला-कमलं । पमण इ मउलिएण मुह कमसे ॥६॥
छत्ता 'नम्ह हैं चम-धार-यहुअ ाइ वि गिरारिउ पाणहुँ रुष्टइ। तो कि महु पंकसन्तियाँ हिया पट्टी णिविसु ण मुच्चइ' ॥९॥
[२] का त्रि केसाबलि रोलावद। कारणाहि-सन्ति खलाबह ॥१॥ का वि डिल भउहावलि दावइ । हणइ मयाग-प्रणु-छट्टिएँ णविद ॥२॥ का वि जिएइ दिद्वि सु-विसालाएँ। र्ण ढकई पीलुप्पल-माल ॥३॥ का वि अहि सिजइ अविरल-वाहें। पाउस-सिर गिरि व्व जल-चाहे ॥४॥ का वि पियाणणे आणणु लायइ । णं कमलापरि कमलु चढावह ॥५॥ कवि आलिगाइ भुहि विसालहि । णं मोमालइ माल-मालहि ।।६।। का वि परिमसह अग्गा-हस्थयल । छिबइ गाई । व-लीला-कमले ||७| का वि गिम्मक-करमह पयडावद । णं दह मुहहुँ व दप्पणु दाबद्द ।।८।। का बि पओहर-घर-जुअलेणं । सिवा लायग्ण-जलेणं ॥९॥
पत्ता
तहि अवसर केण वि गरेंण इग्या-कुम्भयपण-आधासम् । सहसा जिह ण मरन्ति तिह रावण-मरणु फहिउ परिहासएँ ॥१०॥
[३] 'अजु महन्तु दिट्ट अचरियउ। किह कमलेण कुळिसु जनरिया ॥३॥ किह मुहिएँ मेरु इ मुसुमूरिउ । किह पायालु तिलबें पूरिज ।।२।। .
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छसप्तरिमो मंधि पर, प्रिय को आहत देखकर कोई झूठी आकृति बना रही थी, कोई उसका आलिंगन कर अपनो करधनीसे उसे बाँध रही थी, कोई उत्तम वस्त्रसे, कोई हारसे, कोई सुगन्धित कुसुमभारसे. कोई लीलाकमलसे अपनी छाती पीट रही थी, कोई मुरझाये हर मुखकमलसे बोल रही थी। तुम्हें यद्यपि चक्रकी धाररूपी वधू, प्राणोंसे इतनी प्यारी है, फिर हमारे देखते हुए भी हदयमें घुसी हुई उसे एक पलको तुम नहीं छोड़ सकते ॥ १-२ ॥
[१२] कोई अपनी केशराशि बिखेर रही थी, मानो काले नागोंकी कतारको खिला रही हो, कोई अपनी कुटिल भौहें दिखा रही थी, मानो कामको धनुष लताले आइत करना चाइ रही हो। कोई अपनी बड़ी-बड़ी आँखोंसे देख रही थी मानो नीलकमलोंकी मालासे ढक लेना चाहती थी। कोई अविरल आँसुओंकी धारासे सींच रही थी, मानो जलकी धारा पावस लक्ष्मीका अभिषेक कर रही हो। कोई एक प्रियके पास अपना मुख ले जा रही थी, मानो कमल के ऊपर कमल रख रही हो। कोई अपनी बड़ी-बड़ी मुजाओंसे आलिंगन कर रही थी, मानो मालतीमालासे लिपट रही हो, कोई हाथकी हथेली उसपर फेर रही थी, मानो नये कमलसे उसे छू रही हो। कोई अपना निर्मल करकमल प्रकट कर रही थी, मानो रावणको वर्षण दिखा रही थी। कोई पयोधरोंके घट युगलसे उसे छू रही थी, मानो सौन्दर्य के जलसे उसे सींच रही थी। उस अवसरपर किसी एक आदमीने इन्द्रजीत और कुम्भकर्ण के आवासपर जाकर, परिहासके इस ढंगसे राषणकी मृत्युका समाचार दिया कि जिससे उन्हें धक्का न लगे ।। १-१०।।
[१३] उसने कहा, "आज मैंने बहुत बड़ा अचरज देखा। क्या कमल बनको नष्ट कर सकता है ? या मुट्ठी सुमेरु पर्वतको
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पउमचरिउ
किह इन्धणेण दबु वहसाणरु। किह चुलुएण सुसिउ रयणायर १११।। किह पोलैंण णिबद्ध पहाणु। किष्ट करेग्य दकिट मयसम्छणु ॥४॥ दिणयह तेय-गसि कर-दुमछु । कि जोद्दलणेण किउ णिप्पा ॥५॥ किह पडेण ५च्छष्णु पहायड। किह सिव-पहु अण्णाणे णायड ॥६॥ किह परमाणुएण गहु छाइट । किह गोप महिमपाल माइट ।।७॥ किह भतएण तुलित भुवण-नउ । मरणावस्थ कालु कह पत्ता
घत्ता तं एरिसर वयणु सुर्णे वि रावण-तणयहुँ विम-सारहे । इन इ-पमहउ मुच्छियउ भद्ध-पन कोडीड कुमारहुँ ।।५।।
[१४] णिवडिव कुम्रयपणु सहुँ पुहि । जे मयलञ्छशु सहुँ णक्यत्तेहि ।।१।। ण अमराहिट सहियउ अमरें हिं । सित्त जलेण पविजिउ चमरें हिं ॥२॥ उद्दिड दुक्खु टुक्नु दुरपाउरु। सोयहाँ सगउ गाई पदमकुरु ॥५॥ लग्गु रुपवएँ 'हा हा भारि । हा हा हउ हरिणेहि व केसरि ॥४॥ हा विहि तुहु मि हउ दालिदिउ । हा सवड तुडु मि किह छिदिड ॥५॥ हा जम तुहु मि महाहवें घाउ । हा रयणायर सुह मि तिसाइड ।।६॥ हा मरु तुहु मि णिवन्धणु पत्तड । हा रवि तुहु मि किरण-परिचसउ ॥७॥ हा ददोऽसि तुहु मि धूम द्धय । पीसोहा तुहु मि मयरद्धय ॥८॥
घत्ता हा अचछिन्द तुमि चलिउ तुहु मि पयावर भुक्खएँ भग्गउ । पुषण महरष पेक्यु क्रिह वञ्जमा वि सम्में घुणु लागउ' ॥५॥
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छसत्तरिमो संधि
४९
मसल सकती है। क्या तिलका आधा भाग पातालको भर सकता है ? क्या इंधन आगको जला सकता है ? क्या चुल्लू समुद्रको सोख सकती है ? क्या पोटली हवाको बाँध सकती है ? क्या हाथं चन्द्रमाको ढक सकता है ? क्या तेजपुंज, किरणोंसे असह्य सूरजको जुगनू कान्तिहीन बना सकता है ? क्या कपड़ा प्रभातको हक सकता है ? क्या भगवान् शिव अज्ञानसे जाने जा सकते हैं? क्या परमाणु आकाशको ढक सकता है? क्या गोपद, धरतीमण्डलको माप सकता है ? क्या मच्छर संसारके साथ तुल सकता है, क्या काल मर सकता है। उसके यह वचन सुनकर विक्रममें श्रेष्ठ रावणके इन्द्रजोत प्रमुख, ढाई करोड़ तुम सहसः छिस हो गये।। (-५ ।।
[१४] कुम्भकर्ण भी अपने पुत्रों के साथ इस प्रकार गिर पड़ा मानो नक्षत्रोंके साथ चन्द्रमा ही गिर पड़ा हो, मानो देवताओं के साथ इन्द्र धराशायी हो गया हो। जलके छिड़काव और हवा करनेपर उसे होश आया । दुःखसे व्याकुल वह बड़ी कठिनाईसे उठा, मानो शोकका पहला अंकुर निकला हो। वह रोने लगा, "हे भाई, हे भाई! हिरणोंने सिंहको पछाड़ दिया; हे विधाता, तुम दरिद्री हो गये। तुम सबमें बहुछिद्री हो गये, हे यम, महायुद्ध में तुम्हें मरना पड़ा। हे समुद्र, तुम्हें भी प्यास लग आयो। हे पवन, तुम भी आज बन्धनमें पड़ गये। हे सूर्य, तुमने अपनी किरणोंको छोड़ दिया ? हे अग्नि, तुम भी नष्ट हो गये ? है कामदेव, आज तुम्हारा भी सौभाग्य जाता रहा । हे. अचलेन्द्र, आज तुम डिग गये; प्रजापते, तुम्हें भी भूख लग आयी ? पुण्यका भय होनेसे देखो वनके खम्भों में भी घुन लग जाता है ॥ १-९॥
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पउमचरिउ
ताव स-वेयणु उदिउ इन्दह। अप्पड इणई घिवह परिणिन्दह ॥१॥ 'हा हा ताय ताय माणुषणय 1 सुरवर-समर-सहासहि दुजय ॥२॥ पइँ अधन्नएण अन्यमियर। बोलिय-इसिय-रमिय-परिममियई ।। सुत्त-विउद्ध-गमण-आगमण.। परिडिय-जिमिय-पसाहिय-हवणहूँ ।।४।। वण-कीला-जल-कोला-याण। पुतुच्छव-विवाह-वर-पाणई' ।।५।। गेय पण नियाई वर-वजहै। परियण-पिण्डवास-मियरजइँ' ।।६।। तोयदवाहणो वि स कुमारउ । मुच्छाविज्जइ यय-सय-वारउ बा। कन्दर कणई पपड्डिय-वेगणु । अविरल-वाहाऊरिय-लोयणु |८||
घत्ता दुक्नु दसाणण-परियणही सोयहें दिहि जड लवण-रामहुँ । सुर घि सई भुचण हुँ चलिय ल पट्ट कवय-णामहुँ ।।१॥
[७७. सत्तसत्तरिमो संधि
माइ विओएं बिह जिद्द करइ विहोसणु सोय । तिह तिह सुपखेंग रुवइ स-हरि-बल-माणर-लोड ।।
दुम्मणु दुम्मण-बवणउ दुष्क द्धय-सस्थत
अंसु-जकोल्लिय-फायणउ । जहिं रावणु पस्दाथड ||
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सत्तमरिम संधि
[१५] वेदनासे व्याकुल इन्द्रजीत इसी बीच उठा । अपनेको वह ताड़ित करता पीटता और निन्दा करता। वह कह रहा था, "हे तात, हे मानोन्नत तात, तुम हजारों देव-युद्धों में अजेय रहे । तुम्हारे अस्त हो जानेसे बोलना, हँसना, रमना और घूमना सब दुनियासे विदा हो गये। सोना-जागना, आना, जाना, पहनना, खाना-पीना, श्रृंगार करना महाना, वन-क्रीड़ा, जलक्रीड़ा, स्नान, पुत्रका उत्सव, विवाह, उत्तम पान गेय नृत्य आदि उत्तम विद्याएँ जाती रहीं। परिजन और अपना राज्य भी अब अपना नहीं रहा। कुमारोंके साथ तोयदवाहन भी सौ सौ यार मूच्छित हो उठा। वह बेदना के अतिरेकमें करुण कन्द्रत कर रहा था। उसकी आँखोंसे आँसुओंकी अविरल धारा बह रही श्री । जो घटना रावणके परिजनों के लिए दुःखद थी, वही सीता, राम और लक्ष्मणके लिए भाग्यशाली थी । कपिध्वजी लोगोंने स्वयं लंका नगरी में प्रवेश किया ।। १-९ ॥
५३
सतहत्तरव सन्धि
अपने भाईके वियोग में विभीषणको जितना अधिक शोक दोता, राम-लक्ष्मण और वानर समूह भी दुःखके कारण उतना ही रो पड़ता ।
[१] उन्मन और उदास चेहरे से वानर समूह घड़ाँ पहुँचा, जहाँ रावण धरतीपर पड़ा हुआ था । उसकी आँखें
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पवमचरित तेण समाणु दिणिग्गय-णामे हिं। दिस साणणु लक्लण-रामे हि ॥२॥ दिट्इँ स-मा-सिरह पकोडहूँ । गाई सकेसराइँ कन्दोहद ॥३॥ दिवई माकयलई पायडियई। भञ्जयन्द-षिम्बाई व एडियई ।।४।। दिट्ठई मणि-कुण्डलई स-तेयई। गं खब-रषि-मण्डलइँ अणेयर ॥५॥ दिट्टर भउहउ भिउडि काल। णं पलयरिंग-सिहउ धूमालउ ॥६॥ दिट्टई दोह-बिसालई गेसह। मिहणा हघ भामरणाससई ।।७।। मुइ-कुहरहँ दबोट्टई दिट्ठहै। जमकरणाई प जमहाँ मजिटइँ ॥ दिट्ट महम्भुव मह-सम्दोई। गं पारोह मुकणग्गोहें ॥१॥ दिट्ट उर-स्थलु फाबिउ च। दिण-मजनु म(?)मज्मत्य बा ।।०॥ मवणियल व विन्झेण विहलिउ । णं विहि भाग हि तिमिर व पुञ्जि
घन्ता
पेक्रावि रामेण समरगणे रामण [ हो ] मुहाई। आलिनेप्पिणु धोरिव 'रुवहि विहीसण काइँ ॥१२॥
[२] सो मुउ जो मय-मत्तउ जीव-दया-परिचत्ता।
घय चारित्त-विहूणउ दाण-रणगणे दीण||१|| सरणाइय-वन्दिग्गहें गोग्गहें। सामि भवसर मिस-परिग्गः ॥२६ णिय-परिहवें पर-विहुरै ण जुज्ज ह । सेहउ पुरिसु विहीसण रूजइ । ३॥ भण्णु । दुनिय-काम-जणेरठ । गहउ पाव-मारु असु केरउ ॥३॥ सन्वंसह धि सहेवि ण सका। अहाँ अण्णा भणन्ति ण था।
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सत्तसत्तरिमो संधि आँसुओंसे गीली हो रही थीं। वानर समूहके साथ विश्वविख्यात राम और लक्ष्मणने भी रावणको देखा। लोट-पोट होते हुए, उसके मुकुट सहित सिर ऐसे दिखाई देते थे, मानो पराग सहित कमल हों, गिरे हुए उसके भालतल ऐसे लग रहे थे, मानो अर्धचन्द्र के प्रतिबिम्ब हों, चमकते हुए मणिकुण्डल एसे लगते थे माना अनेक प्रलयकालीन सूर्य हां, भृकुटि से भयंकर उसकी भौंहें ऐसी लगती थीं, मानो धुंधाती हुई प्रलयकी आग हो, उसके लम्बे विशाल मेत्र ऐसे लगते थे, माना मरणपर्यन्त आसक्त बढ्नेवाले युगल हों, दाँतोंसे युक्त मुखकुहर ऐसे लगते थे, मानो यमके अनिष्टतम यमकरण अस्त्र हो । योद्धाओंके समूहने जब रावण की विशाल भुजा देखो तो लगा जैसे वटवृक्षके तने हों, चकसे फाड़ा गया वनस्थल ऐसा दिखाई दिया, मानो सूर्यने मध्याह्नमें दिनके दो टुकड़ कर दिये हों। वह ऐसा लगता था मानो विन्ध्याचलने धरतीको विभक्त कर दिया हो, अथवा अनेक भागों में अन्धकार ही इकट्ठा हो गया हो। युद्धके प्रांगणमें, रावणके मुखों को देखकर, रामने विभीषणको अपने अंकमें भर लिया, और धीरज बँधाते हुए कहा, "हे विभीषण, तुम रोते क्यों हो" ॥१-१।।
[२] "वास्तव में मरता वह है जो अई कार में पागल हो, और जीवदयासे दूर हो, जो प्रत और चरितसे हीन हो, दान और युद्ध भूमिमें अत्यन्त दोन हो। जो शरणागत और षन्दीजनोंकी गिरफ्तारीमें, गायके अपहरणमें, स्वामीका अवसर पड़नेपर, और मित्रोंके संग्रह में, अपने पराभव और दूसरेके दुःख में काम नहीं आता, ऐसे आदमीके लिए रोया जाता है। इसके सिवाय, जो दुष्ट कर्मों का जनक हो, जिसके पापका भार बहुत भारी हो, यहाँ तक कि सब कुछ सहनेवाली धरतीमाता
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५४
पउमचरि
वेबइ बाहिणि किं सहूँ सीमहि ।
छिमाण वणसड् जग्ोस ।
पवणु ण मिडइ भाणु कर सइ विन्ध कहि ब्यि
एयही असलिय- माणड़ों पूपिणइणि आहो
रोबहि किं तिहुण वसियरण :
यहि किय-कुवेर विमाडणु । रोवहि किय-कलासुद्धा रणु । रोहि क्रिय- सुर-भुव वन्धणु । रोहि किय- दियर रह मांडणू । रोवहि किय- फणिमणि-उड़ाठणु ।
।
वाहाव खजन्ती ओसहि ॥ ६ ॥
कहुँ मरणु निरास होस 15 धणु रावल
T
पाच पिण्डु अणिहालिय धामु ।
धम्म-त्रिणउ सीविड जासु महिल-मिस-मंसहि मामु || ३ ||
शेवहि किह णिहि रयप्पाय
रोहि किय बहुरुविणि-साइणु ।
इ-चोरग्गिहुँ सम्बद्द ॥ ८ ॥
विसरुन स्याँहि ॥९॥
घत्ता
[ ३ ]
दिण्ण-निरन्तर दाणीं । रोबहि काई दसासौं || १ || क्रिय-जिसियर - सम्भुख रणउ ॥२॥ किय जम-महिस- सिङ्ग- उप्पादणु ॥३॥ सहस किरण-ल कुन्धर- बार ||४|| किय-अङ्गावय-दप्पणिसुम्मणु ॥५॥ किय-ससि केसरि केसर-तोदणु ॥ ३ ॥ किय वरुणाहिमाण संचालणु ॥७॥ किय- स्वणियर-नियर मध्याय 114 किय- दारुण-सह- समर ॥९॥
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सत्तसप्तरिमो संधि भी जिसे सहन नहीं करती, नदी काँपती है कि क्यों मेरा शोषण करते हो, खायी जाती हुई औषधि दहाड़ मारकर रो पड़ती है, छीजती हुई वनस्पति जिसके बारे में घोषणा करती है, जो आशा शून्य है उस का मरण ही कब होता है, उसे पवन नहीं कृता, सूर्य भी उसे अपने अधीन नहीं करता, राजकुल रूपी चोरोंसे जो धन इकट्ठा करता रहता है, जो अपने खोटे वचनोंसे काँटोंकी भाँति वेध देता है, और स्वजन जिसे विपवृक्ष मानते हैं। जो धर्मसे रहित है, पापपिण्ड है, जिसका कोई ठौर-ठिकाना नहीं, जिसका नाम महिप, पभ और मेषके मामपर हो, उसे रोना चाहिए ।।१-१॥
[३] परन्तु यह (रावण ) तो अस्खलित मान था । उसने निरन्तर दान दिया है, याचकजनोंकी उसने आशा पूरी की है, ऐसे रावण के लिए तुम नाहक रोते हो। तुम उसके लिए क्यों रोते हो, जिसने त्रिभुवनको वश में कर लिया था। जिसने निशाचर कुलका उद्धार किया । कुवेरका नाश करनेवालके लिए तुम क्यों रोते हो, जिसने यम और महिपके सींग उखाड़ दिये, जिसने कैलास पर्वतका उद्धार किया, उसके लिए तुम क्यों रोते हो ? जिसने सहस्रकिरण और नल-कूबरका प्रतिकार किया, जिसने इन्द्रको बन्दी बनाया, जिसने ऐरावतके घमण्डको चूर-चूर कर दिया, उसके लिए तुम क्या रोते हो, जिसने सूर्यका रथ मोड़ दिया, जिसने चन्द्रमाके सिंह के अयालको तोड़ डाला, जिसने साँपके फणमणिको उखाड़ दिया और वरुणके अभिमानको चलता किया, ऐसे उस निधियों और रत्नोंको उत्पन्न करनेवाले रावणके लिए तुम क्यों रोते हो ? जिसने समुचे निशाचर कुलको अपना बना लिया, बहुरूपिणी विद्याकी सिद्धि करनेवाले और अनेक भयंकर समरांगणोंके
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५.1
परमचरित
घत्ता
थिय अजरामर भुवण-पसिद्धि परिष्ट्रिय शासु । सय-सय-बारउ रोहि काई विहीसण तासु' ||Sam
सं णिसुणेवि पहागड मणा विहीमण-राणउ ।
पनिड मिदनासन भरिंउ भुवयु ॐ ॐपसहौँ ।३।। एण सरीर अविणय-याणे । दिवणह-जळ-बिन्दु-समाणे ॥२॥ सुरचावेण च अधिर-सहावें । तडिफरणेण व तकवण-मावें ॥३॥ रम्भा गम्भेण व णीसारें । पत्र-फलेण व सडणाहारें ।।४।। सुण्ण-हरेण व विडरिय-वन्धे । पहरेण व अइ-दुग्गन्धं ॥५॥ उकरुण च कीडावासें । अकुलोणेण व सुक्रिय-विणासे ||| परिवाहण व किमिकोट्टारें। असुइहें भुवणे भूमिहँ मारें ॥७॥ अट्टिय-पाहरण वस-कुण् । पूय-सलाएं आमिस-उ || मक कूडेण इहिर-जल-परणे । लसि-विवरेण धम्म-णिज्मरणे ।।१।। कुहिय-करडपण घिणिवन्ते। चम्ममएण इमण कु-जन्ते ॥०॥ तड गचिष्णु मण-तुरउण खश्चि उ । मोक्खु ण साहिउ पाहुण चिउ॥ ३१॥ ঋতুগ ধৰিত লক্ষিত সিরাহিত। ও কি নিল-মত ৰিাৰি।। नंगिसुवि विहारइ हलहरु। 'पद् व मिजावण- अबसरु' ।।।३।।
घत्ता एम मणेपिणु पुणु आए.सु दिनणु परिवारहौँ । 'थर-सहावई ___खलई व बहु कट्टर णांसारहों' ।।१४।।
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सत्तसत्तरिमो संधि विजेता रावणके लिए तुम क्यों रोते हो ? जो अजर अमर है, जिसकी संसार में प्रसिद्धि हो चली है हे विभीषण, तुम सौसौ बार उसके लिए क्यों रोते हो? ॥१-१०॥
[४] यह सुनकर प्रधान राजा विभीषणने कहा, "मैं इतना इसलिए रोता हूँ कि रावणने अयशसे, दुनियाको इतना अधिक भर दिया है। यह मनुष्य शरीर अविनयका स्थान है, जलकी बूंदके समान देखते-देखते नष्ट हो जाता है, इन्द्रधनुषकी तरह यह चपलस्वभाव है बिजलीकी चमककी तरह, उसी समय नष्ट हो जाता है; कदलीवृनके गाभकी तरह निस्सार है, पके फलकी तरह यह पक्षियोंका आहार बनता है। शून्य गृहकी भौति इस के सभी जोड़ विघटित हैं, बुरी वस्तुकी तरह यह दुर्गन्धसे भरा हुआ है । अपवित्र घस्तुके ढेरकी तरह जिसमें कीड़े बिलबिला रहे हैं, अकुलीनकी तरह जो पुण्यका विनाश करता रहता है। नगर नालीकी तरह जो कीड़ोंका घर है, जो धरतीपर अपवित्रताका भार है, जो इड़ियोंका देर और मज्जा. का कुण्ड है, पीबका तालाब है, और मांसका पिण्ड है, मलका कूट है, और रकका सर है, गुह्यस्थानसे सहित, जो पसीनेसे भरा हुआ है, हड्डियोंका देर घिनौना, चर्ममय एक खोटा यन्त्र है। इससे नप नहीं किया, अपने मनके घोड़ेका निवारण नहीं किया, मोक्ष नहीं साधा, भगवान्की चर्चा नहीं की-प्रत नहीं साधा, मदका निवारण नहीं किया, अपनेको तिनकेके बराबर इलका बना लिया।" यह सुनकर रामने कहा, "क्या यह निन्दाका अवसर है" | यह कहकर, रामने परिवारको आदेश दिया कि खलके समान कठिन स्वभाववाली लकड़ियाँ शीघ्र निकालो ॥१-१४३॥
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५८
पडमचरित
[4]
मद- णिवश अमेयें । सित्रय चन्द्रण- भिराइँ ॥१॥
कढें रामाप मेलावियई वित्ति चन्वर- गांमिरीस - सिरिखण्ड हूँ । लय कथूरी करङ्गएँ । एवं सुन्ध-महम-पसुहइँ । किङ्कर-वरे हिं तिलया। 'मेकावियई महारा कई । कामिन्द्रि व जण बहूँ। बरि-कुलाई व उक्त्वय-मूल हूँ। सुणेवि विणिग्गणा ।
देवदारुकालागखण्डइँ || २ || कङ्कालेला-लव लि-लवङ्गहूँ ||३|| णीमावि मसाहाँ समुह ॥ ४ ॥ कहि पत्रे सहवचन्द्रह ||५|| टुकुर- दाणाई [] कहूँ ॥ ६ ॥ कुकुम्बाई व थाहाँ मटुइँ ॥ ७॥ बाइ पुरिस-चिलाई व चुकइँ' ॥८॥ उच्चलावि रामणु राम ||१||
घन्ता
जंग तुलेपणु किड कलासु समुष्णइ सड सां विहि-कन्ग सामणदि मि जिद्द करगड ||१०||
[ ६ ]
परिवर्णे ।
उच्चाएँ दसाण मीस त्रिवि पारड केली-त्रण उच्छु-वण-समागाइँ । रहरियमाणमण व
सोड पत्र उट्टि हाहाकारक ॥१॥ खलई व उद्धइँ थियहुँ बिताई ॥२॥ पूरियस वन्धु तुषेण व ॥ ३॥ बहँ तोरणाएँ चरा दव || ४ || बिसई पाई कु· कलता हूँ
तूर हूँ पुत्र चद्दरा इव । चमरहूँ पाथियाई चित्ताई व फाडियाहूँ दोहा हूँ व सई 1
५॥
धरित्र संग्रहणाएँ व छत ||६||
चूरिया खल-सुहइँ व स्थगहुँ । खुइँ सङ्ग उलाहूँत्र कहूँ ॥ ० ॥
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सत्तमन्तरिम संघि
[4] रामका आदेश पाकर समस्त भट समूहने गीले चन्दनसे युक्त विचित्र ईंधन इकट्ठा किया। बबूल, गोरोचन, चन्दन, देवदारु, कालागुरु, कस्तूरी, कपूर, कंकोल, एला, लवली, लवंग आदि अत्यन्त सुगन्धित प्रमुख वृष्ठोंकी लकड़ियाँ, मरघटपर पहुँचाकर श्रेष्ठ अनुचरोंने त्रिलोकको आनन्द देनेवाले श्रीरामको प्रणाम किया और कहा, "के र हमने लकड़ियाँ डाल दी है, जो दुष्टके उत्कट दानकी तरह कठिन हैं, कामिनियोंके यौवनकी तरह जनोंके द्वारा मर्दन करने योग्य हैं, खोटे कुटुम्बकी तरह अपने स्थानसे भ्रष्ट हैं, शत्रुकुलकी तरह जो जड़ से उखाड़ दी गयी हैं, वादी पुरुषोंके चित्तकी भाँति जो स्थूल हैं ( मोदी हैं) ।" यह सुनकर विख्यात नाम रामने रावणकी अरथी उठवा दी। जिसने शक्तिसे कैलास पर्वत उठाकर उसके गर्वको खण्डित किया था, आज भाग्य के फेरसे साधारण लोग उसे उठाने लगे ॥१-१०॥
५२
[ ६ ] रावणकी अरथी उठाते हो, परिजनोंमें शोककी लहर दौड़ गयी । तरह- तरहका भीषण हाहाकार गूँज उठा । बड़े-बड़े वितान थे, जो कदलीवन और ईखके खेतोंकी तरह विकृत और दुटकी तरह उद्धत थे। मरघटके भय से पताकाएँ फहरा रही थीं। शंख उसी तरह पूरित थे जिस प्रकार भाई दुःखसे भरा हुआ था। पूर्व बेरकी तरह नगाड़े बजा दिये गये । चोरोंकी भाँति तोरण बाँध दिये गये । चित्तकी भाँति चमर गिर पड़े। खोटी स्त्रीकी भाँति पत्ते गिरने लगे। दुर्भाग्यकी भाँति (रेशमी ) वस्त्र फाड़े जाने लगे, संग्रहको भाँति छत्र धारण किये जाने लगे, दुष्टोंकी भाँति मोती चूरे जाने लगे, शंखोंकी तरह मुख क्षुब्ध हो उठे। इस प्रकार रावणको मृत्यु
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पउमचरित
आएं मरणाबन्थ-निहोणं । कालुणकन्दु करन्ते लोएं ।।८।। गिउ मसाणु सुरवर-सन्तावणु। विरइउ मल बड़सारित रावणु ॥९॥
__ धत्ता जो परिचहिउ पग्रल-काल कामिणि-थण-डेहिं । सो पुग्ण-क्ख पख्नु कम पहु पछिउ ? हि ॥१०॥
अढावय-कम्पावणे चिय' वडाधि रावणें।
सालन्यास ल-यो उरु सम्मानित अन्ते उरु ।।१।। बार-बार णि णिशेयणु । बार-बार राम्मिय स-वेयण ॥२॥ बार-बार उम्मुह धाहाब। छिन्नमाणु सङ्गिणि-उखु गावइ ॥३॥ अन्तेडर-अणुमरणासङ्कएँ। चिन्ध( कम्पन्ति व भणुकम्प ॥४॥ छनई एम भणन्ति वराया। पर विणु कालु करेगहुँ छाया' ।।१॥ नूरहि पम पाइँ धोसिज्जइ । 'पविणु कामु पासे जिजई' ॥६॥ 'को झुप्पसह रण-मर-लोहि'। एवं णा पाहाविउ सहि ॥७॥ महि अवसर तज्जोणि-विणासणु। सीयासाठ व विष्णु हुआसणु ॥६॥ सहसा उप्पर पडें घि पा सह । कम्पइ तसह एहसइण मुलुकह ॥९॥ 'सगिरि-ससायर-महि-कम्पावणु। मा पुणो वि जीवेसइ रावणु' ॥१०॥
धत्ता पुणु चि पडीवउ चिन्स इ एवं पाई धूमावउ । 'काइँ दहेसमि एयहाँ जो भयसेण जि दड्ढउ' ॥११॥
तहि अवसरें दुक्याउरु मइसिम-वयण-सरोरुहु
[-] लाहिव-अन्तउर । जिउ सलिलही सवसम्मुहु ।।१॥
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सततरिम संधि
६१
दशा से ध होकर लोग करुण क्रन्दन कर रहे थे। उसके बाद देवताओंके सतानेवाले राखणको मरघट में ले गये, चिता बनाकर उसमें उसे रख दिया गया। जो रावण हमेशा सुन्दर कामिनियोंके स्तनभागपर चढ़ा, देखो पुण्यका क्षय होनेपर वाह किस प्रकार लकड़ियोंस ठेला जा रहा है ॥१-१०॥
[७] अष्टापदको कँपा देनेवाला रावण चितापर चढ़ा दिया गया। यह देखकर नूपुरों और अलंकारोंसे युक्त अन्तःपुर मूर्च्छित हो उठा; वह बार-बार अचेत होकर गिर पड़ता । बार-बार वेदनासे व्याकुल होकर उठता । बारम्बार मुख ऊँचा कर बड़ रो पड़ता, ऐसा लगता मानो छीजता हुआ शंखकुल हो । रनिवासकी मृत्युकी आशंकासे मारे डरके पताकाएँ काँप रही थीं। बेचारे छत्र भी यह कह रहे थे कि "तुम्हारे बिना अब हम किसपर छाया करेंगे, तूर्य भी यह घोषणा बार-बार कह रहे थे कि तुम्हारे बिना, अब कैसे बजेंगे ! “सैकड़ों लाखों रणभारोंमें भला कौन हमें फूँकेगा, ” – मानो शंख भी यह कह रहे थे। ठीक इसी अवसरपर अपने ही आश्रयका नाश करनेवाली आग, सीता के शापकी तरह चितामें लगा दी गयी । परन्तु वह आग शीघ्र ही लौ नहीं पकड़ सकी । काँपती, झपकती और सिसकती हुई वह टिमटिमा रही थी । मानो वह अपने मन में सोच रही थी कि पहाड़ों और समुद्रों सहित धरतीको कँपा देनेवाला रावण कहीं दुबारा जीवित न हो जाय। आग फिर सोचने लगी, "इसे क्या जलाऊँ यह तो अयशसे पहले ही जल चुका है" ।। १-११ ।।
[८] उस अवसर पर रावणका रनिवास दुःखसे व्याकुल था, उसका मुखकमल मुरझाया हुआ था। वह पानीके पास
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६२
पउमचरित गयई कमास अन्तराई :: भरपहात : सत णियन्त(?)रुचि सयणा इव । किद्गुर लइ फलइ साठणा इव ॥३॥ वन्दिण दाण-भोग-णिवहा इव । वन्ध्रव पव जोवण दिग्रहा इव || स्यण-णिहाग-धरत्ति-तिखण्दई। चमर चिन्धई धयइँ स-दण्ड ॥५॥
काउरि-सीहासण-छत्तई। छवि थियई गाई दु-कलत्तई ॥६॥ गग गय गय जि प चिट्ठ पधीधा । हय हय हय जि ण हय स-जीवा ॥॥ रह रह रह रहेवि श्रिय दूर। को दीसइ प्रथमिए सूरे ।। ८|| तहि अवसर परिनुद-पहि? । एव चवन्ति व चन्दा-कट्टई ॥५॥ 'जाहँ पसाय साह एवेश वि। तुम्हावसरु ण सारित कंण वि ॥१०॥ सामिय अम्हें नइ वि पइँ चट्टई। गगिमई अनही मय भइ कट्टई १११]]
घता
जह वि स-हत्यण ण किड आसि गरुप सम्माणु । तो वि रहेग्दउ हुयवहें पइँ समाणु मापाशु' ।।१२।।
ताव गिरतरु णीलउ उटिङ घुमुप्पीक्षा ।
अन्धारिय-गाइ-मग्गउ रावण-अयसु व णिग्राउ ||१|| दस-दिसिं-वह महलन्तु पधाहरु । बिछ अकुलीणउ कहि मिणमाइड ।।२।। धूम-म धूमद्धउ धावह । विजु-बलर अलभन्तरे गावह ॥३॥ पढम (1) परहि लग्गु भकुछीणु व । पछएँ उप्पर चरिउ बिहीणु का। जे णरवर-सूनाम मिल्युम्विय । जाह् णहे हि रवि-ससि पडिविम्बिया
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सरासतरिमोइदि गया। जन्मान्तरोंकी भाँति बहुत-सी स्त्रियाँ वहाँ पहुँची। स्वप्नान्तरोंकी भाँति हजारों तूर्य वहाँ थे। उन्हें देखकर खजनोंकी भाँति शंख रो रहे थे, पक्षियोंकी भाँति अनुचर फल लिये हुए थे, दान और भोगके समूहकी तरह बन्दीजन यहाँ थे | नवयौवनके दिवसोंको भौति बन्धुजन वहाँ थे, रत्नोंसे भरी हुई तीन खण्ड धरतो, चमर चिह्न ध्वज और दण्ड, लंकाका सिंहासन और छत्र छोड़फर वे खोटी स्त्रीकी भाँति स्थित हो गयौं । हाथी चलं गये और ऐसे गये कि फिर लौटकर नहीं आये । अश्वोंकी ऐसी दुर्गति हुई कि फिर उनमें जान नहीं आयी । रह-रहकर, एक एक रथ दूर हो गया । भला सूर्य के अस्त होनेपर कौन-कौन दीख सकता है? उस अवसरपर सन्तुष्ट और प्रसन्न चन्दनकी लकड़ियोंने कहा, "हे स्वामी, जिनपर आपका प्रसाद था उनमें से एक भी तुम्हारे काम नहीं आया। हे स्वामी, इस समय आपको हम घसीटें तो लोग हमें कठोर कहेंगे । यद्यपि आपने मेरा सम्मान अपने हाथों नहीं किया है, परन्तु फिर भी आगमें तुम्हारे साथ स्वयंको भी जलाऊँगी।' ॥१-१२।।
[२] इसी अन्तरालमें नीला-नीला धूम-समूह चिता से उठा, उसने समूचे आकाशमार्गको अँधेरे से भर दिया। वह ऐसा लगता था मानो रावणका अयश निकला हो । वह दसों दिशाओंको मैला करता हुआ जा रहा था, अकुलीनकी भाँति कहीं भी नहीं समा रहा था; धूमके भीतर आग ऐसी लगती थी, मानो पानीके भीतर बिजली-समूह हो। अकुलीन पहले पैरोपर लगता है, फिर वह नीच ऊपरं चढ़ता है ! रावणके पैरोंको, जो कभी बड़े. बड़े राजाओंसे चूमे जाते थे, और जिनके नलों में सूर्य और
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पड़मचरित
ते कम-कमल कन्ति-परियड्दा। सिहि-खलेण मुयणा इव दड्ढा ॥६॥
सुकलत्त-कलते हि रतन । रह-गय नुस्य धिमाणे हि जन्तउ ।।७।। सीहासण परसाई हिं उन्तर। रसणा-किष्क्षिणि-मुहसिनत |८|| तं णियम्बु जलणेन वित्ति। तक्खणे छाहाँ पुज्ज परतिउ ।।२।। जं कहलाल-कूद्ध-अवरुपडणु। ज कामिणि पीप्प स्थण-चहा 11201 जं मोतिय मालालस्थित गं गयणगणु तास-मरियउ ।।१।।
पत्ता
जं रतिदिउ सीया-विरहाणक-जालइड । भलसन्तण व तं पशु-डियउ हुभा दर ||१२।।
जे भुवणाहिन्दोलणा
सुर-सिन्धुर-कर-वन्धुरा जे थिर थोर पलम्ब पईहर । जे घालसणे वालछोल। जे गन्धव-त्रादि-आहुम्मण । जे वहसवण-रिद्धि-विकमावण । के जम दण्डचा -उहालण | जे सहसयर-मरफर-माग । जे अमरिन्द-दप-ओहण । ये बहुरूविणि-विशाराहण ।
वहरि-समुद-चिरोलणा। परियडिय-रण-भर-धुरा ||१|| सुहि-मम्मीस वीस-पहरण-धर ॥२॥ पपणय-मुहें हिं छुहन्तउ लौलएँ ॥३॥ सुरसुन्दर मुह-कणय-णि सुम्मा ॥४॥ तिजगविहसण-गन-मय-साण ॥५|| स-वसुन्धर-कहलासुखालप्प ॥६॥ गलकुच्चर-रोहिणि-मण-रक्षण ॥७॥ चरुण-राहिच-बल-ट्रलवद्वण ।।८॥ दूरोसारिय-वाणर-साहण ॥९॥
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सत्तन्तरिम संधि
चन्द्रमा प्रतिविम्बित थे, जो सुन्दर कान्तिसे अंकित थे, दुष्ट आगने सज्जनोंकी भाँति जला दिया। जो नितम्ब सुन्दर रमणियोंकी तृप्ति करते थे, रथ, अश्व, गज और विमानों में यात्रा करते थे, सिंहासन और पलंगपर बैठते थे, करधनीके नूपुरोंसे मुखरित रहते थे उसके भी आगने दो खण्ड कर दिये । एक अणमें वे जलकर राख हो गये। रावणका वह हृदय, जिसने कैलास शिखरका आलिंगन किया, जिसने हमेशा कामिनियोंके पीन स्तनोंसे कीड़ा की, जो सदा मोतियोंकी मालासे अलंकृत हो ऐसा लगता था मानो ताराओंसे जड़ित आसमान हो। जो रात दिन सीताविरद्दकी ज्वालामें जलता रहा, आगने बिना किसी विलम्बके उसे भस्म कर दिया ॥१-१२||
[१०] जिन हाथोंने कभी समूचे संसारको हिला दिया था, जिन्होंने शत्रु समुद्रको मथ डाला था, जो ऐरावतको सूँड़के समान सुन्दर थे, जो युद्धका भार उठाने में समर्थ थे, जो स्थिर हड़ और लम्बे थे, सुधियोंको अभय देनेवाले, बीस हथियार धारण करनेवाले थे, जिन्होंने बचपनमें खेल-खेल में साँपों के मुखौंको क्षुब्ध कर दिया था, जिन्होंने गन्धर्व की बावडीका आलोडन किया था, जिन्होंने सुरसुन्दर बुध और कनकका विनाश किया था, जिन्होंने वैश्रवणके वैभव का विनाश किया था और त्रिजगभूषण महागजके गदका विनाश किया था, जिन्होंने यमके दण्डको प्रचण्डतासे उछाल दिया था, और धरती सहित कैलास पर्वतकी उठा लिया था, जिन्होंने सहस्रनेत्रके घमण्डको चूर-चूर किया था और नलकूवरकी पत्नीका मनोरंजन किया था। जिन्होंने अमरोंके दर्पका विनाश किया था, और राजा वरुणके दर्षका दलन किया था, जिन्होंने बहुरूपिणी विद्याकी आराधना की थी और वानर सेनाको
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परमचरिड
घत्ता से समपुर-जग ५३.पशि का। से णिविसण वीस वि वाहु-दण्ह मसिहूया ॥१०॥
दसकन्दर-संदीवउ पाई णि एप पडीवर ।
किं दहगीवहाँ गीवर पिजीवाड सजीवउ ॥१॥ सो में जीउ कण्ठ-ट्रिउ गावइ । णावह दह-मुझेहिं योहायड् ॥२॥ जेहउ वाल-भावे पटमुरुम ।। क-गइ-कण्ठाहरण-समुन्मवें ॥३॥ जेहउ विज-सहस्साराहणें। जेहड बदहास-सि-साहगें ॥॥ जेहर मन्दीयरि-पाणिग्ग। जेहाट सुरसुन्दर-बन्दिरगहें 114 जेहर कणय-धगय-ओसारण। जेहउ जम-गाइन्द-विणिवारण । जेहउ भट्ठावय-कम्पानगें। जेहट सहसकिरण-जूरावणे ॥.।। जेहउ पलकुन्दर-वल-मदणें । जेहउ सकसुहर-कदमदणें ॥८॥ ओहड वरुण पाराहिब-साहणें। जेहा बहुरूपिणि-आराहणे ॥५॥
घत्ता
सेहत एयहि होइ ण होई व किंद मुह-राउ । आएं कोण हुभबहु णा णिहालउ भाउ ।। १०)
वयणु णियन्तु हुासउ पबिड जाळ-सहासड ।
लगु मुहि विसरथउ गा. विलासिणि-सत्थउ || गड सरहसु दहेवि दह वयणहूँ। गइकल्लोलुप इस-ससि-गहण ॥१॥ जाई कहरू-तम्बोलायम्वर । फग्गुण-तरुण-तरणि-परिविम्बई ॥२॥ दसण-पछवि-किय-विज विलासई । मलयाणिल-सुअन्ध-णीसास ॥४॥ मुख-पुरम्घि-पीय-अहर-दलाई। मोयण-खाण-पाण-रस-कुसह ॥५॥
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सप्तसत्तरिमो मंधि
जैसा थाति समय, मनाते ममयः करते मरणको
दूर भगाया था। जो असुरों और सुरों सहित' दुनियाको यमदूतोंकी तरह सत्तानेवाले थे, वे बीसों ही हाथ एक पलमें राखके ढेर भर रह गये ॥१-१०।।
[११] दशकन्धरको आग मानो फिरसे देख रही थी कि रावणकी गर्दन सजीव है. या निर्जीव है। दसमुखोंसे वह जीव ऐसा लगता था मानो कण्ठमें स्थित हो। वैसा ही जन्मके समय, बचपन में, नवग्रहकण्ठाभरणोंके उत्पन्न होनेपर जैसा था । हजारों विद्याओं- राधना, पन्द्रहात सध्यार ग्रहण करते समय, मन्दोदरीका पाणिग्रहण करते समय, सुर• सुन्दरियोंको बन्दी बनाते समय, कनक और कुबेरको हटाते समय, यम-गजेन्द्रका प्रतीकार करते समय जैसा था। अष्टापदको कपाते हुए जैसा था, सहस्रकिरणको कैपाने में जैसा, नलकूबर और बलका मर्दन करते समय जैसा था, शक और दूसरे सुभटोंके मर्दन के समय जैसा था, वरुणाधिपको वश में करते समय जैसा था, और बहुरूपिणी विद्याकी आराधनाके समय जैसा था। क्या पता, अब वैसा मुखराग हो या न हो, मानो इसी कुतूहलसे आग उसका मुख देखने आयी थी॥१-१०॥
[१२] जब आगने रावणके मुखको छुआ तो उससे हजारों ज्वालाएँ ऐसी फूट पड़ी, मानो विलासिनियोंका झुण्ड किसीके मुँह लग गया हो ! आग. रावणके दसों मुख जलाकर चल दी। मानो दसों चन्द्रमाओंको निगलकर राह चल दिया हो। उनमुखोंको जो पान खानेसे लाल थे, जो फागुनके सूर्य की तरह चमकते थे, जो दांतोंकी कान्तिसे बिजलीकी शोभा धारण करते थे । जो मलयपवनकी सुगन्धसे उच्छ्वसित थे। जिन्होंने मुग्ध इन्द्राणीके अधरोंका मुखपान किया था, जो भोजन खान-पान
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पउमस्ति
रएँ रणे दाणे बद्ध-अणुरायई। जिय-सुर काया-वडिय-फाय ॥६॥ विहुयण-अण-संताषण-सोल । तियस-विन्द कन्दावण-लीलई ।।७।। कम्पाविय-दस-दिसिवह मागहुँ । सयलागम-अवसाण-अलग्ग' ।।४।। साई मुहइँ अच्छन्त-वियढई। णिविसे सुण्णहराई व ददन है ॥२॥
घप्ता जाई विसाल सरकर तार मुख-महावरें। विहि परिणामेण गपगई ताई कियाँ मसिमावई ।।१०॥
जे कुपरल-मणि-मण्डिया समकागम-परिचाहमा ।
काणाऽणक-घोलिया बल्लरा व पोलिया ।।। जाइ जिणिन्द पाय-पणमिल ।। सेहरमउप-पष्ट-सोहिल्लई ॥२॥ अक्षण-गिरि-सिहरुग्णय-माणहूँ। सजल चलाइय-दुग्ग-समाण ॥ कृष्ण-कुष्टलुजल-गण्डयकई। अट्टमिन्यन्द-रुन्द-भालमहर ।।३।। सयल-काल(?)रमें भिउरिकराल । मङ्गुर-कसम-लोल-मउहाल १॥५॥ बम-गासय-पईहर-मयमई। दसणावलि-दहाहरवमण हैं ॥६॥ साई सिरई सय-कुस्तक कसाई। किया खणन्तरेण मसि-सेसई ॥ धुप परिहड परिपुण्ण-मणोरह। साब-भूट समजाली(?) हुमबदु ॥४॥ जो सुरवाँ भासि अवहरिषउ । सो रावणु तेज व णीसरियउ ।।१॥ सरया-सावधि व णिस्वदिवस। कखग कोषाग्य व पारिवड 11 खेस-चिसम्गि व दूरलियन । बसुमा-
हिय-पप गवकिपड .
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सत्तमत्तरिमो संधि और रसमें कुशल थे। जो रति रण-दानसे प्रेम रखते थे, देव ताओंकी कान्ति जीतनेसे जिनको प्रभा द्विगुणित हो रही थी, जो तीनों लोकोंको सतानेवाले थे, देवताओंक समूहको सताना जिनके लिए एक खेल था । जिन्होंने सों दिशाओंको कैंपा दिया था, जो समस्त आगमोंकी चरम सीमापर पहुँन चुके थे । ऐसे उन अत्यन्त विदग्ध मुखों और अधरोंको सूने घरों की भाँति एक झणमें खाकमें मिला दिया। जो विशाल तरल स्वच्छ और मुग्ध स्वभावके थे, भाग्यके वशसे वे नेत्र भी राल बन गये ॥१-१०॥
[१३] जो कान कुण्डल और मणियोंसे मण्डित थे, जिन्होंने समस्त शास्त्रोंका पारायण किया था, वे भी आगमें विलीन हो गये एक लताकी तरह झुलस गये । जो सिर सदैव जिन भगवान के चरणकमलोंको छूते थे, जो शेखर मुकुट और राजपट्टसे शोभित ये और जिनका मान अंजनगिरिक शिस्त्र रकी नरह ऊँचा था--जो सजल मेघोंके दुर्गकी भौति थे, जिनके गाल कानोंके कुण्डलोंसे चमक रहे थे, जिनके भालनल अष्टमीके चाँद की तरह थे, जिनकी भौहें सदैव युद्धकालमें भयंकर रहती धी, बाँके, काले और चंचल जिनके बाल थे, यमके तीरों की तरह नुकीली जिनकी आँखें थी, जिनकी दशनावली अधरोंमें से दिखाई देती थी, धुंघराले स्वच्छ बालोंवाले वे सिर एक क्षण में भस्म शेष रह गये। आग भी आज, पराभवसे शून्य, समर्थ समज्वाल और सफल मनोरथ हो सकी। जो राग देवताओंका अपहरण करता था वह भी आगकी भाँति जाता रहा था, सीताको झापाग्निके समान समाप्त हो गया, लक्ष्मणकी कोपानिके समान प्रगट हुआ, और शेषनागको फूत्कारकी भाँति उछल पड़ा, और धरतांके हदयके समान जल
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सुरवर- वामरु रावणु द 'अण्णु कहिं महु चुक्कड़'
पउमचरिउ
वत्ता
जासु ज कम्प । एव णाएँ सिंहि जम्प ॥ १२ ॥
[ १ ]
* रे जण गोसारड दरिसिय-पाणावन्थर
I
जहिँ उन्ति महीहर बाएं । जहिं जलायेण जलन्ति जलाएँ वि जहिं कुलिमा जन्ति सय-सकरु होइ महणषो वि जहिं णिष्पड । जहि भट्टराणो नि उस्मान् । जहिं से तरणि गड़-मण्डलु । जहि बुइ अचलिन्दु समस्थउ । कुम्म-कदाह-यस्तु वि जहिं कुछ
विलु खलु संसार । दुक्खावासु वि गरथ ||१|| तहि किं गणु रेणु-संघाएँ ॥२॥ । तहिं तिशोहु किं चुह का वि ॥ ३॥० तर्हि कमलहुँ केसइट मफर ||४॥ तहि पज्झरह काई किर मोप्पट ||५|| तहि फिर का ससठ गलगजइ ॥ ६ ॥ तर्हि किं करइ कन्ति जोड्णु ॥७॥ यहिँ किर कक्णु गहणु सिद्धस्थ || ८ | तहिं कुम्हार- घड किं हह ॥ ९ ॥
वत्ता
जहिं पकड राजु तिङ्कयण-गय- कुसु I उष्णइत्रमल तर्हि सामन्यु काई किर माणुसु' ॥१०॥
[4]
ताब दाण-परियणु सोभाउरु हाणु ।
पहस कमल-महासरेण गावइ चिन्ता सायण ॥१॥
कमलायर - तीरन्तरे थक्के वि । 'यहाँ बिजाइरस प अन्वय-महसमुद्द· महकम्तहाँ ।
पभणड़ रहुबहू णरवर कोक्के वि ॥२॥ भामण्डल - सुसेन सुग्गी वहाँ ॥ ३ ॥ दहिमुह- कुमुल- कुन्द-हष
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सत्तन्तरिम संधि
गया। जिससे एक दिन दुनिया काँटी भए भयावह, वह रावण भी जल गया । मानो आग अपनी काँपती हुई शिखासे कह रही थी कि क्या कोई मुझसे बच सकता है । ॥१--१शा
७१
[ २४ ] अरे-अरे लोगो, यह संसार, क्षणभंगुर और निःस्सार है। इसमें नाना अवस्थाएँ देखनी पड़ती हैं, यह दुःखका आवास है, जहाँ हवा से बड़े-बड़े महीधर उड़ जाते हैं, वहाँ क्या धूल समूहको पकड़ा जा सकता है ? जहाँ बढ़वानलले जल जलता है, वहाँ आगसे क्या तिनकोंका समूह बच सकता है ? जहाँ बड़े-बड़े खोंके सौ-सौ टुकड़े हो जाते हैं, वहाँ कमल कितना घमण्ड कर सकते हैं, जहाँ बड़े-बड़े समुद्र जलरहित हो जाते हैं, वहाँ क्या गोपढ़ बच सकता है, जहाँ ऐरावत भी नष्ट हो जाता है, वहाँ खरगोश क्या गर्जन कर सकता है ? जहाँ आकाशका मण्डन करनेवाला सूर्य निस्तेज हो जाता है, वहाँ बेचारा जुगनू क्या करेगा ? जहाँ समर्थ गिरिराज डूब जाता है, वहाँ सरसों बेचारा कैसे ठहर सकता है ! जहाँ एका पीठ रूपी कडाहा फूट जाता है, वहाँ क्या कुम्हारका घड़ा बच सकता है ? जहाँ रावण, जो त्रिभुवनरूपी वनगजके लिए अंकुश था और जो उन्नति के चरम शिखरपर था, बिनाशको प्राप्त हुआ, वहाँ सामान्य मनुष्य भला क्या कर सकता है ।। १-१०। [१५] तब दशाननके व्याकुल परिजनोंने अपना मुख नीचे किये हुए कमल महासरोवर में इस प्रकार प्रवेश किया मानो उन्होंने चिन्ता सागरमें ही प्रवेश किया हो। इसी बीच कमल महासरोवर के किनारेपर बैठ कर रामने नर श्रेष्ठोंको बुलाकर कहा, "अरे भामण्डल, सुसेन और सुप्रीष, आप विद्याघर वंश दीपक हैं, हे जम्बू, मतिसमुद्र, गतिकान्त, दधिमुख,
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परमचरित
स्म्म-विराहिय-तार-तरकही। चन्दकिरण करणय अङ्गहों ।। गवय-गकरन-सुसल-गरिन्दहीं। मल-गीकहाँ माहिन्द माइन्दहीं ॥६॥ इन्दर-कुम्मयण का भागहों। लोयाचारु करहों सरे पहाणों' ॥७॥ नं पिमणेधि वृत्त मामस्त है। पत्र-प्रसार-मन्त पट्दन्त हि ॥६॥ 'णाह ग होइ एहु महारउ । सम्बहँ जणण-वहरु बहारउ |५||
पत्ता इन्दइ-राणउ सबिलु णिऍवि जइ कह घिमि वियाह । तो अम्हारउ खन्धावारु सम्वु दलवाहा ।।
किंग्ण परकम बुझिउ जहमहुँ सुर-बले शजिस्व ।
जिर्नचि बसा यमबम्तहों मग्गु मस्ट जयन्तहों ॥१॥ माणु विपषभ-पुत्त अल-लुबड । सो वि माग-यासहि निवड |२| मामय सुगीन सहाय। पड ते वि तेण जि दिम्वरथं ॥३॥ अणु वि कुम्भयण्णु किं धरियर । जाड्य समझेवि णीसरियड ॥|| तहि भवसरें सं ते नियम्भिाउ । विगा दिट्ट बालु सयलु विस्मिन।।५। अण्णु वि मारुद भावह पाविड, तारा-सुऍण दुक्ख लोगबिद ।।६।। ते विग्नि भगिलाण-सारमा। केण परियि बदामरिसा Hil क्या मिण हुन्ति मणि जस । वदा मर मुन्ति किंमयगळ ॥८॥ पद्धा कम्बालाव भगरा । किषण हुन्ति जणव गुरुनारा ॥५॥
घत्ता आय हायेण माह-बहरु परिषषि मीसणु । एड क जाण काई करेसह ने विहीस' .
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सफलतरिमो संधि कुमुद, कुन्द, हनुमान, रम्भ, विगधित, वार, तरंग, चन्द्रकिरण, करण, जंग, अंगद, गश्य, गवाक्ष, सुसंस, नरेन्द्र, नल, नील, माहिन्द्र, महेन्द्र, तुम इन्द्रजीत और कुम्भकर्णको शीघ्र ले आओ! लोकाचार पूरा करो, सब सरोवरमें स्नान करो," यह सुनकर, पाँच प्रकारको मन्त्रनीतिके वेत्ता बुद्धिमान सामन्तोंने कहा, "हे स्वामी यह ठीक न होगा, सबमें पिताका वैर सबसे बड़ा होता है । इन्द्रजोत राजा हमें पानीमें देखकर यदि विद्रोह कर बैठा तो वह हमारी समूची छावनीको नष्ट कर देगा ॥१-१०।।
[ १६ ] जब उसका देवताओंसे संग्राम हुआ था तब क्या तुमने उसके पराक्रमको नहीं देखा ! बलपूर्वक देवसुताको जीत कर उसने बलवान जयन्वका अहंकार नष्ट कर दिया था। इसके अतिरिक्त यशस्वी पवनपुत्रको भी उसने नागपाश में बाँध लिया था और भी जो भामण्डल और सुग्रीव थे, उन्हें भी उसने दिव्यास्त्रसे अपने हाथों पकड़ लिया था। कुम्मकर्ण मी जब तैयार होकर निकला था तो क्या वह पकड़ा गया था । उस अवसरपर' उसने जो कुछ किया उससे सभी सेना अचरज में पड़ गयी थी । हनुमान आपत्तिमें फंस गया था। उसे तारासुतने बड़ी कठिनाईसे छुड़ाया था। हवा और आगके समान हैं वे दोनों ! अमर्षसे भरे हुए उनका प्रतिकार भला कौन कर सकता है ? और क्या बंधे हुए मणि उज्ज्वल नहीं होते, क्या बँधे हुए मदगज अपना मद छोड़ देते हैं ? हे आदरणीय, बैंके हुए काव्यालाप क्या जनपदोंमें शोभा नहीं पाते। इन लोगों के हाथसे भाईका और भयंकर रूपसे बढ़ गया है। हम नहीं जानते कि द्रोहसे विभीषण क्या कर बैठे ॥१-१०॥
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परमचरित
सं णिसुणेवि हकीसें कुपाई बिहुणिय-सोस ।
'लक्खण-समु किय-पेसणु विहब केम विहीसणु |१| विणयवन्तु भवन्त-सणे। अणु वि खतिय-मग्गुण एहउ ॥१॥ जण समाशु रासु सो हम्मद । अबसें सहुँ अबमाणु ण गम्मइ ॥३॥ अहवइ किं करन्ति ते कुदा । भग्ग-मटफर संलए छुदा ॥४।। उक्खय-दन्त मत्त मायकव। दादुप्पादिय पवर भुषाच ॥५॥ जाहर-घहर-परिहीण महन्द व ।। अण्णइ-मग महीहर-विन्द व ॥६॥ लडाएस पधाइय किर। उषय-पहरण-णिया-भयकर ॥७॥ गम्मिणु तेण असेस वि राणा। दुम्मण दीण मिरुपाय-माणा ।।८॥ लक्षण-रामहुँ पासु पराणिय। सहुँ अन्तेउरेण सरे पहाणिय ।।२।।
घत्ता
लोयाचारेण पाणिड दिण्णु दसापण-वीरहों। अलि-जहि व पर धिवन्ति कायण्णु सरीरहों
भह दहमुर-पियत्तिहें
पचुनोचिय-अत्य अहवद वसुमई जे दिमाउ । सं पहु पच्छ मग्गिजन्तई। पुणु वि पडीव बुड़ाई सस्वरें। पुणु णीसरियई सरहों रउदहाँ। जल लायाणु प्वाई मेलम्तहूँ। वाशिम सरही मराल? घिर-गइ।
मुच्छाविव (!) भरिति । सलिल भिवन्ति व मथएँ ॥१॥ सोक्स मसेस् विभासि उचिण्णा ॥२॥ दिन्ति णाई देवन्त-रुवन्तर ।।।
पाविट्ठा णरयम्मन्तरें ।।४।। पं मवियाई संसार-समुरहों ॥५। णे तिघलीड तरङ्गहुँ अन्तर्रे ॥६॥ चाचाक-झुबकहुँ धण-समद ॥
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सजसत्तरिमो संधि
[१७] यह सुनकर रामने अपना माथा ठोककर कहा, "जिस विभीषणने लक्ष्मणके समान सेवा की, क्या वह अब बदल जायगा ! वह अत्यन्त विनयशील और स्नेही है, और यह क्षत्रियोंका मार्ग नहीं है, जिसका जिससे वैर होता है, उसके अवसानके साथ भी, उसका अन्त नहीं होता | अथवा वे क्रुद्ध होकर भी कर क्या लेंगे। हतमान वे स्वयं सन्देहसे क्षुब्ध हो रहे हैं, वे उखड़े हुए दन्तोंवाले मत्तगजके समान हैं, विषदन्तविहीन विषधरकी भाँति हैं, प्रहरणशील नखोंसे होन सिंहके समान हैं, उन्नतिसे अयरुद्ध पर्वत समूहकी तरह हैं। इस प्रकार रामका आदेश सुनकर सभी अनुचर दौड़ पड़े, वे उठे हुए हथियारों के समूहसे अत्यन्त भयंकर थे। बाकी राजा लांग भी जो दुमन-दीन और गलितमान थे, राम और लक्ष्मणके पास आये । सबने अन्तःपुरके साथ महासरमें स्नान किया। लोकाचारसे दशाननराजको रामने जब पानी दिया तो ऐसा लगा जैसे अञ्ज लिपुटसे वे शरीरका सौन्दर्य ही डाल रहे हो ! ।।१-१०॥ । [१८] इसके अनन्तर धरतीपर पड़ी हुई मूच्छित रावणको प्रियपनीके सिरपर पुनर्जीवनके लिए पानीका छिड़काव किया गया। अथवा धरतीने जो भो अशेष सुख उसके लिए दिया था वह सब अब उच्छिन्न हो गया, और अब वे रोती बिसूरती और काँपती हुई उसे प्रभुको दे रही हैं। फिर वे दुबारा पानी में घुसी, मानों पापात्माओंने नरकमें प्रवेश किया हो। फिर वे उस भयंकर सरोवरसं इस प्रकार निकली, मानो संसार-समुद्रसे भव्यजन ही निकल आये हों, मानो जल सौन्दर्यका त्याग कर रहा हो, या मानो लहरोको त्रिवलिका दान किया जा रहा हो। उन्होंने सरोवरके हंसोंको बड़ी स्थिर
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पउमचरित
मुह-मगुरार रस-अरविन्दहुँ। वत्त-सोह समयस-सहासहुँ ।
महु भालाधड महुअर-विन्दहुँ ८|| णयम-छवि कुवलयहुँ असेसडें ॥९॥
यता
णीरु तरेपिणु जुभाइ-सहासई साइड दिन्ति । पोळ वि पोलेंवि कलुणु महासु णा छइम्ति ||१०॥
[.. ] ताब बिहीसण-णाम किम-दूगा जिपणाम ।
डायणम्म-महासरि पीरिम का-पुरेसरि ॥१॥ पाक मराज-कील-गाइ-गामिणि । म वि स तुहार सामणि ॥२॥ सोहउ त ज तुहारक पेसणु। छत्सई तार तं जि सीहासणु ॥३॥ चमाई ताई ताई पय-दण्डहै। स्रण-गिहाणई सुह-ति-खण्ड ॥॥ से जि सुराते जि गय सन्दम । ते जितुहारा सयल वि गन्दश ||4|| से जि असेस भित्र हिमाच्छा। से जि गराहिष भाण-वरिषछा ॥६॥ सा तु सा जै छा परमेसरि। इन्दइ भुलाउ सयल बसुन्धर' ॥७॥ तं णिसुणेवि बोलिउ रावणि । विनाहर-कुमार-चूरामणि 'लपिन कुमारि व चाम-चित्ती । किन भुञ्जमिछ। साएं शुत्ती ॥९॥
पहु मई काएँ सम्व-सा-परिचाड करेम्बर । स? परिवारंग पाणि-पसे माहार भएप' ||2||
तं गिसुगै वि णीसाग पुरुड पहने रामेंग।
साहुकारिउ रावणि होहि भन्ध-नरामणि' ॥॥ एम मले विजयनि-भिवासहाँ। सम्बगियाँ गियय-आवासही ।।२।। परिहानियाँ दुई बरथई। वापरणाई व छह-सदस्य ॥३॥
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सत्तसत्तरिमो संधि गति दे दी, चक्रवाक जोड़ोंको स्तन संगति दे दी, लाल कमलोंको मुखका अनुराग दे दिया, और मधुकर वृन्दको मुखका आलाप दे दिया, सहस्रों का कोमल ओमानकामी, और कुवलयोंको नयनोंकी शोभा दे दी। हजारों युवतियाँ पानीसे निकल कर आलिंगन दे रही थीं, मानो पीड़ित होकर करुण महारसको ग्रहण कर रही थीं ॥१-१८॥
[१९] तब विभीषणने दूरसे ही प्रणाम किया, और सौन्दर्यको महासरिता लंका परमेश्वरीको धीरज बैंधाया। उसने कहा, "हे बालहंसके समान सुन्दर गमनवाली, आज भी तुम्ही राज्यकी स्वामिनी हो, आज भी तुम्हारी आशा शोभित है, वही छत्र है, और वही सिंहासन है। वही चामर हैं, और वही ध्वजदण्ड है, वही रत्नोंके कोष और तीनों खण्ड धरती। वही अश्व, वही गज और वही रथ । और वे ही तुम्हारे सब पुत्र है। वही सब अशेष मनचाहे अनुचर हैं, आज्ञापालक वे ही नृप हैं, वहीं तुम लंकाकी स्वामिनी हो, प्रसन्न होओ, और वसुन्धराका उपभोग करो" यह सुनकर रायणकी पत्नी मन्दोदरीने जो विद्याधर कुमारियों में श्रेष्ठ थी बोली-"यह लक्ष्मी एक चंचल कुमारी है ! क्या भोगूं जिसे स्वामी भोग चुके हैं । हे स्वामी, कल मैं सत्र परिग्रहका परित्याग कर दूंगी। अपने परिवारके साथ 'पाणिपात्र' आहार ग्रहण करूंगी" ||१-१०॥
[२०] यह सुनकर असाधारण रामको रोमांच हो आया। उन्होंने साधुवाद देते हुए कहा, "तुम' संसारमें सर्वश्रेष्ठ बनो" ! यह कहकर जय-लक्ष्मीके निकेतन, सब लोग अपने अपने
आवासोंको चल दिये। उन्होंने अपने दुकूल-वस्त्र ऐसे पहन लिये जसे वैयाकरण व्याकरणको धारण कर लेते हैं। दशानन
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७८
पउमचरिउ
।
परिहानिय दसाणण- पतिउ । डर - निवहु समउ हय-मग्र्गे । अनुकिय वन्तणि सोहे हिं(१) सबै केरालिङ्गण- मावे हि । मणिकुण्डल समाउ तनु-तेऐं हं । वरण्णावयंस सहुँ गएँ हिँ || २ || खुद दिन (?) सिय सहुँ गाहिं । चूहामणिय पिय- पणय पणाम हिं॥
सहु केउरें हिँ विमुक पोलिउ ||४|| रसना-दामइँ सधैँ सोहम् ॥५॥ चूडा-बन्ध समउ घर - मोहेंहि ॥ ६ ॥ कण्ठा कण्ट राहण-सहावहिं ॥ ७ ॥
घत्ता
एव विमुक विसय सुड़े हैं समय मणि - रमनहूँ । वरण मुएँ दिढ सई भु पुर्ण गुरुवयण ||१०| जुज्झर्क सभासम्
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अटूसत्तरिम संधि
पत्रीने सब कुछ छोड़ दिया। उसने केयूरोंके साथ पोत भी छोड़ दी, अपने मनकी तरंगमें उसने नूपूर छोड़ दिये और सौभाग्यके साथ करधनीको भी त्याग दिया, अँगुलियोंकी सोभाके साथ अँगूठी छोड़ दी, घरके मोहके साथ चूढ़ापाश छोड़ दिया । उसने आलिंगनके भावके साथ केयूर और कण्ठग्रहणके भावके साथ कण्ठा भी छोड़ दिया। शरीर की कान्तिके साथ मणिकुण्डल और गीत ( ? ) के साथ उत्कृष्ट कर्णावतंस छोड़ दिये। मान के साथ ललित हृदय (१) तिलक तथा प्रियके प्रणय प्रणाम के साथ चूणामणिको छोड़ दिया। इस प्रकार विषय सुखके साथ मणि- रत्नादि छोड़ दिये, किन्तु गुरु के वचनोंमें दृढ़ता नहीं छोड़ी ॥१-१०॥
७९
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पञ्चमं उत्तरकाढम् [ ७८. अतरिम संधि ]
रावन मरतें दिष्णु सुह सुरहँदुतुबन्धव-अच्छों । रामों कहाँ अब भविषतुरनु बिहोला |
[ ]
पविण्ण दिनमणि अस्थवर्णे ||१|| तब सूर हूँ णासिय भव- णिसिहिं ॥ ९ ॥ थिङ णन्दण वर्णों मेरु व अखलु ॥३॥ पुत वि परम-तिरथकुरहों ||४|| भइसुन्दरें सुन्दररमण - पुरें ||५|| से इह वि पराइय अमर-सय ॥ ५ ॥ एचई इन्दइ घणवाणु वि ॥ ७ ॥ रयणीयर पुणु वोल्कन्त थिय ||८||
जससेसीहूअएँ दहववर्णे ।
पण सए महा-रिसिहि । णामेण साहू अपमेय बलु । उप्पण्णु णाणु तहाँ मुणिवरहों । धण-कणय- यण- कामिणि- पडरें | जे बन्दणहत्तिएँ तेरथु गय एच रहु-तडस साइणु थि । सयहिं चि वन्दणहन्ति किया 1
घसा
'तुम्हारा उग केवकहीं अष्णु एड देवागमशु ।
गय-दिवसें भडारा होन्दु जह तो सरन्तु किं दहचणु ||९||
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पाँचवाँ उत्तर काण्ड
अठहत्तरवी मन्धि
(रावणकी मृत्युकी भिन्न-भिन्न प्रतिक्रियाएँ हुई) उसने मरकर, देवताओंको सुख, भाइयोंको दुःख, रामको उनकी पन्नी, लक्ष्मणको जय और विभीषणको अविचल राज्य दिया।
[१] दशानन यशशेष रह गया और सूरज भी हूब गया । तव तपसूर भवनिशाको समाप्त करनेवाले छप्पन सौ महामुनियोंके साथ, अप्रमेयबल नामक महामुनि, जो सुमेरु पर्वतके समान अचल थे, नन्दनवनमें आकर ठहर गये। वहाँ उन महामुनिको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ और इतने में जो देवता परम तीर्थकर मुनिसुत्रतनाथके केवलज्ञान कल्याणकमें वन्दना भक्तिके लिए धन, सुवर्ण, रन और स्त्रियोंसे भरपूर, अत्यन्त सुन्दर रत्नपुरनगर गये थे, वे भी सैकड़ोंकी संख्यामें यहाँ पहुँचे । एक ओर राम अपने साधनोंके साथ आया, और दूसरी ओर इन्द्रजीत और मेघवाहन भी आये। समी लोगोंने धन्दनाभक्ति की, और तब उन लोगोंमें बातचीत होने लगी। उन्होंने पूछा, 'हे देव, आपका इस प्रकार यहाँ आना, केवलमानकी उत्पत्ति होना, देवताओंका यह आगमन, ( ये तीनों चीजें) यदि कल हो सका होता तो क्या रावपा मरता १॥१-२॥
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उभचरित
[२] परमेसरु केवल-णाण-णिति । णिसियरहँ विअक्सा धम्म-विहि ।।३।। 'विसमहों दीदरहों अणिढियहाँ 1 तिहुयण-वम्मीय-परिट्रियों ॥२॥ को काळ-भुयहाँ उन्वरह जो जग जै सम्वु उबसहरह ॥३॥ सही जहि अहिं कहि मि दिदि रमई । तहि तहि णं मइयवह ममह ।।।। के वि गिलह गिलेंवि के विउग्गिलइ काहि (?) मि जम्माषसाणे मिलह 11५।। के विणाय-विलंहि पदसैं वि गसइ। काहि(?) वि अणुलग्गड जे बसह।।६।। के वि कद्दाह सम्गहाँ बरि चदि । के वि खयहाँ णेइ उप्पर प. वि।।७।। के वि धारह धोरऍ पाव-विसेंग । के चि भक्षइ णाणाविह-मिसेंण ८॥
घत्ता
तहों को वि ण चुकच भुक्खियहाँ काल-भुअङ्गही दूसहहाँ । जिण-खयण-रसायणु बहु पियहाँ में अजरामह पर कहाँ ।।५।।
[1] जद काल-भुअङ्गु ण उबरसइ। तो किं सुरवह सम्हाँ खसह ॥सा कहि राधणु सुरवा-इमर-करु। दस-कन्धर इस-मुह वीस-करु ॥२॥ बहुरूविणि जसु पेसणु काह। जसु णाम तिहुमणु थरहरह ॥३॥ बसु चन्दु ण णाहयले तयह रवि। जमु तलषरु बस्यई धुवह हवि ॥४) असु पशु पोदारइ पवणु। कोसाशुपालु जसु वासवणु ।।4।। पण छाउ देम्ति सरसह झुणह। अस वणसह पुष्फचणु कुणइ || सा सम्पय गय कहि रावणहाँ। कहिं रावणु कहिं सुभ परियण ॥
वत्ता अह वि सुम्स वि भवरह मि सकवर एकहि मिलिया । पेक्लेस? फाय-भुभामेण अज र ल व गिलियाई ।।
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भटुसत्तरिमो संधि
८३ [२] तब केवलज्ञान निधि परमेश्वर निशाचरोंको धर्मविधि बताते हुए कहते हैं : इस त्रिभुवनरूपी वनमें महाकालरूपी महानाग रहता है, विषम, विशाल और अनिष्टकारी; उससे कौन बच सकता है? वह संसार में सबका उपसंहार करता है, उसकी जहाँ कहीं भी दृष्टि जावी, वहाँ-वहाँ मानो विनाश नाच उठता। किन्हींको वह निगल जाता, और निगल कर उगल देता, किसीसे उसकी भेंट जीवनके अन्तिम समय होती, किन्हींको वह नरक विलमें घुसकर दुसताः किसीके पीछे-पीछे घूमता, किसीको स्वर्गमें चढ़कर वहाँ से निकालकर ले आता; किसीके ऊपर पड़कर उसे नष्ट कर देता; किसीको वह पापरूपी विष देकर मार, डालता; और किन्हींको तरह-तरहसे समाप्त कर देता ! उस भूखे और असह्य कालरूपी महानागसे कोई नहीं बचता। इसलिए जिन-वचनरूपी रसायनको शीघ्र पी लो जिससे अजर अमर पद पा सको!" ॥१-२।।
[३] यदि कालरूपी महानाग नहीं डसता तो इन्द्र स्वर्गसे क्यों च्युत होता वह इन्द्रका त्रासद रावण कहाँ है? जिसके दस कन्वे, दस मुख और बोस हाथ थे, बहुरूपिणी विद्या जिसकी सेवा करती थी, जिसके नामसे सारा संसार काँपता, जिसके कारण चन्द्रमा और सूर्य आकाशमें नहीं चमकते, यम जिसकी रक्षा करता, आग वस्त्र धोती, हवा जिसके आँगनमें बुहारी देती, कुबेर जिसके कोशकी रक्षा करता था, मेघ छिड़काव करते, सरस्वती मान करती और जिसकी वनस्पतियाँ पुष्पों से अर्चा करती; रावणकी वह सम्पदा कहाँ गयो ? कहाँ रावण ? कहाँ परिजनों का सुख । हम, तुम और दूसरे भी, सब एकमें मिल जायेंगे, देखते-देखते, कालरूपी महानाग, आज-कलमें निगल जायगा ॥१-८
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पउमचरित
सो काल-भुअङ्गमु दुखिसही। भ्रमणु वि विसमा परिचार तहाँ ॥७॥ भच्छइ परिवेटिड सप्पिणिहि। चिहि बोसप्पिणि-अवसप्पिणिहि ॥ एकछह तिमि तिणि समय । सु-दु-पढम-समुत्तर-णाम य ॥३॥ ताह चि उप्पण्ण सढि सणय । संघच्छर-णाम पसिद्धि गय ॥धा एकेको विणि कळसाई। अयण जामण पहुसाइँ ।।५।। एककहाँ नहि छ-च्छाह । फग्गुण-अवसाण चेत्तपमुह ॥६॥ एककहाँ सही वि धवल-कलण । उप्पण्णा पुत दुइ दुइ जे जण ।।। एकेकहाँ तहि षि पाण-पियउ। पण्णारह पण्णारह तियउ ८॥
धत्ता
गुहु परियणु काल-भुगमहाँ अवरु गणेवि के सकियट । सो तेहउ तिहुमणे को विग वि जो ण विभाएं रशियउ ।।५।।
[५]
संगिसुणेवि करुण-रसम्मइय। मय-कुम्भयपण-मारिधि सिंह । सहससि बाय सोकाहरण ।
इन्दइ-घणवाष्ण पावइय || भवर वि परिन्द ममरिम्द-गिह ।।२।। आयास-पास कर-पावरण ॥३॥
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असत्तरिमो संधि
८५ [४] ऐसा है वह कालरूपी महानाग 1 उसका परिवार, उससे भी अधिक असह्य और विषम है? वह उत्सर्पिणी और अवसपिणी इन दो नागिनों से घिरा है। एक-एक नागिनके सीन सीन समय हैं जिनके पहले दुः और सु उपसर्ग लगते हैं, (दुःषमा-सुषमा) अर्थात् सुघमा, सुषमा-सुषमा, सुषमा-दुःपमा, दुःषमा-सुषमा, दुःषमा, दुःषमा-दुःषमा। इसके भी साठ पुत्र है जो संकःसरके नामसे प्रसिद्ध हैं, फिर उनकी दो-दो पनियाँ हैं, जो उत्तरायण और दक्षिणायनके नामसे प्रसिद्ध हैं। चैत्रसे लेकर फागुन तक उसके छह विभाग है, उसके भी-कृष्ण और शुक्ल नामके दो पुत्र हैं, उनकी भी पन्द्रह-पन्द्रह प्राणप्रिया पनियाँ हैं। उस महाकालरूपी नागका यह महापरिवार है, उसके दूसरे सदस्यों को कौन गिन सकता है ? तीनों लोकों में एक भी आदमी ऐसा नहीं जिसको इसने न इंसा हो ॥१-९॥
[५] यह सुनकर इन्द्रजीत और मेघवाहन, दोनों अचानक करुणासे उद्वेलित हो उठे। उन्होंने संन्यास ले लिया। मय, कुम्भकर्ण, मारीच और दूसरे नरेन्द्र तथा अमरेन्द्र भी इसी प्रकार संन्यस्त हो गये। शील ही उनका अब एकमात्र आमरण था। आकाश ही पास था, और हाथ ही
१. साठ संवत्सर रूपी पुत्र हैं : प्रभव, विभव, शुक्ल, प्रमोद, प्रजापति, अंगिरा, श्रीमुख, भाव, युवा, धाता, ईश्वर, महषाम्य, प्रमाथी, विक्रम, वृष, चित्रभानु, सुभान, तारण, पार्थिव, व्यय, सर्वजित्', सर्वधारी, विरोधी, विकृति, खर,नन्दन, विजय, जय, मन्मथ, दुर्मुख, हेमलम्ब, विलम्बो, विकारी, सर्वकारी, प्लवंग, सुभिक्ष, शोभन, कोषी, विश्वावसु, पराभव, प्रलंब, कोलक, सौम्य, साधारण, विरोध, परिषाबी, प्रमादी, आनन्द, राक्षस, नल, पिंगल, काल, सिद्धार्थ, रौद्र, दुर्मति, दुन्दुभि, रुधिरोद्गारी, रक्ताक्ष, क्रोषन और सय ।
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८६
पउमरित मन्दोपरि वय गुण-दन्तियाँ। कम्तियाँ पासें मसिकन्तियाँ ।।४।। शिवस्वान्त समउ अन्तउरॅण। साहरणोत्तारिप-णेउरण ॥५॥ पञ्चइउ को वि पन्वइस ण वि। पहें पाई णिहालड भाड रवि ॥६॥ रवि उद्दउ विहीसणु गयउ तहिं । नन्दगावणे जणयहाँ तणय जाहि ॥७॥ आहरण वत्थ ढोइय। वइदहिएँ ताई ण जोइयई ।।८।।
घता
'मलु फेवलु आयई सम्बइ मि णिय-पइहें मिलन्तिहें कुल-बहुहँ
जइ मणे मलिणु मणम्मणउ । सील जि होइ पसाहणत ॥५॥
जइ जामि मासि परिचत्त-मय। विशु जिम-भसार जन्तियहे। पुरिस? चित्तई भासीविसहैं। वीसासु जन्ति णउ इयरहु मि। तं वयश सुणेवि महासइहे। 'श्रहों अहाँ परमेसर दासरहि। मिलि ताव महारा जामइहें चड तिजगविहसण कुम्भय
तो सहुँ हणुवन्ते किषण गय ।।३।। कुलहरू जें पिसुणु कुलाउत्तियाँ ॥२॥ अलाहन्त पि उधिसम्ति मिसइँ ॥३॥ सुय-देवर-मायर-पियरष्ठु मि ॥३॥ गउ पाखु विहीसणु रहुवाहें ॥५॥ पच्छएँ लकावरि पसरहि ॥६॥ तर दुतर-विरह-महाणइहें ॥७॥ मय-परिमल मेलाविय-मसलें ॥८॥
पत्ता
तं णिसुणेवि हलहरु चकहरु सीपहूँ पासें समुश्चक्रिय । अहिसेय-समऍ सिरि-वेक्य दिग्गय शिषिण णा मिलिय ||१||
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भट्ठससरिमो संधि
आवरण था । व्रतों और गुणों से युक्त कान्ति और शशिकान्तिके पास जाकर, आभरण और नू पुरोसे रहित अन्तःपुर के साथ, मन्दोदरीने भी दीक्षा ले ली। इतनेमें आकाशमें सूर्य निकल आया, मानो यह देखने के लिए कि किसने दोक्षा को है, और किसने नहीं ली। सूर्योदय होनेपर, विभीषण वहाँ गया, जहाँ चन्दन वनमें जनककी पुत्री सीता देवी बैठी थीं। वह जिन वस्त्रों और आभरणों को वहाँ ले गया था सीता देवीने उनकी ओर देखा तक नहीं। उसने कहा, "यह सब मेरे लिए कचरेका ढेर है चाहे, मनमें उन्मादक काम ही क्यों न हो, अपने पतिसे मिलते समय कुलवधूका एकमात्र प्रसाधन शील ही होता है" ॥ १-२॥
[६] तब विभीषणने पूछा, "यदि आप निर्भय हैं, तो मैं जाता हूँ। आप हनुमानके साथ, क्यों नहीं गयीं ?" इसपर सीतादेषीने कहा-"बिना पतिके जानेवाली कुलपत्नीपर कुलधर भी कलंक लगा देते हैं, पुरुषोंके चित्त जहरसे भरे होते हैं, नहीं होते हुए भी वे कलंक दिखाने लगते हैं, दूसरोका तो वे विश्वास ही नहीं करते, यहाँ तक कि पुन्न, देवर, भाई और पिताका भी ।" महासतीके उन वचनों को सुनकर, विभीषण रघुपति रामके पास गया; और बोला, "परमेश्वर राम, लंकामें आप बाद में प्रवेश करिए। हे आदरणीय, पहले सीतादेवीसे मिलिए,
और विरह नदीसे उसका उद्धार कीजिए। यह है त्रिजगभूषण महागज; इसके मदभरे कुम्भस्थलपर और गूंज रहे हैं, इसपर चढ़िए ।" यह सुनकर राम और लक्ष्मण सीतादेवीके पास गये, मानो लक्ष्मीके अभिषेकके समय दो महागज आ मिले हो ॥ १-२॥
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46
पडमचरि
[ ७ ]
हिदि-हरे हिं
णं सत्य खच्कि पक्कय सहि । णं सुरसरि हिमगिरि- सायरे हि । परिपुष्ण मणोरह जाण हैं । वि-यण-सराणि सन्धइ व । जस-कदमें अगुम्हि व विजेइ व करथल - पल्लव हि । पइसरह व हियऍ हलाउहहाँ ।
मेहलिएँ मिलती हुई है इन्दों इन्दत्तणु पत्तों
पहसन्तहँ बल-णारायण हूँ
पणं सुरहुँ भरन्त धरता हूँ
णं चन्दलेह विहिं जलहरें हि ॥१॥ णं पुण्णम विहिं पक्खन्तरे हि ||२|| णं ह- सिरि चन्द - दिवाय हिं ॥३॥ तर व कायण-महाजइहें ॥४॥ पिs पगुण गुणेहिं विन्ध व ||५|| हरिसंवा सिप्प च ॥ ६ ॥ अव - कुसमें हि गर्ने हिं ॥ ७ ॥ करद व उज्जो दिसमुहहाँ ||८|
पत
खुद्द उप्पण्णउ जेत्तदर । होम ण दोन व तेलदर || १ ||
सकळसट लक्षणु पुण्य-सिरु । 'जं कि खर-दूषण - ति सिर बहु । जं सक्ति पछि समर- मुहँ । जं रणे उपयष्णु चक्क-रवणु । तं देवि पसाएँ त सण । अहिवाराणु किउ सक्खर्गेण जिह सयल विजिय-निय वाह में हिंथिय जय मङ्गल-तुरई सावियहूँ ।
|
[<]
पमण्डू जलहर-गम्मीर- गिरु ॥१॥ जं इंसदीवें जिउ हंसरहु ||२|| जं लग्ग विसल्छ करम्बु रूहें ॥ ३ ॥ पं हि वलुरु दहवयणु ॥१॥ कुल धवलित जाएँ सहर्णे ||५|| सुग्गीव- पमुह-गरवरहिं सिंह ||६|| । पर-पुर-पवेस सामविंग किय ॥७॥ रि-घरिणिर्हि चित्त पाडियाहूँ ॥ ८ ॥
घता
यह मनोहरु आवडिङ | तुवि सग्ग-खण्ड पवित्र || ९ ||
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अट्ठसत्तरिमो संधि [७] राम और लक्ष्मणने सीतादेवीको इस प्रकार देखा मानो दो महामेष चन्द्रलेखाको देख रहे हों, मानो कमलसरोवर शरलक्ष्मीको देख रहे हों, मानो दोनों पक्ष (शुक्ल और कृष्ण ) पूर्णिमाको देख रहे हों, मानो हिमगिरि और समुद्र गंगाको देख रहे हो, मानो सूर्य और चन्द्रमा आकाशकी शोभाको देख रहे हों। उन्हें देखते ही सीतादेवीकी सारी कामनाएँ पूर्ण हो गयीं। वह ऐसी लगी जैसे सौन्दर्यकी महानदी तिरती-सी, अपने नेत्रधनुषका सन्धान करतीन्सी. अपने महागुणोंसे प्रियको बाँधती-सी, यशकी कीचड़से जगको लीपती-सी, हर्षकी अश्रुधारासे सींचती-सी, करतल-पल्लवोंसे हवा करती-सी, नये-नये नभकुसुमोसे अर्चा करती-सी, रामके हृदय में प्रवेश करती-सी, दिशाओंके मुखौंको आलोकित करती-सी । सीतादेवीसे मिलनेमें रामको जितना सुख हुआ, उतना इन्द्रको भी इन्द्रपद पाकर भी शायद होगा या नहीं होगा ।। १६ ॥
[८] सपत्नीक और प्रपतसिर लक्ष्मण मेघके समान गम्भीर स्वर में बोले, "जो मैंने खर, दूषण और त्रिसिरका वध फिया; हंसद्वीपमें हंसरथको जीता; युद्धभूमिमें शक्तिसे आहत हुआ, विशल्यादेवी हाथ लगी; युद्धमें चक्ररत्नकी उपलब्धि हुई
और युद्ध में अपनी शक्ति से रावणका संहार किया, वह सब, हे देवी! आपके प्रसादसे ही; आपने अपने शीलसे सचमुच कुल पवित्र किया है।" लक्ष्मणकी ही माँति सुग्रीव आदि प्रमुख नरश्रेष्ठो ने भी उस महादेवीका अभिवादन किया। सब लोग क्षपने-अपने वाहनों पर जाकर बैठ गये और महानगरमें प्रवेश करनेको सामग्री जुटाने लगे। विजयके नगाड़े बज उठे; शत्रु-स्त्रियों के दिल बैठने लगे। राम और लक्ष्मणके प्रवेश करते ही समूचा नगर सुन्दरतासे खिल उठा, मानो देव
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पउमरिल
पहसन्त बल-पारायणण । भव चालिय णायरियाणा ॥१॥ 'पॅहु सुन्दरि सोक्खुप्पाययहाँ। अहिरामु रामु रामा-यणहाँ ।।२।। ऍहु लक्षणु लक्षण-लक्ख-घरु । जूरावण-राषण-पलय-करु ॥३॥ हु मामण्डलु मा-भूस मुर। वदेहि-सहोयर जणय-सुङ ॥४॥ एं हु किक्किन्धाहिट दुपरिसु। तारावह नाराबह-सरिसु ||५॥
हु अङ्ग जेण मनोहरिहैं। केसगड्डु किन मन्दोवरिहें ॥३॥ ऍहु सुरवाइ-करि-कर-पवर-भुउ। गन्दण-वण मरणु पवण-सुउ ॥५॥ एह कुमुड विराहिउ णीलु णलु । ऍहु गपउ गवासु सङ्घ पवस्तु ॥८॥
घचा तहि काले बा पइसन्ताहाँ परम रिति जा हलहरहों। सो श्रमराउरि भुजन्ठादी होज - होम पुरन्दरहों ॥१॥
[..] पड्सरद गमु रावण-मवणु 1 पवइ णियाणसमल जणु ॥1 'इह मेह-उलेहि दिज्जई छरउ । इह सक्कु पसाहह गय-धरज २॥ किय अवण एल्थु वणस्सइएँ। इह गाय(१)उ गेड सरस्साएँ ॥३॥ इह णिकड फरह आसि पवणु। इह मादागारिड वासवणु ॥३॥ इह पत्थर लिहिण परिच्छिया। सुर-वम्दि-सयाँ इइ मच्छियाँ ।।५।। अणवसरु पियामह-हरि-हरहों। अस्थाणु एत्यु दसकन्धरहाँ ॥॥ आवरण एल्यु जम-तलवरहों। वह मेकत जाग-परामरहों ॥७॥ इह भव-गह वर्मिय दसाणणेण। यह बिहार नहुँ पणिवापण' ॥1॥
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अन्तरिम संधि
ताओ को पकड़ते पकड़ते स्वर्गका एक खण्ड टूटकर गिर पड़ा हो ।। १-२ ।।
[६] राम-लक्ष्मण के प्रवेश करते ही लंकाके नागरिकों में बातचीत होने लगी। वे कह रहे थे, 'ये सुन्दर राम हैं जो सुख उत्पन्न करने वाली स्त्रियों से भी अधिक सुन्दर हैं, ये लाखो लक्षण धारण करनेवाले लक्ष्मण हैं, सतानेवाले रावणके लिए प्रलय: क्रान्ति से शोभित बाहुबाला यह भामण्डल है, जनकका पुत्र और वैदेहीका सहोदर ! यह है दुद्धर्ष किष्किंधाराज; ताराका पति और चन्द्रभाके समान । यह है अंगद, सुन्दर मन्दोदरीका केशमादी । यह है पवनसुत हनुमान्, ऐरावतकी सूँड़की तरह विशाल बाहु और नन्दनवनको धूलमें मिलानेवाला | यह हैं कुमुद, बिराधित, नल, नील, गवय, गवाक्ष, शंख और प्रबल । लंका प्रवेश के समय रामको जो ऋद्धि मिली, वह सम्भवतः अमरावतीका उपभोग करनेवाले इन्द्रको भी उपलब्ध नहीं थी ।। १-९ ॥
[१०] उसके बाद रामने रावणके भवन में प्रवेश किया। सबको सुन्दर सुन्दर स्थान दिखाये गये । यहाँ मेघ छिड़काव करते थे, यहाँ इन्द्र गजघटाओंको सजाता था, यहाँ वनस्पतियाँ अर्चा करती थीं, यहाँ सरस्वती गान करती थी, यहाँ पवन बुहारी देता था, यहाँ कुबेर भण्डारी था, यहाँ आग कपड़े धोती थी, यहाँ सैकड़ो देवताओं के समूह बन्दी थे । यहाँ ब्रह्मा, विष्णु और शिवका अप्रवेश था। यह रावणका राजभवन है। यह यमरूपी रक्षकका स्थान है और यहाँ पर नाग, नर और देवताओ का मिलाप था । यहाँ पर रावणने नवग्रहों को दबा रखा था, और यहाँ पर वह अपने वनिताजनके साथ रहता था। रावणके
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पउमचरित
पेक्सन्तु णिवाणई रावणहाँ कहि मि ण रहबह रह करह । स-कलतु स-माइ स-मिश्चयणु सन्ति-जिणालउ पइसरइ ॥९॥
[1] थुओ सन्ति गाहो।
कयक्खावराहो ॥१॥ हपाणा सक्को।
पमा-भूसियको ॥२॥ दया-मूल-धम्मो।
पण-कम्मो ॥३॥ तिलोयग्ग-गामी।
सुणासीर-सामी ॥४॥ महा-देव-देखो।
पहाणूत-सेषो ॥५॥ जरा-रोग-णासो।
असामण-भासो ।।६।। समुप्पण्ण-णाणों।
कयङ्गि-प्यमाणो ॥७॥ ति-सेवायवतो।
महा-रिवि-पत्तो ॥८॥ अणन्तो महन्तो ।
अ-कन्ती म-चिन्तो ।।९।। अ-डाहो अवाहो।
अ-छोडो अ-मोहो ॥१०॥ अ-कोहो अरोहो।
श्र-जोहो भ-मोहो ।।११।।. भन्दुक्रमो अ-मुक्खो। अ-माणो समायो ।।१२।। भ-जाणो सजाणो।
अ-णाही वि पाहो ॥१३॥
घत्ता थुइ एम करेंवि किर वीसमइ ताव पडिच्छिय-पेसणेण । स-फलत्तु स-लक्खणु स-बलु वलु णि णिय-णिलउ विहीसणण ॥१४॥
[१२] सु-वियह वियताएवि लहु। वर-जुवइहुँ दसहि सएहि सहुँ || 113 दहि-दोष-जलपखय-गहिय-कर। गय तहि जहि हलहर-चकहर ॥२॥ आसीसहि सेसहि पणवणे हि । जय-णन्द-वद्ध-पदावणे हिं ॥३॥
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अन्तरिम संधि
१३
सुन्दर-सुन्दर स्थानों को देखकर भी रामका मन कहीं भी नहीं लगा। वह अपनी पत्नी, भाई और अनुचरों के साथ शान्तिजिनमन्दिर में गये ॥ १-२ ॥
[११] वहाँपर उन्होंने इन्द्रियों का दमन करनेवाले, शान्तिनाथ भगवान्की स्तुति प्रारम्भ की-- "हे स्वामी ! आपने कामको समाप्त कर दिया है। आपके अंग कान्तिस मण्डित है। आप दयाको मूलधर्म मानते हैं, आपने आठ कर्मों का नाश किया है। और आप तीनो लोकों में गमन करते हैं, आप इन्द्रके भी स्वामी हैं, आप महादेव हैं—बड़े-बड़े लोग आपकी सेवा करते है, आप जरारोगका नाश करनेवाले हैं; आपकी कान्ति असाधारण है। आपको केवलज्ञान उत्पन्न हो चुका है। आपने अप्रमाणता अंगीकार कर ली है, तीन श्वेत आतपत्र आपके ऊपर हैं, आपको महान् ऋद्धियाँ उपलब्ध हैं। आप अनन्त हैं, महान
आप कान्ताविहीन हैं, चिन्ताओं से दूर हैं, ईर्ष्या और बाधाओं से परे हैं, लोभ और मोह आपके पास नहीं फटकते, न आपमें क्रोध है और न क्षोभ । न योद्धापन है और न मोह । न दुःख है, न सुख है, न मान है और न सम्मान, न आप अज्ञानी हैं और न सज्ञानी, न अनाथ हैं और न सनाथ | इस प्रकार शान्तिनाथ भगवानकी स्तुति कर रामने विश्राम किया | इसके अनन्तर आज्ञाकारी विभीषण पत्नी, लक्ष्मण और सेनाके साथ उन्हें अपने घर ले गया ॥ १-१४ ।।
[१२] इसी बीच विभीषणकी चतुर पत्नी विदग्धादेवी एक हजार सुन्दरियो के साथ दही, दूब, जल और अक्षत हाथमें लेकर शीघ्र ही वहाँ पहुँची जहाँ राम और लक्ष्मण थे । अनेक आशीर्वादों, आरतियों, प्रणामों, जय बढ़ो, प्रसन्न होओ
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९४
उहिँ वह मङ्गलैहि । कह-कहहिं ड-गट्टाव पहि
रणार- वम्मण- घोसणं हि ।
मन्दिरु पसरइ विहीसह ।
पुणु हवणारण परिहाहि ।
पउमचरिउ
घत्ता
गठ दिवस पाहुण्णऍण कमइ तो वि पमाणु ण बिं ।
'सुड्डु सुभ सीम सहुँ रहु-सुऍण' एम मवि णं हिक्कु रवि ॥ ९ ॥
तो मग बिहोसणु 'दास रहि । सीयऽग्ग-महिसि तुर्डे रज-वह । रमणीय एह लङ्काणयरि । ऍडु पुष्क - विमाणु पहाणु घरें । सिंहासण छत्त हूँ चामरहूँ ।
सं णिसुर्णेवि पमणइ दासरहि । महुँ घर मरहु जें रज-धक । तुम्हहुँ घरें तुज्यु जे राय-सिख ।
- पहिं मन्दहिं ॥ ४ ॥ गायणायण- फम्फावहिं ॥ ५ ॥ अवरहि मि चित्त परिश्रमहि ॥ ६ ॥ मजराउ मरि रहु-हाँ ॥७॥ yampado-qfmadië neu
[१३]
अणुहुअ भडारा सयल महि ॥ १ ॥ समिति मन्ति हउँ आपण करु ॥२॥ ऍहु तिजगविणु पचर -करि ||३|| उ चन्द्रहा करवाल करें || ४ || लइ उवसतु रिङ डामर हूँ ||५|| 'अ विहस हुँ जे महि ॥ ६ ॥ जसु जणणि सा दिष्णु वरु ||७|| म जासु विमढाए विनिय || ४ || घत्ता
सुरवर महिलें मेरु-गिरि परिममइ कित्ति जरौ जान सकु
जाव महा-जलु मगरहरें । वाच विद्दीसण रज्जु करें ||९||
}
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अतरिम संधि
इत्यादि बधाइयो', उत्साह घबल मंगल आदि गीतों, पटुपट, शंख, मन्दल आदि वाद्यों, कवि कत्थक नट नृत्यकार आदि नृत्य-विदों, गायक-वादक आदि बन्दीजनों, नरश्रेष्ठ ब्राह्मणोंकी घोषणाओं, और भी चित्तको सन्तोष देनेवाले साधनों के साथ रामने विभीषणके घर में प्रवेश किया। यह सब देखकर रामका मन भर गया । फिर उन्होंने स्नान और आसनके साथ सुन्दर वस्त्र पहने। फिर उन्हें रावणके विशाल कोप दिखाये गये । सारा दिन इस प्रकार आतिथ्य में ही बीत गया; फिर भी उसकी सीमा नहीं थी; सूर्य भी मानो यह कहकर छिप गया कि राम, तुम सीता के साथ सुखपूर्वक सांओं ॥ १-२ ॥
१५
[१३] तब विभीषणने निवेदन किया, "हे आदरणीय राम, आप इस समस्त धरतीका उपभोग करें, सीता राजमहिषी बने और आप राज्यशासक, लक्ष्मण मंत्री बनें और मैं आज्ञाकारी सेवक । यह सुन्दर लेकानगरी है । यह त्रिजगभूषण महागज है, यह घरमें मुख्य पुष्पक विमान है और हाथमें यह चन्द्रहास तलवार है । ये सिंहासन, छत्र और चामर हैं, इससे शत्रुओं के विस्तार को शान्त कीजिए ।" यह सुनकर रामने कहा, "हे विभीषण! इस धरतीका उपभोग तुम्ही करो। हमारे घरमें भरत राज्य धारण करता है, जिसके लिए पिताने मावाके लिए वर दिया था। तुम्हारे घर में राज्यश्री तुम्हारी अपनी हो, आखिर तुम्हारी विदग्धा जैसी सुन्दर पत्नी भी तो है। आकाशमें देवता, धरतीपर सुमेर पर्वत, और जबतक समुद्रमें पानी है और जबतक इस धरती पर मेरी कीर्ति कायम रहती है, तबतक हे विभीषण, तुम राज करो ।। १०९ ।।
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पउमचरिउ
[ १४ ]
अहिउ विहीण आढविउ ।
सुग्गी विराहित नीलु लु
भामण्डल क एवि घिउ ॥१॥ दहिहु महिन्दु मारु पबलु ॥१॥ मल्हटिय फल्स विहीसही ॥३॥ बहु-दिवस हिं राम- जण
हम तेहि सुद्द दंसणहौं । सधैं बद्धु पट्टु राहु-णन्दणेश ।
॥४॥
जाउ विमाणित ण माणियउ । ताउ बि तर्हि तुरिउ पराणियउ ||५||
सुर-बहुमत साह भर । कल्काणमाल वणमलि सह । कहिमुहणदणित |
५६
सीडोयर-वजयण्ण-सुश्रउ ॥ ६॥
जियपोम सोम जिण-पडिम जिह ॥ ७ ॥ ससिवद्ध-णयणाणन्दणिउ ||4||
सहि काले सुकोसल-राणि हें । रति न्दि पहु जो मन्तिय हैं । घर-पर्णे वायसु कुल कुलइ । रिसि णारउ ताब पराइयड | तेण विणिय वइयरु विमलु कउ वन्दन्तों से तिरथ सयहूँ । पुणु तेथों लङ्काणयरि गड | पडि पुच्च विदेहु पराट्रय |
धत्ता
बहु-बिन्दहुँ आयएँ अवरइ मि अच्क्रन्तहँ वळणारायणह
सच्चहूँ तर्हि जे समागयहूँ । as after BE गयइँ ||९||
[१५]
णन्दण-विषय-विद्दाणिय हैं ॥१॥ पन्थिय - पउत्ति पुच्छतिग्रहैं ॥ २ ॥
म 'माएँ रहुच मिल' ॥ ३ ॥ थुर पुछिउ 'केसह आइयड' ||४|| । 'परमेसरि पुम्ब विदेहें गउ || ५ ॥ सतारह वरिस वषय हूँ || ६ || जहिँ लक्खण के वरि हउ || तेवीस बरिसš आइय ॥ ८ ॥
घत्ता
णु विल्ल
देहि बहु कहिं रज्जु करम्वाइँ । छतिमाएँ हि कोयणइँ त दुक्खयमि जियन्ता हूँ ॥२॥
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अन्तरिम संधि
[१४] विभीषणका अभिषेक प्रारम्भ हुआ। भामण्डलने कलश अपने हाथ में ले लिया । सुत्रीव, विराधित, नल, नील, दधिमुख, महेन्द्र, मारुति और प्रबल, इन आठोंने शुभदर्शन विभीषणका कलशाभिषेक किया। रघुनन्दनने अपने हाथों स्वयं उसे राजपट्ट बाँधा । बहुत दिनोंतक राम और लक्ष्मण जिनकी ओर ध्यान नहीं दे सके थे, वे सभी इसी बीच वहाँ आ पहुँचे । सिंहोदर और यत्रकर्णकी लड़कियाँ ऐसी लगीं मानो देवांगनाएँ आकाशसे सिर पर हो कल्पन माला, जितपद्मा और सोमा, जो जिनप्रतिमाके समान सुन्दर थीं, कपिश्रेष्ठ और दधिमुखकी लड़की, और शशिवर्धनकी नेत्रोंको आनन्द देनेवाली कन्या भी वहाँ आ गयीं। और भी दूसरे जितने वधूसमूह थे, वे भी वहाँ आ गये। इस प्रकार राम और लक्ष्मणके लंका में रहते-रहते छह वर्ष बीत गये ।। १-९ ।।
९७
[१५] इस अन्तरालमें सुकोशलकी महारानी कौशल्या पुत्र वियोगमें क्षीण हो चुकी थी। वह रात-दिन रास्ता देख रही थी । पथिकों से उनके बारेमें पूछा करती। कभी घर आँगन में कौआ काँव-काँव कर उठता, मानो वह कहता, “माँ, तुम्हें राम अवश्य मिलेंगे" । इतने में महामुनि नारद वहाँ आये । स्तुतिकर कौशल्याने पूछा - " कहिए, कैसे आना हुआ ।" तपस्वी नारद ने भी उससे स्पष्ट शब्दों में कहा, "हे परमेश्वरी, मैं पूर्व विदेह गया था, वहाँ सैकड़ों तीर्थों की बन्दना करते हुए हमारे सत्रह बरस बीत गये, वहाँसे फिर मैं लंका नगरी गया । वहाँ लक्ष्मणमे चक्र से शत्रुको समाप्त कर दिया है, फिर मैं पूर्वविदेह पहुँचा और वहाँसे अब तेईस वर्षोंमें आ रहा हूँ। लक्ष्मण विशल्या के साथ और राम वैदेहीके साथ, इस समय लंका में राज्य कर रहे हैं। वे वहाँ हैं । हे माँ, तुम आँखें पोंछो, मैं तुम्हें
وا
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पचमचरित
[६]
गउ सा महा-रिसि मण-गमणु । प्रिय-वेओहामिय-स्वर-पवणु ॥१॥ परिभमिर-ममर-प्रकार-वरें। गोलप्पल- म-धि- . तर-सीर-लयाहरे कुसुमहरें। जहि अङ्गट कोलइ कमल-सरें ॥३॥ तिवण-परिभमिर-पियारऍण । तहिं थाधि पुच्छिउ णारऍण 111 'कि कुसलु कुमार विपक्षणही। वरदेहिहें समहाँ लक्षणहों' ॥५|| तेण वि जिय-समल-महाहनहीं। पहसारित मन्दिर राहवहाँ ॥३॥ हलहरेंस वि अम्भुस्थाणु किउ। 'आगमणु का है' एत्तिउ चविड ।।। ताबसेण धुत्त 'तड माइयाँ। बायउ पासही अपराइयहें ॥८॥ सा तुम्ह विओएं दुम्मणिय । अच्छा हरिणि व बुग्णाणणिय ॥९॥
घत्ता
सुहु एक्कू वि दिवसुण जाणियउ प. वण-वासु एवरणऍण । अच्छइ कन्दन्ति सन्वेणिय पन्दिणि बिह विणु तणज' ॥१०॥
[१७] उम्माहिउ तं णिमुणेवि वलु। बोष्डइ मजलाविय-मुह-कमलु ॥1॥ 'अहो मह-रिसि सुन्दरु कहिउ परे । जह अन्जु कल्ले णउ दिद मई ॥२४ तो सण-साल-तिसाइयह। उहन्ति पाण अपराइयम् ॥३॥ णिय-जम्मभूमि अणणि' सहिय । समाँ वि होइ आइ-बुरुकहिय ।।।। छह जामि विहीसण णियय-बरु । पर मुऍवि अषणु को सहइ भरू । सम्बरिसइँ एक्क-दिवस-समई। घवगयइँ सुरिन्द-सुहोवमइ ॥६॥ लम्मइ पमाणु सायर-जलहों। लमह पमाणु वागर-वलहौँ ।।७n कम्मइ पमाणु सक्षम-सरहों। लन्मइ पमाणु दिणपर-फाहाँ ॥८॥
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अतरिम संधि
่
उनको जीवन दिलाउँगा ॥१-१
[ १६ ] अपने मनके अनुसार गमन करनेवाले महामुनि नारद पवनसे भी अधिक तेज गतिसे लंका नगरी गये। वह वहाँ पहुँचे, जहाँपर अंगद कमलोंके सरोवरमें क्रीड़ा कर रहा था, वहाँ सुन्दर किनारोंपर लतागृह और कुसुमगृह थे । त्रिभुवनकी यात्रा प्रेमी नारद मुनिने ठहरकर पूछा, “विचक्षण कुमार लक्ष्मण, सीतादेवी और राम कुशलतासे तो हैं।" तब अंगद उन्हें अनेक महायुद्धों को जीतनेवाले राघवके आवासपर ले गया । राम उनके अभिवादनमें खड़े हो गये, ओर उन्होंने पूछा, "कहिए किस लिए आना हुआ" । तब तापस नारद महामुनिने कहा, "मैं तुम्हारी माँ अपराजिताके पाससे आया हूँ। वह तुम्हारे वियोग में एकदम उन्मन है, हरिनीकी तरह वह खिल है । जबसे तुम वनवासके लिए गये हो, तबसे उसने एक भी दिन सुख नहीं जाना । वेदनासे व्याकुल वह रोती-विसूरती रहती हैं ठीक उसीप्रकार जिसप्रकार बिना बछनेकी
गाय ।। १-१० ।
,
[१७] राम यह सुनकर सहसा उन्मन हो गये । उदास मुखकमलसे उन्होंने कहा, "हे महामुनि, आपने बिलकुल ठीक कहा। मैंने यदि आज या कलमें माँके दर्शन नहीं किये, तो निश्चय ही देखनेकी उत्कण्ठासे पीड़ित माँ अपराजिता के प्राणपखेरू उड़ जायेंगे। अपनी माँ और जन्मभूमि स्वर्गसे भी अधिक प्यारी होती है, हे विभीषण लो, मैं अब अपने घर जाता हूँ, तुम्हें छोड़कर भला अब कौन इस भारको उठायेगा ? इन्द्रके समान सुखवाले ये छह साल इस प्रकार निकल गये, मानो एक ही दिन बीता हो। समुद्रके जलको थाइ सकते हैं, वानर सेनाकी भी ताकत तौली जा सकती है, लक्ष्मणके तीरोंको भी
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१००
पउमचरिउ
घन्ता
खभइ पमाणु जिण मासिन हुँ वयण हुँ विम्बुइ-गाराहुँ । विणिरुवम-गुणहँ सुहाराहुँ' ॥ ५ ॥
परिमाणु बिहीसण
ह ह ण
तो मइ विहीणु पणय- सिरु | 'जह रहुवइ विजन्य-जत्त करहिं । हउँ जाव करेमि पुणपणविय । चल-लक्रवण एव परिधिय । पुणु पच्छऍ विज्जाहर-पवर | भोषड किञ्च वरिसु । घरे घरें मणिकूडागार किया । पुरें घोसण तो वि परिक्रममइ ।
तं पट्टणु कळण घण-पउरु देन्तउ जें अस्थि पर स्यलु जमु
[*]
धुइ-त्रयण-महासुग्गष्ण गिरु ॥१॥ तो सांकह बासर परिहरहि ॥ २ ॥ उज्झाउरि सन्च सुवण्णमिय' ॥३॥ अगएँ, बहावा पट्टविय ॥४॥ पाहुयल भरन्त णं अम्बुहर ॥ ५ ॥ किं पुरवरु कारि- सरिसु || ६ || घर घरे णं णव णिहि सकमिय ॥७॥ 'सो लेउ लएवऍ जासु भइ ||८||
धत्ता
वह पुरन्दर-पर- छबि । जसु दिन सो को वि ण वि ||९||
[ 1 ]
सोलहम दिवसें पथ वलु || १ || दावन्तु पिवाण हूँ पिययमहें ॥२॥ ऍडु मलय- धराहरु सुरहि सरु || ३ || इद लिय कुमारें कोटि-सिक ||४||
गउ लङ्क विहीनणु मिट-बलु | - माणुस - सायण वहे। 'ऍहु सुन्दरि दीसह मगरहरु | किक्चिन्ध- महिन्द-इन्दुसइल | हाँ लक्खणु एण पण गय |
सह खर दूसण- तिसिर हम ||५||
इइ सम्बु कुमारहों खुबि सिरु । इह फेडिड रिसिन्डवसतु चिह्न ||६||
¡
!
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अट्ठसत्तरिमो संधि
१०१ मापा जा सकता है, सूर्य की किरणोंकी थाह ली जा सकती है। जिन भाषित वाणीको भी हम माप सकते हैं, निवृत्तिपरायण लोगोंके शब्दोंकी भी टोह ली जा सकती है, परन्तु हे विभीषण, तुम्हारे अनुपम गुणोंकी थाह लेना कठिन है ।। १-२ ।।
[१८] यह सुनकर प्रणत सिर विभीषणने स्तुति और मुसकाम सारमें निम किया, ईशा, यदि आज विजय यात्रा कर रहे हैं, तो सोलह दिन और ठहर जायें । मैं अयोध्या नगरीको फिरसे नयी बनाऊँगा, सबकी सब सोनेको निर्मित करूँगा।” राम और लक्ष्मणको इस प्रकार रोककर, विभीषणने सबसे पहले निर्माणकर्ता भेज दिये। उसके बाद, बड़े-बड़े विद्याधर भेज दिये, मानो आकाश मेघोंसे भर उठा हो, वहाँ सोनेकी खूब वर्षा हुई। उन्होंने सारो अयोध्या नगरी लंकाके समान बना दी। घर-घरमें मणिमय कूटागार थे, मानो घरघरमें नवनिधियाँ आकर इकट्ठी हो गयो। फिर नगरमें यह घोषणा करा दी गयी, "जिसको जो लेना है वह ले ले" । स्वर्ण
और धन प्रचुर, यह अयोध्या नगरी इन्द्रनगरकी शोभा धारण कर रही थी। सभी लोग वहाँ देनेवाले ही थे। जिसे दिया जाय, ऐसा एक भी आदमी नहीं था॥ १-९॥
[१९] विभीषणकी सेना लंका वापस चली गयी। सोलहरे दिन रामने अयोध्याके लिए कूच किया। सेना और विमानके साथ आकाशपथमें वे प्रिय सीताको सुन्दर स्थान दिखा रहे थे, "हे सुन्दरी, यह विशाल समुद्र है, यह चन्दन वृक्षोंका मलयपर्वत है, यह किष्किंधा, महेन्द्र और इन्द्रशिला है। यहाँ कुमार लक्ष्मण ने कोटि शिला उठायी थी | मैं और लक्ष्मण इस रास्ते गये थे। यहाँपर खर, दूषण और त्रिसिर मारे गये! यहाँ शम्बुकुमारका सिर काटा गया, यहाँ हमने महामुनिका उपसर्ग दूर किया था,
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पउमचरित इह सो उपसु णियरिछपा। जियपोम-जणणु जहि अछियड ॥७॥ हु देसु पसेसु वि चार-परिंड । अहीर-णराहिउ जहि धरित |६||
घन्ता तं सुन्दरि एउ' जियन्तउरु जहि वणमाल समावडिय । लक्सिजइ ळकरवण-पायवहाँ अहिणव बेलि गाह् चरिय ||२||
[२०] रामउरि एक गुण-गारविय जा पूयण-जएवं कारविय ॥१॥ एंडु अरुणु गामु कविकहाँ सणउ । अहिं गलथल्लाविड अप्पणउ ||२॥
सोसाइ सुन्दरि पिकाइरि। अहिं सिकिस पालि धइरि।। साइतेहि एट अलवर-णयर । कल्लाणमाल जहि जाण ॥४। ऐं दसउरु यहि लारपशु ममिउ। सोहोपर-सोहु समरें दमिउ ।।५।। ऍह सा गम्मीर समावरिय। जहिं महु कर-पल्लवे सुई चडिय ॥६॥ जुहु दीसह सभ्यु सुषण्णमठ। णिम्मविउ विहीसणे णं णवउ ॥७ भूपन्त-धाम-धयवर-पर। पिएँ पेक्तु अउज्झाउरि-णयह ।।८।।
घता किर जम्म-भूमि जणगोर सम भण्णु घिसिप जिणहरहि । पुरि बन्दिय सिरे सई भुव करें वि जशप-तणय-हरि-इलहरेंहि ५९॥
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I
महरारंभी संत्रि
s2
यह वह स्थान तुम देख रही हो, जहाँ जिसपद्माके पिता रहते हैं। सुन्दर चरितवाला यह वह प्रदेश है जहाँ राजा अतिवीरको पकड़ा गया था । हे सुन्दरी, यह वह जयन्तपुर नगर है, जहाँ वनमाला मिली थी और जो लक्ष्मणरूपी वृक्षपर सुन्दरलताके समान चढ़ गयी थी ॥ १-२ ॥
[२०] यह रही गुणोंसे गौरवान्वित रामनगरी, जिसका निर्माण पूतनायक्षने किया था। यह कपिलका अरुण नामका गाँव है, जहाँ उसने स्वयं धक्का खाया था । हे सुन्दरी, यह सामने विन्ध्यानगरी दिखाई दे रही है, जहाँ हमने शत्रु बालिखिल्यको अपने अधीन किया था। हे वैदेही, यह कूबरनगर है, जहाँ कल्याणमाला नर रूपमें रह रही थी। यह वह देशपुर है जिसमें लक्ष्मणने भ्रमण किया था, और सिंहोदररूपी सिंहका दमन किया था । यह वह गम्भीर नदी है, जिसमें तुम मेरी हथेलीपर चढ़ी थीं। वह सामने अयोध्यानगरी दिखाई दे रही है, जिसका अभी-अभी विभीषणने स्वर्णसे निर्माण करवाया है। फहराते हुए धवल ध्वजपटोंसे महान् अयोध्यानगरको हे प्रिये, तुम देखो। एक तो जन्मभूमि माँके समान होती है, दूसरे वह जिनमन्दिरोंसे शोभित थी। सोवा, राम और लक्ष्मणने अपने हाथ जोड़कर अयोध्यानगरीकी दूरसे ही वन्दना की ।। १-९ ॥
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J०४
[ ७६. एक्कूणासीमो सन्धि ]
पउमचरिउ
सीय राम लक्खण
मुह-यन्द- णिहालउ भरहु गउ ।
बुद्धि वा बिहिह णं पुण्ण-गिव सवदम्मुहउ ||
[1]
रामागमण मर पीसरियड | अण्णेतहें सत्तुहणुस । छत्त-विभाण-सहास धरियहूँ । तूर हूँ हयहँ कोढि परिमाण हि । जणवड गिरवसेसु संमइ । विडिय एकमेक भिमाणेहिं । कण्णताल हय-महुअर विन्दहों।
हम-गय-रह गरिन्द-परिस्थि ॥१॥
रघुपाक्ष -साधु २ अम्बरें रवि किरण हूँ अन्तरियाँ ॥ ३ ॥ दुन्दुहि दिष्ण गयण गवाणें हिं ॥ ४ ॥ रह-गय- सुरपे हि मग्गु ण लडभड़ ॥५॥ पेलादेखि जाय जम्पा हि || शा
मरहा हिउ उत्तरि गइन्दों ॥७॥ हरि-वलस-महिल पुष्क- विमाणहीं। अवर वि णश्च निय-निय जाण हाँ | |
केकय-सुपेण णमन्तरण दीसह विहिं रह
घत्ता
सि रहुबइ-पळणसरे क्रियट । पीलुप्पल म णाएँ थियड ॥ ९ ॥
[R]
वह राम सिंह णमि कुमारों । अन्तेरहों पघोकिरदारों ॥ १ ॥
लें] वलद्धरेण कारेंवि ।
साहसनिय भुवदण्ड पसारे वि ॥२॥ मऍ चुम्बित पुणु सय बारव ॥३॥
अवरुण्डिड भारु बहुषारत ।
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एक्कूणासीमो संधि
उभासीवीं सन्धि तब भरत सीता, राम और लक्ष्मणका मुखचन्द्र देखनेके लिए गये। उन्होंने देखा मानो बुद्धि, व्यवसाय और भाग्यका एक जगह सुन्दर संगम हो गया हो ।
[१] रामके आगमनपर भरतने कूच किया। वह अश्व, गज, रथ और राजाओंसे घिरा हुआ था। दूसरी जगह सेना. के साथ शत्रुघ्न भी जा रहा था, खून असं और वाहनपर बैठा हुआ। सैकड़ों छन्न और विमान साथ चल रहे थे। उनसे आकाशमें सूर्यकी किरणं ढक गयीं। करोड़ोंकी संख्या में नगाड़े बज उठे, आकाशमें भी देवताओंने नगाड़े बजाये | समस्त जनपद मुब्ध हो उठा। रथ, अश्व और हाथियोंके कारण रास्ता ही नहीं मिलता था। एक दूसरेसे भिड़कर लोग गिर पड़ते थे। यानोंमें रेलपेल मच गयो। तब राजा भरत कर्णतालसे भौंरोंको उड़ाते हुए महागजसे उतर पड़ा। राम और लक्ष्मण भी सीताके साथ अपने पुष्पक विमानसे उतर पड़े,
और भी दूसरे राजा, अपने अपने यानोंसे नीचे उतर आये। कैकेयीके पुत्र भरतने नमस्कार करते हुए रामके चरणोपर अपना सिर रख दिया। उस समय ऐसा लगा, मानो लालकमलंकि बीच नीलकमल रखा हुआ हो ।। १-२॥
[२] जिसप्रकार भरतने रामको प्रणाम किया, उसी प्रकार, उसने कुमार लक्ष्मण और हिलते-खुलते हारवाले अन्तःपुरको भी किया। तब बलोद्धत रामने भरतको पुकारा, और अपने दोनों बाहु फैलाकर छोटे भाईको अंकमें भर लिया और सौ बार
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पचमचरित
सय-वारउ उच्छों सहायिउ। सय-वारउ भिन्नहुँ दरिसाविउ ॥४॥ सय-बारउ दिण्णउ भासीसउ। वरिस-सरिस-हरिसंसु-विमीसा ॥११ 'भुक्षि सहोयर रज्जु गिरकुसु । मन्द बद्ध जय जीव चिराउसु ।।६॥ भच्छा वीर-च्छि भुव-दगडएँ। गिवसड वसुह तुहार खण्डएँ' ॥७॥ एम भणेधि पगासिय-णामें । पुष्फ विमाणे चढाविउ रामें 1॥
पत्ता मरह-गराहिचु दासरहि लक्खणु वइदेहि णिविट्ठाई। धम्म पुण्णु वषसाउ सिप णं मिलेंषि अउ पाहा ॥१॥
[५] सूरह हयाँ गिहिय-ति-जयई। णन्द-सुणन्द-मद-जय-विजयाँ ।।। मेह मइन्द-समुर-णिपोस। णदिघोस-जयघोस-सुधोसइँ ॥२॥ सिव-संजीवण-जीवणिगा। बद्धण-बदमाण-माहेन्द ॥३॥ मुन्दर-सम्ति-सोम-सङ्गीप। णन्दावस-कण्ण-रमणीप ॥४॥ गहिर पसपणपुण्ण-पवितहूँ। अवरा वि बहुविद-वाहच ।।५।। मल्लरिभम्मा भरि-धमालहै। महल-गन्दि-मन्दा-ताला || कारा-काग्इ मउम्दा-ठक.। काल-टिविक-ठाक-पविता ।।। ड्डिय-पणव-तणव-दरि-ददुर । मरूम-गुजा-रक्षा वन्पुर ।।८।।
पत्ता अट्ठारह मक्खोहणित रयणीयर-गयरहों भाणियड । अवरहुँ तूरहूँ रिय? का कोरिड किं परियाणियउ ॥९॥
[ ] अम-अय-कार करतेहि लोएँ हिं। मङ्गक-घचलुच्छाह-पभोहि ॥१॥ अहहष-सेलासीस-सहासें हिं। तोरण-णिवह-छहा-पिण्णासें हिं ॥२॥ दहि-दोषा-दष्पग-जन-कको हि। मोतिय-रकापक्षिण-कणिसे हि
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एक्कूणासीमो संधि
उसके माथेको चूमा, सौ बार अपनी गोदमें लिया और सौ बार उसे अपने अनुचरोंको दिखाया | सौ बार उन्होंने आशीर्वाद दिया, आनन्दके आँसुओंसे दोनों वर्षाके समान भीग गये। रामने कहा, "हे भाई, तुम स्वच्छन्द इस राज्यका भोग करो, प्रसन्न रहो फलो-फूलो जियो और बढ़ते रहो, तुम्हारे याहुपाशमें लक्ष्मीका निवास हो,” यह कहकर प्रसिद्ध नाम रामने उसे अपने पुष्पक विमानमें चढ़ा लिया । राजा भरत, राम, लक्ष्मण और सीताने एक साथ अयोध्यामें इस प्रकार प्रवेश किया मानो धर्म, पुण्य, व्यवसाय और लक्ष्मीने एक साथ प्रवेश किया हो ॥ १-९॥
[३] नन्द, सुनन्द, भद्रजय, विजय आदि तीनों लोकोंको निनादित करनेवाड़े सूर्य मल रते। मेघ, महन्द तथा समुद्र निर्घोष, नन्दिधोष, जयघोष, सुघोष, शिवसंजीवन, जीवनिनाद्र, वर्धन, वर्धमान और माहेन्द्र भी। सुन्दर-शान्ति, सोम,संगीतक, नन्दावर्त, कर्ण, रमणीयक, गम्भीर, पुण्यपवित्र आदि और भी दूसरे बाथ बज उठे । अमरि, भम्भा, भेरी, वमाल, मर्दल, नन्दी, मृदंग-ताल, करड़ा-करड़, मृदंग ढक्का, काइल, टिबिल, ढका, प्रतिढक्का, दढिय, प्रणव, तणव, दडि, दर्दुर, समरुक, गुञ्जा, रक्षा, बन्धुर आदि वाथ बजे। निशाचरनगरी लंकासे अट्ठारह अक्षौहिणी सेना लायी गयी। और तूर और तूर्य आदि कई करोड़ थे, सन्हें कौन जान सकता था ।। १-९ ।।
[४] मंगल धवल उत्साह आदि गानों के प्रयोग-द्वारा,जयजयकारकी ध्वनि-द्वारा,अतिशय आरती तथा आशीर्वचनों द्वारा, तोरण समूह और दृश्योंके निर्माण-द्वारा, दही, दूर्वा, दर्पण, और जल कलशों-द्वारा, मोतियोंकी रांगोली और नये धान्यों.
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पडमचरिट चम्मण-यणुग्धोस्स्यि-वेऍहि। कडिय-अजु-रिउ-सामा-भेहि ॥४॥ णड-कह-कहय-छत्त-फम्फाहि। लक्षिय-वसाटण-विहावे हि ।।५।। मटेहि प्रयणुच्छाह पढन्तेहि। वायालीस वि सर सुमरन्तहिं ।।६।। मालपफोरण-सरे हि विधि हि । इन्दयाल उपाइय-चिहि ॥७॥ मन्द-फेन्द-वन्द हि कुरन्त हिं। डोम्बे हि वंसारहण करन्तहि ॥८॥
पत्ता पुरै पइसन्तहाँ राहवहाँ ण कला-विण्णाण केवलई । दुन्दुहितापिय सुर हि णहँ अच्छरेंहि मि गीय मङ्गलहै ॥९॥
पुरै पइसी सम-नारायणे। जाय वोल वस्णायरिया-यणे ।।३।। 'हु सो समु जासु विहि वीयउ । दोसइ गहॅणावन्तु स-सीय ॥२॥ पंहु सो छक्षण लक्सपावसड । जेय दसाणा णिहष्ट मिडन्त ॥३॥ पहु सो वहिणि विहीसण-राणउ । सुबइ विणयवस्तु पहु-जागड ॥१॥ ऍहु सो सहि सुरंगीबु सुणिजह । गिरि-किक्किन्ध-गयर जो मुझइ ॥५॥ ऍहु सो विज्लाहरु मामादलु। में सुर सामिसालु भाहण्डल ॥६|| ऍहु सो सहि गामेण विराहिस । दूसणु क्षेण महाहवे साहिउ । ऍहु सो हणुउ जेण वणु मग्गज । रामही दिण्णु रज्जु भावग्गउ ॥८॥ जाम णयह णाम-ग्गहणायउ। तिणि वि ताष पट्टहँ राजस्लु ॥९॥
पत्ता
चल धवल हरि सामलल प्प हिमगिरि-णव-जवाहरद
बहदेहि सुवष्ण-वण्णु हरह । अम्मन्नर विजुल विस्फुरह ॥१०॥
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एक्कूणासीमो संधि
१०१ द्वारा, ब्राह्मणों से उच्चरित वेदों-द्वारा, ऋक् यजुः और सामवदोंके पाठ द्वारा, नट, कवि, कत्थक, छत्र और भाटों द्वारा, रस्सीपर चढ़नेवाले नटोंके प्रदर्शन-द्वारा, पण्डितों से उच्चरित उत्साह गीतों-द्वारा, बयालीस स्वरों की ध्वनियों-दारा, विचित्र मल्लफोड़ स्वरों और इन्द्र ताल उत्पाद्य चित्रों द्वारा, गाते हुए गायकों और नृत्यकारोंके समूह-द्वारा, बाँसुरी बजाते हुए डोमोंके द्वारा प्रवेश करते हुए रामका स्वागत किया गया। रामके नगरमें प्रवेश करते ही केवल फला और विज्ञानका ही प्रदर्शन नहीं हुमा, बरन् आकाशमें देवताओंने दुन्दुभियाँ बजायीं और अप्सराओंने मंगल गीचोंका गान किया ।। १-२ ।।
[५] राम और लक्ष्मणके नगरमें प्रवेश करनेपर, श्रेष्ठ नागरिकाओंपर भिन्न-भिन्न प्रतिक्रिया हुई। एक बोली, "यह क्या वे राम है जो सीतादेवीके साथ आते हुए दूसरे विधाताके समान जान पड़ते है, यह क्या लक्षणोंसे विशिष्ट वही लक्ष्मण हैं, जिन्होंने युद्ध रावणका वध किया, हे बहन, क्या यह वही राजा विभीषण हैं जो विनयशील और बहुत विद्वान सुने जाते हैं। हे सस्त्री, यह वही सुप्रीव है जो किष्किंधा नगरका प्रशासफ है। यह बही भामण्डल विद्याधर है, मानो देवताओंमें श्रेष्ठ इन्द्र ही हो। यह नामसे वही विराधित है जिसने महायुद्ध में दूषणपर विजय प्राप्त की। यह वही हनुमान है जिसने वन उजाड़ा, रामको राज्य दिया, और स्वयं सेवक बना," जबतक नागरिकाएँ इस प्रकार नाम ले रही थी, तबतक उन तीनोंने राजकुलमें प्रवेश किया। लक्ष्मण गोरे थे राम श्याम, और सीतादेवीका रंग सुनहला था। वह ऐसी लगती, मानो हिमगिरि और नये मेघों के बीच बिजली चमक रही हो ।। १-१०॥
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प.मील
तिणि विगबह तेस्धु जहि कोसल । पाह-मान्त घण-स्थग-मण्डल ॥१॥ साइड दिण्णउ मणु साहारिय । जिगवर-पदिम जेम जयकारिय ॥२॥ ताएँ वि दिण्णासीस मणोहर । 'जाव महा-समुह मन्महीहर ॥१॥ धाइ धरति जाव सयरायर | भाव मेरु णा चन्द-दिवायर ॥1 जाव दिसा-गहन्द गह-मण्डलु। जाव सुरेहि समाणु आहण्डल ॥५॥ जाव वहन्ति माहाणइ-वसई। जाच सवन्ति गरण पावरष सई॥६॥ ताव पुत्त तु? सिय अणुहलहि। सीयाएवि पद टु उहि ।।७।। सक्खणु होउ नि-मण्ड-पहाणड। मरहु अउज्झा-मण्डल राण' ||८||
पत्ता कइकह केशब-सुप्पहउ तिष्णि वि पुणु तिहि अहिगन्दियट । मेरो जिण-पदिमाउ जिह स इन्द-परिन्दहि धन्दिपउ ।।९।।
[-] हरि-इलहरेंहि तेस्थु अच्छतेहिं । वह हि षासरेहि गडहि ॥१॥ मरहहाँ राय-लरिछ मागम्तहाँ। तन्तावाय वे वि जाणतहों ।।२॥ विविह-सत्ति-घउ-विजापन्तहों। पञ्च-पयार मन्तु मम्तन्तहों ॥३॥ छग्गुषणड असेसु जुज्जन्तहाँ। तह सत्ता रज्जु भुञ्जन्तहों ।।४।। बुद्धि-महागुण-अट्ट वहन्तहों। इसमें माएं पय पालम्तहों ॥५॥ वारह-मण्डल-चिन्त करम्सहो। अट्ठारह तिरथ रफ्षम्तहाँ ॥६॥ एकहि दिवसें जाउ उम्माइड। कम-सपल थिउ णा हिमाहउ ॥७॥
वत्ता
'ते रह गय ते नाय ताउ जणेरिउ सो जि हउँ
ते मिलिय स-किकर माइगर । पर ताउ ण दीसह एपर ॥४॥
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एमी लेखि
[ ६ ] वे तीनों वहाँ पहुँचे जहाँपर पीन और भरे हुए स्तन मण्डला कौशल्या माता थीं। उन्होंने आलिंगन देकर माता के मनको ढाढ़स दिया, और जिनेन्द्र भगवान्की तरह उनका जयजयकार किया। उसने भी उन्हें सुन्दर आशीर्वाद दिया, "जबतक महासमुद्र और पहाड़ हैं, जबतक यह धरती सचराचर जीवोंको धारण करती है, जब तक सुमेरुपर्वत है, जबतक आकाशमें सूर्य और चन्द्रमा हैं, जबतक दिग्गज और ग्रहमण्डल हैं, जबतक देवताओंके साथ इन्द्र हैं, जबतक महानदियाँ प्रवाहशील हैं, जबतक आकाशमें नक्षत्र चमक रहे हैं, तबतक हे पुत्र, तुम राज्यश्रीका भोग करो और सीतादेवीको पटरानी बनाओ, लक्ष्मण त्रिखण्ड धरतीका प्रधान बने, और भरत अयोध्या मण्डलका राजा हो । फिर कैकयी और सुप्रभाका उन तीनोंने इस प्रकार अभिनन्दन किया मानो सुमेरुपर्वतपर जिनप्रतिमाकी इन्द्र और प्रतीन्द्रने वन्दना की हो ॥ १९ ॥
[ ७ ] वहाँ रहते हुए राम और लक्ष्मणके बहुत दिन बीत गये । भरतने बहुत समय तक राज्यलक्ष्मीका उपभोग किया, दोनों ही राज्यतन्त्र को अच्छी तरह समझते थे। तीन शक्तियों और चार विद्याओंको वे जानते थे, पाँच प्रकारके मंत्रोंकी मंत्रणा करते थे । वे षड्गुणोंसे युक्त थे। इस प्रकार उन्होंने बहुत समय तक सप्तगि राज्यका उपभोग किया। उन्हें बारह मंडलोंकी चिन्ता बराबर रहती थी। अठारह तीर्थोंकी रक्षा करते थे। पर एक दिन उन्हें उन्माद हो गया, मानो कमलसमूह हिमसे आहत हो उठा हां। वे सोच रहे थे कि वही रथ हैं, वही गज हैं और वही अरब हैं और वही अनुचर एवं भाई हैं। वही माताएँ हैं वही मैं हूँ पर एक पिताजी दिखाई नहीं देते ।। १-८ ।।
اد
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परिज
[ - ]
८
जिह ण ताठ सिह हउ मिण कालें। रज्जु गिधु धिगत्यहूँ छन्तहूँ । चण्ड ताड जेण परिहरियहूँ । ह पुणु कु-पुरिसु दुण्णय-वन्त । मुनि पायें चिरु लइड अगहु
पर नामोहिउ मोहण जाले ॥१॥ घरु परियणुधणु पुस- कलई || २ || तुम गामिया दुम्बरियाँ || ३ || अज वि अच्छमि विसयासतद' ॥४॥ 'रामागमणे होमि अ-परिगहु ॥ ५॥
जहिं जे दिवसेतिणि वि निरिह हुँ । जहि जे दिवस यि गय प हूँ । ६ ।
सहजं
जो
"दुट्ट-सहाउ कसाएं लइयउ |
अग्ग-महिसि करें जणय सुय अप्पुणु पाहि सयक महि
तहूँ हूँ तं जें सिंहासणु । मामण्डलु सुग्गी विदीसणु ।
ठाएं कब सच् किर जम्पिङ । वहीं भवियहाँ सुखि पर मरणं । ते विविति भदारा रजहों । तो जिय-जाउहाण सङ्ग्रामें । 'अज्जु वि तुहुँ जे राज से किक्कर | ते सामन्त अम्हें से मायर ।
को अ-सजणु ॥७॥
रामाममें जि भरहु परुष उस
धत्ता
मन्तित्तणु देवि जणदणहों । हरहु जामि तवोषण हों ||१||
[ ९ ]
तुम्हाँ षणु महु रज्जु समप्पि ॥ १ ॥ अहद घोर-वीर सब चरणे ॥२॥ एवहिं जामि यमि पावजहों ॥२॥ मरहु चवन्तु णिवारि रामें ||४|| से गय ते तुरत से रहवर ||५|| सा समुद्र -परिस- वसुन्धर || ६ || तं श्रामीयर चामर - वासणु ॥७॥ लय वित करम्ति घरे पेसणु' ॥ ८॥
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एक्कासीमो संधि [८] "जिस प्रकार कालने पिताजीको नहीं छोड़ा, उसीप्रकार मुझे भी नहीं छोड़ेगा, फिर भी मैं मोह में पड़ा हुआ हूँ। राज्यको धिक्कार है, छत्रोंको धिक्कार है, घर परिजन धन और पुत्र-कलत्रोंको धिक्कार है । धन्य हैं वे तात, जिन्होंने दुर्गतिको ले जानेवाले खोदे चरितोंको छोड़ दिया है। मैं ही, कुपुरुष दुर्नयों से युक्त और विषयासक्त हूँ। अब मैं मुनिके पास जाकर दीक्षा ग्रहण करूँगा। स्त्रीके विषयमें अब मैं अपरिप्रह ग्रहण करूँगा। जिस दिन ये तीनों बनवासके लिए गये,
और जिसदिन वनवाससे लौटकर नगरमें आये, नसदिन भी मैंने तपोवनके लिए कूच नहीं किया, कौन नहीं कहेगा कि मैं कितना असज्जन हूँ। मुझ दुष्ट स्वभावको कषायोंने घेर लिया।" इसप्रकार रामके आगमनपर भरतने दीक्षा ग्रहण कर ली। "जनकसुताको अग्रमहिषी बनाकर और लक्ष्मणको मंत्रीपद देकर हे राम, :आप घरतीका पालन करें। मैं अब तपोवनके लिए जाता हूँ" || १-६॥
[१] उसने कहा, "पिताजोने यह कौन-सा सच कहा था कि तुम्हारे लिए वन और मेरे लिए राज्य । उस अविनयकी शुद्धि केवल मृत्युसे हो सकती है, या फिर घोर तपश्चरणसे। इसलिए हे आदरणीय, राज्यसे मुझे निर्वृति हो गयी है। अब मैं जाऊँगा और प्रव्रज्या ग्रहण करूंगा।" तम युद्धमें निशाचरोंको जीतनेवाले रामने भरतको बोलनेसे रोका । उन्होंने कहा"आज भी तुम राजा हो, तुम्हारे वे अनुचर हैं, घड़ी अश्व, वही गज और रथ श्रेष्ठ है। वे ही सामन्त हैं और तुम्हारे भाई हैं, वही समुद्रपर्यन्त धरती है। वही छत्र हैं और वाही सिंहासन है। वही स्वर्णनिर्मित चमर और व्यजन हैं, भामण्डल सुग्रीव और विभीषण घरमें तुम्हारी आज्ञाका पालन करते हैं।
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पड़मचरित
'यत्ता गुत्र विजं अवर किय चलाक-मुरल-कल-पो रहीं। 'जिह सक्कहाँ तिह पहिरखलहौं' आपसु दिण्णु अन्तेररही ।।२।।
[१०] जं भागलु दिष्णु घर-विलहुँ। जाणइ-पमुहहुँ गुण-गण-णियहुँ ।। गह-मणि-किरण-करालिय-गयगहुँ । रमणावासावासिय-मयाहुँ ॥२॥ थग-गयउर-पल्लाषिय-जाह हुँ 1 रूबीहामिय-सुरबहु-साहई ।।३।। सबल-कला-कलाष-कल-कुसलहुँ । मुह-मारुअ-महाविय-मसलहुँ ।।।। माह-मरासण-लोयण-वागहुँ । कस-णिवन्मण-जिय-गिम्वागहुँ ॥५॥ विक्रमादिय-वम्मह-सोहरगहुँ । कानण्णम्म-भरिय-पुरि-मग्गहुँ ।। तो कल्याणमाल-षणमादि। गुपावइ-गुणमहन्ध-गुणमालानि ।। सलम-विसल्लासुन्दरि-सोयहि । बजयपण-सोहोयर-धायहि ॥६॥
बुबह भरह-राहिवा देवर योटी वार वरि
पत्ता 'सर-मझें तरन्त-तरन्साई । भच्छहुँ जर-कील करन्ताई' ॥२॥
से परिवाणु पइट्स महा-सरु। जल-कीलहें वि अचलु परमेसर ॥१॥ मग्याउ सुन्दरीज पड-पास हि । गाडालिका-चुम्बण-हासं हि ॥२॥ रेखा-भाव-माव-विग्णासें हि। किलिफिशिय-विच्छित्ति-विकाहि ।। मोहाविय कोहमिय-विचारहि । विक्रमम-वर-विम्योक-पपाहि ॥७॥ तो वि ग सहिड भरहु सहसुहिड। बविचलु गं गिरि मेरु परिहिउ ॥५॥ माछह जाव तीरें सुह-दंस । वा महा गउ तिमाहिसणु ॥६॥
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एक्कूणासीमो संधि
११५ जय भरतने इस प्रकार चंचल चूड़ियों और सुन्दर नूपुरोंसे मुखरित अन्तःपुरकी उपेक्षा की तो रामने आदेश दिया कि जिस प्रकार सम्भव हो उसे रोको ।। १-९॥ __ [१०] जब गुणोंसे युक्त, जानकी प्रमुख श्रेष्ठ नारियोंको यह आदेश दिया गया, तो वे भरतके पास पहुँचौं । उन्होंने अपने नखमणिकी किरणोंसे आकाशको पीड़ित कर रखा था। उनके कटितटमें जैसे कामदेवका निवास था। स्तनोंसे उन्होंने, बड़ेबड़े योद्धाओंको परास्त कर दिया था। रूपमें सुरवधुओंकी शोभा उनके सामने फनी की समस्त कलाकामिन थी। मुखपवनसे वे भ्रमरोंको उड़ा रही थी। भौह धनुष श्री और नेत्र तीर थे। केश रचना में वे देवताओं को भी जीत लेती थीं। उन्होंने कामदेवके भी सौभाग्यको भ्रममें डाल दिया था। उनके सौन्दर्य के जलसे नगरमार्ग पूरित थे। इस प्रकार कल्याणमाला, वनमाला, गुणवती, गुणमहार्य, गुणमाला, शल्या, विशल्या और संता, वनकर्ण और सिंहोदरकी पुत्रिची वहाँ गयीं । उन्होंने नराधिप भरतसे कहा, "हे देवर, सरोवरमें तैरते-तैरते चलो, कुछ समयके लिए जल क्रीड़ा करें ।।१-२॥ । [११] उनकी बात मानकर भरतने महासरोवरमें प्रवेश किया। किन्तु वह जलक्रीड़ामें भी अचल था । सुन्दरियोंने उसे चारों ओरसे घेर लिया, प्रगाढ़ आलिंगन, चुम्बन और हाससे वे उसे रिहा रही थीं। हेला, हाव-भाव और विन्याससे किलकिंचित् विच्छित्ति और विलाससे, मोट्टाविय और कोमिय
आदि विकारोंसे, विभ्रम वरवियोक आदि प्रकारोंसे, उसे रिझाया । परन्तु फिर भी भरत क्षुब्ध नहीं हुए। वे अविचल भावसे इस प्रकार षठ खड़े हुए, मानो सुमेरु पर्वत ही उठ खड़ा हुआ हो । शुभदर्शन भरत तौरपर बैठे हुए थे। इतने में
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णिय आलाण- खम्भु उप्पादेवि ।
तं जे महा-सह ।
परिममन्तु 'परम मित्र हुग्ण भवन्तरे।
पडमचरित
घत्ता
हु गरइहउँ पुणु मस- गउ' ।
पुण्ण-पहावें सम्मत्रिव कवल पण ले पण पिइ जलु अत्यकऍ बिउ लेप्यमड ||१०||
करि सम्मरइ भवन्तरु जावहिं । लक्खण-राम पराइय भायर
वर विरार-पीट चंदि महा गएँ, विहुअणभूषणं । पुरे पसन्ते जय-जय- सर्दे । तो आकाय खम्में करें आउि । कलु ह ण मेण्हइ पाणिड कहिउ करिल्लेहिं पक्कयाह ।
तं गवर- वइयह सुवि आवड ताव समोसरणु
मन्दिर सयह अयहँ पार्श्वेषि ॥७॥ मरहु पिएवि जाउ जाई - लरु ||८|| विसिय सौं वे विस्भोत्तरे ||९||
[ ११ ]
पुष्प -विमाणु चडेपणु तावहिं ॥ १॥ णं सचारिम चन्द - दिवायर || २ || næponità á að đông nam सुरवर पाहु णाइँ अरावण ॥४॥ बहिण-मण- तूर - णिण हूँ ॥ ५ ॥ अविरला कि-रिन्छोखि बसालिङ || ३ || कुअर चरिण के वि जाणिउ ॥ ॥ 'दुष्कर जीवित वारण शाह' ||८||
गय वस्तुहृण-मर स जगण । भामण्डल - मुग्गीच विराहिय ।
घता
उप्पण्णचिन्तवक्खणहुँ । कुलभूषण देस विसन हुँ ॥ ९ ॥
[१३]
रिसि आगमणु सुषि परमन्सिएँ । गड रहु-णन्दणु चन्दणहसिएँ ||१|| स- तुम - गन्द स-सम् गवय-गववव-स रहसाहिय ॥ ३ ॥
॥२॥
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एक्कूणासोमी संधि निजगभूषण महागजने अपना आलान स्तम्भ तोड़-फोड़ डाला । सैकड़ों घरोंको तहस-नहस करता हुआ, घुमता-घामता महासरोवरके निकट पहुँचा। वहाँ भरतको देखकर उसे पूर्वजन्मका स्मरण हो आया कि यह तो मेरा जन्मान्तरका मित्र है और ब्रह्मोत्तर स्वर्ग में भी मेरे साथ रहा है। यह पुण्य के प्रभावसे ही सम्भव हो सका कि यह राजा है और मैं मत्तगज। यह सोच कर वह एक कौर नहीं खाता, और न पानी पीता, सहसा मूर्ति के समान जड़ हो गया ॥१-१०॥
[१२] महागज त्रिजगभूषण जब पूर्वजन्मकी याद कर रहा था, तभी पुष्पक विमानमें बैठकर राम और लक्ष्मण दोनों भाई आये, मानो गतिशील सूर्य और चन्द्रमा हों। राजा भरत भी विशल्या सुन्दरी और सीता देवीके साथ उस महागजपर इस प्रकार बैठ गया मानो इन्द्र हो ऐरावतपर बैठ गया हो। जय जय शब्द के साथ नगर में प्रवेश करते ही चारणों, वामनों और नगाड़ोंकी ध्वनि होने लगी। महागजको आलान-स्तम्भसे बाँध दिया, भ्रमरमाला उसके चारों ओर कलकल आवाज कर रही थी। परन्तु वह न कौर ग्रहण करता था और न पानी। उस कुंजरके चरितको कोई भी नहीं समझ पा रहा था। अन्त में अनुचरों ने जाकर रामसे कहा, "गजराजका अब जीना कठिन है ।" गजवरके व्रताचरणको सुनकर रामलक्ष्मणको बहुत भारी चिन्ता हो गयी। इसी बीच कुलभूषण और देशभूषण महाराजका समवसरण वहा माया ॥१-२॥
[१३] महामुनिका आगमन सुनकर राम अत्यन्त आदरके साथ उनकी वन्दना-भक्तिके लिए गये। शत्रुघ्न, भरत और लक्ष्मण भी गये | अपने अश्चों, रथों और गजोंके साथ भामण्डल, सुप्रीब, विराति और हर्षातिरेकसे भरे गवय,
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पउमचरिय
सार तरङ्ग रम्भ-पणजय ॥१४॥
स- विहीण - पीक जय । कोस- कड् कड् के क्कय- सुप्पह | साहु वन्दहति करेपिणु । पुच्छिउ जेह महारिसि रामें ।
सन्तंवर बइदेहि चिणिगय ॥५॥ दस पयारु जिण बम्सु सुणैषिणु ॥ ६॥ 'हुँ फरि तिजगषिसणु जामें ॥१७॥
कबलु छेड् ण दुक्कड् सलिलहों जेम महारिसिन्दु कवि-कलिल हो ||८|
घन्ता कुञ्जर-मरत-भवन्तरइँ अक्खियाँ असेसई मुणिवरेंण ।
केक इ- स
[१४]
।
विकम-गय-विषय- पसाहिए । थिङ भर महारिसिरुबु देवि । तर्हि जुबइ सहि सके कि सो जिविस भरेंवि गाउ । सरहाको वि उप्पण्णाशु | अहिसित्त रामु विजाहरेहिं ।
सामन्य सहास साहिए || १ || मणि- स्यणाहरण हूँ परिहरेवि || २ || थिय केसुप्पा करेवि सावि ||३|| वस्तुत्तरें सग्गं सुरिन्दु जाउ ||४|| बहु-दिवसेंहिं गड होगाव सानु ||५|| भामण्डळ-किकिन्स रहि ||६|| दहिमुह महिन्द-पवण पूहि || || अवरोह ममहं सहि ||३||
5
खणीक - विहीण- भङ्गपूहिँ । चन्दोयरसुयजम्युष्ण एहिं ।
धत्ता
वधु पद रहु-णन्दणहों कमण फलसे र्हि असे कि ।
क्खणु चरण सहित घर स-धर स ई भुखन्तु थिउ || १||
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एक्कूणासीमो संधि
१९ गवान और शंख, विभीषण, नल, नील, अंगद, तार, तरंग, रंभ, पवनमुत, कौशल्या, कैकेयी, केकय, सुप्रभा और अन्तःपुरके साथ सीता भी वहाँ पहुँचौ । सबने बन्दना-भक्ति की और इस मकारका धर्म गुरसपने तब बई महामुनिसे पूछा, "यह विजगविभूषण महागज न तो आहार ग्रहण करता है और न जल, वैसे ही जैसे महामुनि पातकके कणको भी नहीं लेते। मुनिवरने भरत और उस महागजके सारे जन्मान्तर बता दिये । उन्हें सुनकर कैकेयीपुत्र भरतने हजारों सामन्तोंक साथ दीक्षा ग्रहण कर ली ।।१-६।।
[१४] जब विक्रम नय और पराक्रमसे प्रसाधित हजारों साधक सामन्तों के साथ भरतने मणि रत्नोंके समस्त आभूषण छोड़ दिये और महामुनिका रूप ग्रहण कर लिया तो सैकड़ों युवतियोंके साथ कैकेयीने भी केश लोंच कर दीक्षा ग्रहण कर स्ली । वह बिजगविभूषण महागज भी मर कर ब्रह्मोत्तर स्वर्गमें देवेन्द्र बन गया। राजा भरतको ज्ञान उत्पन्न हो गया और बहुत दिनोंके बाद, उनके इस संसार का अन्त हो गया। उसके अनन्तर भामण्डल, किष्किन्धाराज, नल, नील, विभीषण, अंगन, दधिमुख, महेन्द्र, पवनसुत, चन्द्रोदरसुत, जम्बुव आदि दूसरे योद्धाओं और विद्याधरोंने रामका राज्याभिषेक किया । रघुनन्दनको राज्यपट्ट बाँध दिया गया, और स्वर्ण कलशों से उनका अभिधेक हुआ। लक्ष्मण भी अपने चक्र रत्नके साथ धरतीका भोग करने लगे॥१-९||
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परमचरिट
[८०. असीइमो संधि ]
रहबद रज्जु काम थिउ गर भरहु नवोवणु ।
दिग्ण विहमें वि सयक महि सामन्तहुँ जीवणु ॥ चसुमइ सि-खण्ड-मण्डिय हरिहैं। पायाला बन्दीपरिहूँ ।।11 भण-कणय-समिदा पउर-पवरु। सुग्गीयहाँ गिरि-किकिन्ध-पुरु ॥२॥ ससि-फलिह-लिहिय-जस-सासणहौं । सकाउनि मचल विहोसणही ॥३॥ पण-मनही भर-बामणिहें। सिरिपम्पय-माल पायणि ॥४॥ रहणेउर-पुरु भामण्डलहौं । कह-दोषु दिग्णु णीकहाँ कहाँ ॥५॥ माहिन्दि महिन्दही दुजयहों। माइक-णयह पषणायहाँ ॥६।। अबराह मि अवर, पण। घर-सिहर-रबिन्दु-विष्टणहूँ ।।७।। बलु जीवणु देह विघोसा वि। 'जो णरबह हवउ होसइ वि ॥६॥ सो सयल वि माँ भन्मधिउ । मा होड को वि जर्गे दुरिथयड ॥५॥
घसा णाएं भाएं दसमऍण पय परिपाळेनहो। देवह सवणहूँ वम्मणहूँ में पीढ कीजहाँ '||
पुणु पुणु भन्मस्था दासरहि। 'सो णरबह जो पालेइ महि ।।३।। भानु पपएँ पय विणय-पर। सो भविषलु रजु करे करू ।।२।। जो घर पुणु देव-मोग हर। वर-थावर-विति छेउ करा ॥२॥ सा खयहाँ जाइ तिहि वासरे हि । तिहि मासहि सिहि संवरकरें हि ॥ जई कह वि चुछ तहाँ अवसरहों। तो अकुस लु अग्ण-भवम्तरहो' ५।।
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!
I
असीम संधि
१२१
अस्सीवीं सन्धि
रघुपति राजगद्दी पर बैठे। भरत तपोवन के लिए चल दिये। रामने आजीविका के लिए सामन्तों को सारी धरती बाँट दी।
[१] लक्ष्मण के लिए तीन खण्ड धरती । चन्दोदरके लिए पाताललंका | धन-धान्यसे समृद्ध विशाल किष्किन्धा नगर सुग्रीवके लिए । चन्द्रकान्तमणि के शिलाफलक पर जिसका यश लिखा गया है उस विभीषण को लंकापुरी का अचल शासन दिए गया। श्रीपर्वतमण्डल सहित रथनपुर नगर योद्धाओं में चूडामणि भामण्डल के लिए और कई द्वीप नल-नील के लिए दिये गये। दुर्जेय महेन्द्र के लिए माहेन्द्रपुरी । पवनसुत के लिए आदित्यनगर। दूसरों-दूसरों के लिए भी ऐसे ही नगर प्रदान किये जिनके गृहोंके शिखरों से आकाशमें सूर्य चन्द्र रगड़ खाते थे। रामने इस प्रकार लोगों को जीवनदान दिया। उन्होंने यह घोषणा भी की - "जो भी राजा हुआ है या होगा, उससे मैं (राम) यही प्रार्थना करता हूँ कि दुनियामें किसीके प्रति कठोर नहीं होना चाहिए। "न्यायसे दसवाँ अंश लेकर प्रजाका पालन करना चाहिए। देवताओं, श्रमणों और ब्राह्मणों को पीड़ा कभी मत पहुँचाओ” ॥१-१०॥
[२] रामने फिर अभ्यर्थना की, “राजा वही है, जो धरतीका पालन करता है। जो प्रजासे प्रेम रखता है, नय और विनयमें आस्था रखता है, वही अविचल रूपसे अपना राज्य करता है । जो राजा देवभागका अपहरण करता है, दोहली भूमिदानका अन्त करता है, वह तीन ही दिनमें विनाशको प्राप्त होता है, तीन दिनमें नहीं तो तीन गाहमें तीन सालमें, अवश्य उसका नाश होता है। यदि इतने समय में भी बच गया तो दूसरे जन्म में अवश्य उसका अकल्याण होगा।" इस प्रकार
"
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१२२
परमचरित सामन्त मिजन्तैवि रामयण । सत्ताणु घुस जीयाहवेंग ॥६॥ 'ग पहुचइ काइँ एह पिहिमि । सोमिसिह तुम्नु मझु तिहि मि ॥७॥ परिजई तो इ मझे जणहीं। कह मण्डल जं मावद मणहाँ '।।८॥
पत्ता बुकमाइ सुम्पह-गन्दर्गेण 'जब महु दय किजाइ । तो वरि महरायहाँ तणिय महुराउरि दिवई' ।। ||
[३] तो मणे चिन्तात्रिउ दासरहि। 'दुग्गेज्म महुर सिंह पहसरहि || १|| दुमहु महु महु बि असज्झु रणे | अनुवि रावणु ण मुउ गरें ।२।। भय-मावि-मणु-मा-मासुरेण । जसु दिगु सूलु चमरासुरेण ||३|| सो महुरणराहिउ केण जिउ । फणपइहें फणामणिः केण हिउ ||४|| नहुँ अज्जु वि वालु काल कघण । तियसहु मि भयङ्करु लोइ रणु ॥५॥ दुदम-दणु-रह-वियारणहुँ । किह भङ्गु समोहि पहरणहुँ' ।।६।। पणधेप्पिणु पभणइ सत्तुहणु। 'हउँ देव णिरुत्तउ सत्तु-हणु ॥७॥ जइ महुर-णराहिउ गउ हमि । तो रहुबई पइ मि य जय भणमि ॥ ८ ॥
घत्ता
पइसइ जइ विसरणु नमहाँ अहवइ जम बप्पहाँ। जीय-महाविसु अवहरमि महुराहिव-सप्पी ' १९:।
[४] गजन्तु णिवारिज सुप्पहएँ। किं पुस्स परजा सम्पयएँ ।।३।। बोलिज्जई तंज णिवलइ। मद चोकं हि सुहड ण जउ लहह ॥२॥ किं साहसु दिव ण मायब हुँ। किउ विहिं जें विणासु णिसाथरहे ।।३।। किषण मुणित णिस्बम-गुण-मरिउ । अगरगन्तवीर चरिउ ।।४।।
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मसीइमो संधि सामन्तोंको स्थापित कर युद्धविजेता रामने शत्रुघ्नसे कहा, "क्या यह धरती, तुम्है, मुझे और लक्ष्मणको पर्याप्त नहीं जान पड़ती? हमें अपने बीच में अपनी बात प्रकट करनी चाहिए, और जिसके मनमें जो मण्डल पसन्द आये वह उसे ले ले । यह सुनकर सुप्रभाफे पुत्र शत्रुघ्नने कहा, "यदि मुझपर दया करते हैं, तो मुझे मधुराजको मथुरा नगरी प्रदान करें" ॥१-९॥
[३] यह सुनकर रामने अपनी चिन्ता बतायी, "मथुरा नगरी दुर्गाध है, इसमें प्रवेश करोगे कैसे ? वहाँका राजा मधु युद्ध में मेरे लिए भी असाध्य है। उसकी दृष्टि से रावण आज भी नहीं मरा। प्रलय सूर्य के समान चमकनेकाले चमरासुरने उसे एक शूल दिया है। उस राजा मधुको कौन जीत सकता है, नागके फणामणिको कौन छीन सकता है । तुम अभी बच्चे हो। तुम्हारी उम्र ही क्या है अब । वह युद्ध में देवताओं के लिए भयंकर हो उठता है। दुर्दमदानवोंको देहका विदारण करने में समर्थ अस्त्रोंको तुम किस प्रकार झेलोगे।" यह सुन कर शत्रुघ्नने प्रमाणपूर्वक रामसे निवेदन किया, "हे देव, में निश्चय ही शत्रुघ्न हूँ। यदि मैं मधुरापति मधुको नहीं मार सका तो आपकी जय भी नहीं बोलूंगा। यदि वह यम तो क्या, उसके बापको भी शरणमें जायगा तो उस मधुराधिप रूपी साँपके जीवन पर विपक्रो निकाल लूंगा" ||१-२॥
[४] तन्त्र सुप्रभाने उसे डींग हाँकनेसे रोकते हुए कहा, “हे पुत्र, इस समय प्रतिज्ञा करनेसे क्या लाभ ? वह बोलना चाहिए जो निम जाय, बढ़-चढ़कर बात करनेसे सुभटको जय प्राप्त नहीं होती। क्या तुमने अपने भाइयों का साहस नहीं देखा ? दोनोंने मिलकर, निशाचरोका नाश कर दिया, क्या तुमने अनन्य गुणोंसे विशिष्ट, अगरण्य और अनन्तयीका चरित
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Ev
राज दसरह मरहहिं घोरु किंउ ।
तुहुँ र कसरि जम्पणउ | जह महु उप्पण्णु मणारहेंग | तो
हि परमुख ।
केड - सुमालालवरिय पुत पयते भुझें तुहँ
गु
आसीस दिष्ण जं सुप्पह में | तोस सरु सहत्रेण । लक्रण वि धणुहरु अप्पणउ । णामेण कियन्तयन्तु पबलु | सामन्तहँ लक्ख परियरिड । सु-निमित्तहूँ हुअहूँ जन्ता हुँ । उक्रन्धे वृरुज्झिय- सित्रह । तो मन्तिहिं पणिउ
}
पउमचरिउ
इक्क-सु ऍहु एम थिउ || ५ || तो वरि जसु रक्खि अपण्ड || ६ || जइ जति ट्रम्मर ||१|| परिजिनल समुह ||८||
घत्ता
महु-राय- शिवसिणि। मं महुर-बिलासिणि' ||९||
[4]
करें रगड़ जावसूल तहाँ । वयणेण तेण रहसुच्छ लिउ । पुरं वेदिग्रॅ बार रुद्राएँ ।
वनानिय शिय-गुण- सस्वयम् ॥१॥ दिज टि- महाहवे || || दसमिर सिर-कमलुकपणउ ॥३॥ पेणाव दिष्णु समम्-लु ॥४॥ मह भज्झ गोसरिज ॥५॥ सब मिलन्ति बिसाहूँ ॥ ६ ॥ उप्परे महुराराहिव हौ ॥ ७ ॥
'जय मन्द बन्द्र बहु-सत्तु णु ॥८॥
घत्ता
महु-मसह महराहिवहीँ घर पुरिस गविग्रहों । अज्जुमदारा - दिवस उज्जाणु पइन्हीं ॥ ९ ॥
[*]
लइ ताव महुर महराहिवहाँ ' ॥ १ ॥ पण अन ते चलि ॥२॥ मय-विहल संसएँ बुद्धाई ॥१३॥
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असीइमो संधि नहीं सुना। तुम्हारे दशरथ और भरतने बहुत बड़े काम किये, तब इस इक्ष्वाकु वंशकी स्थापना हो सकी, अगर तुम इतनी बड़ी घोषणा करते हो, तो जाओ अपने यशकी रक्षा करो। यदि तुम मुझसे उत्पन्न हुए हो और पिता दशरथसे जनित हो, तो पीछे पग मत देना, सामने-सामने शत्रुको जीतना । हे पुत्र, तुम राजा मधुकी सुन्दर शोभित मथुरा नगरीका विलासिनी स्त्रीकी तरह प्रयत्नपूर्वक भोग करना। वह मथुरा नगरी, ध्वजाओं रूपी मालासे अलंकृत है, मधु राजा ( इस नामका राजा, और कामदेव ) से अधिष्ठित है ।। १-२||
[२] अपनी गुण सम्पदामें बढ़ो-चढ़ी सुप्रभाने जब शत्रुघ्न को आशीर्वाद दिया, तो अनेक युद्धोंके विजेता रामने उसे अपना धनुष तीर दे दिया । लक्ष्मणने भी रावणके दसों सिरोंको काटनेवाला अपना धनुष उसे प्रदान कर दिया। कृतान्तपत्र नामक प्रसिद्ध सेनापति और सामन्त सेना भो उसके साथ कर दी। लाखों सामन्तोंसे घिरे हुए शत्रुघ्नने इस प्रकार अयोध्यासे बाहर कूच किया । जाते हुए उसे खूब शकुन हुए, जो श्रीमन्त होते हैं उन्हें सभी बातें मिलती हैं। सेनाके साथ यह कल्याणसे दूर नराधिप मधुपर जा पहुँचा । तब मन्त्रियोंने शत्रुघ्नसे कहा, "हे अनेक शत्रुओंका हनन करनेवाले, आपकी जय हो, आप फूल-फलें।" उसने गुप्तचर सामन्तोंको आदेश दिया, "जाओ मधुमस मथुराधिपको ढूंद निकालो । आदरणीय वह आजसे छह दिन के लिए उद्यान में प्रविष्ट हुआ है" ॥१-९||
[s] "जब तक शूल उसके हाथ नहीं लगता, तबतक मथुराधिपको पकड़ लो।" इन शब्दोंसे योद्धा उछल पड़े और आधी रात होनेपर उन्होंने कुच कर दिया। उन्होंने नगरको घेर लिया, दरवाजे रोक लिये, सब लोग उरसे विकल होकर
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५२६
किंड कवतुरहूँ आय हूँ ।
चयर-महाराष्ट्र-गाि
विवाह-- फोलिय हूँ ।
लर-णायामर लुध्य-हरणहुँ ।
लिहिला माला-ली वियई ।
पउमचरिय
सतुद्रणागमेँ पत्रण यहाँ ।
उपणु
बरें
।
किड कलयतु तूर-स्वन्नड्ड ।
दिया कि आतामिय- सन्दह ।
तादि पाडि आहयणं ।
विकिन्नव सहाँ त ।
चिरमियम सङ्घ-मयः ॥४॥
पतित
||५||
वर - सिहरसहाय मांडियई ॥६॥
लक्ष्य सावरपाई पहराएँ ॥ ॥ वर वर जाएँ मणि दीक्षियहूँ ||2||
घत्ता
सतह
मंत्र सिरं हि सामन्त हि सीसड़ 1
'पट्टण जिणघर में जिन भट्ट काही मि ण दीसई' ॥२॥
[+]
पुनह लवणमहणनहीं ॥ १ ॥
ष्णहुल पर चले भिडिउ ॥ २ ॥
सरबरें हिकियन्तदन्तु छइउ ॥३॥ भय-दण्डु
सह-जन्दणहीं ।।४।।
दुवाएं महाम
सहुँ चिन्हें द्विष्णु सरामणउ ॥ ६ ॥
बे-भय-पर-पार गय ||७||
दूर
- पाणभय । कण्णय सुरुप्प कपरिय कवय (१) कोट्टाविय सारहि पहय-हय ||८||
चत्ता
विहि मि परोपरु विरहु कि थिय वे विं गइन् । सादुकारिम गयण ब जम धणय - सुरिन्दे हि ॥ २ ॥
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मसीहमो संधि
१२० क्षुब्ध हो उठे। कल-कल होने लगा, नगाड़े बजट। असंख्य शंख फूक दिये गये। इसके समान सुन्दर चालवाली शत्रु. स्त्रियोंके गर्भ गिरने लगे। मजबूत लोहेके किवाड तोड़ दिये गये । घरोंके सैकड़ों शिखर मोड़ दिये गये । आगकी ज्वालमाला के समान आलोकिन मणिद्वीपोंसे घरोंकी तलाशी लेकर, उन्होंने मनुष्य, नाग और देवताओंके दुर्पको कुचलनेवाले अस्त्र अपने कब्जे में ले लिये। उसके अनन्तर शत्रुघ्नको प्रणामकर सामन्तोंने सूचित किया, "जिनधर्मके समान इस नगरमें मुझे मधु (शराय, राजा) कहीं भी दिखाई नहीं दिया" ।।१२।।
[७] इतने में वायुदेव नामके विद्याधरको जीतनेवाले मधु. पुत्र लवणमहार्णवने जब देखा कि शत्रुघ्न आ गया है तो वह गुस्सेसे पागल हो उठा। वह कवच पहन और रथपर चढ़कर शत्रुसेनासे जा भिड़ा। तूर्य ध्वनिसे उसने हल्ला मचा दिया । बड़े-बड़े तीरोंसे उसने सेनापति कृतान्तवक्त्रको ढंक दिया । उसने भी रथ सम्हालफर मधुपुत्र लवणमहाणंवके ध्वजदंडके टुकड़े-टुकड़े कर दिये । उसका धनुष तोड़कर, उसे धरतीपर इस प्रकार गिरा दिया, मानो मेघघटाके समय तूफान आ गया हो। तब लयणमहार्णवने भी कृतान्तवक्त्रका धनुष ध्वजसहित छिन्न-भिन्न कर दिया | दोनोंने ही अपने प्राणोंका डर दूरसे छोड़ दिया था, दोनों ही धनुर्वेद विद्याकी अन्तिम सीमापर पहुँच चुके थे | कर्णिका खुरपी कण्णरिय कवच टूट-फूट गये । सारथि लोट-पोट हो गया, अश्व आइत हो उठे। दोनोंने एक-दूसरेको रथ विहीन कर दिया। दोनों हाथियोपर सवार हो गये । आकाशमें यम, धनद् और इन्द्रने उन्हें साधुवाद दिया ॥१-२॥
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१२०
पउमचरित
[८] पचौड़या गइन्दया। मिलाषियालि-विन्दना ॥१॥ खयग्गि-पुन-दुस्सहा। मिरि व नुज-विग्गहा ॥२॥ वकाहब द गजिया : जियार सार-सजया ॥३॥ मइलक-गिल्ल-गपदया। धुणन्त-पुच्छ-दण्डया ॥६॥ करग्गि-छिस-अम्बस ।
कयम्बुवाह-स्वरा ॥५॥ स- दुक दुलाया।
झणम्मणन्त-गेजया ॥६|| विवरण-तिक्ख-कपटया । टपट्टणम्त-घण्टया ॥ विसाण-भिण्ण-दिग्मुहा 1 स्पति-घुक्खराउहा ८३
घत्ता ताप किग्रन्तवास-मण रिट आहउ पत्तिारें। पदणत्यवाई दावियई गं सूरहों इत्तिएँ ॥९||
[९] ज लवणमहणउ णिहड रणे। तं महुर-प्प राहिउ कुइउ मणे ॥१॥ भारहिउ महा-रह जुप्पि हय । उम्मविय-धवल-भूवन्त-पय ॥२॥ दुम-णरिन्द-णि धारणहुँ । रहु मरिउ अगन्तहुँ पहरणहुँ ॥३॥ इय समर-भेरि अमरिस-चरिछ। स-रहसु किया तबतको मिदिठ ॥४॥ 'महु सणड तण व जिह णिहट रणे सिह पहरुपहरु दिनु होहि मणे' 1५॥ तहि अवसरें अन्तर थिउ स-धणु। सई दसरह-णन्दणु सत्तहणु ।।६।। ते मिडिय परोप्परु कुदय-मण । णं वे वि पुरन्दर-दहवयण ॥७॥ महि-कारण परिवदन्त-कलि गं मरह शहिय-बाहुबलि ॥८॥
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असीम संधि
[८] महाराजोंको उन्होंने प्रेरित कर दिया । भ्रमरमाला उनपर गूँज रही थी। वे प्रलयाग्निके समूह के समान दुःसह थे, पहाड़ के समान विशालकाय थे, मेघोंके समान गरज रहे थे, शत्रुको जीतनेवाले, वे झूल से सज्जित थे । मदसे उनके गंडस्थल गीले थे । वे अपनी पूँछ हिला-डुला रहे थे। सूँड़ोंसे उन्होंने आसमान को छू लिया था। उन्होंने केक रचना-सी कर दी थी । गरजते हुए अजेय वे पहुँचे । झन झनकी गीत-ध्वनि गूँज रही थी। तीखे तीरोंसे वे आहत हो रहे थे, घण्टोंकी दन-दन आवाज हो रही थी। दाँतोंसे उन्होंने दिशाओंको विदीर्ण कर दिया था। दाँत, पैर और हाथ, उनके अस्त्र थे ||८|| इतने में कृतान्तवक्त्र सेनापतिने युद्ध में शक्तिसे शत्रुको ऐसा आहत कर दिया, मानो रातने सूर्यको अस्तकालीन पतन दिखाया हो ॥ १ ॥
|
१२९
I
[९] लवणमहार्णवके इस प्रकार युद्धमें मारे जानेपर, राजा मधु कुद्ध हो उठा। वह महारथमें बैठ गया, अश्व जोत दिये गये । सफेद स्वच्छ पताका फहरा रही थी । दुर्दम राजाओं का दमन करनेवाले अनन्त अस्त्रोंसे रथ भर दिया गया। रणकी भेरी बज उठी। आवेशसे भरा हुआ राजा मधु के साथ कृतान्तवक्त्र से जा भिड़ा। उसने कहा, "मेरे बेटेको जिस प्रकार तुमने युद्ध में आहत किया है, आओ अब वैसे ही मुझपर प्रहार करो, अपना दिल मजबूत रखो।" ठीक इसी अवसरपर वशरथनन्दन शत्रुघ्न अपना धनुष लेकर दोनोंके बीचमें आकर खड़ा हो गया । कुपित मन, उन दोनोंमें जमकर लड़ाई होने लगी, मानो दोनों ही इन्द्र और दशवदन हों, मानो धरती के लिए भरत और बाहुबलिमें लड़ाई हो रही हो ।
९
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110
पउमरिस
घत्ता चिहि मि पिरन्तर-चावरण सर-जालु पहारह। विसही सम्यहाँ मझे थिउ घण-सम्बर वइ ।।९।।
[१०] अवरोप्परु वाणे हि छाइयउ । अवरोरु कह विण घायड़ ॥१॥ भवरोप्पर कदमई तादियई। भवरोप्परु चिन्धर फादियई ।।२।। अपोप्पर छत्तई किण्णाहूँ। अबरोप्परु श्रङ्गर मिण्णा ॥१॥ प्रवरप्पा यह सरासणई। जल-धलई विजायई स-चणइ ।।३।। भवरोप्पर साह णिविय। स-तुरङ्गम जमउरि पट्टविय ॥५॥ अवरोध खण्टिय पवर रद्द । थिय मत्त-गहन्द हि दुविसह ।।३।। ते महुर-भाराहिव-ससुहाग। णं णहयल-ललण स-घण व ॥१॥ णं कसरि गिरि-सहरसह कांस्य । रामपाराम सभावस्य litil
घत्ता
वे वि स-पहरण सामरिस करिव हि चलगा । मलय-महिन्द-महाहा हि जेवण-यक लगा ।।९।।
[१] समुदाइया सिन्धुरा जुलू-लुद्धा। चलुत्ताल-दुकाल-काल व कुद्धा ॥१॥ विमुकुसा उम्मुहा उद्ध-सोपडा । स सिन्नूर कुम्भस्थला गिल-मण्डा।।२॥ मयम्महि सिप्पन्त-पाय-प्पएसा । मिलन्सालि-माला-गिरन्धीक्रयासार विसाणप्पहा-पण्डुरिजन्त-बहा। बल्लायावली-दिग्ण-सोह व महा। चलन्तेहि सञ्चालिी संस-गाओ । म मन्तहि एकमामिओभूमि-मानी।।५।। गिरिन्दा समुदावलीमाव जाया। गइन्दसु तेसुटिया चे वि राया ॥६॥
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असीइमो संधि
३० दोनोंके निरन्तर प्रहारसे तीरजाल ऐसा प्रवाहित हो उठा मानो हिमालय और विन्ध्याचलके बीच में स्थित मेघप्रवाह हो ।।५-९||
[१०] एक दूसरेने एक दूसरेको तीरोंसे ढक दिया, परन्तु किसी प्रकार उन्हें आघात नहीं पहुंचा। एक दूसरेके कवच प्रताड़ित हो रहे थे, एक-दूसरेके ध्वज नष्ट कर रहे थे। एकदूसरेके अंग छिन्न-भिन्न हो रहे थे, एक-दूसरेके धनुष आहत थे, जल-थल भी घावोंसे सहित थे। एक दूसरेने एक दूसरेके साथीको घायल कर दिया और अश्य सहित यमलोक भेज दिया, एक दूसरेके प्रवर रथ खण्डित हो गये। अब वे मतवाले हाथियोंपर बैठे हुए असह्य हो उठे। राजा मधु और शत्रुघ्न ऐसे लग रहे थे, मानो आकाशका अतिक्रम करनेवाले महामेष हो, मानो दो सिंह गिरिशिखरपर चढ़ गये हों, मानो राम
और रावणमें भिड़न्त हो गयी हो। दोनों ईर्ष्यासे भरे थे, दोनोंके पास अस्त्र थे, दोनोंके हाथमें तलवारें थीं। ऐसा जान पड़ता था कि मलय और महेन्द्र महीधरोंमें दावानल लग गया हो ॥१-९||
[११] युद्धके लोभी महागज दौड़ पड़े। वे बलोद्धत महाकालकी तरह क्रुद्ध थे। विमुक्त अंकुश एकदम उन्मुख और सूंड जठाये हुए थे वे | उनके गीले गालोंवाले मस्तकपर सिन्दूर लगा था। अपने मवजलसे वे पासके पृक्षोंको सींच रहे थे, भ्रमरमालाओंने दिशाओंको नीरन्ध्र बना दिया था। दाँतोंकी कान्तिसे उनका शरीर ऐसा सफेद दिखाई दे रहा था, मानो बगुलोंकी कतारके साथ मेघमाला हो। उनके चलते ही शेष. नाग डिग गया। जब वे घूमते दो धरतीके भाग घूम जाते । बड़े-बड़े पहाड़ों की जगह समुद्र निकल आते । ऐसे उन महागजों
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पड़मचरित
महा-item: अ-लया मराठा समुदा करिन्द्रण ओहाभित्रो वारणिन्दो। कुमारेग ओहामिओ माहुरिग्दी ।।८.
पत्ता महु णाराय-कसन्तरिउ रुहिराणु गयवरें। प.ग्गुणें फुल-पलासु जिह लक्खिाइ गिरिवर ।।९।।
[१२] भवसा कालु अं दुक्कियउ। जं रहु-सुर जिणत्रि सकियउ ।।३।। जं सूल ण दाहिण-कर चडि। जं पुत्तही भरणु समावडिउ ।।२।। सं परम-विसाउ जाउ महुहें। 'मणि किय पुज्ज निहुअण-पहुह।।३।। पञ्चेन्दिय दुरम दमिय पवि। धम्म-किय एकविण किय कवि।। मई पावें पावासत्तऍण। णउ बन्दिय देव जियन्तऍण || संजोउ सन्नु को कहाँ तणा। गिफल जम्मु गउ मा तणउ ।।३।। करि एव हि सल्लेहणु करमि। वन पञ्च महा-दुन्दर धरमि' ॥७॥ ता एम भणेधि सिन्धु घिउ । स. हाय केमुप्पाछु किउ || ८ ||
घत्ता 'एक जि जीउ महुसगड सम्बही परिहारउ । रणु में सबोबणु झिगु सरणु मयबरु सन्यारउ' ॥५॥
[11] जे मम्ब-जणहों सुह-वसुहारा। पुणु घोसिन पञ्च पभोकास ।। १॥ भाहन्त हुँ केरा सत्त सरा। जे सन्त्रहँ सोक्खहँ पढमयरा ।।२।। पुणु सिन्दहुँ केरा पञ्च सरा। जे सासय-पुरबर-सिन्दिपरा ॥३॥
जस
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3
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अमीहमी संधि
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पर वे दोनों राजा आरूढ़ हो गये। दोनों ही महाभयंकर थे । उनकी आँखें भ्रूलतासे भकुर हो रही थीं, बिजली की तरह चमकते हुए वे एक दूसरेपर अस्त्रोंका निक्षेप कर रहे थे। महाराजने वारणेन्द्रको परास्त किया और कुमारने राजा मधुको। तीरोंसे आहत लोहू-लुहान मधु राजा गजवरपर ऐसा लग रहा था मानो फागुनके माहमें पहाड़पर पलाशका फूल खिला हो ॥१-२॥
[१२] अन्तिम समय जैसे काल आ पहुँचता है और मनुष्य कुछ नहीं कर पाता, उसी प्रकार राजा मधु रघुसुन शत्रुघ्नको नहीं जीत सका, जब पुत्र भी चेमौत मारा गया और शूल भी हाथ में नहीं आया तो इससे राजा मधुको गहरा विपाद हुआ, वह अपने आपमें सोचने लगा, 'मैंने त्रिभुवनके स्वामीकी पूजा नहीं की, मैंने दुर्दम पाँच इन्द्रियों का दमन नहीं किया, कभी मैंने एक भी धर्म-क्रिया नहीं की, पापों में आसक्त मैंने जीते जी जिनदेवकी बन्दना नहीं की। यह संसार एक संयोग है. इसमें कौन किसका होता है, मेरा समूचा जीवन व्यर्थ गया. बस अब तो मैं सल्लेखना करूँगा, महान् कठोर पाँच महात्रतोंको धारण करूँगा। यह कह कर उसने सब परिग्रह छोड़ दिया, उसने अपने हाथोंसे केशलोंच कर लिया । मेरा एक अकेला यह जीव हैं और सब कुछ दूसरा क्या है ? यह रण मेरे लिए तपोवन है। मैं जिन भगवान की शरणमें हूँ, गजवर ही मेरे लिए उपाश्रय हैं ||१-९॥१
[१३] जो भव्यजनों के लिए धर्मकी शुभधारा है, उसने ऐसे पाँच णमोकार मन्त्रका उच्चारण किया, अरहन्तभगवान के सात उन वर्णों का उच्चारण किया जो सब सुखोंके आदि निर्माता हैं। फिर उसने सिद्ध भगवान् के पाँच वर्णोंका उच्चारण किया
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१३४
आयरियहुँ केश सतसरा ।
सत्तीवशाय णमोक्करणा ।
इ पञ्चतीस परमक्खरहूँ ।
पउमचरिउ
जे परमाचार-विचार- परा ॥४॥ साहुहुँ मव-भय-परिहरणा ॥५॥
सुब- पारावार - परस्परहूँ ॥ ६ ॥ सिचरि-कवाद उग्घा ॥७॥ कुञ्जरहों में उप्परें कालु किउ ॥ ८॥
विस-चिसम-विसय-पिलाउ है ।
महु सुहइ रेन्तु भगन्तु थिय ।
घन्ता
कुसुम सुहिं विसजियइँ किट साहुकार । मरस भुञ्जन्तु उ स कुमार || ९ |
[ ८१. एकासीइमो संधि ]
ऋणु सेविड सायरु छक्तियउ हिउ दसाणणु रतएंग अवसान का पुणु राहवेंण बल्दिय सीप विस्तऍण ॥
[1]
उन्
ॠण से सेण चिन्ते ।
तें तें तें चित्तं ॥
राह-चम् पाण-पियल्लिया सेण तेंग सेण चित्तें ।
जिह वण घल्डिया तें तें तें विलें ॥ जंभेडिया ||१||
अमिय-रोम मोगासस ॥ २ ॥
रामहों रामाचिनिय गत्तहीँ ।
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एकासीइमो संधि
१३५ जो शाश्वत सिद्धिको देते हैं, फिर उसने आचार्य के सात वर्णीका उच्चारण किया जो परम आचरणके विचारक हैं, फिर उसने उपाध्यायके नौ वर्णोका उच्चारण किया और सर्वसाधुओंके नौ दणीका उच्चारण किया जो संसारके भयको दूर करते हैं। इस प्रकार पैंतीस अक्षर जो शास्त्र रूपी समुद्रकी परम्पराएँ बनाते हैं, जो विषके समान विषम विपयों का नाश करते हैं और जो मोक्ष नगरी के द्वारोंका उद्घाटन करते हैं, वे मुझे शुभगति प्रदान करें, यह कहकर वह आत्मध्यान में स्थित हा गया। उसका शरीरान्त गजवरपर ही हो गया। देवताओंने सुमन बरसाये और साधुवाद किया, कुमार शत्रुन्न भी मथुरा नगरीका स्वयं उपयोग करने लगा |12-२।।
इक्यासी सन्धि
राम जब अनुरक्त थे तो उन्होंने वनवास स्वीकार किया, समुद्र लौघा और रावणका वध किया, परन्तु अन्तमें वही राम बिरत हो उठे और सीता देवी का परित्याग कर दिया।
[२] सच बात तो यह है कि उनका मन विरक्त हो उठा था, फिर भी सीताका परित्याग किया लोकापवाद के बहाने । राघवने मनकी विरक्ति के कारण ही सीताका परित्याग किया। इसी विरक्त चित्तके कारण उन्होंने अपनी प्राणप्यारी सीता देवीका परित्याग किया। यह वहीं विरक्त मन था कि सीता देवीको इस प्रकार वनमें निर्वासित कर दिया। एक दिन सौन्दर्य विधात्री सीता देवी रामके पास पहुँची उन रामके पास जो अमृत
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पउमचरित एकहि दिवस मोहर-गारी। पार्म परिट्ठिय सीय महारी ||३|| जाणिय-गिरवस-परमाथी। पमण पणय-क्रियालि-हस्थी ॥४॥ 'साह माह जग-महिप्प-सन्निहि। मुहणार अजय दिटर म, तिkि ॥..|| पुष्प-विभागहों पडेवि पहिउ । सम्ह-जुअलु मह वपणे पट्टङ' ॥६॥ तो सज्जप-मण-गयगागन्दें। हसिउ स-विम्भमु राहवचन्द ।।७।। 'दुइ होसन्ति पुत्त परमेसरि । परणार-वरणर-बारग-कैपरि ।।१॥ शावर एकु महु हियएं चयिउ । सुन्दरि सरह-जुअल जं पाइयउ ||९||
घत्ता
तो अहि दिन हि थोवा हि सीयङ्ग, गुरुहाराई। 'महि धासर' गवण बंद पट्टवियई हक्काराई ।।१०।।
[२] महिया।। रबइ-धरि पिया मिरवणे करिणिया ।
मल्हण-लीलिया कीलण-सोलिया ॥३॥ वल बोललाइ णस्वर-कसरि । 'को दोसलउ अक्म्बु परमेसरि' ॥२॥ बिहसिय त्रिमिय-प-य-चपणी । दन्त-दित्ति-उन्नाशय-गयणी ।।३।। 'पल धवलामल कंत्रल-बाहहों। जाणमि पुज स्यमि जिणणाहहो ॥४॥ पिय-बयणण तण साणन्दें। परम पुन शिय राहव-चम्दं ।।५।। दिग्व-महिन्द-दुमय गन्दण-वणे । सरल-तमाल-ताल-ताली-घणें ॥६॥ चन्दण-घउल-तिळय-कुसुमाउलें। कल-कोइल-कुल-कलयल-सद्कुले ||७|| दाहिण-पवणन्दोलिय-तरुवरें। भमिर-ममर-द्वार-मोहर ॥६॥ धय-तोरण-विमाण-किय-म । केन्द-मन्द-सन्दिन-तणावे ।।९।।
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एक्कासीइमो संधि
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रसोंका उपभोग करने में गहरी अभिरुचि रखते थे और जी शरीरसे रमणियोंके रमण में निपुण और समर्थ थे। सीता देवी निरबोप भाव से परमार्थको जानती थीं, फिर भी उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर रामसे पूछा, "हे ग्वामी, हे स्वामी, जगको मोहनेमें समर्थ, आजकी रातमें मैंने एक सपना देखा है कि पुष्पक विमानसे गिरकर एक सरह (हाथीका बच्चा) जोड़ा मेरे मुंह में घुम गया है । यह सुनकर सजनोंके मन और नेत्रोको आनन्द देने वाले रामने बिलासके साथ हैसकर कहा, “परमेश्वरी, शत्रु और श्रेष्ठ नररूपी गजोंके लिए सिंह के समान दो वीर पुत्रोंको तुम जन्म दोगी, और जो सरह युगल गिर गया है, उसका अर्थ है कि वे दोनों मेरे इदयको जीत लेंगे।" उसके बाद थोड़े ही दिनों में सीता देवीके अंग भारी हो गये। और मानो वनदेवीने आकर, हे सखी चलो', यह हाँक मचा दी ॥१-१०||
[२] रामको गृहिणो, सीता, जैसे वनमें हथिनी ! मल्हाती हुई और क्रीड़ाएँ करती हुई। नरश्रेष्ठ रामने पूछा, "हे देवी यताओ तुम्हें कौन सा दोहला है," | यह सुनकर सीता देवीका मन खिल गया । दाँतोंकी चमकसे आसमान चमक उठा । हँसते हुए वह बोली,"मैं एकमात्र जिन भगवान की पूजा करना चाहती हूँ जो धवल निर्मल और पवित्र हैं।" तब रामने अपनी प्रिय पत्नीकी इच्छाके अनुसार रामके (नंदनवन में) जिन भगवान्की सानंद परम पूजा की | नंदनवन में बड़े-बड़े वृक्ष थे, ताल तमाल और ताली वृक्षोंसे सघन, चन्दन, मोलनी और तिलक पुष्पोंसे आकुल, सुन्दर कोयलोंकी कल-कल ध्वनिसे संकुल । दक्षिण पवनसे जिसमें वृक्ष आन्दोलित थे, और घूमते हुए भौरांकी झंकारसे मनोहर । जिसमें श्वज, तोरण और विमानी से मंडप बने हुए थे, नृत्यकारों ने अपने नृत्यसे समा बाँध रखा था। ऐसे
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पउमचरित
घत्ता , सहि तह उबवणे पहसरेंषि जय-जय-सारे पुज्ज किय । जिद्द जिम्वर-धम्महाँ जीव दय जाणइ रामहीं पा थिय ।।१।।
।। जंभेटिया || नाव विणीयह फन्दइ मीयो ।
दुमा ५. नाहि को गु: ।। 'फुरवि आसि पहूँ पर दुग्गेज्मह । तिष्णि मि णीसारियई भउझहूँ ॥२॥ थियइँ विदस दसु ममन्त।। दुस्सह-दुक्रव-परम्पर-पस ई ॥३॥ रण-रक्तसँण गिलेंचि उनिगलियईं। कह वि कह विणिय-गोत्तहो मिलिय। एवहि एउ प्य जागहुँ इक्वणु। काइँ करेंसइ फुरवि अ-लक्षणु' ।।1 तो पत्थन्तर साइशारे ।
भाइय पय असेस कूवारें ।।६।। 'अहो रायाहिराय परमेसर । णिम्मल-रहकुल-णहयस-ससार ७॥ दुश्म-दाम-देह-भय-मपण तिहुअग-जण-मण-णयणाणन्दणा॥८॥ जइ अवराह पाहि धर-धारा । तो पट्टणु विष्णवह महारा॥५||
धत्ता
पर-पुस्सुि रमेवि दुम्महिलउ देन्ति पलुसर पह-यणाही । "कि रामु ण मुञ्जह जय-सुअ दस्सुि वसें वि चरें रामणों" ॥३०॥
[४] 1। जभाया । पय-परिवाएणं मोग्गर घाए ।
में सिर आहउ रहुवह-णाहर || चिन्तइ मजलिय-वयण-सरोरुटु । सुह लिहन्तु उन्तु इंट्ठा-मुह ।।२।। 'विणु पर-तत्ति को वि ण बीवइ । सइँ विगढ़ अमाई उदीवइ ॥३||
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एकावीरमो मधि उस सुहावने उपवनमें प्रवेश करके उन्होंने 'जय जय' शब्दके साथ पूजा की । रामके समीप सीता देवी उसी प्रकार स्थित थीं जैसे जिनधर्ममें जीवदया प्रतिष्ठित है ॥१-१०॥
[3] ठीक इसी समय फड़क उठी सीता देवीको दुःख उत्पन्न करने वाली दायों आँख ! वह अपने मन में सोचती है कि एक बार पहले जब यह आँख फड़की थी नब इसने हम तानोंका शबसे अनाकान्त अयोध्यासे निर्वासन किया था, और तब विदेशमें देश देश भटकते हुए असह्य दुःख झेलते रह । उसके बाद युद्धका राक्षस हमें निगल ही चुका था कि उसने किसी तरह हमें उगल दिया और हम अपने कुटुम्यसे मिल सके । लेकिन इस समय फिर आँख फड़क रही है, नहीं मालूम क्या होगा? ठीक इसी समय वृनकी डालें अपने हाथ में लेकर प्रजा गज भवनके द्वारपर आयी। उसने कहा, "हे परम परमेश्वर राम, आप रघुकुल रूपी पवित्र आकाशमें चन्द्रमाके समान हैं; फिर भी यदि आप स्वयं इस अपराधका अपने मन में विचार नहीं करते तो यह अयोध्या नगर आपसे निवेदन करना चाहेगा । खोटी स्त्रियाँ खुले आम दूसरे पुरुषोंसे रमण कर रहीं हैं; और पूछने पर उनका उत्तर होता है कि क्या सीता देवी यो तक रावणके घर पर नहीं रहीं और क्या उसने सीता देवीका उपभाग नहीं किया होगा।" ॥१-१०||
[४] प्रजाके इन दुष्ट शब्दोंको सुनकर रामको लगा जैसे मोगरोंकी चोट उनके सिरपर पड़ी हो। उनका मुख कमल मुरझा गया। वह विचारमें पड़ गये नीचा मुख किये, वे धरती देख रहे थे और सोच रहे थे कि दूसरोंकी चिन्ताके बिना संसारमें कोई नहीं जी सकता; आदमी स्वयं नष्ट होता है
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पउमचरित
लोउ सहाा दुप्परिपाल । बिप्सम-विसु पर-लिए-णिहालउ ॥१॥
महाग र पशु-गुणविर अन गुण-गारउ ॥५॥ कह सइ जइ परवइ गउ माइ । अवसे कि पि कलङ्क लावइ ॥६॥ होह हुआपणो न्च अविणीयउ। गिम्भु व सुह अणिच्छिय-सोयड ।। ।। चन्दु व दास-गाहि सह ख-स्थउ । सूरु व कर-चण्हउ दूर-स्थउ ||॥ वाणु व लोह-फलु माण-मुण्ड। विन्धणसीला धम्मही चुका ॥५॥
घत्ता जई कह वि पिगम होइ पर तो हरिय-हदहें अणुहरइ । जो काल देइ लु दुबइ तान जें जोविउ अपहरई ।।१०।।
।। जंभेष्टिया ॥ अह खल-महिलाहे गह जिह कुडिल हे ।
__को पत्तिाइ जन वि मरिजइ ॥१॥ अण्णु गिएइ अणु अणु बोलावह । चिन्तइ अषणु अण्णु मणे मारङ् ॥२॥ हियबई णित्रसह विसु हालाहलु । भमिउ वनणे दिदिहें जमु केवल ॥३|| महिला तणड चरिउ को जाणइ । उभय-ताइँ जिह सणइ महा-गइ ।।।। चन्द-रू व सम्बोपरि वकी। दास-गाहिणि सर स-फलको ॥५।। गव-विजुलिण्य व चाल-देही। गोरस-मन्थ व कारिम-पोडी ॥६॥ वाणिय फल कवशिष-माणी। भाव गरुासका-याणी ॥
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एक्कासीम संधि
और दूसरे को उत्तेजित करता है; लोक स्वभाव से ही अपरिपालनीय है, उसका मन विपम होता है, वह हमेशा दूसरोंकी बुराई देखता है, महासर्पकी तरह वह भयंकररूपसे वक्र होता है, महागुणोंसे दूर दूसरोंका बुरा करनेवाला | लोगोंकी कवि यति सकी और राजा अच्छे नहीं लगते, वे उनमें कोई न कोई कलंक अवश्य लगा देते हैं, लोग आग के समान अविनीत, और श्रीमालकी तरह सीय ( ठंड और सीता देवी ) को पसन्द नहीं करते। वे चन्द्रमा के समान केवल दोष प्रहण करते हैं, उसकी तरह नयशील और आकाशके समान शून्य में विचरण करनेवाले तीर फलककी तरह, उनमें लोह ( लोहा और लोभ ) होता है; वे गुणों (गुण और डोरा ) से मुक्त होते हैं, विध्वंसझील और धर्मसे हीन । जनता यदि किसी कारण निरंकुश हो उठे तो वह हाथियों के समूहकी तरह आचरण करती है; जो उसे भोजन और जल देता है, वह उसीको जानसे मार डालती है | ॥१-१२||
921
[५] या नदी की तरह कुटिल महिलाका कौन विश्वास कर सकता है भले ही दुष्ट महिला मर जाय, पर वह देखती किसो का है और ध्यान करती है किसी दूसरेका पसन्द करती है किसी दूसरेको । उसके मनमें जहर होता है, शब्दों में अमृत और दृष्टिमें यम होता है, स्त्रीके चरितको कौन जानता है, वह महानदी की तरह दोनों' कूलोंको खोद डालती हैं । चन्द्रकलाके समान सबपर देढ़ी नजर रखती हैं, दोष ग्रहण करती है, स्वयं कलंकिनी होती है, नयी बिजली की तरह वह चंचल होती है, गोरस मन्थनकी तरह कालिमासे स्नेह करती है, सेठोंके समान कपट और मान रखती हैं, अटवीके समान आशंकाओंसे भरी
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पउमचरिड णिहि व पयत्त परिक्षेची । गुलहिय-सीरिव कहाँ बिण देवी': । श्रप्पाणेण जें अप्पड घोहि। 'परि गय सीयम छोउ विरोहिउ॥१।।
पत्ता णिय-गेह-णिबद्ध आवइ जइ वि महा-सइ महु मण्हों। की फेडेंवि साइ लमजणउ जं घरै णिवमिय रावणहाँ' ॥१०॥
। जंभटिया ॥ ताघ जण एणु णाई हुभासणु ।
घिण व सिसड शत्ति पलिलउ || कदिन उ सूरहामु करें जिम्मलु । विन-विलासु जलगु जालुजल ॥२॥ 'तुजण मइयवटु हउँ अच्छमि। जो जम्पइ तहाँपलड समिच्छमि ॥३॥ जं किउ स्वरहों महा-स्खल-खुरहीं। जंकित रणें रावणको रउदहाँ ।।३।। तं करेमि दुजण, हयासहँ। कुद्धिल-भुङ्गा-अझ-सङ्कासह 141 हो घल्लावह सीय महा-सइ। णाम-ग्गहणे जाहे दुहु प्यासह ।।६।। जा सुरवर हि पदमय बुञ्छ । जा पसा वसुमह पश्चाई ॥७॥ जाहे पहावें रहु-कुछ गन्दा। पकयहाँ पिसुणु जाउ जो णिन्दा ॥८॥ आहे पाय-पंसु वि वन्दिज्वइ । वाहे कलकु फेम लाइमह ॥९॥
घत्ता जो रूसाइ सीप-महासइहें सो मुहु अग्मएँ थाउ खलु । तहाँ पापही विरसु सन्ताहाँ लुमि स-हत्य सिर-कमलु' 11३०॥
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एक्कासीइमो मंधि हुई होती है, निधिके समान वह प्रयत्नोंसे संरक्षणीय है। गुड़ और घीको स्वोरकी भांति चड़ किसीको भा देने योग्य नहीं है।" रामने इस प्रकार जब अपने आपको सम्बोधित किया तो उन्हें लगा कि सांता चली जाष, परन्तु प्रजाका विरोध करना ठीक नहीं। सीतादेवी, यद्यपि घोर संकट में भी अपने स्नेहसूबमें बँधी रही है और मेरा मन कहता है कि वह महासती है, फिर भी इस प्रवादको कौन मिटा सकता है कि सोता रावणके घर रही ॥१-१०||
[६] तब जनार्दन एकदम उबल पड़ा, मानो घी पढ़नेसे आग भड़क उठी ही। उसने अपनी पवित्र सूर्ग्रहास तलवार निकाल ली जो बिजलीके बिलास या लपटोंसे चमकती हुई आगके समान थी। उसने कहा, "मैं दुमोका अहंकार चूर-चूर कर दूंगा, जो बुरी बात कहेगा उसके लिए मैं प्रलय हूँ ? महान दुष्ट क्षुद्र खरके साथ मैंने जो कुछ किया और रावणके साथ भयंकर युद्ध में किया वहीं मैं उन दुनोंक साथ करूँगा, जो कुटिल मुजंगोंके समान वक्र अंगवाले हैं, जिसका नाम लेनेसे दुःख नष्ट हो जाता है, देवताओंने जिसके पातिव्रत्यकी घोषणा की, जिसके प्रसादसे यह धरती आश्वस्त है जिसके कारण ही रघुनन्दन सानन्द हैं, उस सीतादेवीकी जो निन्दा करेगा, मैं उसके लिए यमका दूत हूँ। लोग जिसके चरणोंकी धूल की वन्दना करते हैं, उसे कौन कलंक लगाया जा सकता है। महासती सीतादेवीके प्रति जो दुष्ट सन्देह रखता है वह मेरे सामने आकर खड़ा हो,उसका सिर रूपी कमल मैं अपने हाथसे खोट लूँगा" ।। १-१०॥
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१६:
पउमचरित
[-] ॥ जंभेहिया ।। धरिड जण इगु रहुवइ-गाहे ।
जउणा-बाहु व गङ्गा-बाण ॥१॥ 'जइ समुह णिय-समयहाँ थुक्क ह । तो तहों को सबडम्मुहु इकाइ ॥२। बह वि सहन्ति णिमितें कन्दहूँ। तोविण रूसह वियु पुलिन्दह ।३।। चन्दा छिज्जइ मिवइ घासइ। तोइपणियम-गन्धुतहाँ णासाई ||४|| दन्तु दलितइ पाव कप्पणु । सो विण मुणियय-धवलसणु ।।५|| पय णरचइ हि एप लगी। दुम्मुह जद धि तो वि पालेधी ॥६॥ तो विगणविड कुमार राहवु । 'अहाँ परमसर परम-पराहतु ।।७।। जं जावड़ णिय-पारण पुच्छ। कपासह राय-मुदुन्छ । रहु-क उत्थ-अणरगण-विरामहि । दसरह-भरह-गणराहिब-राम हि ।।२।।
पत्ता
इक्युछ-वंसें उपाहिं सच्चे हि पालिउ पुरु अचलु । वहाँ पय-उवयारं-महदुनहीं सद् भवारा परम-फलु' ।।१०॥
[८] ॥ जंभेदिया ।। हरि बुझाधिउ म वि रामेणं ।
हलु वि भाषइ सीया गामणं ।।५।। 'एल्धु वरुछ अवहेरि करेवी । जय-तणय वर्णं कहि मि थवेची ।।२।। जीवह मरउ काइँ किर सत्तिए। किंदिणमणिमणिपसहरन्ति ।।३।। मं रहु-कुलें कल उप्पजट । तिहुअणे अयस-पाहु मं बजाउ' ||४|| जाउ णिरुत्तर कहकह-गन्दणु। लहु सेणाणी ढोइउ सन्दणु ३५|| देवि घडाविय गिय-परिए सही। पेक्वन्सही पुरचरहों असेसहों ।।६।।
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एकासीम संधि
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[७] तब रामने लक्ष्मणको पकड़ लिया, वैसे ही जैसे यमुनाके प्रवाहको गंगाका प्रवाह रोक लेता है। यदि समुद्र अपनी मर्यादा तोड़ दे, तो कौन उसके सम्मुख ठहर सकता है। यद्यपि कोल, शबर प्रतिदिन कन्द-मूल उखाड़ा करते हैं, फिर भी विन्ध्याचल क्रोध नहीं करता। लोग चन्दनको काटते हैं, टुकड़े-टुकड़े करते हैं, बिसते हैं, फिर भी अपनी धवलता नहीं छोड़ता, जब राजा लोग प्रजाको न्यायसे अंगीकार कर लेते हैं, वह बुरा-भला भी कहे, तब भी वे उसका पालन करते हैं ।" यह सुनकर कुमार लक्ष्मणने राधय से प्रतिवेदन किया- "अरे परमेश्वर, यह बहुत बड़े अपमान की बात है, जो जनपड़ अपने ही स्वामीकी इज्जत नहीं करता, प्रसिद्ध यशवाले राजकुलकी ह्री निन्दा करता है। रघु, काकुत्स्थ, अगरण, विराम, दशरथ, भग्न और राम आदि - जो भी महापुरुष इक्ष्वाकुकुलमें उत्पन्न हुए. हैं उन सबने इस महानगरीका प्रतिपालन किया है। हे आदरणीय, उनके उस प्रजोषकाररूपी वृक्षका परमफल हमने पा लिया ॥ १-१०॥
[८] इस प्रकार रामने किसी तरह लक्ष्मणको समझा-बुझा दिया | परन्तु अब उन्हें सीताका नाम तक अच्छा नहीं लगता था। उन्होंने कहा, "हे भाई, तुम इसे दूर करो, जनकतनयाको कहीं भी वनमें छोड़ आओ। चाहे वह मरे या जिये, उससे अब क्या ? क्या दिनमणिके साथ रात रह सकती हैं। रघुकुलमैं कलंक मत लगने दो, त्रिभुवनमें कहीं अयशका डंका न पिट जाय ।" यह सुनकर कैकेयीका पुत्र लक्ष्मण निरुत्तर हो गया । बह सेनानी शीघ्र रथ ले आया। अपनी-अपनी सीमामें स्थित अशेष नागरिकोंके देखते-देखते उसने देवी सीताको रथपर
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पउमचरित धाहाविड कोसकएँ सुमित्तएँ। सुप्पहाएँ सोमाउर-चित्तएँ ॥७॥ णायारया-यणेण उकण्ठे । 'केव विभोड्य दइबें दु? ||4| घरु विण? खल-पिसणहुँ छन्दें। धि-धि अजुतु विज राहवचन्द ।।१।।
कि माणुस-जम्में लन्तुएंण इट-विओय-परम्परेण । परि जाय णारि वणे वेल्लनिय जाणवि मुचा तरुवरण' ॥10॥
1 जंभेष्टिया ॥ ताव तुरहँहिं पिउरहु तेसहे।
____ वियण महारई दारुण जेत्त है ।।३।। जत्थु समजुणा धाइ-श्व-धम्मणा । ताल-हिन्ताक-साली तमाळक्षणा॥२॥ चिचिणी चम्पयं चूअ-चवि चन्दणा। बंसुविसु वक्षुलं वउळ-कर-पदणा) तिमिर-तरु सरल-तालूर-तामिच्छयं । सिम्बली सल्ला सेलु ससच्छय am णाग पुगणाग-णारङ्ग-पोमालियं । कुन्द-कोरण्ठ-कापूर-ककोलयं ॥५॥ सरल-समि-सामरी-साल-सिणि-सीसवं । पासला फीफली केनई वाहवं ॥६॥ माह वी-मड-मालूर-वहुमोकायं । सिन्दि-निन्दर-मन्दार-महुरुपरण्यामा णिम्व-कोसम्ब-जम्बीर जम्बू वरं । ग्विाङ्क्षणी राहणा तोरणा तुम्बरं ।।८।। णालिकेरी करीरी करनालयं । दाहिनी देवदार कवासणं ॥५॥
घत्ता जं जेण जेम्म कम्मउ कियउ तं तहाँ तब समावइ । कि रहीं टाले वि जणय-सुभ दह णिज्नइ त अडइ ॥१०॥
[१०] ।। जभेष्टिया ।। सहॅ वि होन्ति हे लग्छणु काइउ ।
सम्बहाँ विकसइ कम्मु पुराहत ॥१॥ जत्थ इंस-मसयं भयङ्करं । सोह-सरहयं ना-सूय ॥२रा) णाय-णडलयं कायलोलुहं । हस्थि-अजबरं दर-महोई ॥३।।
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एक्कासीइमो संधि
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चढ़ा लिया। कौशल्या और सुमित्रा शोकसे व्याकुल होकर रो पड़ीं। नगरकी स्त्रियाँ भी उत्कंठित होकर कह उठी, "दुष्ट दैवने यह कैसा वियोग कराया। दुष्ट चुगलखोरों के कपट से घर नष्ट हो गया। रामचन्द्र ने धिक्कार योग्य अयुक्त किया। उस मनुष्य जन्मको पाकर क्या करें, जिनमें प्रिय-वियोगकी परम्परा-सी बँध जाती है। इससे अच्छा तो यह है कि हम किसी वनकी लता बन जाय, कमसे कम उसका वृक्षसे वियोग तो नहीं होता"॥१-१०||
[Eथोड़ी देरमें अश्व अपने रथको वहाँ ले गये, जहाँपर भयंकर घना जंगल था। उसमें सज्जन, अर्जुन, धाय, धव, धामन, ताल, हिंताल, ताली, तमाल, अंजन, इमली, चम्पक, आम्र, चवि, चन्दन, बाँस, विष, बेंत, बकल, वट, वन्दन. तिमिर, तरल, तालूर, ताम्राक्ष, सिंभली, सल्लकी, सेल, सप्तच्छद, नाग, पुनाग, नारंग, नोमालिय, कुंद, कोरंद, कपूर, कक्कोल, सरल, समी, सामरी, साल, शिनि, शीशा, पाडली, पोडली, पोफली, केतकी, वाहव, माधवी, मडवा, मालूर, बहुमोक्ष, सिन्दी, सिन्दूर, मंदार, महुआ, नीम, कोसम, जम्बीर, जामुन, खिंखणी, राइणी, तोरिणी, तुम्बर, नारियल, करीरी, करंजाल, दामिणी, देवदार, कृतवासन आदि वृक्ष थे। जो जैसा कर्म करता है, उसका उसे वैसा ही फल मिलता है। यदि ऐसा नहीं है, तो फिर, सीता देवी को राज्य से हकालकर दैवने अटवीमें कैसे निर्वासित कर दिया ।।१-१०॥
[१] सती होते हुए भी उसे लांछन लगा दिया, इससे साफ़ है कि सबको पूर्व जन्ममें किये कर्म भोगने पड़ते हैं । सारथिने उस भयंकर अटवीमें सीतादेवी को छोड़ दिया। उसमें भयंकर डास और मच्छर थे, सिंह, शरभ, मगर और सुअर थे। नाग, बकुल, काक, उल्लू, हाथी, अजगर और दबके पेड़
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पउमचरिड
दम-सीर-कुस-कास-मुअयं । पक्षण-पठिय-तरू-पपण-पुअर्य ।।।। विड़व-णिहस-पुष्णुग्ध-मच्छियं । किमि-पिपीलि-उदेहि-विच्छिचं ||५|| हीरखुण्ट-कण्टय-णिस्न्तरं । सिल-खड़क-पस्थर-किसम्धरं ॥६॥ तहि महा-बने परम-दारुणे। सोह-पय-गय-सोनियारणे ।। मच्छहल-पइउल-भीसणे । सिव-सियाल-अलियल्लि-मी?णी)सोट मुक तेन्धु मूएण जाणई । 'महु दोसु रहुवइ ज जाणई ॥९॥
घता
वरि यि हालाहउ मश्वियउ वरि जम-लोउ गिहालियउ । पर-मण-भायणु बुह-णिलड सेवा-धम्मु ण पालिय उ ।। १० ।।
[1] ।। जभेष्टिया ।। दुप्परिपाल जीविय-संसट
आण-बच्छित विक्रिय-मंस ।।१।। से का-धम्मु होइ दुज्जाणउ। पहु ऐक्व ड कग्य-समाणउ ||२|| मोयणे सयणे मन्ते एक्कन्तएँ। मण्डल-जोणि-महण्णव-चिन्तएँ ॥३॥ जहि अस्याणु णिवम्धइ रागढ। तहि पाइकु जइ वि पोराणड ॥४॥
उ वइसणउ ण वह जीवणु। ण करवर कयावि गिट्टीवणु ॥५॥ पाय-पसारणु हत्यप्फाला। इसालबाणु समुश-णिहासणु ॥६॥ हसणु मसणु पर-आसण-पेल्कणु । गत्त-मनु मुह-जम्मा-मेहरूणु ॥७॥ णड णियह ण दूर वइसेक्ड। रस विरस-विसु जाणेवस ॥८॥ अग्गल पच्छल परिहरिएवी। जिह तुसह सिंह सेव करवी ॥९||
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एका सीइमो संधि
"
थे। दर्भ, सीर, कुस, कास और मूँज थी। हवासे गिरे हुए बहुत-से पेड़ - पत्तों के ढेर पड़े हुए थे। पेड़ों के घर्षणसे आग लग रही थी । कीड़ों, चीटियों और दीमकों से वह अटवी भरी हुई थी। डाभ, ठूंठ और काँटों से वह बिछी हुई थी । शिला पत्थर और चट्टान के ही उसमें बिस्तर थे । महाभयंकर जंगलमें जो सिंहों से आहत गजरक्तसे लाल-लाल हो रहा था, जो रीछ और पानी वाले साँपों से भीषण था, शिव, शृगाल, बाघ से मयंकर था, सारथिने सीताको छोड़ दिया और कहा, "हे देवी, राम ही जान सकते हैं. इसमें मेरा दोष नहीं है। हलाहल विष पी लेना अच्छा, यमकी दुनिया में चला जाना अच्छा, परन्तु ऐसे सेवाधर्मका पालन करना अच्छा नहीं जिसमें दूसरोंकी आज्ञाओंका दुखदायी पात्र बनना पड़ता है ॥१-१०॥
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[११] उसमें हमेशा प्राणोंका डर बना रहता है, दूसरोंकी आज्ञाका सम्मान करना पड़ता है, अपना मस्तक बिका होता है । सचमुच सेवाधर्म पालन करना बड़ा कठिन है, सेवाधर्म खोटे यानकी भाँति होता है । इसमें राजा बाघके समान देखता है। भोजन, शयन, मन्त्रणा, मण्डल, योनि और समुद्रकी चिन्तामें राजा सेवककी ओर ही देखता है । जहाँ राजदरबार बैठा होता है, वहाँ भी सेवक चाहे जितना पुराना हो, वह बैठ नहीं सकता, उसका जीवन बड़ा नहीं होता, वह थूक तक नहीं सकता, पैर पसारना, हाथ ऊँचे करना, चलना, सब ओर देखना, हँसुना, बोलना, दूसरेका आसन ले जाना - आना, शरीर मोड़ना, जँभाई लेना भी उसके लिए दूभर होता है। न वह स्वामीके निकट रह सकता है और न दूर। वह उसके रक्त-विरक्त हृदयको पहचान लेता है । आगा-पीछा छोड़
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मान
यत्ता पणवन्पिणु बम्फर नड्डम सिरु विक्षिणइ जिए.वाहों । संक्षही अणुविष्णु पेसणु करेंचि र ण एक्कु वि सेवाही' १०॥
[१२] ॥ जंभेष्टिया || एम भणेग्विणु रहु पल्लहिउ ।
समुह अउज्झहें सूउ पयहिड ।। १॥ बार-बार तहे दिण्णु विसेसणु। 'जामि माएं महु एत्ति पेसणु' ॥२॥ जं असहज्जी मुक्क वागन्त। मुच्छड एन्ति जन्ति स हि अवसरे ॥२॥ धाहाविउ उक्कण्ठल-मावऍ। 'कम्मु उदु किय3 मई पाव ॥४॥ मछुडु सारस-जुअलु विमोउ। चकवायमिहुणु व विच्छोहन ॥५|| जम्मह लमर्गेवि दुक्ख भायण । हा भामण्डल हा नारायण ||६| हा सत्तहण णाहि मम्मीसहि । हा जणेरि हा जणण ण दीसहि ।।। हा हय-विहि हउँ का विओक्ष्य । सिब-सियाल-सद्दूलहँ होय ॥८॥ हा हय-विहि तुहुँ का विरुद्धउ। जेण रामु महु उप्पर कुद्धउ ॥९॥
पत्ता वरि तिण-सिह वरि वणे वेल्लरिय बरि सिल लोय? पाण-पिय । दूहव-दुसस-दुह-मायणिय उ मई जेही का वितिय ॥१०॥
[ १३ ] || जंभेष्टिया । जस्लु थलु चणु तिणु भुवणु विचिस।
मंजि णिहालमि तं जि पहिसड ।।१।। मणु मणु भाणु माणु भू-भाषणु । जस्म मणण समिच्छिउ रात्रणु ॥२॥ पणसह तुहु मि ताव तहिं होन्ती। जइयहुँ णिय णिसियरेण रुवन्ती ॥३॥
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एक्कासीहमी संधि कर, वह इस प्रकार सेवा करता है कि वह सन्तुष्ट हो जाय । महान् सीतादेवीको प्रणाम कर, सारथिने फिर कहा, "सेवामें जीनेके लिए सिर बेचना पड़ता है, सुखके लिए, आदमी प्रतिदिन सेवा करता है, परन्तु उसे उसमे एक भी सुख नही मिलता" ।।१-१०॥
[१२] यह कहकर उसने रथ लौटा लिया। सूतने अब अयोध्याके लिए प्रस्थान किया । बार-बार उसने कहा, "हे माँ, मैं जाऊँ, मुझे इतना ही आदेश दिया गया है । सीतादेवी वनमें इस प्रकार छोड़ा जाना सहन नहीं कर सकी। उस समय, उसे भूछी आती और चली जाती। वह जोर-जोरसे रो पड़ो "मुझ पापिनने पिछले जन्ममें कोई भयंकर पाप किया है, शायद मैंने किसी सारसकी जोड़ीका विछोह किया होगा अथवा चक्रवाकके जोड़ेको वियुक्त किया है। जन्मसे ही मैं दुखोंका पात्र बनवी आ रही हूँ। हे भामण्डल, हे नारायण, हे शत्रुभन, हे माँ, हे पिता! कोई भी तो दिखाई नहीं देता। हे इतभाग्य, मैंने किसका वियोग किया था कि जिससे मुझे शिव, शृगाल और सिंह घेरे हुए हैं। हे इतभाग्य, तुम मुझपर अप्रसन्न क्यों हो, जिससे राम मुझसे इतने रूठे हुए हैं। तिनकेकी शिखा (नोक) बन जाना अच्छा, वनमें लता हो जाना अच्छा, लोगोंके लिए प्राणोंसे प्यारी चट्टान बन जाना अच्छा, परन्तु कोई स्त्री, मेरे समान अभाग्य, निराशा और दुख की पात्र न बने ।।१-१०॥
[१३] जल, स्थल, वन, सृण और यह संसार मुझे इस समय विचित्र दिखाई दे रहा है, मैं जो कुछ भी देखती हूँ, लगता है जैसे वह जल रहा है। हे धरती का विचार करनेवाले सूर्य, तुम देखो और विचारो, क्या मैंने कभी अपने मनसे रावणको चाहा है ? हे वनस्पतियो, तुम सब भी उस समय वहाँ थीं,
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पउमचरिड
पहल तुहु मि होस्तु सहि अवसरें। जइयर जिउ जहाउ सनर-वरे ॥४॥ जस्यहुँ स्यणकोस दलवाहिउ । विजा-छेद कर वि आवहिउ ॥५॥ वसुमइ पइ मि दिटु नरुवर-घण । जइयहुँ णियसियासि पदणवणे ॥ अनिकट वरुणुपवणु सिहि मक्खरु । केशवि वोल्लितणविधम्मक्खरु॥७॥ कोयहुँ कारण दुष्परिणामें। हउँ निकारणे धहिलय रामें ॥ ८॥ जब मुग्य कह वि सइसण-धारी । तो तुम्हइँ लिय-हच महारी' ॥१॥
घसा
तं बयणु सुर्णेवि सीयहँ तणर देव-लोउ चिन्तावियउ । णं सह-सावन्तर-मीयऍण वजजाधु मेलावियउ ॥१०॥
[१]
। जंभेष्टिया ।। ताव गरिन्देण स-सुहार-विन्दंग ।
गयमारूढंण रण णिम्पूण ५१|| दि देवि रत्तप्पल-चलणी। गह-किरणुमोहन-सह-भुषणी ५२|| काय-कन्ति-उण्डविय-सुरिट्री। लोयाणन्द-रन्द-मुह-बन्दी ||३॥ णयणोहामियन्वम्मह-बाणी। पुच्छिय 'कासु धीय कहाँ राणो' १४॥ 'हउँ जिल्लक्षण शिजण थामें। लोयहाँ छन्दें घल्लिय रामें ॥५॥ राम-णारि लक्षणु महु देवक। भामण्डल एखोयरु मायर ॥६॥ अणउ जणेरु विदेह जणेरी। सुण्ड णरिन्दहाँ दसरह-केरी ।। पमणइ बजमघु 'महि-पाला। लषण-राम माएँ महु साला ८|| बहुँ पृणु धम्म-बहिणि हउँ मायह' । साहुधारित पुरेहि गरेसर ॥९॥
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एक्कासी हम संधि
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जहाँ निशाचर रोती-बिसूरती मुझे ले गया था। हे आकाश, तुम भी उस समय वहाँ थे कि जब जटायु युद्धमें आहत हुआ था। जब राकेशी मारा गया था. और उसकी विद्या खंडित हो गयी थी । हे धरती, तुम गवाह हो इस बातकी कि किस प्रकार सघन वृक्षोंके अशोक वनमें, मैं अकेली रहती रही। हे वरुण, पवन, आग और सुमेर पर्वत, तुम भी तो थे, परन्तु तुममें से किसीने भी, धर्मका एक अक्षर नहीं कहा। लोगोंके कारण, कठोर रामने मुझे अकारण निर्वासित कर दिया। शीतको धारण करनेवाली मैं यदि कहीं मारी गयी तो मेरी स्त्रीहत्या तुम्हारे ऊपर होगी। सीताके ये शब्द सुनकर, देवलोक चिन्तामें पड़ गया, इसी समय भानो साके बरसे उन्होंने जंधकी भेंट सीतादेवी से करा दी ॥१-१०॥
[१४] थोड़ी देर बाद सुभट श्रेष्ठ और युद्ध में समर्थ राजा वाजंध हाथीपर बैठ वहाँ पहुँचा। उसने सीताको देखा । उसके चरण रक्तकभलके समान सुन्दर थे, नखोंकी किरणों से वह धरतीको आलोकित कर रही थी । उसकी शरीर - कान्तिसे इन्द्राणीको ताप हो रहा था, उसका मुखचन्द्र लोगोंको एक नया आह्लाद देता था। नेत्रोंसे उसने कामदेवीकी वाणीको तिरस्कृत कर दिया था। वज्रजंधने उससे पूछा, "तुम किसकी बेटी और कहाँ की रानी हो !" सीताने प्रत्युत्तर में कहा - " मैं अभागिन लोक अपवादके कारण राम द्वारा अपने स्थानसे च्युत कर दी गयी हूँ, मैं रामकी पत्नी हैं, लक्ष्मण मेरे देवर है। भामण्डल मेरा एकमात्र भाई हैं, जनक मेरे पिता है और विदेही मेरी माँ है। राजा दशरथकी मैं पुत्र वधू हूँ ।" यह सुनकर राजा वाजंघने कहा, "हे आदरणीय, राजा राम और लक्ष्मण मेरे साले हैं। तुम मेरी धर्मकी बहन हो, मैं तुम्हारा
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१५४
पल मास्ट
लायण्णु णिऍचि सोयहें तण गिरि धीरें सामरु गहिरिम
धत्ता सिटुअणे कासु ण खुहिउ मणु । जजघु पर एक्कु जणु ॥१०॥
[१५] ॥ जंभेट्टिया ॥ मम्मीसेप्पिणु पय-गुण-थागणं ।
णिय परमंसरि सिविया-जाणेणं ॥१॥ पुण्डरोय-पुरवरु पहसन्ते । इह-सोह णिग्मविय तुरन्ते ।।२।। सस मणेषि पदहड वेवाविध। जणु बासका-थाणु मुभाविउ ।।३।। सहि उप्पण्ण पुत्त लवणकस । लक्षण-लक्वतिय दोहाउस ॥४ सीयारविहें णयण-सुहकर । पुम्ब-दिसिहें णं चन्द-दिवायर ।।५।। विचि-गय सिक्खविय महत्था । वापरणाइ-अणेयह सस्थई ।।६।। सयल-कला-कलाव-कवणीया। मन्दस्-मेरु णाई थिय वीया ।।। सेहि पहावें तर्हि रिड थम्भिय । रहुकुरू-मवण-खम्म उडिमय ।।८॥ ल-रहस सावळेव स-कियस्था । लक्षण-रामहुँ समर-समस्या ।।९।।
पत्ता रिउ लवणसें हि णिस्कुसें हिं दण्ड-सज्य किड गाई अहि । पप्पं वि प्पिको दासि जिह लय स य म्भु व लेण महि ।।१०॥
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एकासीइमो संधि भाई हूँ।" इसपर देवोंने राजा वनजंघकी सराहना की । सीता देवीका सौन्दर्य देखकर त्रिभुवनमें कौन था जिसका मन धुन्ध न हुआ हो। परन्तु एक बानगी का जोन में महाका और गम्भीरतामें समुद्र था ।।१-१८॥
१५] उसने व्रत और गुणोंसे सम्पन्न सीता देवीको ढाढ़स बंधाया और डोलीमें बैठाकर उसे अपने घर ले गया। उसके अपने पुण्डरीकनगरमें प्रवेश करते ही बाजारों में नयी शोभा कर दी गयी। उसने मुनादी द्वारा सीतादेवीको अपनी बहन घोपित किया, और इस प्रकार लोगोंके मनमें रत्तीभर भी शंकाका स्थान नहीं रहने दिया । वहाँ सीतादेवीके लवणअंकुश नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए। दोनों ही दीर्घायु और शुभ लक्षणोंसे युक्त थे। सीतादेवीके लिए वे इतने शुभ थे मानो पूर्व दिशाके लिए सूर्य और चन्द्र हो। वे बड़े हुए। उन्हें बड़े-बड़े अस्त्र चलाना सिखाया गया। उन्होंने व्याकरण आदि अनेक शानोंका अध्ययन किया। सुन्दर कलाओं में निपुणता प्राप्त की। दोनों सुमेरु पर्वतके समान अचल थे। उनके प्रभाव से सब शत्रु रुक गये, मानो वे रघुकुल रूपी भवनके दो नये खम्भे हों। वे राम लक्ष्मणसे भी अधिक युद्ध में समर्थ तथा सहर्ष साहंकार और कृतार्थ थे। लवण-अंकुश दोनोंने सर्पकी भाँति शत्रुओंको दण्डसे साध्य कर लिया। उन्होंने बापकी दासीकी तरह धरतीको अपने हाथोंसे चाँपकर अधीन कर लिया ॥१-१०॥
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[८२, यासीमो संधि ]
सुरवर डामर-डामरहिं ससहर-चक्कक्तियणाम हुँ । मिदिया माहवें वे विजण लवणकुम छक्खण-रामहुँ ।।
[ ] लघणकुल णिघि जुधाग-भाव । कलि कवलण कलिय-कला-कलाव ॥५॥ सयकामल-कुल-गह यल-मियक । प अरि-करि केसरि मुक-सक ॥२॥ रण मर-धुर-धोरिय धीर-खन्ध । गुण-गण-गणालि गं सेट-वन्ध ||शा घर-धारण दुखर-घर-धरिन्द। वन्दिय-जिणिन्द-चरणारविन्द ॥४॥ परिरक्खिय-सामिय सरण-मित्त । वन्दिरगहें गोरगहें किय-परित्त ॥५॥ भू-भूसण भुवपामरण-माव । दस-दिसि-पसत्त-णिग्गय पयान ॥६]] रामाहिराम रामाणुसरिस। जग-जागह-जणण जणिय-हरिस ॥७॥ पर-पवर-पुरअय अणिय-तास । मुद्द-चन्द-चन्दिमा-धवलियास ॥६॥
घत्ता
माणुस-वेसे अवयघि वे माय पाई थिय कामहों। "किह परिणावमि जमल-मई' उप्पण्ण घिन्त मर्गे मामहाँ ॥९॥
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नयापी सन्धि
देवयुद्धसे भी भयंकर, चन्द्र और चकके नामोंसे अंकित, लवण और अंकुश, युद्ध में राम और लक्ष्मणसे जा भिड़े।
[१] लवण और अंकुश दोनों जवान हो चुके थे। दोनों यमको सता सकते थे, दोनों कलाओंका अभ्यास पूरा कर चुके थे और दोनों अपनी कलाओंसे निर्मल आकाश चन्द्रको भाँति थे मानो आशंकासे मुक्त शत्रुरूपी गज़पर सिंह हो। विशाल कंधोंवाले वे रणभार उठाने में समर्थ थे। सेतुबन्धकी भाँति वे दोनों गुणसमूहसे युक्त थे। धरती धारण करनेवाले दुर्धर धरतीके राजा थे, दोनोंने जिनेन्द्र भगवानके चरणोंकी वन्दना की थी। दोनों अपने स्वामीकी रक्षा करनेवाले और मित्रोंको शरण देनेवाले थे | धन्दीगृहों और गौशालाकी उन्होंने रक्षा की थी। दोनों पृथ्वीके अलंकार थे, और दोनों पृथ्वीको अलंकृत करना चाहते थे। उनका प्रताप दसों दिशाओं में फैल चुका था। रामके ही अनुरूप वे दोनों रमणियों के लिए सुन्दर थे। वे जन माता और पिताके लिए आनन्ददायक थे । दोनों ही प्रबल शत्रुओंकी नगरीमें त्रास उत्पन्न कर सकते थे । मुखचन्द्रकी ज्योत्स्नासे उन्होंने चन्द्रमा तकको आलोकित कर दिया था। वे दोनों ऐसे लगते थे मानो कामदेव ही दो भागोंमें बंटकर मनुष्य रूपमें अवतरित हुआ हो । तब मामा वाजंघके मनमें यह चिन्ता हुई कि इन दोनौका विवाह किससे करूँ ॥१-१०॥
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पउमचरिउ
[ २ ]
पिहिमी पुरवरें पिपहुई पासु ॥ १॥ । कमणीय किसोयरि कणयमाल ||२॥
पट्टत्रिय महन्ता तेण तासु । 'दे देहि अयम-तणिय पाठ दूयहाँ चयर्णे दूमिउ परिन्दु । 'कुल- सोल-कित्ति-परिवज्जियाहँ । को कण्णउ देइ अज्जियाह ॥४॥
फुरिय-फणा मणि थिउ फणिन्दु ॥ ५ ॥
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गड दुरवर वू मियङ्गु । लवणङ्कुस 1 -मामह कहि सेव । तं वचणु सुणेपिशु लड् खेरि क्रन्धं उपरि चलि
वासु ।
ara राeिs बग्बरहु जलहर खोलें कि सुक्कु जिह
ते वग्वमहारह-अज्जज । बहु दिवस करेपिगु संपहारू । तो पुण्डरी-पुर- पथिवेज |
दण्ड धाय-वाइड-भुभङ्गुः ॥५॥ 'विहु-राएं दुहिय ण दिन जेब स देवाविय कहु पगाह-मेरि ॥७॥ विहिमी पुरवर-परमेसरासु || 4 ||
घत्ता
पहु-पक्डि रण-महि मवि । थिउ अग्गाऍ जुज्नु समवि ||९||
कालें कुछ पिपिल काउ एल वि कुमारें हिंदुआ एहि । लवणक्कुस -नाम-पगासहिं ।
[2]
अभि परोपकरणे अ॥१॥ परियार्णेवि पर-वल-परम- सारु ॥१॥ सदू - महारहु धरि तेण ॥३॥ सामन्त-सयइँ मेलदेवि भव ॥१॥ जयकारि सीय रणुमहि ॥५॥ इथ-स्थिय - सर-सरासहि ॥५॥१
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बासीमो संधि [२] चूंकि इसे बहुत बड़ी चिन्ता हो गयी। इसलिए उसने पृथ्वीपुरके राजा पृथुके पास दूत भेजा । दूतके माध्यमसे उसने पूछा कि, माथु राणी, अमृतसरे उमस अत्यन्त सुन्दरी कन्या कनकमाला दे दे। परन्तु दूतके वचन सुनकर राजा ऐसा चिढ़ गया मानो फड़कते फनोवाला नागराज हो। उसने कहा-"जिनके वंशका पता नहीं, जिनकी न कीर्ति है और न शील, भला ऐसे निर्लजोंको अपनी लड़की कौन देगा।" राजाके खोटे अक्षरंसे प्रताडित दूत बहाँसे वापस आ गया, मानो दण्डोंके आघातसे साँप फुत्कार कर उठा हो। उसने जाकर लवण और अंकुशके मामाको बताया कि किस प्रकार राजा पृथुने अपनी कन्या देनेसे मना कर दिया है। यह सुनकर वह एकदम भड़क उठा। उसने कूचकी भेरी बजवा दी। घेरा डालकर उसने राजा पृथुके ऊपर आक्रमण कर दिया। इसी बीच, राजा पृथुके पक्षपाती राजा व्याघरथने युद्ध-व्यूहकी रचना कर लो और वह युद्ध करने के लिए आगे उसी प्रकार स्थित हो गया, जिस प्रकार मेघोंको अवरुद्ध कर इन्द्र स्थित हो जाता
[३] व्यानरथ और वनजंघ आपसमें एक-दूसरेसे युद्ध में भिड़ गये। दोनों एक-दूसरेके प्रति अलंध्य थे। बहुत दिनों तक वे एक-दूसरेपर प्रहार करते रहे। दोनोंने एक-दूसरेको शक्तिका सार जान लिया। इतनेमें पुण्डरीकपुरके राजा वनजंघने व्याघ्ररथको पकड़ लिया। यह देखकर विशालकाय राजा पृथु कुपित हो उठा, वह सैकड़ों सामन्त योद्धाओं के साथ यहाँ आया। इस ओर भी सीताकी जयके साथ अजेय दोनों कुमार (प्रसिद्धनामा लवण और अंकुश ) रेणके लिए सधत हो उठे। पनका शरीर युद्धलक्ष्मीका आलिंगन करने में
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१३.
पडमचरित रम-रामालिनिय-विग्गहहि । पहरण-पदहस्थ महाराहि ॥७|| 'बेबिजह माएँ ण मामु जाव । जाएबउ अम्महिं सेरथु ताव' ॥८॥
घत्ता
तो वोलाविय चे वि जण गप्पिएँ वरिसंसु-विमीसएँ । 'स.गिरि स-सायर सयक महि भुझेज महु भासीसएँ ॥९||
भासीस ल ऍवि विधि वि पयः । अलमल-वल-मयगल-मइयवह ॥१॥ गय तत्त जसह रघु साधु। पारि' अरव बालाजधु ॥२॥ 'भम्हें हिं जीवन्ते हि दुक्नु कवणु । जाहिं अङ्कसु हुअवहु लवणु पक्षण ॥२॥ का गणण तस्थु विहि-पस्थिवेण । भवरेण वि पवर-णराहिवेण' ॥४॥ पतु धीवि भड-कामहणेहि। इससन्दण-णवण-णन्दणेहि ॥५॥ रहु वाहिउ ताई वाइपाई। किड कलपलु सेपण. धाइमाई ॥१॥ अटिमहर घसई पलुन्धुरार। अवरोप्पर चोइथ-सिन्धुराहैं ।।७।। सरवर-सहाय-परिसिराई। रय-हिर-महाण-हरिसिराई ॥८॥
মৃধা पिहु-पस्थिड लवणकुसे हि इलएँ जें परम्मुहु लग्गउ । जावह प्रत्ति शरपियड विहिं सीह हि मत्त-महागा ॥१॥
तहि अवसरै समर-णिरसे हिं। पचारिउ पिड लवणासहि ॥१॥ 'कुक-सील-विहूणहुँ बसिय केम | पलु पलु वूवागम चषित बेम' ॥२॥ पिहु-पथिट पक्षणेहि पनिड ताई। 'कलेबर भाउ भम्बारिसाहँ ॥१॥
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बासीमो संधि
१६.
समर्थ था, हाथोंमें तीर और धनुष थे। उनके रथ हथियारों से प्रचुर मात्रामें भरे हुए थे। उन्होंने सीतादेवीसे कहा, "हे माँ, कहीं मामा न घिर जायें, इसलिए. हम वहाँ जाते हैं।" यह सुनकर दोनों आँखों में आनन्दाश्रु भरकर माँने कहा, "मैं असीस देती हूँ कि तुम ससागर और सपर्वत इस समस्त धरतीका उपभोग करो" ||-||
fx] इस प्रकार माँका आशीर्वाद लेकर, भ्रमरोंसे गुंजित मतवाले हाथियों को वहा में करनेवाले वे दोनों हाँ पहुंचे जहाँ पर अजेय युद्ध हो रहा था। वनजंघ राजाकी उन्होंने जय बोली, और कहा, "हम लोगोंके रहते हुए आपको क्या कष्ट है ? जहाँ अंकुश आग है और लवण पवन है, वहाँ विधाता भी आ जाये तो उस गा गिनती, कि दूसरे की दो बात हो क्या है ।" योद्धाओंको चकनाचूर कर देनेवाले दशरथके पुत्र के पुत्रोंने राजा वनजंघको धीरज बैंधाया। अपना रथ हाँककर उन्होंने दुन्दुभि बजा दी। कोलाहल करती हुई सेनाएँ दौड़ी, बलसे उत्कट सेनाएं भिड़ गयीं। एक दूसरेपर उन्होंने हाथी दौड़ा दिये। तस्यारोंके आघातसे शत्रुओंके सिर ऐसे । लग रहे थे, मानो धूल और रक्तकी महानदीमें अश्वोंके सिर
हो। राजा पृथु खेल-खेल में लवण और अंकुशसे इस प्रकार जाकर भिड़ गया, मानो भाग्यसे महागज हड़बड़ीमें सिंहसे आ मिड़ा हो ॥१-||
[५] जस अवसर पर, युद्ध में निरंकुश लवण और अंकुशने राजा पृथुको ललकारते हुए कहा, "अरे कुलशील विहीनोंसे क्यों पराजित होते हो; हटो हटो, जैसा कि तुमने दूतसे कहा था।" यह सुनकर गजा पृथु उनके चरणों में गिर पड़ा, और बोला, "हम जैसोंसे आपको नाराज नहीं होना चाहिए । लवण
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१६२
पडमचरित
लइ लवण तुहारी कणयमाल। मबगस तुहु मि तरङ्गमाल' ||| पइसारवि पुरजरें किउ विवाह। थिउ बजज जय-सिरि-सणाहु ॥५|| तेण वि पत्तीस तणुकमचाउ । णिय-कपणउ दिण्णास-विम्ममा|| सयालदारालहिन्याछ। हल-कमल कुलिस-कलसहिया॥७॥ सामन्तहँ मिलिय अजेय लक्ख । पाइक युझिय केण सङ्ख ॥४॥
धन्ता
जे अलमक-वल पवळ-वरू इरि-बल-वलं हि ण साहिय । ते परवड लवकुसें हिं सवसिकरेषिपशु देस पसाहिय ।।१।।
[ ] खस-सवर-वध्वस्ट-कीर। कर वेर कुरब-सोनीर धोर ||१|| तुम-ब-कम्मोज्ज-मोट । जालन्धर-अषणा-जाण-जट्ट ॥२।। कम्मीरोसीयर-कामस्व । ताझ्य-पारस-काहार-सूव ||३||
पाल-वष्टि-हिण्डिव-तितिर । केरल-कोहल-इलाम-वसिर ॥॥ गन्धार-मगह-मदाहिवा वि। सक-सूरसेण-मर-पत्थिवा वि ॥५॥ एय वि अवर वि किय वस विडूय । पल्ल पट्टीचा मेहिलेय ।।६।। तं पुण्डरीय-पुरवरु पइट्ठ। धुर वनजाधु वइदेहि दिट्ठ ॥७॥ सहि काळ अकलि-ऋछियारएण। पोमाइय वेणि वि पारएण ।।।
घसा
मह एपिपणु सयल महि किय दासि व पेसण-गारी । पर जीवन्तेहिं हरि-वहिं ण तुम्हहँ सिब बहारी ॥९॥
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मासीमो संधि
लो तुम्हारी कनकमाला, और मदनांकुश तुम भी ली तरंगमाला।" उसने दोनों का अपने महानगरमें प्रवेश कराया
और कन्याओंका पाणिग्रहण करा दिया। वनजंघ अब पूर्ण ऐश्वर्यसे मण्डित था। उसने भी अपनी बत्तीस विलासयुक कन्याएँ उन्हें दीं। वे कन्या सभी अलंकारोंसे शोभित थीं, और उनके शारीरपर हल, कमल, कुलिश और कलश आदिके सामुद्रिक चिह्न अंकित थे । लाखों सामन्त आकर उनसे मिल गये, फिर पैदल सैनिकोंकी तो संख्या पूछना ही व्यर्थ है । जो प्रबल बली शत्रु राजा राम लक्ष्मण द्वारा पराजित नहीं हो सके थे उन्हें लवण और अंकुशने बलपूर्वक अपने वश में कर लिया ॥१-२॥
[३] खस, सव्वर, बव्वर, टक्क, कीर, काबेर, कुरव, सौबीर, तुंग, अंग, बंग, कंबोज, भोट, जालंधर, यवन, यान, जाट (जट्ट), कम्भीर (कश्मीर), ओसीनर, कामरूप (आमाम), ताइय, पारस, कल्हार, सूप, नेपाल, वट्टी, दिण्डिव, बिसिर, केरल, कोहल, कैलास, बसिर, गंधार, मगध, मद्र, अहिव, शऋ-सूरसेन, मरु, पार्थिव, इनको और दूसरे भूखण्डोंको अपने वशमें कर, वे दोनों वापस अपनी धरतीपर आ गये। उन्होंने पुण्डरीक नगरमें प्रवेश किया, वनजंघकी स्तुति की और तब सीतादेवीके दर्शन किये। इस अवसर पर असमयमें भी लड़ाई करा देनेवाले नारद महामुनिने भी उन दोनोंकी प्रशंसा की। उन्होंने कहा, "ठीक है कि तुमने बलपूर्वक सब धरती जीत ली है
और उसे अपनी आशाकारिणी दासी बना ली है, परन्तु राम और लक्ष्मण के जीते जी तुम्हारी सम्पत्ति बढ़ी मालूम नहीं देती ॥१-॥
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पर
[७] तं वयणु सुर्णेवि लवणकोण। घोल्लिज्जङ्ग परम-महाउसेण || १६ 'कहि कहि को हरि बल पर कषणु' । तो कहइ कुमारहों मयण-गमणु ।।२।। 'णामण अस्थि इक्रयाय-वंस । सहि दसरहु उत्तम-गयहंसु ।।३।। लहाँ णन्दश लववण राम वै वि । बाग-बानही अल्लिय तेण से पि ||" गय देण्डारण्णु पट्ट जाब । अवारिय सीय राषणे ताय || || गतिमि मलाविष्ठ पमय-मेणु । हय मेरि पयागड णवर दिण्णु ॥६॥ वेदिय लङ्काउरि हउ दमाम् । पढिवलेंनि अउज्यहिं किड णिधासु ॥ . जण त्रय-वसेण सह सुदू-श्चित 1 गिकारण कागणे णेप घिन ॥८॥
घत्ता वजह तहि कहि मि राइ त दिष्टु रुवन्ति बराइय । सा भन्यो समाहित धरै लययन पुत कियाइन ।।९।।
[+] तं गिनु मन अगलवणु। 'अम्हाण समाणु कुठीण कवणु ॥ ॥ . किड जण घर जणाण है मसिसु | तहुँ हउ देवग्गि दक्षणेक-चित्तु ॥२॥ वट्ट जाणिजइ तहि जै काल। दुरिसण मोसण भर-बमाले ॥६॥ जिम लवण रामहुँ पलाउ जाउ | जिम म्ह हैं विधि मि विणासु भाड॥४॥ कहाँ तणउ वप्पु कहाँ णड पुत्तु । जो हगइ सो जिवह रिउ निरुतु ५५|| जाणति कुमार-किमु अला। सुस्टि रोलिउ बजा ।।६।। 'जो तुम्हाँ विहि मि अणि पाउ । सो महु मि ण माबई पिसुण-भाउ' ॥७॥ परिपुम प्यारउ परम-जोइ । 'स्थही अउजश कि तूर खोई' ५.॥
घत्ता कहाइ महा-रिसि गयण-गइ तहाँ लथणही समरें समस्यौ । 'सउ सहसा जोयण साकेप-महापुरि पस्थही' ॥९॥
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यासीनो संधि
१६५
[७] यह सुनकर, लवण और अंकुशने आवेशमें भरकर कहा – “बताओ बताओ ये राम और लक्षण कौन है।" तत्र गगनविहारी नारद मुनिने कहा - "इश्वाकु नामका राजवंश है। उसमें दशरथ सर्वश्रेष्ठ राजा है। उनके दो पुत्र हैं- राम और लक्ष्मण, जिन्हें राजाने वनवास दे दिया था। वे दण्डकारण्य में पहुँचे हो थे कि रावण सीता देवीका अपहरण करके ले गया। रामने बानर सेना इकट्ठी की । कूचका डंका बजाकर युद्ध के लिए प्रस्थान किया । लंका नगरीको घेर लिया और रावणको मार के | फिर वे वापस आकर अयोध्या में रहने लगे । यद्यपि सांता देवी सती और हृदय शुद्ध हैं, परन्तु लोगोंके कहने पर रामने अकारण उन्हें बनमें निर्वासित कर दिया । ( इसी समय ) बत्रजंघ कहीं जा रहा था, उसने सोता देवीको रोते हुए देखा । उसे बहन बना कर अपने घर ले गया। वहाँ उसके लवणं कुश नामके दो पुत्र उत्पन्न हुए" ॥१-२॥
बद्द
"
[ ८ ] यह सुन कर लक्षण, जो कामदेवका अवतार था, बोला- हमारे समान कुलीन कौन हो सकता है. जिसने मेरी माँ को कलंक लगाया हैं, मैं उसके लिए दावानल हूँ। मैं उसे भस्म करके रहूँगा। भीषण दुर्दर्शनीय और योद्धाओं से मुखरित उस समय यह पता चल जायगा कि राम और लक्ष्मणके लिए प्रलय आता है, या इन दोनोंके लिए बिनाश | कौन बाप और कौन बेटा ? निश्चय ही जो मार सकता है, बड़ी दुश्मनपर विजय प्राप्त कर सकता है ! यह जानकर कि लवणांकुशका पराक्रम अलंघ्य हैं, वज्रसंघ भी तमतमाकर बोला कि जो पापात्मा तुम तीनोंका अनिष्ट करनेवाला है, वह मुझे भी अच्छा नहीं लगता। उन्होंने महामुनि नारदसे पूछा कि - अयोध्या कितनी दूर है ? तब युद्ध में समर्थ लवणसे व्योमबिहारी नारदने कहा
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१६६
पउमचरित
[९] वहहि निवारद दर स्वन्ति । से दुजय कखणराम होन्ति ॥३॥ हणुवन्तु जादं घर करइ सेक। आरकहाँ असु च विभ-दंघ ॥२॥ सुरगाउ विहासणु भिञ्च जाई। को णे धुर धरवि समत्धु ताहूँ ॥३॥ दसझन्धरु दुगुरु जिहउ जहि। को पहरेबि सबइ समउ सेहि' 11४।। है. किसुचि लवणकुस पलित्त । णं विfaot हुआस: घिएँग सित्त॥५॥ "कि आम्हहै बले सामन्त णस्थि । किं श्रम्ह पा-धि रहनुस्य-हस्थि ॥६॥ किं अम्ह । वि िण घारगाई। कि अहहैं करेंहि भ पहरणाइँ ॥७॥ कि अहह साउण हो चाड । सामण्ण-मरण का भयहाँ थाउ' ॥८॥
घत्ता
तो बुधइ मयणकुण जेण रुवाधिय माय मा
'एसडउ ताय दरिसायमि । तहाँ सणिय माय रोवावमि' ॥५॥
[१०] हय भेरि पयाणउ दिपणु सेहि। रग-रस-मरियहि लवणसे हि ॥१॥ अग्गः दस सय कुटारियाहँ। दस दारुण कुदल-धारिया ॥२॥ पण्णारह वेवणि-करयलाह। मसियहँ चउवीस महा-वलाहँ ॥३॥ छबीस कसिय विसोहियाह। बत्तीस सहास िचक्कियाह ॥४|| दस लक्ख गय? मय-णिरुमराहुँ । दस रहहुँ अट्ठारह हयवराहुँ ॥५।। वीरू लक्स फारकिया। घडट्टि पवर धाछियाहुँ ॥६॥ रण-रसियह रहसाकरियाहुँ। अक्साहणि साहणे तूरियाहुँ ॥७॥ परवइहिं फोबिंदस किङ्कराह। साधरणहूँ वर-पहरण-कराहँ ३५
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यासीमो संधि
१६७ कि यहाँसे कोई १६० योजन से भी दूर अयोध्या नगरी है|॥१-६॥
[९] सीता देवीने उन्हें मना किया, वह फूट-फूट कर रो पड़ी और बोली-"राम और लक्ष्मण तुम दोनोंके लिए अजेय हैं; जिनके घरमें हनूमान जैसा सेवक है, जिससे सुर और असुर दोनों डरते हैं, जिसके मुग्रीव और विभीषण अनुचर हैं, उनके साथ युद्धका भार कौन उठा सकता है, जिन्होंने युद्ध में रावणको मार डाला, भला उनपर कौन प्रहार कर सकता है ?" मौकी बात सुनकर, दोनों पाई गई है। लगने कहा, "क्या हमारी सेनामें बल नहीं है। क्या हमारे पास रथ, अश्व और गज नहीं हैं ? क्या हमारे हाथी मजबूत नहीं हैं ? क्या हमारे थियार नहीं हैं, क्या हम आक्रमण करना नहीं जानते ? मौत एक मामूली चीज़ है, उससे कौन डरता है ? तब अंकुशने कहा कि मैं इतना अवश्य दिखा दूंगा कि जिसने हमारी माँको रुलाया है हम भी उसकी मौको रुला कर रहेंगे" ॥१-२॥
[१०] दुन्दुभि बज उठी। कूच कर दिया गया। युद्धके उत्साहसे भरे हुए लक्षण और अंकुश चल पड़े। उनके आगे, एक हजार कुठारधारी थे, एक हजार भयंकर कुदालीधारी थे, पन्द्रह-सौ हाथों में खेवणी लिये सैनिक थे,चौबीस-सौ सैनिक 'झसिय' अन लिये हुए थे, छब्बीस-सौ कुशियसे शोभित योद्धा थे, अत्तीस हजार चक्रधारी सैनिक थे। मदझरते दस लाख गज थे, दस हजार रथ और अठारह हजार घुड़सवार थे । फारकधारी सैनिक बत्तीस लाख थे। चौंसठ लाख थे धनुर्धारी सैनिक । युद्धके लिए हिनहिनाते और वेगसे पूरित अश्वों की एक अक्षौहिणी सेना थी। आवरण सहित, हाथमें उत्तम अस्त्र लिये हुए राजा और उनके अनुचरोंकी संख्या दस करोड़
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पडमचारत
धत्ता
सर सु लमाणसह बलु गं सयकाले समुइ-जलु
पहें उपहें कह विण माइया । रेलन्तु अउस्म परायड ।। ||
[ .१] सौदपुद्धा हिण महि। पटुषिउ तूउ लें नहि ॥१॥ ग अत्ति अझाटरि पइट्छ । स-जणु सीया-दहट दिटु ।।२॥ 'कहाँ राष्ट्रात दो कार दीनिहिउ पार जग : || पर-गारी-हरण-दयावया तुम्हई ऐवाइय राधणेण ॥४॥ इ घई पुणु घरवइ बजाज घु। उहि व अ-सोहु मरु व अ-लक ॥६॥ परमुत्तम-सत्तु महागुभावु। सुर-भुवणामतर-णिग्गय पयात्रु॥ रग रामालिङ्गण-रस-पसत्त । जसु तिग-समु पर-घणु पर-कलत्तु ॥३॥ लयपङ्कम-मामु महा-पचपछु। सो नुम्हहें आइड काल-दण्डु |||
घत्ता ते सहुँ काई महाहगणिय-कोसु मनसु वि देपिणु । सुहु जीवहाँ उसारि लवणकुस कर करेषिणु' ॥ ॥
[१२] आसीबिस्स-विसहर-विसम-चित्तु । णारायणु हुबहु जिह पनि ॥ १ ॥ 'जा बाहि दृक्ष कि गजिएण। जल एण व जल-परिबज्जिएण । २॥ को वन जाधु कोडणवणु। को असु सासु पयात्रु कवणु ॥३॥ जिह सकहाँ सिह उत्थरहाँ भुम्हें। गहियाउह धिय सपज वि अम्मा
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बालीमी संधि
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थी। लवण और अंकुशकी सेना अपने वेगमें, पथ और उत्पथमैं कहीं भी नहीं समा रही थी। वह ऐसी लगती थी मानो क्षयकालका समुद्र ही रेल-पेल मचाता हुआ अयोध्यापर आ पहुँचा हो ।। १-२॥
[११] दर्पसे उद्धत और अंकुशविहीन लवण एवं अंकुदाने अपना दूत रामके पास भेजा। दूत शीन ही अयोध्या नगरी गया और उसने लक्ष्मण सहित सीतापति रामसे भेंट की। उसने कहा-"अरे राम और लक्ष्मण, तुमसे कितनी बार कहा जाय ? लगता है दूसरोकी स्त्रियोंका अपहरण करनेवाले रावण ने तुम्हारा दिमाग आसमान पर चढ़ा दिया है। यह राजा वाघ है, जो समुद्र की तरह अचव्ध और सुमेरु पर्वतकी तरह अलंध्य है। यह उच्च कोटिका शत्रु है, महानुभाव है, देवता और दूसरे लोक इसके प्रतापका लोहा मानते हैं । युद्धवनिताका आलिंगन करने में उसे आनन्द मिलता है । वह दूसरे के धन और स्त्रीको तिनकेके समान समझता है । वह लवण और अंकुशका मामा महाप्रचण्ड है । वह तुम्हारे ऊपर कालदण्डकी तरह आया है। उसके साथ युद्ध करनेसे क्या ? अपना शेष कोष उसे दे दो, और लवण-अंकुशकी अधीनता स्वीकार कर अपनी अयोध्या नगरीमें सुखसे राज्य करों" ।। १-२॥
[१२] यह सुनकर आशीविष साँपकी भाँति विषम चित्त लक्ष्मण आग-बबूला हो गये। उन्होंने कहा, "हे दूत ! तुम जाओ, इस प्रकार निर्जल बादलोंकी भाँति गरजनेसे क्या ? वनजंघ कौन है ? लवण कौन है और कौन है अंकुश ? उसका प्रताप कौन है, जिस तरह भी हो तुम अपनेको बचाओ, हम अस्त्रोंको लेकर तैयार हो रहे हैं।" चिढ़कर दूत फौरन गया ।
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परमरित
गड दूड तुरन्तु वहन्तु खेरि । खण्णधु रामु समाहिराम। सम्पादधु पक्रय-कालाणुन नि: सण्णद्ध गहिव पिस्वसंस।
हय हरि-वल-बले सण्णाह-भेरि ॥५॥ तइलोककमातर ममिड णामु ॥३॥ नमसणु झालखण-लक्स-धारि॥७॥ वीसम्मर-गोयर खेबरेस ॥८॥ घत्ता दारुण-ग्णभूमि-पगई। सरहसइँ वे वि अभिट्टर ॥१॥
हय-नूर किय-कलयलाई लवणाम हरि-बल-बलइँ
भक्मिष्टई हरित-पसाहगाई। लवणङ्कस-हरि-घल-माहणार ॥1॥ घुम्वार-बरि-विणिवारणाई। धारय-उबुङ्कुस-वारणा ॥२॥
खर-पर-पर-दप्प-हरणाई। अवरोध पैसिय-पहरणाई ॥३॥ जस-लुबई वढिय-विगाहाइँ। रण-रालिनिय विगहाई ||४|| हरि-खुर-खय-स्य-कय-धूसराइ आयामिय-मामिय-असिवरा ॥५॥ असि-किरण करालिय-पाहमलाइ। गय-मय-कदमिय-महीयलाई ।।३।। रुहिर-ण-पूर-पूरिय-पहाई। खुर-खोणी-खुस्त-महारहाई ।।७।। पय-भर-भारिय-वीसम्भरा। पहरन्ति परोप्पर णिकमरा ।।४।।
घत्ता बजाज-रहुषह-वलाई दिई सरपुर-परिपालें। रण-मोयणु भुञ्जन्तऍण वे मुह( कियइँ णं कालें ॥९॥
[1] कहि जि धाइया मड़ा। मन्द-
विमुकमवा ॥१11 स-गेस-वावरम्तया।
परोप्पर हणन्तया |शा कहि जि भागया गया। पहार-संगया गया ।।३।। कहिं में नाण-जमारा।
ममन्त भत्त कुभरा !! कहिं जें दन्ति दन्तया । रसन्ति मग्ग-दन्तपा ||५||
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बासीमो संधि लक्ष्मणकी सेनामें दुन्दुभि बज उठी। रमणियोंके लिए अभिराम और तीनों लोकोंमें विख्यात नाम राम तैयारी करने लगे। प्रलयकालके समान और शम लक्षणोंको धारण करनेवाले लक्ष्मण भी तैयार होने लगे। और दूसरे राजा भी तैयार हो गये, विद्याधर और मनुष्य राजा सभी। हर्षसे भरी हुई, राम-लक्ष्मण और लवण-अंबुशकी सेनाएँ आपसमें लड़ने लगी 1-1
[१३]ोनों ही सेना निदाट शवओंका निवारण कर रही थी, दोनों में निरंकुश गज दौड़ रहे थे, दोनों ही उद्धत शत्रुओंका घमण्ड चर-चूर कर देती थीं। दोनों एक दूसरे पर अस्त्रोंसे प्रहार कर रही थीं। दोनोंको यशका लालच था । दोनों में संघर्प बढ़ता जा रहा था ! दोनों के शरीर, रणलक्ष्मीके आलिंगन के लिए उत्सुक थे। चारों ओर, अश्वखुरोंकी धूलसे धूमिलता-सी छा गयी थी। दोनों तलवारों को घुमा-फिरा रहे थे। तलवारकी किरणोंसे आकाश तल भयंकर हो उठा, गजमदसे धरती पंकिल हो उठी। रक्तकी नदियोंके प्रवाहसे पथ भर गये | महारथोंने धरतीको खोद दिया। पैदल सैनिकोंकी मारसे धरती दब गयी। दोनों एक दूसरेके ऊपर निश्चिन्त होकर प्रहार कर रहे थे । इस प्रकार वनजंघ और रामकी सेनाओंको ऊपरसे जब इन्द्रने देखा तो उसे लगा जैसे युद्धका भोजन करते हुए कालने अपने दो मुख कर लिये हो ॥ १-२ ।।
[१४] कहींपर योद्धा दौड़ रहे थे, जो सिंहके समान उद्धत विक्रम रखते थे। आक्रोशमें वे एक दूसरेको मार रहे थे। कहीं पर यदि हाथी आ जाते तो एक ही प्रहारमें समाप्त हो जाते | कहींपर तीरोंसे जर्जर मतवाले हाथी घूम रहे थे, कहींपर रक्तसे रंजित थे और उनके टूटे हुए दाँत रिस रहे थे।
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!
३७२
कहिं जें ते सु-लोहिया । कहिं जें आया हुया ।
कहि जे उन्द्र - खण्डयं ।
त तहिं महारणे ।
गलन्त-सोणियारुणे ।
पिसाय गाय-मीमणे | मिलन्त उन्त-वाय मे ।
साव वलुरु वइरि चल धाइड असु लक्षणों
राहवड़ों
तावरण सहुँ धय-धवल मह
पउमचरिउ
अल्पप्पलबा राम । विष्णि त्रि भूगोयर-सार-भूय । घणं सगों इन्द्र पञ्चिन्द पडिय । विष्णि त्रि अप्फानिय चण्ड-चाव। विरिण वि दप्पुहर बहू-रोम । विष्णि व रण- रामालिक्रियङ्ग । from
अवस्थिय मरण सङ्क
रहु-मन्दण-गन्दण-पणन्दगेण । जं पय-वावसुकाणुकरणु ।
गिरि उत्र भाउ - लोहिया ॥६॥ पदन्ति चिन्धया वया ॥ ७ ॥
पचियं कवन्धयं ॥१८॥ भडक मेक- दारुणे ॥
विमुक हक दारुणे ।। १०||
अय- सुर-पीस ॥११॥ सिवाणियन्त-फोक मे ॥ १२॥
घन्ता
जरा उन्तु मज्छौँ सङ्गमहौं । अमल
र रामहीं ||१३||
[14]
"
णं वें मिम्मिय विष्णि काम ||१|| थिय विणि विणा कियन्त दूय || २ || विविण त्रिणिय-मि-रहकरहिं चचिय ॥ ३ ॥ विवि वि अवशेष्यरु पलय-माथ ॥४॥ त्रिवि सुम्सुन्दरि जणिय-तोष ॥१॥ विणि विदुरुज्झियपि सङ्ग ॥ ६ ॥ विधि त्रिपक्यालिय-पाय पङ्क || १||
घन्ता
आयामैंवि विक्रम मा । धणु पाडि लवण कुमारें ||८||
[ 15 ]
धणु अदह छइड रिउ-महणेण || १ || जं विग्गीही पाण-हरणु ||२||
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बालीमो संधि
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कहींपर वे इतने लाल हो उठे जैसे गेरूसे पहाड़ ही लाल हो उठा हो। कहीं पर अश्य आहत थे और कहींपर ध्वजाएँ गिर रही थीं। कहीं उन्नत कबंधोंके धड़ नाच रहे थे। इस प्रकार यह युद्ध एक-दूसरे की भिड़न्तसे भयंकर हो उठा । बहते हुए रक्तसे लाल-लाल दिखाई दे रहा था। 'प्रशित हक्कों' से एकदम भयं. कर हो उठा । पिशाचों और नागोंसे भयकर था । उसमें अनेक तूको ध्यान सुन पढ़ रही थी। स्थान-स्थानपर कौवे मँडरा रहे थे । सियारनियाँ मौसकी ओर धूर रही थीं। इतने में, जब कि संग्रामके बीच शत्रुसेना लड़ रही थी, अंकुश लक्ष्मणके ऊपर टूट पड़ा, और लवण रामके ऊपर ॥ १-१३ ।।
[१५] आपस में लड़ते हुए दोनों ( लवण और राम ) ऐसे जान पड़ते थे जैसे देवने दो कामदेवोंकी सृष्टि कर दी हो, दोनों ही मनुष्योंमें सर्वश्रेष्ठ थे। दोनों ही ऐसे जमे हुए थे जैसे यमदूत हो । मानो स्वर्गमे इन्द्र और प्रतीन्द्र गिर पड़े हों, दोनों ही अपने-अपने श्रेष्ठ रथोंपर बैठे हुए थे। दोनों ही अपने प्रचण्ड धनुष चढ़ा रहे थे। दोनोंका एक दूसरेके प्रति प्रलय भाव था। दोनों ही दर्पसे उद्धत और रोषसे भरे हुए थे। दोनों देवबालाओंको सन्तोष दे रहे थे। दोनों के शरीरोंको युद्धबधूके
आलिंगनका अनुभव था। दुष्टोंके साथसे दोनों कोसों दूर रहते थे। दोनोंने मृत्यु-शंकाकी उपेक्षा कर दी थी। दोनोंने ही पापपकको धो दिया था। इसी बीच विक्रममें श्रेष्ठ, कुमार लवणने धवलध्वजके साथ, रामका थनुष युद्धभूमिमें गिरा दिया ।। १-: ॥
[१६] अरण्यके पुत्रके प्रपौत्र शत्रुओंका वमन करनेवाले रामने दूसरा धनुष ले लिया, जो धनुष प्रलयकालके बालसूर्य के समान था, और जिसने मायावी सुग्रीवके प्राण लिये थे ।
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१७४
सुग्गीषों जेण सु-दिग्ण तार 1 संपवर सरासणुस सह लेवि । रहु खण्डित मी सुपुण ताव ।
उ सारहि आह वर सुरङ्ग । पर्माणि अणकुलवणेण रामु । तो वावरु सम्व-परक्कमेण ।
वण विलक्खीयऍण बलैषि पीबी लग्ग करें
जिह मुक्कु ण कह कोइ वाणु | तिह मुसल गयाणि विह रहनु । लक्खणु षि ताव मणकुण । अमलद पहरणु जं जं जं जें । धणु पाहि पादि भायवन्तु । गणणे तो वोलन्ति देव । हा गड सुरवर पठर-बिन्दु । स्वर - दूसणु लम्बु कुमारु जो वि ।
जगु
जें विरत हरि-वह हु महियलु पायाळगलु
पउमचरि
राज्य मस्तु वः॥२॥ फिर विधाइ परिओसिय सुर समरेश माव णं पारावार हिय तरङ्ग ॥६॥
करेवि ||४||
'तुहुँ जइ उवासँग हुबड खामु ||७|| जिय मिसियर एन जि विक्रमेण ॥ ८ ॥
घन्त्ता
सर-धोरण मुक्क कुमारहों । णं कुछ बहु नियमत्तारही ||१||
[10]
सिंह हन्तु सिह मोग्गरु तिह किवाणु ॥13 तिह अव चि पहरणु र अहङ्गु ||२|| vi रुक्षु महा-गड अङ्कुसेग ||३|| लवणाणु छिन्दइ सं जं तं ॐ ॥ ४॥ हय हयवर सारहि धरणि पसु ॥ ४५॥ 'जिन बाले हिं लक्षण- राम केष' ।। ६ ।। 'हर के विनिसियन्तुि ॥७॥ अण्णेण जिकेण बि पिइड सो वि' ॥ ८ ॥
घन्ता
सिसु-लाइस-पवणुवूड । सलु विकवणङ्कुसिअह
॥९॥
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बासीमा संधि
१७५
जिसने सुमीको उसकी वारा दिलवायी थी, और जिसने रावणको अनेक बार घायल किया था, ऐसे अपने धनुष प्रवरको लेकर, जबतक राम अपने लक्ष्यपर निशाना लगाते, तबतक सीतापुत्र लवणने उनके रथके दो टुकड़े कर दिये । युद्धमें रस लेनेवाले देवता यह देखकर बहुत प्रसन्न हुए । सारथि घायल हो गया और बड़े-बड़े घोड़े उस समय ऐसे लगे जैसे समुद्र से उसकी तरंगें छीन ली गयी हों। अनंग लवणने तब रामसे कहा, "यदि तुम उपवास ( युद्ध के बिना ) क्षीण हो गये हो तो अपने उसी समस्त पराक्रमसे प्रहार करो, जिससे तुमने निशाचर रावणको जीता। तत्र अत्यन्त खिन्न होकर रामने कुमार लवणपर तीरों की बौछार की किन्तु राम के पास वह उसी प्रकार लौट आयी जिस प्रकार कुलवधू अपने पति के पास लौट आती है ।। १-९ ।।
[१७] रामका एक भी तीर कुमार लवणके पास नहीं पहुँच पा रहा था, न हल और न मुद्गल; न कृपाण और न मूसल, न गदाशनी और न चक्र, इसी प्रकार दूसरे- दूसरे अभंग अस्त्र उसके पास नहीं पहुँच रहे थे, राम जो भी अस्त्र उठावे, कुमार लवण उसे ध्वस्त कर देता उसने रामका अस्त्र गिरा दिया, छत्र गिरा दिया, महाश्व मारे गये, सारथि धरतीपर लोट-पोट हो गये। यह देखकर आकाशमें देवता आपस में बातें करने लगे कि क्या ये बच्चे राम और लक्ष्मणको जीत लेंगे। दे मजाक उड़ाने लगे कि क्या युद्ध में निशाचरोंको मारनेवाले दूसरे थे ? जिसने खर दूषण और शम्बूक कुमारको मारा था, क्या वे दूसरे थे ? ( इसप्रकार ) जगको रक्तरंजित करनेवाली राम और लक्ष्मणकी सेना; लवण और अंकुशके साहसरूपी पवनसे शिशुओं की भाँति उड़ने लगो; धरती, स्वर्ग और पाताल में
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१७
पउमचरित
[14]
खरवूसण-रावण-घायण। सो लहर चक्कु गारायणेण ॥॥ सय-सूर-समप्पहु णिसिम-धारु । दसकन्धर-दारणु दससयार ॥ खम-जलण-जाल-माला-रउद्दु। कुण्डलेंवि पाइँ थिउ विसहरितु ।।३।। धवलुजलु हरि-कस्यले बिहाइ। चर-कमलहों उप्परि कमलु णा ॥४॥ आयामधि मलिक लक्षणेण। गउ फरहान्नु णहें सक्रश्योण ।।। आसकिय सुर गर जेऽणुरस । ४३. हि.पा-सुप्रभामट' ।।६।। ति-पयाहिफा गवरसह) ३वि। थिन हरि पडाबज़ करें चडेवि ॥७॥ पडियारउ घत्तिउ लावणेण। परिवारस आइ उ तक्मणेण ।।८।।
घत्ता
हरि आमेलइ अमरिमैण वाहिर-वियु कम तु जिद्द
तहाँ वालही तणा पहावइ । परिभमेयि पुगु पुशु आपइ ।।९।।
[१९] सो सयन-काल-कलिभारएण। आणन्दु पणचिड गारएन । १॥ 'हरि-वलहों एह किर कवण बुद्धि । णिय पुस पवि फहि लरहों सुद्धि॥।॥ गुरु हार वणसरे मुक्क देवि । उप्पण्ण तणय तह एय पि ॥३॥ पहिलारउ पहु अणकलवणु। कुल-मपक्ष जयसिरि-वास-मवणु ।।४।। बीयउ मयणकसु बहु देव । सहुँ आयहुँ पहरहो तुम्हि केव' ॥५||
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बासीमो संधि
१७७
सभी जगह लवण और अंकुशके साहसकी चर्चा हो रही थी ।। १-९ ॥
[१८] लक्ष्मणने तब खर-दूषण और रावणको संहार करनेवाले चक्रको अपने हाथ में ले लिया, जो सौ-सौ सूर्योकी तरह चमक रहा था, जिसकी धार पैनी थी, रावण का अन्त करनेवाले दस आरे उसमें लगे हुए थे, जो क्षयकालकी ज्वालमालाके समान भयकर था, ऐसा लगता जैसे साँप ही लक्ष्मणकी हथेलीपर कुण्डली मारकर बैठ गया हो । सफेद और उबल, जो चक्र लक्ष्मणकी हथेलीपर ऐसा शोभित हो रहा था जैसे कमलके ऊपर 'कमल' रखा हो । लक्ष्मणने उसे धुमा कर मार दिया । वह भी आकाशमें घूमता दृशा गया | रो हार हर दोनों में हरत देवों और मनुष्यों को शंका हो गयी कि अब तो सीतादेवीके दोनों पुत्रोंका अन्त समीप है। परन्तु आशाके विपरीत, वह चक्र लवण और अंकुशकी तीन प्रदक्षिणा देकर वापस लक्ष्मण के पास आ गया । लक्ष्मण ने दुधारा उसे मारा, परन्तु वह फिर लौटकर आ गया । लक्ष्मण बार-बार उस चक्रको छोड़ते उस बालकपर, परन्तु वह उसी प्रकार वापस आ जाता जिस प्रकार बाहरसे सतायी हुई पत्नी घूम-फिरकर अपने पतिक पास आ जाती है ॥ १-२ ।।।
[१९] तब कलह कराने में सदा तत्पर और चतुर नारद आनन्दसे नाच उठे । उन्होंने कहा, "अरे राम और लक्ष्मणकी यह कौन-सी बुद्धि है। अपने ही पुत्रोंको मारकर उन्हें शुद्धि. कहाँ मिलेगी जब सीतादेवी गर्भयती थी, तब उसे बनमें निर्वासित कर दिया गया। वहीं ये दो पुत्र उन्हींसे उत्पन्न हुए। इनमें पहला अनंग लवण है, जो कुलकी शोभा और जयश्रीका का निवास है, दूसरा यह मदनांकुशा है। हे देव ! इनके
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}
१७८
पउमचरिउ
पर
रिसि वयणु सुमेरिया क्लेहिं । अवरुण्डिय चुत्र विहिं वि के त्रि लवणकुस लक्षण-राम मिलिय ।
I
। कम-कमल हैं विजय नाम से वि ॥७ व सायर एकहिं णाइँ मिलिय ||८||
घत्ता
वज्रजषु साह्रै भुभ जुएँ हिँ अवरुपित जागइ-कन्ते । बार-बार पोमाइयड 'महु मिलिय पुत्त पहूँ होन्तेन' ॥
[ ८३ तेअसीम संधि ]
लवणकस पुरें पइसा रैत्रि जिय-रबणियर- महाहवे । देहिं तुजस मोयऍण दिव्षु समोडिड राहण ॥
"
लवणकस कुमार वलहदें । रि-पह मेरि-डि-सङ्कहिँ । रामु अणङ्गल रहे एकहि । वजन थिउ दुम- कारणें । जय जयकारि मड-सहाएं । जगवड रद्द अप माइउ । ऐक्सैवि ते कुमार पइसन्ता ।
[ ]
पुरें पसारिय जय जय सदें ॥१॥ बज्जन्तर्हि अवरेहिं अ-सङ्ग्रहं ॥२॥ लक्खणु मयणङ्कुसु अहिं ॥ २ ॥ वीयान्दु णाइँ गयण ॥ ५ ॥ 'राम सुक्ष मेलाविथ आएं' ॥५॥ एकमेक-चूरन्तु पधाइड ॥ ६ ॥ गाडि वि गणन्ति पर सन्खा ॥७॥
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सोमो संधि
साथ तुम्हारा युद्ध कैसा !" महामुनि नारद के वचन सुनकर राम और लक्ष्मणने अपने हथियार डाल दिये । आकर उन्होंने दोनोंका सिर चूम लिया। वे भी उनके चरणकमलों में गिर पड़े। लवण, अंकुश, राम और लक्ष्मण एक साथ मिलकर ऐसे लग रहे थे मानो चारों समुद्र एक जगह आ मिले हों। सीताके पति रामने वाजंघको अपनी बाँहों में भर लिया। वारन्चार उसको प्रशंसा को कि आपके होनेसे हो मैं अपने दोनों बेटे पा सका ।
१९९
तेरासीव सन्धि
निशाचरोंके महायुद्धको जीतनेवाले रामने अयोध्या में कुमारोंका प्रवेश धूम-धाम से कराया। वैदेहीकी बदनामी से डरे हुए रामने उन्हें समझाया ।
,
[१] रामने जय-जय शब्द के साथ कुमार लवण और अंकुश का नगर में प्रवेश कराया । झल्लरी, पटह, भेरी, दडी, शंख एवं दूसरे असंख्य वाथ बज उठे। एक रथपर राम और अनंगलवण बैठे दूसरेपर मदनकुश और लवण | दुर्दम गजपर वाजंघ बैठा, मानो आकाशमें दूसरा चाँद ही हो । योद्धासमूह ने उसका जयजयकार किया, क्योंकि उसीने रामकी भेंट उनके पुत्रोंसे करायी थी। जनपद दर्षके अतिरेक में अपने अंगों मैं नहीं समा रहा था, एक दूसरेको चूर-चूर करते हुए दौड़े जा रहे थे। नगर में प्रवेश करते हुए कुमारोंको देखने में स्त्रियों
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१८०
सीमा-दण-रूवाकोयणं । का विदेह अहरुलऍ कजलु
पउमचरिउ
विवरेरड णायरिया षणु जग फार्मे को वि ण
उणीव
आयल तहि तेह पमाणे विजाहर मामण्डल - णल-नीलङ्गङ्गय | जे पट्टकिय गाम-पुर-इंस हुँ । गाणा जाण विसा हि श्राय । दि रामु समिति महाउसु । सत्तणो विदिताह सुन्दर । पुणरवि रामों किया अहिन्दन ।
-
लाय का वि अलसउ छोयनें ॥ ४ ॥ काऍ त्रिवति पन्छऍ अखलु ॥९॥
वत्ता
ड
किउ लवणस दंसणेण ।
स सरें कुसुम-सरायण ॥११०॥
[+]
एतख दो पर रहुवइड़ें म पमायहि छोयहुँ छन्दै
सं णिहुणेवि चत्र रहुणन्दणु । जाणमि जिह हरि सुवण्णी । जाणमि जिह जिण सासणे मती
।
चारिय
लक्का हिय कि फिन्ध पुरेसर ||२|| जमय ऋणय-मस्तणय समाय ॥३॥ गय हक्कारा चाहूँ मसेस हूँ ॥ ४ ॥ णं जिण जम्मणे अमर पराय ||५|| दिट्ठ मदणङ्कसु ॥ ६ ॥
.5
व एकहि मिलिय पञ्च णं मन्दर ॥ ७ ॥ घण्णव तुहुँ जसु एहा जन्दन ॥ ८ ॥
घता
6
जं परमेसरि णाहिँ घरे । आत्रि का धि परिक्षा करें ||९||
[4]
'जागमि साय तण सप्तणु ॥११॥ जाणमि जिह वय गुण - संपण्णी ॥२॥
जयमि जिह महु सोक्लुप्यन्ती ५५ ॥
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तेआसीमो संधि
१८१ इतनी व्यस्त थीं कि पास में खड़े अपने पतियों को भी कुछ नहीं समझ रही थीं। सीतापुत्रोंके सौन्दर्यको देखनेकी आतुरतामें कोई स्त्री अपनी आँखों में लाप्यारस लगा रही थी। कोई स्त्री अधरोंमें काजल दे रही थी। कोई अपना आँचल पीछे फेंक रही थी। कुमार लवण और अंकुशके दर्शनोंने स्त्रियों को अस्तव्यस्त बना दिया। ठीक भी है, क्योंकि जब काम कुसुमधनुष
और तीर लेकर निकलता है तो वह किसे अपने वश में नहीं कर लेता ॥ १-१०॥
[२] इस प्रकार तरुणीजनको पीड़ित करते हुए लवण और अंकुशने नगर में प्रवेश किया। सबकी सब भीड़ उनके साथ था। भामण्डल नल, नील, अग, अंगद, लंकाधिप और किकिधराजा भी थे। जनक, कनक और हनुमान भी वहाँ आये। जो और भी ( सामन्त ) प्राम, पुर और देशोंको भेजे गये, उन्हें भी बुलाषा भेजा गया। सब नाना यानों और विमानों में इस प्रकार आये, मानो जिन-जन्मके समय देवता ही आये हों। उन्होंने क्रमशः राम-लक्ष्मण लवण और अंकुशको देखा । फिर उन्होंने शत्रुघ्नको देखा । थे ऐसे लग रहे थे, मानो पाँच मन्दराचल एक जगह आ मिले हों। फिर उन्होंने रामका अभिनन्दन किया, "तुम धन्य हो, जिसके ऐसे पुत्र हैं।" परन्तु इसमें खटकनेवाली एक ही बात है, वह यह कि परमेश्वरी सीतादेवी, अपने घरमें नहीं हैं । लोकापवादमें विश्वास करना ठीक नहीं, इसकी कोई दूसरी परीक्षा करनी चाहिए ॥ १-९॥ ।
[३] यह सुनकर रामने कहा, "मैं सीतादेवोके सतीत्वको जानता हूँ | जानता हूँ कि किस प्रकार हरिवंशमें जनमी । जानता हूँ कि यह किस प्रकार प्रतों और गुणोंसे परिपूर्ण हैं। जानता हूँ कि वह जिनशासनमें कितनी आस्था रखती हैं।
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ሃረ
पवमचरित
जा अणु गुप्ण-सिक्खा-वय-धारी । जाम जिह सायर- गम्भीरी । जाणमि अक्स - लक्षण -जणेरी ।
་་
जामि सस मामण्डल - यहाँ । जाणमि जिह अन्डर-सारी ।
मेल्लेपिणु णायर होऍण जो दुजसु उप्पर घित्तर
तहि अवसर रयणासव-जाएं । बोलाविय सहें वि तुरन्ते । विणि त्र विण्वन्ति पणमन्ति 'देव द्वेष जड़ हुअव हु बज्झ । जद पायाएँ हलोइ । जड़ उप्पज्जड़ मरणु कियन्तीं । ब भरें उग्गम दिवास । एड असेसु वि सम्भाविज ।
जा सम्मत्त रयण-मणि- सारी ॥४॥ जामि हि सुर-महिहर धीरी ॥५॥ जाणमि जिह सुख जणयहाँ केरी ॥ ६३॥ आण ि मामिणि रजहाँ आयहाँ ॥ * ॥ जाणमि जिह मह पेण-गारी ॥ ८ ॥
धत्ता
महु घरें उमा करें चि कर । एउ ण जाहों एक पर' ॥५॥
[ + ]
कोक्किय विषय विहीण-राएं ॥१॥ कासुन्दरि सो हवन्ते ||२||
।
सोय सइत्तण गव्यु वहति ॥ ३ ॥ जड़ मारुड पड पोइहें वह ||१४|| कालान्तरेण कालु जइ विइ ||५|| जड़ गासह सासणु भरहन्तहीँ ॥ ६ ॥ मेरू सिहरें जइ विषसह सायरु ॥७॥ सी सी पुणु मइकिन ॥ ८ ॥
जड़ एक वि ण्ड पत्तिजहि तुल बाउल विस-जल-जलहँ
घत्ता
तो परमेसर एड करें 1 पञ्चहँ एक्कु जि दिनु घरें ॥ ९ ॥
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१८३
तेासीमो संधि जानता हूँ कि वह किस प्रकार मुझे सुख पहुँचाती रहीं । जानता हूँ कि वह अणुन्नतों, शिक्षाप्रतों' और गुणवतो' को धारण करती हैं। वह सभ्यग्दर्शन आदि रत्नोंसे परिपूर्ण हैं, जानता हूँ कि वह समुद्र के समान गम्भीर हैं, जानता हूँ कि वह मन्दराचल पहाड़की तरह धीर है । जानता हूँ कि लवण और
कस, माँ हैं। सामाजि . राजा बाकी कन्या हैं। जानता हूँ कि वह राजा भामण्डलकी वहिन हैं। जानता हूँ कि वह इस राज्यकी स्वामिनी हैं। जानता हूँ वह अन्तःपुरमें श्रेष्ठ है। जानता हूँ वह किस प्रकार आज्ञा माननेवाली हैं। पर यह बात मैं फिर भी नहीं जानता कि नागरिकजनोंने मिलकर अपने दोनों हाथ ऊँचे कर मेरे घरपर यह कलंक क्यों लगाया
[४] इस अवसरपर रत्नाश्रवके पुत्र राजा विभीपणने निजटाको बुलवाया। उधर इनुमानने भी लंकासुन्दरीको चुलवाया। सीतादेवीके सतीत्वके विषयमें एक आस्थापूर्ण गर्वीले स्वरमें उन्होंने निवेदन करना प्रारम्भ किया, "हे देवदेव, यदि कोई आगको जला सके, यति हवा को पोटलामें बाँध सके, यदि पाताल में आकाश लौटने लग जाये, कालान्तरमें यदि काल भी नष्ट हो जाये, यदि कृतान्तको मौत दबोच ले, यदि अरहन्तका शासन समाप्त हो जाये, सूर्य पश्चिमसे निकलने लग जाये। चाहे मेरुपर्वतपर सागर रहने लग जाये, तो लग जाये । अर्थात् इन सबकी समाप्ति की एक बार सम्भावना की जा सकती है, परन्तु सीताके सतीत्व और शीलमें कलंककी आशा नहीं की जा सकी। यदि इतनेपर भी विश्वास नहीं होता हो, तो हे स्वामी, एक काम कीजिए। तिल, चावल, विष, जल और आग इन
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६४
परमचरित
[५] सं णिसुर्णेवि रहुचइ परिश्रोसिख । 'एव होउ' हमारउ पेसिड ॥३॥ गड मुग्गीउ विहीसणु भगाउ धन्दोयर-णादणु पषण उ । पंसिउ पुष्फ-विमाणु पयट्टउ । णं णहयल-सरें कमल विसट्टा ॥३॥ पुण्डरीय-पुरवरु सम्पाय । दिद देचि रहसेण ण माइय ॥४॥ 'जन्द बढ़ जय होहि घिरास । विणि वि जाहें पुतणस |॥५॥ लपवण-राम जेहि भायामिय। सीहहि जिइ गइन्द ओहामिय ॥६॥ रविषय णारएण समस्त। सहि मि ते पइसारिय पट्टणें ॥७॥ अम्हाँ आय तुम्ह-हकारा । दिनहा होन्तु मणोरह-गारा ॥८॥
पत्ता
चटु पुरफ-विमाणे मदारिएँ सहुँ अहि मा परिट्रिय
मिल पुस हूँ पह-देवरहूँ। पिहिमि जेम घड-सायरह' ॥९॥
[६]
तं णिमुणेवि लसणस-मायएँ। वुत्सु बिहोसणु गग्गिर-वायएँ ॥१॥ 'णिटर-हिययहाँ अ-लय-णामह) । जाणमि तत्ति ण किजा रामहौँ ।।२।। घलिय जेण रुबन्ति वणन्सरें। साहणि-रक्खस-भूय-भय करें ॥३॥ जहि सरल-सीह-गय-गपडा। वम्बर-सवर-पुलिन्द-परशा || जहि बहु तच्छ रिका-कर-सम्बर । स-उस-खग-मिग-बिग-लिव-सूयर ।।५।।
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१८५
तेवासीमो संधि
१५ पाँचोंको एक जगह रखिए ॥ १-२॥
[५] यह सुनकर राम सन्तुष्ट हो गये। ऐसा ही हो' उन्होंने आदेश दिया। विभीषण अंगद और सुप्रीव दौड़े गये, चन्दोदर पुत्र और हनुमान भी। भेजा गया पुष्पक विमान आकाशमें ऐसा लगता था मानो नभतलके सरोवरमें विशिष्ट कमल हो। वह पुण्डरीक नगरमें पहुँच गया। सबने देवी सीताको देखा, वे फूले नहीं समाये। उन्होंने प्रशंसा की, "देवी आनन्द में रहो; बड़ो. तुम्हारी जय हो, आयु लम्बी हो, तुम्हारे लवण और अंकुश जैसे बेटे हैं, तुम्हें क्या कमी है। उन्होंने राम और लाहमणको उसी प्रकार झुका दिया है, जिस प्रकार सिंह हाथीको झुका देता है।" उनको समरांगणमें नारदने रक्षा की। अब उन्हें अयोध्यामें प्रवेश दिया गया है। हम तुम्हे बुलाने आये हुए हैं। अब तुम्हारे दिन बड़े सुन्दर होंगे। "आदरणीय आप पुष्पक विमानमें बैठ जाइए और चलकर अपने पुत्र पति और देवरसे मिलिए और उनके बीच आरामसे उसी प्रकार रहिए, जिस प्रकार चारों समुद्रों के बीच धरती रहती है ।। १-२ ॥
[६] यह सुनकर लवण और अंकुशकी माँ सीतादेवी भरे गलेसे बोली, "पत्थर-हृदय रामका नाम मत लो। उनसे मुझे कभी सुख नहीं मिला, मैं यह जानती हूँ | जिसने रोती हुई मुझे हाइनों, राक्षसों और भूतों से भयंकर पनमें छुड़वा दिया, जिसमें बड़े-बड़े सिंह, शार्दूल, हाथी और गेंड़े थे। बर्वर शवर और प्रचण्ड पुलिंद थे। जिसमें तक्षक, रीछ और रुरु, साँभर थे,
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१. अर्थात् जिस प्रकार ये चो में एक साथ नहीं रह सकती, उसी प्रकार
सीताका शील और कलंक एक साथ नहीं रह सकते ।
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पड़मचरिख
जहिं माणुस जीवन्तु वि लुचई। चिहि कलि-कालु वि पाणहुँ मुखइ।।६।। सहि वणे घल्लाविय भण्णाणे। प्रवाहि कि तहाँ तणेण विमाणे ॥४॥
जो तेण हाहु उपाइयउ सो दुकर उल्हाविजय
छत्ता
पिलुणालाव-मरीसिऍण 1 मेह-सएण वि वरिसिएंण ८॥
जइ चिण कारणु राहन-चन्दें। तो वि जामि ल तुम्हहँ छन्द ।।१।। एवं मणेवि देचि जय-सुन्दरि। कम-क्रमलहि अचन्ति वसुन्धरि ॥२॥ पुष्फ-बिमाण चसिय शुर। यिनमा , ३ कोसल-गायरि पराइय जाहि। दिपामगि गइ अस्थय होता हिं। जेस्थहाँ पिययमेण जिम्वासिय। तहाँ उववणहाँ मो आवासिय ॥५॥ कह वि विद्राणु भाणु पहें उपग। अहिमुहु सजण-लोड समागउ ||611 दिई सूरई मङ्गल धोसिउ । पद्दणु गिरवसेसु परिओसिउ ॥७॥ सीय पविट्ठ णिजिट्ट वरासणें । सासण-देवय गं जिग-सासणे 100
घत्ता परमेसरि पढ़म-समागमें इति णिहालिय हलहरेण । सिय-पखहाँ दिबसे पहिल्लएँ चन्दलेह णं सायरेण ॥९॥
[4] कम्त तणिय कन्सि पेपिणु । पमणइ पोमणाहु विहसेप्पिणु ॥१॥ 'मह वि कुलुग्गयाउ गिरवजउ । महिलब हीन्ति सुटङ मिलनड ॥२॥ दर-दाविय-फडकख-विक्खेषउ । कुडिछ-माउ बढ़िय-अवलेवउ ।।३।। बाहिर-धिट्ठल गुण-परिहीण 1 किह सय-खण्ड अन्ति णिहीगउ॥॥
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तेासीमो संधि
१६७ जिसमें साँप, पक्षी, मृग, भेड़िये, सियार और सुअर थे, जिसमें जीवित मनुष्यको फाड़ दिया जाता और जिसमें यम और विधाता भी अपने प्राणों को छोड़ देते । जिसने बिना पूछे मुझे वनमें छुड़वा दिया, अब उनके विमान भेजनेका क्या मतलब ? चुगलखोरों के कहने पर उन्होंने मुझे जो आघात पहुँचाया है, उसकी जलन, सैकड़ो मेवों की वर्षासे भी शान्त नहीं हो सकती।। ५-८॥
[७] रामने मेरे साथ जो कुछ किया, उसके लिए कोई कारण नहीं था, फिर आप लोगों का यदि अनुरोध है तो मैं चलती हूँ।" यह कहकर, जयसे मुन्दर सीतादेवी जब चली तो लगा कि अपने चरणकमलोंसे धरतीकी अर्चना कर रही हैं। वह पुष्पकविमानमें बैठ गयी ! श्रद्धाभावसे भरे विद्यावर इसके चारों ओर थे। सूरज डूबते-डूबते वह कौशलनगरी जा पहुंची। प्रियतम रामने जिस उपवन में उन्हें निर्वासन दिया था, वे उसी के बीच में जाकर बैठ गयीं। किसी प्रकार सवेरा हुआ, आकाशमें सूरज उगा, और सज्जन लोग उनके सम्मुख आये। नगाड़े बज उठे, मंगलों की घोषणा होने लगी। समूचा नगर परितोषकी साँस ले रहा था । सीता निकली, और ऊँचे आसन पर बैंठ गयीं; मानी शासन देवी ही जिनशासनमें आ चंठी हो। अपने प्रथम समागममें ही रामने सीतादेवीको इस प्रकार देखा, मानो शुक्लपक्षके पहले दिन चन्द्रलेखाको समुद्रने देखा हो ॥ १-९ ।।
[८] अपनी कान्ताकी कान्ति देखकर रामने हँसकर कहा, "स्त्री. चाहे कितनी ही कुलीन और अनिन्ध हो, वह बहुत निर्लज होती हैं । भयसे वे अपने कटाक्ष तिरछे दिखाती हैं, परन्तु उनकी मति कुटिल होती है, और उनका अहंकार बढ़ा होता है । बाहर से ढीठ होती हैं, और गुणों से रहित । उनके सौ टुकड़े भी कर
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पउमचरिख
गउ गणन्ति णिय-कुछ मइलम्तड । तिहुअणे अयस-पडहु वजन्सउ |५|| अङ्ग ममोचि धिन्तिकारही। वयणु णिन्ति केम भत्तारहों' ॥३॥ सीय ॥ भीय सइसण-गवें। वलेंवि पत्रोल्लिय मच्छर-गन्वें ।।७।। 'पुरिस मिहीण होन्ति गुणवतरित लिचहें ण पसिजन्ति नरम वि !!
घत्ता खडु लाडु सलिलु वहन्तियाँ रयणापरु खारदेन्तड
पउराणियहें कुलुग्गबहें। हो नि " अक जम्मयहे ।।९।।
[५]
साणु ण कैग वि जणॆण गभिजाइ । गङ्गा-णइहि तं जि पहाइजह ||१॥ ससि स कलातहि जि पह णिम्मल। काकट मेहु नहि जतादि उजल॥२॥ उवलु अपुजण केण वि छिचपइ । तहि जि परिम चन्दणेण विलिप्पइ॥३॥ धुज पाउ पक जइ लग्गइ। कमल-माल पुणु जिगहों बलगाइ।।४।। दीवर हाइ सहावे काला । वहि-सिंह मण्डिमा पालड ॥५॥ गर-पारिहि एण्ड अन्तरु। मरण थि बेल्लि ग मेल्लइ तस्वरु॥६॥ ऍह पई कवण बोल पारम्मिय । सह-बडाय मई अन्जु समुत्रिमय ॥७॥ तुहुँ पंक्षन्तु अच्छु वासस्थउ । उहउ जलणु जई र वि समस्थ॥॥
घसा किं किजा अपणे दिखें जंण वि सुज्झइ महु मणहाँ । जिह कणय-लोलि सहसर अच्छमि म हुआसगहों' ||२||
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तेासीमो संधि
१४९ दीजिए, परन्तु फिर भी हीन नहीं होती। अपने कुलमें दाग लगानेसे भी वे नहीं झिझकतीं और न इस बातसे कि निमुक्न में उनके अयशका डंका बज सकता है । अंग समेटकर धिक्कारनेवाले पतिको कैसे अपना मुख दिखाती हैं।" परन्तु सीता अपने सतीत्वके विश्वाससे जरा भी नहीं डरी। उसने ईया और गर्व से भरकर उलटा रामसे कहा, "आदमी चाहे कमजोर हो या गुणवान स्त्रियों मरते दम तक उसका परित्याग नहीं करती । पवित्र और कुलीन नर्मदा नदी, रेत, लकड़ी और पानी बहाती हुई समद के पास जाती है, फिर भी मन मोहर ताली देनेसे नहीं अघाता ।। ५-५ ।।।
[९] श्वान (कुत्ता) को कोई आदर नहीं देता, भले ही गंगा नदीमें उसे नहलाया जाये | चन्द्रमा कलंक सहित होता है, फिर भी उसकी प्रभा निर्मल होती है । मेघ काले होते हैं, किन्तु उनकी बिजली गोरी होती है। पत्थर अपूज्य होता है, परन्तु उसकी प्रतिमा पर चन्दनसे लेप किया जाता है। कीचड़के लगने पर लोग पैर धोते हैं, पर उससे उत्पन्न कमलमाला जिनवरको अर्पित होती है। दीपक स्वभाषसे काला होता है, परन्तु अपनी बत्तीकी शिखासे आलेकी शोभा बढ़ाता है। नर और नारीमें यदि अन्तर है तो यही कि मरते-मरते भी लता पेड़का सहारा नहीं छोड़ती। तुमने यह सब क्या बोलना प्रारम्भ किया है ? मैं आज भी सतीत्वको पत्ताका ऊँची किये हुई हूँ। इसीलिए तुम्हारे देखते हुए भी मैं विश्रब्ध हूँ। आग यदि मुझे जलाने में समर्थ हो तो मुझे जला दे। और दूसरी बड़ी बातसे क्या होगा, जिससे मेरा मन ही शुद्ध न हो। जिसप्रकार आगमें पड़कर सोनेकी डोर घमक अठतो है, इसीप्रकार मैं भी आगके मध्य बैठूगी" || १-२॥
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पउमचरिउ
[ 10 ]
-
सीय त्रय सुर्णेवि जणु हरिसिउ । उच्चारड रोम परिचित ॥१॥ महुरणराहिव जस लोहड़ हरिसिङ साक्राणु सहुँ बहना तिष्णि वि विष्फुरन्त-मणि- कुण्डल । हरिसिय जणय-कणय- मामण्डल ||३|| हरिसिय लवणङ्कुस दुस्खील त्रि । हरिसिय वजङ्घ-गळ-गील वि ॥४॥ तारन्तरङ्ग - रम्भ-विससेण वि । दहि मुह कुसु- महिन्द्र सुसेण वि ||५|| चन्द्ररासि चन्द्रोयर णन्दण || ६ ||
लङ्काहिच सुग्गीङ्गङ्गय
जम्वत्र पत्र णअय-पयणजय ||७|
लोग्रवाल- गिरि-पहल समुह त्रि । त्रिसहरिन्द अमरिन्द गरिन्द वि॥८॥
१९०
- वक्ख सङ्घ- सन्दण ।
तद्दलोकमन्तर बत्ति पर हियवएँ लुसु वहन्तउ
धत्ता
सलु वि जणवड हारेसियर | रहुबइ एक्कु ण हरियि ॥९॥
[१]
तं जि समस्थित पुणु वएर्वे ||१|| हस्थ- सयाहूँ तिष्णि चड कोणी ॥२॥ काला गुरु चन्दण - सिरिहिं ॥३॥ कञ्चन-भत्र र चङ पास हि ॥ ४ ॥ इन्द-चन्द-रवि-हरि-चम्भा वि ॥५॥ संयि वय-सीएँ उपरि ॥ ६ ॥ इन्द्रुकुतनु ॥७॥ जहि । जइ विरुआरी तो म खमेजहि ॥en
I
मीय जं जे अवलेवें चुन कोक्किय खणय खणाषिय खोणी । पूरियस-लद विच्छ हिं । देवदार कप्पूर- सहार्से हिं । चडि राय आया गिवाण वि । हन्त्रण- पुजें घडिय परमेसरि । 'अहो देवों महु ता सह । जोन अवसार तुमि
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१११
तेआसीमो संधि [१०] सीताके वचन सुनकर जनसमूह हर्पित हो उठा। ऊँचे होकर उसने अएटा मोम किर। राज धुरके यशकी रेखा मिटानेवाले शत्रुघ्नके साथ लक्ष्मण भी यह सुनकर प्रसन्न हुआ। जनक, कनक और भामण्डल भी हर्षविभोर हो उठे। बनके कर्णकुण्डलोंके मणि चमक रहे थे। कठोर स्वभाव लवण और अंकुश भी प्रसन्न थे । वनजंघ,नल और नील भी प्रसन्न थे। तार तरंग रंभ विश्वसेन भी, दधिमुख, कुमुद, महेन्द्र और सुषेण भी, गवय, गवाक्ष, शंख, शकनन्दन इन्द्रपुत्र, चन्द्रराशि चन्द्रोदर नन्दन लंकाधिप,सुग्रीव,अंग, अंगद, जम्बव,पवनञ्जय, पवनांगद, लोकपाल, गिरि, नदियों और समुद्र भी, नागराज, देवराज और नरराज भी प्रसन्न थे। तीनों लोकोंके भीतर जितने भी लोग थे वे सब हर्षित हुए । परन्तु एक अकेले राम नहीं इसे। उनके मन में अभी तक आशंका थी ।। १-९॥ __[११] सीताने जब गर्व के स्वरमें अपना प्रस्ताव रखा, तो रामने भी उसका समर्थन कर दिया। खनक बुलाये गये, और उन्होंने धरती स्त्रोदना प्रारम्भ कर दिया:साढ़े सात हाथ लम्बा चौकोर वह गढढा लकड़ियोंके समूहसे, कालागुरु चन्दन, श्रीखण्ड, देवदार, कपूर आदिसे भर दिया। उसके चारों ओर सोनेके मंच बना दिये गये। राजा लोग अपने अपने थानोंपर बैठकर आये। देवता, इन्द्र, रवि, विष्णु और ब्रह्मा भी वहाँ पधारे । परमेश्वरी परमसती सीतादेवी लकड़ियोंके उस ढेर पर चढ़ गयीं, उस समय वे ऐसी लगी मानो अत और शीलके ऊपर स्थित हों । उन्होंने सम्बोधित करते हुए कहा, "अरे देवताओ
और मनुष्यो, आपलोग मेरा सतीत्व और रामकी दुष्टता, अपनी आँखों देख लें । हे अग्नि (देव), आप जलें, यदि मेरा आचरण अपवित्र है, तो मुझे कदापि क्षमा न करें।" कोलाहल
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'उसमषिद
घत्ता
कि कलयल दिग्गु हुभासणु। महि जं जाय सम-जारिय। सो गाहिं को वितहि अवसर जेण ण मुकी धाइरिय ||५|
[१२] खड-कार-विच्छ-पलित्तएँ। घाहाविष कोसलएँ सुमित्त ॥३॥ धाहाविउ सोमिसि-कुमारें । 'अञ्ज भाय मुअ महु अधियारें ॥२॥ भाहाविउ भामण्डल-जणाएँ हिं! घाहाधिध फवणकुस-ताएँ हिं ॥३॥ धाहाविड़ लकालकारें। पाहाविउ हणुवन्त-मारे १३॥ धाहाविउ सुग्गीक-परिन्दें। धाहाविउ महिन्द-माहिन्द ।।५।। माहाविड सर्वे हि सामन्स हि। रामही घिन्द्धिकार कान्स हि ।।६।। घाहाविउ वदेहि-कएं विहिं। लयासुन्दर-तियवाएविहिं ।।७।। उखु-मुहेण पढिय-सोपं । धाहाचि णायरिएं लोएं ॥८||
घत्ता 'णि? णिरासु मायारउ विय-गारस कूर-मह । पाड जाणहुँ सीप बहेविण रामु कसह कवण गई ॥९॥
[१३] घिउ परपन्सरे कारणु मारिठ। गिरवसेसु जगु धूमधारित ॥१॥ जाउ विपफुरन्ति सहि अवसरें। णं विज्जुलल जलय-जालन्तरें ॥२॥ सीय सहसण गट कम्पिय । 'हुकुहुषु सिहि' एम पजम्पिय ||३॥ 'एहु दे गुण-गाहण-णिवासणु। रहें छह जई सचड में हुभास ॥ गरें रहें जई जिप-मासणु छाडिउ । हें उन्हें जा णिम-गौतु ण मण्डित।।५ यह उहें जइ हर केण वि जणी । सह ग्हें जा धारिस-विहणी ।।६।। है बहें जब मसारहाँ दोही। हें हें जा परमोय-बिरोही ।।
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तेआसामा संधि
१५३ होने लगा, उसीके बीच आग लगा दी गयी। सारी धरती यालाओंकी लपेटमें आ गयो । उस समय एक भी आदमी वहाँ पर ऐसा नहीं था जो दहाड़ मारकर न रोया हो।। १ ।।
[१२] गड्ढे में लक्कड़ों के साहके जलते ही कौशल्या और सुमित्रा रो पड़ीं। लक्ष्मण रो पड़े। उन्होंने कहा, "आज मेरे अविचारसे माँ मर गयो ।” भामण्डल और जनक भी खूब रोये । पुत्र लवण और अंकुश भी फूट-फूटकर रोये । लंका-अलंकार विभीषण रोये, हनुमान भी खूब रोये, राजा सुग्रीव भी रोये, महेन्द्र और माहेन्द्र भी रोये। सब सामन्त वह दृश्य देखकर रो रहे थे और रामको धिक्कार रहे थे। सीतादेवीके लिए विधाता तक रोया, लकासुन्दरी और त्रिजटा भी रोयी । शोका. तुर अपना मुख ऊँचा किये हुए नागरिक लोग भी विलाप कर रहे थे। वे कह रहे थे कि राम निष्ठुर, निराश, मायारत, अनर्थकारी और दुष्ट बुद्धि हैं । पता नहीं सीतादेवीको इस प्रकार होमकर वह कौन-सी गति पायेंगे।। -५॥
[१३] इसी मध्यान्तरमें एक बड़ी घटना हो गयी। सारा संसार धुसे अन्धकारमय हो गया। उसमें ज्वालाएँ ऐसी चमक रही थीं, मानो मेघोंमें बिजली चमक रही हो। परन्तु सीतादेवी अपने सतीत्वसे नहीं डिग रही थीं। वह कह रही थी, "आम मेरे पास आओ, यदि मेरे गुणोंका अपलाप करनेवाला निर्वासन ठीक है, तो तुम सचमुच मुझे जला दो, जला दो। यदि मैंने जिनशासन छोड़ा हो, तो तुम मुझे जला दो, यदि मैंने अपने गोत्रकी शोभा न रखी हो तो मुझे जला दो, जला दो । यदि मैं किसी भी प्रकार न्यून हूँ तो जला दो, यदि चरित्र. हीन होऊँ तो मुझे जला दो, जला दो। यदि मैंने अपने पतिसे विद्रोह किया हो, तो मुझे जला दो, यदि मैंने परलोकसे विद्रोह
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पउमचरित्र बहें ठहें सबल-भुवण-सन्तावणु । जइमई मणेण वि इच्छिउ रावणु'॥८॥ तं एवढ्दु धीर को पाचइ। सिहि सीयलउ होहण पहावर ॥९॥
घत्ता
तहि अवसर मणं परितु कहइ पुरन्दर मुर-बणहाँ। 'सिहि सम है वि ण सकाइ पेक्वु पहाउ सइत्तणही' ॥१०॥
[१४] नाम तरुण-तामरस हि छपणउ। सो में जलणु सरवर उपप्पाउ ||१| सारस-हंस-कोश-कारण् हि। गुमगुमन्त-छप्पय-विच्छ हि ॥२।। जलु अस्थाएँ कहि मि माहउ । मन-सयह रेल्लन्तु पधाइड ॥३॥ णासइ सन्चु लोड सहुँ रामें। सलिलु पबलिड सीयहँ णा ॥१॥ अपाणु वि सहसपसु उप्पण्णउ । दियाएँ श्रासणु णं अवहणउ ॥५॥ ताम मा मणि-कायय-नवपणउ । दिवासणु समुच उप्पगड ॥६॥ तर्हि आणई जण-साहुक्कारिन । सई सुरवर-वहूहि यइसारिय ॥७॥ तहि वेलहि सोहई परमसहि। ण पचव लच्छि कमलोवरि ॥८॥ भाहय दुन्दुहि सुरवर-सस्थें । मेछिड कुसुम-वासु सहै हाथें ॥५॥
घत्ता
जय-जय-कारु पघुड णाणाविह-तूर-महारट
मुह-बयणावण्णण-मस्ति । जाणइन्जसु व पवियरिंग १०॥
जाण
[१५] तो एत्यन्तरे णिरु दीहाउस। सीयाँ पासु ढुक लवणकुस ॥६॥ जिह से तिह विषिण वि हरि-हळहर सिह मामण्डल-प्पळ-वेलन्धर ॥२॥
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टेपार्थी संवे
किया हो, तो मुझे जला दो । यदि मैंने सारी दुनियाको पीड़ा पहुँचायी हो तो मुझे जला दो, यदि मैंने मनसे रावणकी इच्छा की हो तो जला दो मुझे। दुनियामें भला इतना बढ़ा धीरज किसके पास होगा कि आग उसके लिए ठण्डी हो जाये, और वह जले तक नहीं | उस अवसरपर इन्द्र बहुत प्रसन्न हुआ और उसने देवताओंसे कहा, "आग भी आशंकामे पड़ गयी है, यह जल नहीं सकती, शायद सतीत्वका प्रभाव देखना चाहती है” ।। १-१० ।।
[१४] इसी बीच वह आग, नवकमलोंसे ढके हुए सरोचरके रूपमें बदल गयी । सारस, हंस, क्रौंच और कारण्डवीं एवं गुनगुनाते भोके समूहसे युक्त सरोवरका अविश्रान्त जल कहीं भी नहीं समा पा रहा था। सैकड़ों मंचों पर रेलपेल मचाता हुआ बह रहा था । सीता नामसे वह पानी इतना बढ़ा कि रामसहित सबलोगोंके नष्ट होने की आशंका उत्पन्न हो गयी। उस सरोवर में एक विशाल कमल उग आया, मानो सीतादेवीके लिए आसन हो । उस कमलके मध्य में मणियों और स्वर्णसे सुन्दर एक सिंहासन उत्पन्न हुआ। उसपर सुरवधुओंने स्वयं जनाभिनन्दित सीतादेवीको अपने हाथों उस आसन पर बैठाया। उस समय पर - मेश्वरी सीतादेवी ऐसी शोभित हो रही थीं मानो कमलके ऊपर प्रत्यक्ष लक्ष्मी ही विराजमान हों । देवताओंके समूहने दुन्दुभि बजाकर फूलोंकी वर्षा की। शुभ वचनोंसे परिपूर्ण जयजयकार शब्द होने लगा, तूर्योका स्वर जानकीदेवीके यशकी भाँति फैलने लगा ॥१- १०॥
[१५] इतने में दीर्घायु लवण और अंकुश सीतादेवीके पास पहुँचे। उसी प्रकार राम और लक्ष्मण दोनों, भामण्डल, नल
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पउमपरित सिंह सुग्गीव-गोल-मइसायर। निह सुसेण-चिससेण-जसायर ll तिह स-विहीसण कुमुअङ्गमय । अणय-कणय-माह-पवणाय || सिंह गय-वय-पवक्रय-विराहिय । बजजा-ससहण गुणाहिय ॥५॥ तिह महिन्द-माहिन्दि स-दहि मुह । पार-३.२४ रस्म-मधुनुह ॥६॥ तिह महकम्त-वसम्तनविष्पह । चन्दमरीचि-हंस-पहु-दिवरह ।।७|| चन्दरासि सन्ताय गरेसर। स्यणकसि-पीहङ्कर रेयर ||८11 तिह जम्बव-जम्ववि-इन्द्राउह । मन्दहस्थ-ससिपह-तारामुह ॥१॥ तिह ससिवाण-सेय-समुह वि। रहवाम-गन्दा-कुमंद (वि010|| कृच्छिभुत्ति कोलाहल सरक वि। गहुस-क्रियन्तवस-चल-तरल वि ॥१॥
धत्ता अवर वि एक्का-पहागा उर-रोमाञ्च-समुच्छलिय। महिपेय-समाएँ, लच्छिह मयल-दिमा-गइन्द मिलिय ॥१२॥
[१६] तो प्रालिमह राहव-चन्द 'णिक्कारणे खल-पिसुणहै छन् || || जं अवियप् म अवमाणिय। अण्णु चि दुहु एवंड पराणिय ॥२॥ तं परममरि महु महसे नहि। एक-वार अवराह खमेमहि ॥ २ ॥ भाउ जाहुँ वर-वासु गिहालहि । सयलु विणिय परियणु परिपालहि ।। पुप्फ-विमाणे चहि सुर-सुन्दरें। वन्दहि जिग-भवणइ गिरि-मन्दरें ।। ५ उबवण-गहउ महरह-सरवरें। खेत्तर कापदुम-कुलगिरिषरें ॥६॥ णन्दणवण-कागाइँ महायर। जगवन-वेद-दीव-रयणायर ॥७॥
घत्ता मणे घहि एउ महु बुसल मरछरु सबलु वि परिहरहि । सह जिह सुरवइ-संसग्गिएँ णीसावण्णु रजु करहि' ॥८॥
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तेआसीमो संधि और बेलंधर, सुप्रोष नील और मतिसागर, सुसेन, विश्वसेन और जसाकर, विभीषण, कुमुद और अंगद, जनक, कनक, मारुति और पवनञ्जय, गय. गवस, गवान और विराधित, वनजंघ, शत्रुघ्न और गुणाधिप, महेन्द्र, माहेन्द्र, दधिमुख, तार, तरंग, रंभ, प्रभु और दुर्मुख, मतिकान्त, वसन्त और रविप्रभ, चन्द्रमरीची, हंस, प्रमु और हदरथ, राजा चन्द्रराशिका पुत्र रतनकेशी और पीतंकर, विद्याधर. जम्म, जाम्बव, इन्द्रायुध, मन्द, हस्त, शशिप्रभ, तारामुख, शशिवर्धन, श्वेतसमुद्र, रतिवर्धन, नन्दन और कुन्देदु, लक्ष्मीभुक्ति, कोलाहल, सरल, नहुष, कृतान्तपत्र और तरल ये सब उस अवसरपर यहाँ पहुँचे |
और भी दूसरे रोमांचित हृदय, एक-एक प्रधान भी, आकर मिले मानो लक्ष्मीके अभिषेक समय समस्त दिग्गज ही आकर मिल गये हों ॥ १-१२ ॥ _[१६] तब राघवचन्द्र ने कहना प्रारम्भ किया, "अकारण दुष्ट चुगलखोरोंके कहनेमें आकर, अप्रिय मैंने जो तुम्हारी अवमानना की. और जो तुम्हें इतना बड़ा दुःख सहन करना पड़ा, हे परमेश्वरी, तुम उसके लिए मुझे एक बार क्षमा कर दो, आओ चले । तुम घर देखो और अपने सब परिजनोंका पालन करों, देवताओंके सुन्दर पुष्पक विमानमें बैठ जाओ, मंदराचल और जिनमन्दिरोंकी वन्दना करो। उपवन, नदियों
और विशाल सरोवरोंसे युक्त कल्पद्रुम, कुलगिरि पर्वतपर, और जो दूसरे क्षेत्र हैं, विशाल नन्दनवन और कानन, जनपद वेष्टित द्वीप तथा रत्नाकर आदिकी यात्रा करो। मेरा यह कहा अपने मनमें रखो, समस्त' ईर्ष्याभाव छोड़ दो, इन्द्र के साथ जैसे इन्द्राणी राज्य करती है, उसी प्रकार तुम भी समस्त राज्य करो ॥ १-८॥
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पउमचरिउ
[10]
तं गिबि परिचत्त सहिऍ । "अहो राहब में जाहि बिसायौं ।
को सकइ णासहँ पुराइड । व महूँ विदेस णिउसी । बहु-वार तम्बोलु समाणिउ । बहु चार पयडिय बहु- मोग्गी।
एव जम्पिट पुणु वइदेशिऍ ॥ १ ॥ णषित दोसु ण उण साय हों ॥ २॥ भव भव सहि विणासिय धम्महों। सभ्तु दोसु ऍड दुहिय-कम्महों ॥ ३ ॥ जं अलग्गज जीनहुँ आइ ||४|| तुज्झु पसाएं वसुमइ भुती ॥५॥ इहलोइड सुहु सबलु विमाणि ॥६॥ पहुँ सहुँ पुष्क- विभाणे बग्गी ॥७॥
१९८
दानवा
|
एवहि तिह करेमि पुणु बहुबइ ।
महु विषय सुहिं पात्त वणी भव-संसारहों
बहुपमण्डि || || जिहण होमि परिचारी तियमइ ||९||
धत्ता
छिन्दमि जाह-जरा-मरणु । लेमि अजु धुधु तव चरणु' || 1 ||
[16]
८
एमताएं ऍड वयणु चत्रेष्पिणु । दाहिण करेंण समुप्पादेपि ॥१॥ णिय- सिर-चिरविलीयान्वहों । पुरज पवत्रिय राव चन्द || २ || केस विवि लो षि सुखं । पडिउ नाइँ तरुवरु मरु-भाइ ॥ ३ ॥ महिहिं णिष्णु सुड्डु विशेषणु । जाय कह वि किर होइ सन्धेयणु || ४ || ताव गियन्त जिण-पय-सेवहँ बिनाहर भूगोयर देवई ॥ ५॥ सीयऍ सोल- तरण्ऍ थाएँवि । पासँ सम्बभूलण सुणिनाददों । नाम तुरिव तव-भूसिय विगाहु ।
छ दिक्स रिसि-आसमें जाएँषि ॥६ मिस - केवल गाण - सनाइहाँ ॥७॥ मुह-सम्ब-पर-वरथु-परिग्गहु ||८||
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तमासामो संधि [१७] यह सुनकर स्नेहका परित्याग करनेवाली वैदेहीने कहा, "हे राम, आप व्यर्थ विषाद न करें, इसमें न तो आपका दोप है, और न जनसमूहका, सैकड़ों जन्मोंसे धर्मका नाश करनेवाले खोटे कर्मोका यह सब दोप है । जो पुराना कर्म जीव के साथ लगा आया है उसे कौन नष्ट कर सकता है । हे राम, मैंने आपके प्रसादसे नाना देशों में बंटी हुई धरतीका उपभोग कर लिया है। बहुत बार मेरा पानसे सम्मान हुआ है। मैंने इस लोकका समस्त सुख देख लिया है। बार-बार मैंने तरह-तरहके भोग भोग लिये हैं। आपके साथ पुष्पक विमानमें बैठी हूँ। बहुत बार भुवनान्तरों में भी हूँ। अपने आपको बहुभिध अलंकारोंसे सुशोभित किया है। हे आदरणीय राम, अबकी बार ऐसा करूँ, जिससे दुबारा नारी न बनूं। मैं विषय सुखोंसे अब ऊब चुकी हूँ | अब मैं जन्म जरा और मरणका विनाश करूंगी । संसारसे विरक्त होकर, अब अदल तपश्वरण अंगीकार कलंगी 1१-१०॥
१.] इस प्रकार कहकर तब सीतादेवी ने अपने सिरके केश दायें हाथसे उखाड़कर त्रिलोकको आनन्द देनेवाले श्री राघवचन्द्रके सम्मुख डाल दिये। उन्हें देखकर राम मूर्छित होकर धरतीपर गिर पड़े, मानो हवासे कोई महावृक्ष ही उखड़ गया हो। वह अचेतन धरतीपर बैठ गये। वह किसी तरह होशमें आयें; इसके पहले ही झीलकी नौकासे युक्त सीतादेवीने जिनचरणोंके सेवक देवताओं और मनुष्योंके देखते-देखते, ऋषिके आश्रममें जाकर दीक्षा ग्रहण कर ली। उन्होंने केवलबानसे युक्त सर्वभूषण मुनिके पास दीक्षा ली । तत्काल उन्होंने सब चीजोंका परिग्रह छोड़ दिया, अब उनका शरीर तपसे विभूषित था।
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२००
पउमचरित
पत्ता एल्थन्तर घलु उग्मुच्छियर जो रहु-कुल-आयास-रवि । तं भासणु जाप णिहालइ जणय-तणय सहि ताव ग वि ॥९॥
[१९] पुणु सम्बाद दिसाउ णियन्तउ । उद्विउ 'केसहें सीय' भणन्तउ ॥१॥ केगा वि स-त्रिणएण तो सीसइ । 'पवरूजाणु एउजं दीसह ।।२।। इह गिय-सुर हि सुसीलालतिय । मणि-पुङ्गवहाँ पासु दिक्षत्रिय' ।।३।। सं शिसुणेवि रहु-णन्दणु कुछ। जुभ-खएँ णा कियन्तु विरुदउ ॥४॥ रत-णेनु भउहा-भङ्गुर-मुहु । गउ नहीं उजाणहाँ सचमुहु ॥५॥ गएँ आरूह मच्छर-मरियडं। पछु-विजाहरेहि परियरियड ||३|| इकिमय-ससि-धवलायवचारणु। दाहिण-करें कय-सीर-पहरण ||७|| 'जं किंउ चिरु मायासुग्गोषहों। जं लावणेण समर वहगीयहाँ ॥८॥ न करेमि वढिय-अवलेवह। वासव-पमुह-असेसहँ देवई' ॥१|| सहुँ णिय-मिझेहि एव चवन्त छ । सं महिन्द-जन्दगवणु पसल !!३०॥ पश्येत्रि गाणुप्पण्णु मुणिन्दहीं। विलिउ मच्छरु सयलुणरिन्दहीं ।।
पत्ता
ओयावि महा-गप-सन्धहों पहिण देवि स-गरवण । कर मडकि करवि मुणि पन्दित पय-पिरेण सिरि-हलहरेंग ॥२॥
[२०] जिह तें तिह वन्दिउ सागन्दै हि । लक्लग-पमुह-अखेस-परिन्दै हि ।।३॥ दिवसीय सहि राहन-पन्दें। णं तिहुमण-सिरि परम-झिणिन्दै ४२॥ मसि-धवलम्बर-जुवलालकिय। महि-णिघिट्ट छुबु फुलविक्सक्रिय ||
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नेत्रासीमो संधि
२०१
इसके अनन्तर, रघुकुल रूपी शाकाशने सूर्य राम मासे उठे। उन्होंने जाकर आसन देखा, परन्तु सीतादेवी वहाँ नहीं थी ।।१-९॥
[१९] वे सब ओर देखते हुए उठे, वे कह रहे थे, "सीता कहाँ हैं, सीता कहाँ है"। तब किसी एकने विनयपूर्वक उन्हें बताया- “यह जो विशाल उद्यान दिखाई देता है, वहाँ शीलसे शोभित सीतादेवीने देवताओंके देखते-देखते एक मुनिश्रेष्टके पास दीक्षा ग्रहण कर ली है।" यह सुनकर, राम सहसा क्रुद्ध हो उठे । मानो युगका क्षय होनेपर कृतान्त ही विरुद्ध हो उठा हो । उनकी आँखें लाल थीं, मुख भौंहोंसे भयंकर था। वह उद्यानके सम्मुख गये। ईर्ष्यासे भरकर वह हाथीपर बैठ गये । वह बहुत-से विद्याधरोंसे घिरे हुए थे । ऊपर चन्द्र के समान धवल आतपत्र था। दायें हाथ में उन्होंने 'सीर' अन ले रखा था। वे अपने अनुचरों से कह रहे थे “जो मैंने माया सुपीवके साथ किया, और जो लक्ष्मणने युद्ध में रावणके साथ किया, वहीं मैं इन्द्र प्रमुख इन घमंडी देवताओंका करूंगा"। रे उस महेन्द्रके नन्दन वनमें पहुँचे । वहाँ केवलज्ञानसे युक्त महामुनिको देखकर उनकी सारी ईर्ष्या काफूर हो गयी। वह महागजसे उतर पड़े । श्रेष्ठ नरों के साथ, दोनों हाथ जोड़कर श्रीरामने प्रदक्षिणा दी और तब नतसिर होकर उन्हें प्रणाम किया ॥१-१२।।
[२०] रामकी ही भाँति लक्ष्मणप्रमुख अनेक राजाओंने आनन्द और उल्लाससे महामुनिकी धन्दना की। फिर रामने सीतादेवीके दर्शन किये, मानो महामुनीन्द्रने त्रिभुवनकी लक्ष्मीको देखा हो। वह चन्द्रमाके समान स्वच्छ वस्त्रोंसे शोभित थीं। धरतीपर बैठी हुई थी, अभी-अभी उन्होंने दीक्षा ग्रहण की
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२०६
मी
पुणु णिम-जस-भुवण-तम-धवलें। सिर-सीहरोवरि-किय-कर-कमलें ॥ पुच्छिन्ड वलण 'अण-वियारा। परम-धम्म वजरवि मशारा' ॥५|| सेण वि अहिउ सम्वु सङ्ख। मरईसाहाँ जेब पुरएवें ॥६॥ तव-चरित्त-वय-दसण-पागई। पञ्च वि गड् जीव-गुणथाण ॥७॥ खम-दम-धम्माहम्म-पुराणहै। जग-जीयुरछाउ-पमागाई ।।८।। समय-पल-स्यणायर-पुम्बई। बन्ध-मोक्व-लेसर वर-दम्बा ३९||
घत्ता आयइँ अबरई वि भसेसई कहियई मुणि-गण-सारऍण । परमागमें जिह उरिट्ठाई आसि सयम्भु-मडारण ॥९॥
इय पउमचरिय-सेसे। सयम्भुवस्स कह वि उवरिए । तिहुवण-सयम्भु-रइए। समाणियं सीय-दीव-पम्वमिणं ॥१॥ वन्दइ-आसिय-तिष्टुभण-सयम्भु-का-कहिय-पीमचरियस्स । सेसे भुवण-पगासे ।
तेश्रासीमो इमो सग्गो १२॥
कहायस्स विजय-सेलियस्त । विस्थारिओ जसो भुषणे । विहुण-संयम्भुणा। पोमचरियसेसेण हिस्सेसी ॥३॥
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तभासीमो संधि
२०३ थी। अपने यशसे दुनियाको धवलित करनेवाले रामने अपने करकमल सिरसे लगा लिये, और विनयपूर्वक पूछा, “हे आदरणीय, धर्मका स्वरूप समझाइए"। तब उन्होंने भी संक्षेपमें वही सब कहा, जो आदि जिनभगवान्ने भरतसे कहा था। तप, चरित, व्रत दर्शन, ज्ञान, पाँच गवियाँ, जीव गुण स्थान,क्षमा, दयादि धर्म, अधर्म, पुराण, जग, जीव, उच्छेद आयुप्रमाण, समय पल्य, रत्नाकर पूर्व, और दिव्य बन्ध मोम और लेझ्यार, इन सबका उन्होंने वर्णन किया। ये, और दूसरी समस्त बातें मुनियों में सर्वश्रेष्ठ उन सर्वभूषण मुनिने उसी प्रकार बतायी जिस प्रकार ऋषभ भगवानने परमागममें बतायी हैं ॥१-२०।।
महाकवि स्वयंभूसे किसी प्रकार बचे हुए, पनचरितकं शेषमागमें ग्रिभुवन स्वयंभू द्वारा रचित, सीतादेवीकी प्रत्रज्या नामक आदरणीय
पर्व समाप्त हुआ |३॥
'बन्द' के आश्रित त्रिभुवन स्वयं कवि द्वारा कथित पद्मचरितको
भुवन प्रसित शेषमागमें यह तेरामीची सगं समाल हुआ |
विजय शेष, कत्रिराज स्वयंभूका यश, त्रिभुवन स्वयंभूने पद्मचरितका
शेषभाग लिखकर संसारमें प्रसारित किया ॥२॥
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[ ८४. चउरासीमो सन्धि ] पणवेंषि बुत्तु विहीण । किं जें हिय रावण ॥
}
एत्थन्तरे सविस
'क मुणिवर सीय महासइ
।
अष्णु वि जिय रयनिय राहवेण कहें गुरु किन सकिर काइँ एण अणुवि धारार-वस- सारु । दसकन्धरु तरणि व दोस- चत्तु । जो ण वि श्रायामिड सुरवरेहिं । सो दहमुद्दु कमल-दलक्खणेण । मेल्लेपणु यि मायरु महन्तु । हि भामण्डलु सुग्गी पहु |
[
सं किसुणेपिणु हय-मयर | 'इह जम्बूदीवहीँ अमन्तरें ।
जिम्मन्त राहवेण ॥ १ ॥ एवढ पटुप जेण ॥२॥ परमागम जलणिहि विराय-पारु ॥३ किह मूड पेक्खचि पर-कलत्तु ||४|| बिसहर- विज्जाहर णरवरेहिं ॥ ५॥ सिंह र विणिवाइड लक्खणे ||६|| हउँ कि हरि वह सणेहवम् ॥७ ॥ रामोत्ररि बड्डिय-गरुअ-हु ॥८॥
धत्ता
अण्णा भने जपयों दुहिआएँ काहूँ किय गुरु-दुकियहूँ । पल महन्त दुक्ख सयहूँ ||९||
जे जम्मही लगों व दुस्सहइँ
[ * ]
कहइ सयलभूलणु धम्मन् ॥३॥ भरत दाहिण- कन्दरें ॥२॥ चडाउ गाई कोडीसरु ॥३॥ णं धणयाँ वणएवि मनोहर || ४ || पुणु वसु वीज दिहि-गार ||५|| अवरु पुरं वणिवरु ॥६॥
मरिणयद वणीसह । वहीं सुणन्द्र पिय पीण-पत्रहर तहाँ दस पुरा पहिकारत
तहाँ जण्णव लि-णार सुहि दिववरु । सायद
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चौरासीबों संधि इसके अनन्तर, मुनि सकलभूषणको प्रणाम कर विभीषणने पूछा, “हे मुनिवर, बताइए. रावणने महासती सीता देवीका अपहरण क्यों किया?"
[१] और यह भी बताइए, निशाचर-युद्धके विजेता राघव ने उस जन्ममें क्या पुण्य किया था, जिससे उन्हें इस जन्म में इतनी अधिक प्रभुता मिली। यह भी बताइए कि निशाचर वंशमें श्रेष्ट परमशास्त्र-रूपी समुद्रके वेत्ता रावण, जो कि सूर्य के समान स्वयं निर्दोष है, दूसरेको स्त्रीको देखकर क्यों मुग्ध हो गया । बड़े-बड़े देवता नागराज और विद्याधर जैसी बड़ी-बड़ी शक्तियाँ, जिस रावणको नहीं जीत सकी, उसे कमल नयन लक्ष्मणने कैसे परास्त कर दिया। मैं स्वयं अपने भाई रावणकी अपेक्षा राम और लक्ष्मणसे इतना प्रेम क्यों करता हूँ: दूसरे जन्ममें सीता देवीने ऐसा क्या भारी पाप किया था जिसके कारण उसे इस जन्ममें सैकड़ों दुःख झेलने पड़े ।। १-९ ।।
[२] यह सुनकर कामका नाश करनेवाले धर्मध्वज सकलभूषण महामुनिने कहा, "जम्बूद्वीपके भरत क्षेत्रके भीतर, दक्षिण दिशामें क्षेमपुरी नगरी है। उसमें नयदत्त नामका श्रेष्ठ बनिया था। त्यागकी पताकामें बह कोटीश्वर था) उसकी पीन पयोधर सुनन्मा नामकी पत्नी थी, मानो कुबेरकी सुन्दर पत्नी धनदेवी हो । जसका पहला बेटा धनदत्त था, दूसरा भाग्यशाली पुत्र वसुदत्त था। उसी नगरमें यशवलि नामका पण्डित द्विजवर था। सागरदत्त नामका एक और बनिया था। उसकी
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२०६
पउमचरिउ
सह गुण
रयण-पिब-हिणि घन्तर । सुभ सुड गुगवन्तड ॥७॥ विणि ष णव जण पायडियाहूँ | सुरवर इव छु सम्यहाँ पडियहूँ ||४|| एक-दिवसें परमुत्तम-सत्तें ।
सायरदत्तु बुत्तु णत्रदतें ॥ ९ ॥
"तरुणीयण-मण- घरा-घेण जुह तगिय तय धणदसह
घन्ता
अहिणव- जोध्वणधाराहों । दिज सुबह महाराों" ॥॥१०॥
[2]
सुर्णेवि वडिय - अणुराएं । तो पुरै तर्हि जे अवरुणिरु बहु-अणु सिरि-कन्तु व सिस्क्रिन्तु पसिन् । हा जण सुय देवि समिच्छइ एह वत्तणिसुर्णे विवसुदन् । सुहि-जष्णव लि-दिष्ण उचएसँ । फुरिय-- ओम वयर्णे । गिरणीसह चले संचारें । मन्दिर पासुजाण पमाइड । आयामें वि भहड असि धाएं । ते वि दुणिरिख तिक्खर्गे ।
दिग्ण वाय तह गुणव-साएं ॥११॥ वणि-वणुरुहु कुमारिण्हण मणु ॥ २ ॥ वर- सिय-सम्पय रिद्धि-पसिद्ध ॥२॥ । श्रोषधयाँ चिर-वरहों न इच्छइ ॥४॥ पढम-सहोयर- अणयाणन्ते ॥ ५५ ॥ परिहिय णव जळयासिय वा ॥ ६ ॥ «fà¤-1-4-×5(-naï ||0|| सिहि-सिंह-हि-असिवर-फरगणु स्यणि-समऍ सम्माड ||९|| णाइँ महीहरु असण-शिहाएं ॥ १० ॥ ताडिउ भन्दा णन्दणु खर्गे ॥११॥ विणि विवण-वित्तिरुहिरोलिय । णं फग्गुणे पलास फुलिय ॥ १२ ॥
रधारे ॥८॥
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चउरासीमो संधि
२०. प्रिय पत्नीका नाम रत्नप्रभा था। उसकी एक गुणवती लड़की
और एक गुणवान् लड़का था। दोनों ही नवयौवनकी देहली पर पैर रख चुके थे जो ऐसे लगते थे. मानो देवता ही स्वर्गसे आ टपके हों। एक दिन उदाराशयवाले नयदत्तने सागरदत्तसे पूछा-"नवयौवनाओंके मनरूपी धनको चुरानेवाले, अभिनव यौवनसे युक्त, मेरे बेटे धनदत्तको अपनी कन्या दो" ॥१-१०||
[३] यह सुनकर गुणवतीके मनमें अनुराग उमड़ आया। उसने वचन दे दिया। उस नगरमें एक और बनियेका चेदा था, उसके पास बहुत धन था, और वह उस कन्यासे विवाह करना चाहता था। वह श्रीकान्त विष्णु के समान श्रीसे सम्पन्न था। उत्तम श्री सम्पदा और वैभवमें वह विख्यात था । गुणप्रतीकी माता उसे अपनी लड़की देना चाहती थी। वह पुराने वरको कन्या देने के पक्ष में नहीं थी, क्योंकि उसके पास पैसा थोड़ा था।" इस बातका पता बसुइलको लग गया। पण्डित यशवलिके उपदेशके प्रभावमें आकर अपने बड़े भाईको बिना बताये ही उसने नवमेघके समान काले वस्त्र पहन लिये । उसके दाँत, ओठ और जबड़े चमक रहे थे। कपोल हिल रहे थे, आँखें, भ्रभंगसे भयानक लग रही थीं। वह निःशब्द चुपचाप जा रहा था | उसके हाथ में तलवारकी धार आगकी ज्वालाके समान चमचमा रही थी, वह पागल पासके उद्यानमें रातके समय गया । उसने अपनी तलवारसे श्रीकान्तको उसी प्रकार आहत किया, जिस प्रकार बनके आघातसे पहाड़ आहत हो जाता है। श्रीकान्तने भी दुर्दर्शनीय, तीखी धारवाली तलवारसे नन्दाके पुत्र वसुदत्तको आइत कर दिया। दोनों वणिक पुत्र खूनसे लथपथ होकर उद्यानसे निकलते हुए ऐसे लग रहे थे, मानो फागुनके महीनेमें टेसू फूल उठा हो। इतने में वे दोनों
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२०८
परामचरित
तो ताव एव महु-मच्छर जुजिाय उप्रिय-मरण-मय । जापाप विहि मि सम-बाएँ हि बिहुर कु-मिच व मुवि गय ॥१३॥
[४]
पुणु उमङ्ग-विसाल-पईहर। जाय वे वि मिग विश्न-माहीहरें ॥१॥ धणदत्तु वि गुणवई अ-लइन्तउ। माइहे तणउ दुक्नु अ-सहन्तउ ॥२॥ मुबि णियय-घरु सुट्ट रमाउनु । गट पुरवरही देस-भमणाउलु ||३|| चाल विपिन-मणे तहाँ भणुरती । सयकावर वर वर विरती ॥ धणदत्तहाँ गम विच्छाइय। जणणे अषण णिभीयहाँ लाइय ||५|| छाइय अइसउद-परिणाम । सिहि व पलिप्पइ साहुहुँ णामें ||६|| णियवि मुणिन्द-रूयु उवहासइ। कहुयक्खर-सर-वयणई भासइ ॥७।। अकोसह जिन्दइ णिमच्छई। जहण-धम्म सुइणे विण इच्छह ॥८।।
घचा
बह-काले अह-माणेण उप्पण्ण तेथु पुणु काणणे
पुण्णाउस अवसाणे मय । जहि वसन्ति ते ये वि मय ।।१।।
मास्य-वाइण-हरिण-समाणा! विणि वि मिग पुण्यात पमाणा ||१|| सहि पि हा कारण विजो दि । मरणु पर अवरोप्पर जुज्झै वि ॥२॥ माय महिस जम-महिस-मयकर । पुणु बराह अषणोषण-संयङ्कर ।।। पुणु प्राण-गिरिसारुक्ष महागय। कग्ण-पवण-सहाधिप-छप्पय ॥४॥
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सोमो संधि
२०५
atrer डर छोड़कर और मत्सरसे भरकर एक दूसरेसे जा भिड़े । आपसके एक-से आघातसे एक दूसरेके प्राण खोटे अनुarat भाँति छोड़कर चले गये ।। १-१३ ।।
[४] मर कर वे दोनों विशाल ऊँचे और लम्बे विध्याचल में हरिण कर उत्पन्न हुए। धनदत्त को एक तो गुणवती नहीं मिली, दूसरे वह भाईके मरनेका दुःख सहन नहीं कर सका, स्त्रीके दुःख से व्याकुल होकर वह घर छोड़कर चल दिया अपने नगर से दूर वह देशान्तरों में भ्रमण करनेके लिए निकल पड़ा । कन्या गुणवती भी मन ही मन धनदत्त में अनुरक्त थी। यह दूसरे बढ़िया से बढ़िया अनुरोधजद विदेश गमनसे वह इतनी व्याकुल हो उठी कि पिता जब किसी योग्य वरसे विवाहका प्रसंग लाता, तो यह अत्यन्त रौद्र भावसे भर उठती | सबका नाम सुनकर आपकी तरह भड़क aadi | किसी मुनिका रूप देखती तो उसका मजाक करने लगती और कडुवे लाखों वचन बोलने लगती । वह गुस्से से भर उठती, निन्दा करने लगती, झिड़कती और जैन धर्म उसे स्वप्न में भी अच्छा नहीं लगता। बहुत समय तक इस प्रकार वह आर्तध्यानमें लगी रही, फिर आयुका अवसान होने पर वह मर गयी । अगले जन्म में वह उसी जंगल में उत्पन्न हुई जहाँ वे दोनों मृग थे ।। १-९ ॥
[५] मारुतवाहन हरिणोंके समान, दोनों मृग पूर्णायुके थे । वहाँ भी वे (उसों गुणवतीके कारण ) आपस में बिरुद्ध हो गये, और एक दूसरे से लड़कर मरणको प्राप्त हुए। और यममयि के समान भयंकर महिष हुए और फिर एक दूसरेके लिए विनाशकारी वराह हुए। फिर अंजनगिरिके समान मारो महागज बने, जो अपने कानोंसे भौंरोंको उड़ा रहे थे। फिर वे शिव
१४
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२१.
पउमचरित
पुण ईसाण-विसोरु-शुरन्धर । उण्ण-कभ थोर-थिर-कन्धर ।।५|| पुणु विमदंस घोर पुणु वाणर। पुणु विग पुणु कसणुजल मिगषर ॥६॥ पुणु णाणाविक अवर वि थलयर । पुणु कमेण णहयर पुशु जलयर ।।७। भइ-सह-दुक्खर विसहन्ता। एकमेक-सामरिस-वहन्ता ॥६॥
भवें एव भमम्ति भयका में कजें जर्गे रिण-वइरहै
घत्ता
पुज-बहर-सम्बन्ध-पर । जोण कुणइ स(?) वियपर ।।९।।
[
]
तो धणदत्तु वि सुट्टग्माहिउ । मल-यूसर तिस-भुक्तहि वाहिट ||१४ देस देसु असेसु ममन्तउ। दूरागमण-परीसम-सन्तड ॥२॥ पत्त जिणाला रयणिमुहारें। लग्गु चवेव गिरिसदमन्तरें ॥३॥ "अहो अहोंसुकिय किय पध्वड्यहो। म तिस-छुह-महयाहिं लइयहाँ ॥४॥ दे कहि मि बह अग्धि जलोसहु । जं कारणु महन्त-परिश्रोसही" || विहसें वि चवह पहाण-मुणीसरु । “सलिलु पिपवएँ को किर भवसा ।। भूट हियत्तणेण सउ सील। जहिं श्रन्धारऐं कि पि ण दीसह ॥७॥ सूरथवणही लग्गघि दिव-मणु। जहि भविय-यणु ण भुभाइ भोयणु ।। जहि पर-गोयह अस्थि पहअहँ । पेय-महागह-दाइ णि-भूअह ॥१॥
घत्ता
सह-पोखियह मि घर-वाहिर इय सम्वरि-समएँ दुसरें
गलहजइ ओस वि जहिं । कह परिपिजह सलिल नहिं ।।।
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घरासीमो संधि के नन्दीकी तरह बैल बने उनकी काँधोर ऊँची थी, और कन्धे मजबल ओर मोटे थे। फिर ने गाँप रने, और नव मन्दर, फिर वे मेंढक बने, और फिर काले चिकने हरिण, फिर और दूसरे प्रकारके थलचर बने । फिर क्रमसे दूसरे-दूसरे नभचर और थलचर जीच बने। इस प्रकार वे अत्यन्त दुःसह दुखोंको सहन करते रहे। फिर भी उनका एक दूसरंके प्रति ईर्ष्याका भाव बना रहा। इस प्रकार पुरवले वैरके सम्बन्धसे वे भयंकर संसारमें भटकते रहे, इसलिए संसारमें सबसे बड़ा पण्डित वह है जो किसीके प्रति भी वैर-भावका ऋण धारण नहीं करता ॥ १-९॥
__ [६] इधर धनदत्त भी अत्यन्त व्याकुल होकर मलसे धूसरित और भूख-प्याससे पीड़ित होकर देश-देशमें भटकता फिरा। काफी दूर-दूर तक भद करेके श्रमसे वह थक चुका था। सन्ध्या समय उसे एक जिनालय मिला । उसे देखते हो, वह एक ही पलमें बड़बड़ाने लगा, “अरे पुण्य प्रिय प्रत्रजित मुनियो, मेरी इन भूख, प्यास आदि व्याधियोको ले लीजिए, यदि तुम्हारे पास जलरूपी औषधि हो तो मुझे दे दो, ताकि मैं अपनी प्यास बुझा सकें।" यह सुनकर उनमें से मुख्य मुनि हँसकर बोले, "अरे पानी पीनेका यह कौन-सा अवसर है, अरे मूर्ख, मैं तुम्हें हृदयसे शिक्षा देता हूँ, जहाँ इतना अन्धकार है कि तुझे कुछ भी दिखाई नहीं देता । सूर्यास्त होते ही, हद:मनके भन्य जन भोजन भी नहीं करते । रातमें प्रेस, महापह, डाइन, और भूत ही प्रचुरतासे दिखाई देते हैं। बड़ीसे बड़ी व्याधिसे भी पीड़ित होने पर रातमें जब दवा तक नहीं ली जाती, वहाँ इस घोर रातमें पानी कैसे पिया जा सकता है।॥ १-१० ।।
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२१२
पडमचरित
[ ] गहें गिऍवि सका दाय अरथमिः। ओबामगार : सो पाबह मणहर देव-गइ। सुड भुभाइ होवि अमर-वह ||२|| अणु असे वि उत्तम कुलु लाइ । पुणु अट्ट वि कम्मरै णिहाइ ।।३।। णिसि-भाजण पिष्ट जेण पुशु । तहाँ भचें भर्वे दुक्ख अणन्स-गुणु ।।३।। भल्लल्ल-मंसु ते मक्षियउ। ते पिय महा महु चक्स्पियन ॥५॥ सण-हला जिम्मसमिद्धाइ। तें पञ्चम्परत मि सदा ।।। ते वयणु अप्सचउ जम्पियड। ते अण्णहाँ तणड दम्बु हिपउ॥७॥ से सुट्ट गिरन्तर हिंस किय। परणारि नि ते णिस्त लय ॥६॥
अहवइ कि बहुएं चविण जे होन्हें हाइ ममीवर।
घसा ९३ जें मूलु सनु वयह । मोक्षु वि भव-जीव-सयो" ||९|
[८] रिसि-वयणे विमुख-मिच्छत्ते । लइमई अणुक्याइँ धणदत्त ।।१।। गट तत्थहाँ वि गण तमाले। भमें घि महीयलें वह काले ।।२।। समा समाहिएँ मरणु पचपणा । पुणु सोहम्में देउ उप्पण्णड ॥३॥ तादि वे सायराई गिवसेविणु। कि पि सेसे थिएँ पुणे चवेपिपणु ॥४॥ जाउ महा-पुर बहु-धण-उत्सर। छत्तच्छाय-परेसर-मत्सर ।।५।। पहु पिययम मिरिंदत्तालतिय। पर-पुरवर-गर-णियरासदिय ॥६॥ धार्शिण-मेरु-बणीसई तणुरुहु। शामें पढ़यहद पङ्कप-मुहु ।।७॥ एकहि दिणे स-तुरनु पयहठ । गोट्ट पलोएँचि परिपछउ ॥८)
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३११
चउरासीमो संधि [७] जो सदैव सूर्यको अस्त देखकर इस व्रतका आचरण करता है, वह सुन्दर देवगतिको प्राप्त करता है, और इन्द्र होकर सुखका भोग करता है। फिर वहाँसे आकर उत्तम सुख प्राप्त करता है ! मनों आठों कर्मन शाम है। जो निशाभोजनका परित्याग नहीं करता, उसे जन्म-जन्मान्तरमें अनन्त दुःख देखने पड़ते हैं। जो रानमें भोजन कर लेता है, उसने गीला मांस ( कशा) खा लिया, मदिरा पी ली, और शहद चख लिया, सनके फूल, ( सणहुल्ल ) निम्ब समृद्धि (१) और पाँच उदुम्बर तल खा लिये । उसने असत्य कथन किया, और दूमरेके धनका अपहरण किया, वह निरन्तर हिंसाका दोषी है, और यहाँ तक कि दूसरेकी स्त्रीका भी उसने अपहरण किया । अथवा बहुत कहनेसे क्या, ब्रोंकी सच्ची जड़ यही है । जिसके समीप होने पर सैकड़ों भव्य जीवों के लिए मोक्ष भी समीप हो जाता है. ।। १-२॥
[८] महामुनिके उपदेशसे धनदत्तने मिध्यात्व छोड़कर अणुव्रत ग्रहण कर लिये । अन्धकार दूर होने पर उसने वहाँसे कूच किया। बहुत समय तक धरती पर भ्रमण करने के अनन्तर समाधिपूर्वक भर कर वह सौधर्म स्वर्गमें देव रूपमें उत्पन्न हुआ। वहाँ कई सागर प्रमाण रहकर जब कुछ ही पुण्य शेष रहा तो धारणी और मेरु नामक वणिकराजके यहाँ पुत्ररूपमें जन्मा । उसका नाम पंकजरुचि (पद्मचि) था। उसका मुख भो कमलके समान था। वह उस महापुर नगर में जन्मा जो धन-धान्यसे प्रचुर था, जहाँ छत्रछाय नामक राजाका राज्य था। श्रीदत्ता उस राजाको प्रियतमा पत्नी थी । शत्रुओंके नगर और नागरिक उससे सदैव आशंकित रहते थे। एक दिन वह घोड़े पर घूमने निकला, और गोठ देखकर वापस लौट
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पउमचरिउ
घत्ता तावमाएँ महिहें मिसणात नुहिणमिरिन्दु य णिरु धनलु । पुष्पाउसु पाणवन्तड दीसह एकु जुषण-धवल ।।९।।
[९] तं गोइन्दु पिएँ वि चबुलाहौं। मेरु-तणउ भोपरिस सुरकहाँ ॥३॥ पासु पद्रवि तहाँ कपणन्तरें। दिण्ण पत्र णमुकार खणन्तरें ॥२॥ तहों फलेण प्रिण-सासण-मत्तहों। गन्मठमन्तरे तहाँ सिरिदत्तहाँ ॥३॥ जाउ पुसु परिवतिय-छायहाँ। बसहर तहाँ छत्तच्छायो । एकहि दिणे गन्दणवणु जनाउ । णिय चिरु मरण-भूमि सम्पत्सउ ॥५॥ घिउ णिलु जोयन्तु पिरन्तर । सुमरिउ सयल वि णिमय-मवागतरु । दिसउ णिऍषि गउ परम-विसायहाँ। पुणु उसरिउ अणोवम-णायहीं ॥७॥ "पत्थु पासि अणदुहु हउँ होतउ । एस्थ पएसें आसि णिवसन्त ॥६॥ इह परन्तु इह सलिलु पियन्तउ । इह णिवरिउ चिरु पाणान्नुड ॥५||
घत्ता तहिं काले कपण महु केरएँ जेण दिण्णु जवु जीव-हिउ । पक्वमि केणोषाएग (१)" एम सुरु चिन्तन्तु थिउ ॥१०||
[..] पुणु सहसा उत्तु विसालउ । तेस्थु कराविउ परम-जिणालउ ॥1॥ शियय-मवन्तरु पडे वि लिहावेवि । वार-पए तासु पन्धा वि ॥२॥ थबेवि भणेय सुहड़ परिरक्षणु। गउ राउल कुमार बहु-लक्खणु ॥३॥ एकहि दिण पउमरुइ महाइड। वन्दणहत्तिएँ मिणहरु पाइउ ।।३।। दिटछ ताव पडु लिहिय-कहभतरु । बिम्मित जीवइ जाव पिरम्तहा। सावारक्तिएहि दुण्याहौँ। कहिउ गम्पि तहाँ राय-कुमारहौँ ।।६।।
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परासीमो संधि पड़ा। उसने देखा कि आगे धरती पर एक बूढ़ा बैल पड़ा हुआ है, जो हिमगिरिके समान धवल है, जिसकी आयु समाप्त प्राय है, और जिसके प्राण छटपटा रहे हैं ॥ १-१ ॥
[२] उस मरणासन्न चूढ़े बैलको देखकर मेरुका बेटा पंकजरुचि घोड़ेसे उतर पड़ा। उसके पास जाकर एक पलमें ही उसके कान में पंचणमोकार मन्त्र सुना दिया। उस मन्त्रके प्रभावसे उस बूढ़े बैलका जीव जिनधर्मकी भक्त श्रीदत्ताके गर्भमें जाकर पुत्र बन गया, और कान्तिमान राजा छत्रछायके वृषभध्वज नामका पुत्र हुआ। एक दिन वह राजपुत्र नन्दनबनके लिए जा रहा था। अचानक वह अपनी मरणभूमि पर पहुँच गया। उसे देखकर वह एकदम अचल हो उठा। उसे अपने सब जन्म-जन्मान्तर याद आ गये। उस दशाको देखकर उसके मन में गहरा विषाद हुआ। वह अपने अद्वितीय गजसे उतर पड़ा। वह पहचान रहा था, "अरे यहाँ मैं बैलके रूप में पड़ा थामैं यहाँ रहता था। यहाँ चरता था, यहाँ पानी पीता था, और यहाँपर अपने छटपटाते प्राण लेकर पड़ा हुआ था। उस अवसरपर जिसने जीथकल्याणकारी, पाँच नमस्कार मंत्रका जाप मेरे कान में दिया, उसे मैं किस प्रकार देख सकता हूँ, यह सोचकर वह बहुत देर तक बैठा रहा ॥ १-१०॥
[१०] फिर उसने उस जगहपर एक विशाल जिनालयका निर्माण कराया । एक पटपर अपने जन्मान्तर लिखवाये, और द्वारपर उन्हें टैंगवा दिया । अनेक योद्धाओंको वहाँ रक्षक नियुक्त करके अनेक लक्षणोंसे युक्त वह राजकुमार गजकुल लौट गया । एक दिन आदरणीय पद्मरुचि वन्दनामक्तिके लिए उस महान जिनालय में आया । जब उसने प्रसपर लिखे हुए कथान्तरोंको देखा तो वह अचरजमें पड़ गया। इसी बीच द्वारके
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पउमचरित
सो वि इट-सझम-अणुराइड। शक्ति परम-जिण-भवाणु पराइउ ।।७।। विट्ठ तेग पहें वित्तु णियन्तउ। अचल-दिदि वर-विम्हय-वन्सड ८॥
पत्ता पुणु वसहरण पपुच्छिउ णिय-सिय-सुद्धारणेण । "एडु पछु णिएवि सड़ हुअउ कोकहलु किं कारणंण" ||९11
[१] तं गिसुवि अक्खइ वणि-तणुरुतु 1 "पत्थु पएसे एका मुउ अणहुहु ॥१॥ तहाँ णवकार पच मह दिया। जे पणतोसक्खर-सम्पुष्णा" ||२|| नं ऐंज सयलु वि गिऍवि चिराप्पड | गड विम्हयहाँ सरेवि कहाणः ॥३|| तो सिरिदत्ता-सुऍण सुधीरें। रटमा रिय-समन-सरो ॥ "सो गोवइ हउँ" एवं पवेप्पिणु । कर-मउकालि तुरिउ करेप्पिणु ||५|| हार-पय-कारसुत्तेहिं पुलिउ। गुरु व सु-सीसे कुमह-विच जिउ ॥६॥ "ण घि तं काह पियरु पप पि मायरि । ग.वि कलतु णवि पुसुण भायरिं 114 णवि सस दुहिय ग मिस ण किकर । सहसणयण-पमुह विण धि सुरवर ।।८।। जं पइँ महु सुहि-इछु समास्ति । गस्य-तिरिय गइ-गमणु-णिवारिउ ॥९
घन्ता जं विष्णु समाहि-रमायणु तेस्थ बिहुरे पर णिरुवमउ । तहों फलेंण परिन्दों गन्दशु पुणु एरथु ज पुरस्ट हउँ ॥१०॥
जं उचलबउ मई मणु अत्तगु । जं धुन्यमि-णावर सट्टाएँ ।
[१२]
अण्णु वि एहु बिहडड वक्त्तणु ।।१।। तं सयलु वि ऍड तुज्नु पसापं ॥२॥
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परासीमो संधि
रक्षकोंने जाकर राजकुमारको सारा वृत्तान्त कह सुनाया। राजकुमार भी इष्ट मिलनकी रागवती उत्कंठासे तत्काल जिनमन्दिर पहुँचा । उसने देखा कि पद्मरुचिकी पदको देखकर पलकें नहीं झप रही हैं, और वह गहरे आश्चर्यमें पड़ा हुआ है । तब अपनी श्री और वंशका उद्धार करनेवाले राजकुमार वृषभध्वजने पूछा, "इस पटको देखकर आपके लिए इसना कोलाहल किसलिए हुआ" ॥१-९|| ___ [११] यह सुनकर बणिकपुत्रने कहा, "इस प्रदेशमें एक बैल मरा था। उसे मैंने पंच नमोकार मन्त्र दिया था जो पैंतीस अमरोंसे पूरा होता है। यह सब पुराना स्थान देखकर और उस कहानीको याद कर मैं आश्चर्यमें पड़ गया। यह सुनकर, श्रीदत्ताका पुत्र सुवीर वृषभध्वजका शरीर हर्षसे पुलकित हो उठा । 'मैं वहीं बैल हूँ' यह कहकर उसने दोनों हाथ जोड़कर शीघ्र उसे प्रणाम कियाहार, कटक और कटिसूत्रसे उसका ऐसा सत्कार किया, जैसे कोई शिष्य दुर्बुद्धिसे रहित अपने गुरुका करता है। उसने निवेदन किया, "नरक और तिर्यच गतिको रोकनेवाली पंडितोंके अभीष्ट जो सन्मति मुझे वी, वैसे न तो पिता दे सकता है, और न माता, न स्त्री, न पुत्र और न भाई, न बहन, न बच्ची, न मित्र और न अनुचर और न इन्द्रप्रमुख बड़े-बड़े देवता ही, यह दे सकते हैं। उस पोर दुरवस्था में जो आपने मुझे अनुपम समाधिरसायन दिया था, उसीका यह फल है कि जो मैं इन नगरमें राजाका पुत्र हो सका ॥१-१०॥
[१२] मुझे जो यह मनुष्य शरीर मिला, और जो यह वैभव और बड़प्पन मिला, जो यह नरसमूह मेरी स्तुति करता है, वह सब सचमुच आपके प्रसादसे। इसलिए आप यह सब
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ጎረ
पउमचरित
हउँ त दासु पय-पेणु ॥ ३ ॥ पुणु णिणिय राव जण मणहरू ॥४ । चन्दाइब गाइँ गयण ||५||
अप्पर परिवयि हा ॥ ६ ॥
इ मे रज्जु सिंहास 1 एकमाइ संभावि वणि- वह 1 विष्णि विजय निविट्ठ एक्कासणें
इन्द-पदिन्द व सुन्दर-देहा । विष्णि वि जण सम्मत- णिउता । सावग्र-य-मर-धुर-संजुसा ॥७॥ विहि वि करावियाइँ जिण-भचण हुँ । उष्णय-सिहरुलविघय-गयणइँ ॥८॥
एक टिरि पनि
महि
सिंह सुकह सुहासिय- वयहिं सिद्ध महि भूमि जिगह हि ||५||
बहु काल सलेहाँ मरेषि । रणायराइँ तर्हि हुइ गमेषि । हुआ श्रवरविंदे जबइरि- सिहरें । जन्दीस रपहु-कणयप्पा हूँ । तहि रजु अमर लोक करेवि । माहिन्द-समिवाणु जाउ ।
मेरठ
माटी हैं। गुफाहिगुत्त ।
पमा मुहयन्द-हन्दु सिरिचन्द्र- नासु | बहु काल करेमिणो रज्जु ।
ु
घत्ता
[2]
ईसाण-ससुर जाय वेषि ॥ १ ॥ पउम सुरवरु पुशु वेषि ॥२॥ सु-मोहरें चन्द्रावतमय ॥३॥ सुषणाणण णामु हूँ ॥ ४ ॥ तव चरणु चरैपिणु पुणु मरेवि ||५|| सायर हूँ सह शिवसेनि आउ || ६ || यि विडिओ हामिय- सुरपुरी || गरवद्द विमलवाहनहीं पुत्तु || 4 || थिंड माणुस वेसें जाइँ का ||९|| पुणु चिन्तित मर्णे परकोय तु ॥ १०॥
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चटरासीमा संधि राज्य और सिंहासन स्वीकार करने में तो सापालन दास हूँ और आपके इच्छित आदेशका पालन करुंगा।" इस प्रकार संभापण कर बह' वणिग्वर उसे अपने सुन्दर राजकुलमें ले गया। वे दोनों एक आसनमें बैठे थे, मानो आकाशमें सूर्य और चन्द्र स्थित थे। उनके शरीर इन्द्र और प्रतीन्द्रके समान सुन्दर थे। एक दूसरेके प्रति उनका स्नेह बहुत बढ़ाचढ़ा हुआ था। दोनों ही जन सम्यग्दर्शनसे युक्त थे, और श्रावक व्रतोंके भारको धारण किये हुए थे। दोनोंने जिनमन्दिरोंका निर्माण किया था। ऊँचे इतने कि ऊपरके ऊँच शिखर आकाशको छू रहे थे । मणिरत्नोंसे जैसे समुद्रकी शोभा होती है, जैसे वर गुणोंसे कुलवधू शोभित होती है, जैसे सुकथा सुभाषित वचनोंसे शोभित होती है, वैसे ही उन्होंने जिनमन्दिरोंसे धरतीकी शोभाको बढ़ा दिया ॥१-२॥
[१३] उसके बाद बहुत समयके अनन्तर मल्लेखना पूर्वक मरकर वे दोनों ईशान स्वर्ग में जाकर देव हो गये। वहाँ दो सागर समय तक रहकर पद्मचि वहाँसे न्युन होकर अपरविदेहके विजयार्ध पर्वत पर सुन्दर चन्द्रावर्त नगरमें उत्पन्न हुआ। वहाँ वह नन्दीश्वर प्रभु और कनकप्रभका बेटा था । उसका नाम था-नयनानन्दन । वहाँ देवकीड़ाके समान राज्य कर फिर उसने तप किया। मर कर वह फिरसे महेन्द्र स्वर्गमें देव हुआ । उस में उसने सात सागर समय तक निवास किया। तदनन्तर भाग्यवश स्वर्ग छोड़कर मेरु पर्वतसे पूर्व क्षेमपुरी नगरी में, रानी पद्मावती और राजा विमलवाहमके गुणोंसे अधिष्ठित पुत्र हुआ । उसका मुख चन्द्रमाके समान सुन्दर था। नाम श्रीचन्द्र था, लगता था जैसे मनुष्य के रूपमें काम हो । यहुत समय तक सुन्दरतासे राज्यका सम्पादन कर, अन्तिम समय उसे परलोक
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२२०
यि पुरा ह
पउमचरिउ
पहु
विवि
तव चरणु कड्ड सिरिचन्दे
सो सिरिचन्द साहु अपरिमाहु निरु णिरुवम- रयण-तय-मण्डणु
VETERANETEI कन्दर पुलिशृाण-निवास |
चित्तु सुह मारण मावशु । वहु-काले भषसाणु पचण्ड । सुरवर-शाहु विमाण विस्लएँ ।
विर-तत्र चरण- पहावें आयहाँ । हय भुषण त को उबमिव । जो विरु
महन्द्रउ होतउ । आयउ ।
दुइ सारई
से
सुर सूरस्थ वेयर - णेसह ।
ऍडु सुग्गीकु जगत्तय पायडु |
धन्ता
दिहिकन्त सुन्दरमइहें । OT पासें समाहिगुत्त - जहाँ ||११||
[19]
तातिसाहित्र-सिव माबि उप्पण्णु एथु ऍडु राहउ
घण-मलकमुअ-भूसिय विगाहु ||१|| पश्चेन्दिय-दुद्दम-दणु-दण्णु ||२||
पार ॥२॥ राग-दोस-भय-मोह विशालणु ||४|| किय- सासण-वच्छ पहाच ||५|| गम्पणु वम्मकोऍ उणउ ॥ ६ ॥ मणि-मुसाहरू - विदुम-मालऍ ॥७॥
धत्ता
।
दस सायरॅहि गरहि दुसरह - रायों पम- सुउ !!
[१५]
विक्रम-रूप-वि-सहायहाँ ॥१॥
जासु सहल - जयणु वि गड पुज्जइ || २ || जो ईसार्णे सुरक्षणु पत्तउ ॥३॥ काले सो ताराव जायत ॥ १४ ॥ गिरि-किञ्चिन्ध-णयर-परमेसरु ॥५॥
बालि कशिद्वज वाणर-धयडु ॥ ६ ॥
सिरिकन्तु विगुरु-तुष-निवासहिं । पश्मिमन्तु बहु- जोणि सहाहिं ॥७॥
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घडरासीमो संधि को चिन्ता हुई। अपने भाग्यशाली पुत्र सुन्दरपतिको राज्यपट्ट बाँधकर श्रीचन्दने समाधिगत मुनिके पास तपश्चरण ले लिया ॥१-१क्षा
१४] वह श्रीचन्द्र अघ साधु था, परिप्रहसे शून्य । प्रने मैले बालोसे उनका झारीर आभूषित था। वे तीन रत्नोंस अत्यन्त मण्डित थे। उन्होंने पंचेन्द्रियोंके दुर्दम दानवको दण्डित कर दिया था। वे पाँच महानतोंका भार उठानेवाले थे, और मास, पक्ष, छठे आठं पारणा करते थे ! कन्दराओं, किनारों और उद्यानों में निवास करते थे। उन्होंने राग, द्वेष भय और मोहका विनाश कर दिया था | एकचित्त होकर, शुभभावनाओंका ध्यान करते थे। इस प्रकार उन्होंने जिनशासनकी ममताभरी प्रभाचना की। बहुत समयके अनन्तर मरकर वह ब्रह्मलोक स्वर्गमें उत्पन्न हुआ। मणि मोतियों और विममालाओंसे सुन्दर विशाला विमानमें अब वह इन्द्र था। वहाँ उसने दस सागर तक इन्द्रका सुख भोगा. और फिर च्युत होकर यहाँपर वह राजा दशरथके प्रथम पुत्रके रूपमें रामके नामसे उत्पन्न हुआ ।। ५.८ ।।
[१५] निरन्तर तपके प्रभावसे ही इसे यह पराक्रम और रूप मिला है। तीनों लोकों में उसको उपमा किसीसे नहीं दी जा सकती, और तो और, जिसके एक हजार आँखें हैं, ऐसा इन्द्र भी उसकी समानता नहीं कर सकता । और जो पुराना वृपभवज था वह भी ईशान स्वर्गमें देवता हुआ। वहाँ दो सागर तक रहकर कालान्तर में तारापति सुग्रीव नामसे उत्पन्न हुआ। विद्याधर राजा सूर्यरज का पुत्र और किष्किन्धा पर्वतका परमे. श्वर यह सुग्रीव अब तीनों लोकोंमें विख्यात है। वह बालिका अनुज और वानरध्वजी है। श्रीकान्त भी भारी दुःखोंकी खान
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૧૩
पयरें मुणालकुण्डे रिङ-महाँ ।
जाउ सम्भु णार्मे वर णन्दणु । वसुदत्तु वि जम्मन्तर
पउमचरेिड
हि ।
सिरिभूह - णामु तेथ्थु जॅ पुरें हु सम्भु परम पुरोहिड
तो वेबवर गरमाग वलिमण्डऍण समिच्छन्ति
जं रितु विणासि राएं । णं सरसह सुन शक्ति पतिती ।
हेमबइ वकण्ठ परिन्दों || || सुरहँ मि तुज नयगाणन्दणु ॥ ९ ॥ उत्पनन्तु क्रमेण अस हि ॥१०॥
धा
[4]
गुणवद्द वि क्षणेय-मवेहि आय । एकहि दिणें पङ्कुप्प खुत्त । पक्ष तरजण परेण । पुणु सिरिमूहें उप्पण्ण दुहिय। णं का वि देषि पण आय | सिरिभूह जम्पिड "कणय वण्ण तो सेण बि सुहु विरुद्ध युग | जिग-धरमे सुरवरु सगै जाउ ।
पुणु करिणि अमरसरि-तीरें जाय ॥ १ ॥ पाणावल मडलीहूअस ॥२॥ जयकार पञ्च तहि दिष्ण तेण ॥३॥ चेयवद्र णामु छण-यन्द-मुहिय ॥ ४ ॥ सामग्गिय सम्भुं जणिय-राय || ५ || किह मिच्छादिट्ठिह देमि करण" ॥ ६॥ शिविर पुरोहिउ कुएण ॥७॥ जरतारुण- छषि सच्छाय-छाउ || 2 ||
।
यि जस-भुवणुज्ञालियाँ |
सरसह णार्मे भज्ञ नहीं ||११||
यत्ता
ज
सयलुत्तम-मण्डप
किड व सोलहों खण्डण ||२॥
[७]
जणु विवाह गरुन कसाएं ॥१॥ अक्षम तिथि पाले व विती ॥२॥
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चउरासीमो संधि
२२३ हजारों योनियों में भटककर शत्रुविजेता राजा वैकुण्ठ और हेमन्नतोके यहाँ गालकुण्ड गारमें उत्पन्न हुआ। उसका स्वयंभू नामका नयनानन्दन पुत्र था, जो देवताओंके लिए भी अजेय था। और वसुदत्त भी क्रमसे असंख्य लाखों जन्मान्तरों में भटकता रहा। वहीं पर अपने यशसे दुनियामें उजाला करनेवाले स्वयंभू राजा के यहाँ श्रीभूति नामका पुरोहित प्रधान हुआ । उसकी पत्नीका नाम सरस्वती था || १-११॥
[१६] अनेक भवों में भटकती हुई गंगाके किनारे हथिनी बनी । एक दिन वह कीचड़में खप गयी। उसके नेत्र मुंदने लगे, और प्राण व्याकुल हो उठे । यह देखकर तरंगजय विद्याधरने उसे उसी समय पंचनमस्कारमन्त्र दिया। वह फिर श्रीभूति के यहाँ कन्या उत्पन्न हुई। उसका नाम था वेदवती, और उसका मुख पूर्णन्दु के समान सुन्दर था। ऐसी लगती थी जैसे प्रच्छन्न रूपसे कोई देवी हो। तब राजा स्वयंभूने अनुराग उत्पन्न करनेवाली यह लड़की मांगी। इसपर श्रीभूतिने कहा, "अपनी सोने सी बेटी मिथ्याष्टिको कैसे दे दूँ ?" यह सुनकर राजा क्रुद्ध हो उठा । उसने पुरोहितका काम तमाम कर दिया । परन्तु जिनधर्मके प्रभावसे वह स्वर्गमें उत्पन्न हुआ | उसकी बालसूर्य के समान छवि थी, जो सुन्दर कान्तिसे युक्त था । वेदवतो राजाको बिलकुल नहीं चाहती थी, फिर भी उसने उसके शीलका खण्डन बलपूर्वक कर दिया, जो उसकी सब कुछ शोभा थी ॥१-५॥
[१७] जय राजाने उसका चरित्र खण्डित कर दिया तो पिता भयंकर कषायसे अभिभूत हो उठा | सरस्वतीकी बेटी, वेदवती सहसा आगबबूला हो गयी, मानो आगका कण पुआलको
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२२४
पउमचरित
वेविरशिपायम्बिर-णयणी । पमणइ दर-फुरियाइर-वयणी ।।३।। " शिसंस कप्पुरिस अ-लनिय । खल वराय दुग्गइ-गम-सणिय ॥४॥ ज पर महु जणेरु सङ्खारपि । ह परिहुत्त चला तहाँ हारेवि ॥५॥ तं सउ गसम-कम्म-संचरणही । होसमि घाहि व कारणु मरण हों" || एप भणेवि णरवाह णिल चि। कह पि कह वि जिण-भवणु पतुवि । हीनिःपा पासुनि सो जालो बहु काले पती ||८||
पत्ता
सम्भु बि सिय-सयण-विमुकउ जिणचर-वयण-परम्मुहउ । मिम्झाहिमाणु मणे भूदर बहु-दिवले हि दुग्गइहें गउ ।।९।।
[१८]
सहि महन्स-दुक्ख पावेप्पिणु । तिरिय-गइ वि शीसेस ममप्पिणु ।।१।। पुणु सावित्ति-गब्में पय-मुहु । जाउ कुसन्डय-विष्पही तणुरुहु ॥२॥ णामु पहासकुन्दु सुपसिद्धर। दुल्कह-वीहि-रयण-सुसमिन्द्रउ ।३।। दिक्खङ्कित पर-णाण-सणाहहों। पार्से विचित्तसेण-मुणिणारहों ।।४।। तबु करन्तु परमागम-जुत्तिएँ। एक-दिषसे गउ बम्दणहत्ति ||५|| सम्मेहरिह परायर जाहि। कणयप्पहु विजाहरु ताहि ।।५।। गयणगणे लक्विनइ जन्त। जो सुरवहहें चि सिय महन्त ।।। हे णिएवि परिचिन्तित साहुहूँ। मयस्के उ-अथलम्छण-राहुहुँ ।।४।। "होउ तात्र महु सासय-सोक्खें। विहव-विवजिपण ते मोपखें ॥९।।
पत्ता सहदों जिणागम-कहियहाँ अस्थि कि पि जइ तवहीं फलु । तो एहउ अण्ण-मवन्तरे होउ पहुसणु महु सप" ।।१०
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पउरासीमो संधि छू गया हो। उसका अंग-अंग थर-थर काँप रहा था और उसको आँखें लाल थी। उसके ओठ और मुख फड़क रहे थे । उसने कहा, “हे हृदयहीन लज्जाहीन कापुरुष, दुष्ट और नीच, अब तेरा खोटी गतिमें जाना निश्चित है । जो तूने मेरे पिता की हत्या कर, बलपूर्वक अपहरणकर, मेरा शीलापहरण किया है; सो में, भारी कमों में लिप्त रखनेवाली तेरी मृत्युकी कारण यनूंगी।" यह कहकर, वह किसी प्रकार राजासे बचकर जिनमन्दिरमें पहुँची। वहाँ उसने हरिकान्ति के पास दीक्षा ग्रहण की, और बहुत समयके अनन्तर ब्रह्मलोक में पहुँची । जिन-वचनोंसे विमुख राजा स्वयंभू भी वैभव और स्वजनोंसे अलग हो गया। मनमें मिथ्याभिमान रखनेके कारण बहुत दिनों में मरकर खोटी गति में पहुँचा ॥१-२॥
[24] वहाँ बड़े-बड़े दुःखोंसे उसका पाला पड़ा। वह समस्त तिथंच गतियों में घूमता फिरा। फिर सावित्रीके गर्भसे कुशध्य ज ब्राह्मणके पंकजमुख नामका बेटा हुआ । उसका नाम प्रभासकुन्द था । वह दुर्लभज्ञान रत्नसे अलंकृत था । चार ज्ञान से सम्पन्न विचित्रसेन मुनिनाथके पास उसने दीक्षा ग्रहण कर ली। तप करते-करते एक दिन वह आगमके अनुसार जिनेन्द्र भगवानकी वन्दनामस्तिके लिए गया । जब वह सम्मेद शिखरपर पहुँचा, तो उसने देखा कि आकाशमें विद्याधर कनकप्रभ जा रहा है, उसका यभष इन्द्रसे भी महान् था। उसे देखकर कामदेय और चन्द्र के समान सुन्दर अस साधुने सोचा, "वेभय से हीन, शाश्वत सुखोवाले मोक्षसे तो अव दूर रहा । (मैं तो चाहता हूँ) कि जिनागममें दुःसह तपका जो फल बताया गया है, उससे दूसरे जन्ममें यह सब प्रभुता मुझे प्राप्त हो ।।१-१॥
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૨૨૬
पडमचरित
[१९] इय णियाण-दूसिय-सब-बियर : परम-साहि सरपr:॥ सगे लणकुमारे उपजे वि। तहि सायर सत्त सुहु भुष्में चि ॥९॥ चबिजाउ सुर जय-सिरि-माप्पणु । कइकसि-स्यगासनहुँ दसाणणु ॥३॥ जिय-जल-भूसण-भूसिय-सिहुमणु। कम्पाविय-विसहर-गर-सुरयणु ॥४॥ तोयदवाहण-वंसुद्धारणु । सहसण्यण-विणिवन्धण-कारणु ॥५॥ जो सम्भू सिरिभू-विधाइउ । पुण सोहम्म-सग्गु सम्पाइड ॥३॥ च, चि परिद्वापुरे उपजे वि। खयरु पुगवसु मधु आववि ॥५॥ तइया तियसाचा चडेपिणु। सत समुदोवमई गमेपिपशु ।।८५
सो जायउ गरमें सुमित्तिहें एउ लक्खणु लक्षणवन्दड
पत्ता दससन्दण-णरबह सुउ । वाहियु राहब-भाउ ।।९।।
[२०] जो गुणवहाँ आसि गुणपाता। भायर लहुउ पगुण-गुण-वन्तर 10 म. परिममें विचार-मुह-मण्डलु । सो उप्पण्णु एहु भामण्डलु ॥२॥ जो जपणवलि भासि गुण-भूसणु । सो तहुँ पॅहु संजाउ विडोसणु ॥३॥ ते सयल वि रामही अणुरस्ता । पुख-मवन्तर-णेह-गिडता ॥४॥ जा चिरु हुन्ती गुणवइ रजि-सुथ । भवें परिममें वि मग दियहरे हुय॥५ सिग्भूिइ सुभ रूब-रवणी। जा चिरु वम्भ-कप्पें उपाणी ॥६॥ तहि तेरह पल्लर णित्रसेप्पिणु । पुषण-पुजें थिएँ सेसे पवेपि ॥७॥ ऍह सा जाय सीय जणयहाँ सुय । णिरु महुरालाविणि णं परहुय ।।८॥ बिरु वेयवइ णेह-सम्बन्धे। हिय दसकन्धरेण कामन्| H९॥
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परासीमो संधि [१९] इस प्रकारके संकल्पसे उसने अपना मन दूषित कर लिया और परमसमाधिसे 'उसका सदान्त हो गया ! स्वर्गमें वह सनत्कुमार नामका देव हुआ। वहाँ सात सागर तक सुखका भोगकर वहाँसे च्युत होकर फिर जय श्रीका अभिमानी वह कैकशी और रत्नावका पुत्र रावण हुआ। उसने अपने यशसे तीनों लोकोंको भूषित कर दिया है, और विषधर नर और देवताओंको थर्रा दिया है। उसने तोयदवाहन के वंशका उद्धार किया है, सहस्रनयनके बन्दी बनाये जानेमें प्रमुख कारण वही है, और जो स्वयंभू श्रीभूति नामका पुरोहित था, वह सौधर्म स्वर्गमें जाकर उत्पन्न हुआ। वहाँसे आकर उसने प्रतिधापुरमें जन्म लिया, फिर पुनर्वसु नामका विद्याघर बना। वहाँसे आकर तीसरे स्वर्गमें देव उत्पन्न हुआ। यहाँ सात सागर पर्यन्त सुखोपभोग करता रहा। वही सुमित्रादेवीके गर्भसे राजा दशरथका पुत्र हुआ। लक्षणोंवाला सुन्दर लक्ष्मण है, जो रामका छोटा भाई और चक्रवर्ती है ॥१-२||
[२०] और जो गुणवतीका महान् गुणोंसे युक्त, गुणवान छोटा भाई है, सुन्दर मुखवाला छोटा भाई था। वहीं भामण्डलके रूप में उत्पन्न हुआ। जो गुणालंकृत यज्ञबलि था, वही तुम विभीषण हो, पूर्वभवके स्नेहके कारण ये सब रामसे असाधारण प्रेम रखते हैं। जो गुणवती नामकी बनिया की वेदी है, वह घूम-फिर कर द्विजघरमें उत्पन्न हुई श्रीभूतिकी रूपसम्पन्न पुत्रीके रूपमें । फिर ब्रह्मस्वर्ग में तेरह पल्य रहनेके अनन्तर जय गुण्य समूह बहुत थोड़ा रहा तो वहीं यह जनकनन्दिनी सीता देवी है,मानो जैसा मीठा बोलनेवाली कोयल हो। वेदवतीके स्नेह सम्बन्धके कारण, कामान्ध होकर रावणने इसका अपहरण किया। और जो इसे इतना अधिक दुःख उठाना पड़ा
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२२८
पउमचरित जं मुणि पुरुष-जम्में जिन्दन्ती। त इह दुहहै महन्त पत्ती ॥३०॥
घत्ता सिरिभूइ काले सुअ-कारण जे हल सम्भु-गरसरण । से लदेसर चिरु हिस्णु त्रिणिवाइउ लकीहरण' ॥११॥
[५] गुरू-बयणेहि तहि गोलिट। पुणु वि विहीसणुएम पधोल्लित ॥३॥ 'कहें के कम्में जणण विणीयह। सइहें चि लन्छणु लाइउ सीय॥२॥ तं णिसुणेवि वयणु मुणि-पुजम् । अरसा पाण-महागइ-समम् ॥३॥ 'मुणि सुअरिसणुआसिधिहरम्तड । मण्डलि-णामु गामु संपत्तम | भिड जम्दणवणे णिरु णिम्मल-मणु। तं बम्रेपिपणु मज सयलु विजणु॥५॥ मुणिवी वि लहु-बहिणिएँ सवणएँ । सइ महसहए समउ सुमरिसणऍ॥६॥ किं पि चवन्तु गिऍदि बेअबइऐं। कहिंड असेसह कोयह कुमइ ॥
पत्ता
किं चोज एक जंणार हि दूसिजाइ बरु हरिहि वणु। राउल-जिहाउ दुग्धरिणिहिं पिसुग-सहासें साहु-जणु ॥८॥
[२१] "तुम्हहिं भणहु चारु धम्मदउ । णिज्जिय-पश्चेन्दिय-मयाउ || ।। मई पुणु ऍटु सयमेव परिक्सिउ । महुँ महिल' एअन्ते परिदिउ" ॥५॥ एम ताएँ तब-णियम-सणाहहों। लोप अगाया कि मुणि-णाहहाँ ॥३॥ सो वि करेवि भवग्गडु थाइड। “जा फिटु संवाउ गुरुाउ ॥२॥ ता णिबित्ति महु सयलाहारहीं"। जाणवि णिच्छा हय-संसारहों ।।५।। सासण-देवयाएँ भस्थाएँ। मुहु सूणाषित गरआसाएँ ॥६॥
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I
चमो संधि
२२९
उसका कारण यही है कि उसने पूर्व जन्म में मुनिकी निन्दा की थी। और जो स्वयंभू राजाने अपने पुत्र के कारण श्रीभूतिकी हत्या की थी, उसी हिंसक स्वभाववाले रावणको चक्रवर्ती लक्ष्मणने मार गिराया ॥१-१॥
[२१] मुनिके दिव्य वचन सुनकर विभोषण गद्गद हो उठा। उसने फिर पूछना प्रारम्भ किया, "कृपया बताहर, किस कर्म से पिता के लिए विनीत सीतादेवा जैसी सनी को कलंक लगा ?" यह सुनकर महामुनिने जो अक्षय ज्ञानरूपा नदी संगम थे बताया, "सुदर्शन नामके मुनि विहार करते हुए मण्डल नामक गाँव में पहुँचे । निर्मल मन वह नन्दन वनमें ठहरे। सब लाग उनकी वन्दना भक्ति करनेके लिए गये। महामुनि अपनी छोटी बहन महासती सुदर्शना अजिंका से कुछ बात कर रहे थे। यह देखकर दुष्ट बुद्धि वेदवतीने यह बात सब लोगों से कह दी। इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। क्योंकि स्त्रियाँ घरको दूषित करती हैं और बन्दर बनको ! खोटी स्त्रियाँ राजकुलको दूषित करती हैं और दुष्ट लोग सज्जनोंको दूषण लगाते हैं ॥१-८॥
[२०] इसपर विभीषणने कहा, "हे धर्मध्वज और इन्द्रियों और कामदेवके विजेता, आपने जो कुछ कहा वह बहुत सुन्दर कहा। मैंने इन स्त्रियोंके साथ रहकर इस बातकी स्वयं परीक्षा कर ली है।" तब महामुनिने फिर कहा, "जब इसने तप और नियमोंसे परिपूर्ण महामुनिको इस प्रकार लोक में अपवाद लगाया, तो उन्होंने भी यह प्रतिज्ञा कर ली कि जबतक यह भारी अपवाद नहीं मिटता मैं तबक सब प्रकार के आहारका त्याग करता हूँ । संसारका विनाश करनेवाले महामुनि के निश्चयको जानकर शासनदेवीका मुख बहुत भारी आशंकासे तत्काल झुक गया। तब वेदवतीने लोगों से कहा,
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पउमचरित
ता वि २४ वुन "अहाँ लोयहाँ । णिय मण मा सम्लेहहीं होयहाँ ।।७! जं मई कहिउ सम्वु त अलियउ । अज्जु वि पाउ असेसु वि फलिय" 10
वत्ता
जं माइ-जुअलु तं णिन्दियउ पुग्ध-भवन्तर खल-माएँ। संचाउ एन्य उवद्बर जगहों मजा ते जाणाह' ॥९॥
पहिभणइ यिहीस विमल-मद। 'कहि वालि-मवन्तर पाम-जइ' ।।१।। सा कहइ भडारड गहिर-गिरु। 'विन्दारपण-स्थलं विउले चिरु ॥२॥ हीयङ्गु भमन्तु वि एक्कु मऊ। सो रिसि-सजमाउ सुणेवि मउ ॥३॥॥ पुणु जाउ कणय-धण-कण-पउरें। अङ्गरावर खेर्ने वित्ति-गयरें ।।४।। सावयहाँ बिहिय-णामहाँ सु-भुउ । सिवमहदे गम्महदस सुड ॥५॥ नहि पावि पवाणुस्वयहूँ। तिणि गुणग्यय (चउ)सिक्खादगई । जिणवर-पुजा हवणड करेंवि। बहु-कालें सगासैंण मरेंवि ॥७॥ ईसाग-सरगें वर-देनु हु। विहि स्पणायहिं गए हि खुड ॥४॥ यह पुग्व-विदेहम्भन्तरऐं। विजयावा-पुरै णियस्तरम् ॥५॥ णामेण मत्तकोइलविउल्छ । घर-पामु रहति व धण-बहुल ॥१०॥
वत्ता तहि कन्तसोड घर-राणउ रमणाबइ पिय हंस गई । सहुँ वीहि मि सुप्पहु गामण गन्दणु जाउ (1) विमल-मइ ॥१६
[४] तेण जुवाण-भाउ पावन्ते । णिय-मणे जहण-धम्मु भावन्तं ॥३॥ सम्मलोस्-भारु पवहन्ते । दिणे दिणे जिणुति-काल पर्णवम् ॥२ णिरु पिस्वम-गुण-गण-संजु । कम्तसोय-स्यणापा-पुतें ॥३।।
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चउरासीमो संधि "आप लोग अपने मन में किसी प्रकारकी शंका न करें, जो कुछ भी मैंने कहा है, वह सब झूठ है, आज ही मेरा सब पाप फलित हो गया है" | उस दुष्टमति वेदवतीने पूर्व जन्ममै जो भाई-बहनकी निन्दा की थी, उसीका यह फल है कि जानकीक बारेमें इस जन्ममें लोगकि बीच यह अपवाद फैला ॥१-२॥
[२३] तब विमलवुद्धि विभीषणने पूछा, "हे महामुनि, कृपया बालिके जन्मान्तरोंको बतलाइए।" इसपर, गम्भीरवाणी महामुनिने बताना प्रारम्भ किया, "महान विन्दारण्यमें अपांग होकर एक हिरन विचरण कर रहा था, वह मुनिसे कुछ सुनकर मर गया। मरकर वह ऐरावत क्षेत्रके स्वर्ण और धनधान्य. से भरपूर दीप्तिनगर में उत्पन्न हुआ। एक प्रसिद्ध नाम श्रावककी पत्नी शिवमतीके गभंसे महदत्त नामका पुत्र हुआ। वहाँ उसने पाँच अगुतो, तीन गुणत्रतों और शिक्षात्रतोंका परिपालन किया । जिनवरकी पूजा और अभिषेक किया। बहुत समयके अनन्तर संन्यास विधिसे मरकर ईशान स्वर्गमें उत्समदेव उत्पन्न हुआ। दो सागर पर्यन्त रहकर यहाँसे च्युत हुआ। पूर्व विदेह के मध्य विजयावती नगर के निकट मत्तकोकिलविपुल गाँव था जो चक्रवाक की तरह अत्यन्त स्वच्छ था ! उसमें कन्तशोक नाम का एक राजा था। उसकी इसकी तरह चालवाली रत्नावती नामकी सुन्दर पत्नी थी। उन दोनोंके यह सुप्रभ नाम का पुत्र हुआ जो अत्यन्त विमलमति था ॥११॥ - [२४] जब वह यौवन-अवस्थामें पहुँचा तो उसके मनमें जैनधर्म के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हुई। उसने सम्यक्त्वका भार अपने ऊपर ले लिया। प्रतिदिन तीनों समय वह जिन-भगवान्की वन्दना करता था। कन्तशोक और रत्नावतीका वह पुत्र अनुपम गुणसमूहसे युक्त था, यशमें चन्द्रमाके समान
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पउमचरित
ससहर-मण्णिहण जस-वन्त। तणु-तमोहामिय-रइकन्ते ॥४॥ दुलह-नव-णिहाणु उवलदउ । जाणाबिह-लद्धीहि समिद्धउ ॥५॥ वहु-संवच्छर-सहमें हिं विगणे हि । दुद्धर-विसय-महारिहिं णिहएँ हि ॥१॥ माऊरिड सुल्झाणु पहाण उ । फिर इपरजाइ केवल 3 11 211 ता अक्माण कालु तहों आइ। पुशु सम्वत्य-सिद्धि संपाइउ ॥८॥ एक्काणि-नाणु माझ जाव: हाशि : १|| नहि तीस जरहि परिमाणहै। भुजयि संकिग्नई भमिय-समाग ०
घत्ता
मो अमा चप्पिणु पस्यहाँ जाउ बालि इह खबर-पछु । बलिय पयानु सुह-दसणु घरम-सरीरु समरे भइ-सहु (?)"
[२५]
जो णिग्गन्धु मुवि सामणहो । जवि जयकार कर जग अग्णहाँ ।।३।। जो मिवियन्तर पिहिमि कमप्पिणु । एइ सयल जिग हरई णवेपिपणु ॥२।। अंण ममरें महुँ पुप्फ-विमाणे । भण्गु चन्दहासेण किवाणं ॥३।। दाहिण-भुण्ण भुवण-मन्त चणु । हेलाएँ में उच्चाइ उ रावणु ||४|| पच्छ धुव ससिकिरण मए पिणु । राय-लांछ उगीयहाँ देफ्पिण ||५|| लक्ष्य दिक्क भत्र-गहण-विरते। गिरि-कइलासु चदि पयः ।।६॥ दिण्णु सिलोर परमतावणु। गहें जम्तउ रोसाधित राबणु ||७|| पुणु वि महाफर मगु खणन्तरें । को उबमिजद तहाँ भुषणन्तों ॥८॥
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चउरासीमो संधि
था। अपने शरीरकी कान्तिसे उसने सूर्यको भी पराजित कर दिया था। उसने दुर्लभ तप अंगीकार कर लिया, जो तरहतरहकी उपलब्धियोंसे समृद्ध था। उसने दुर्द्धर विपयरूपी शत्रुओंको नष्ट कर दिया था। इस प्रकार इसका बहुः समय बीत गया। अन्तमें उसने मुख्य शुक्लध्यानकी आराधना की, जिससे केवलजानकी उत्पत्ति होती है। फिर उसका अन्त समय आ गया और वह सर्वार्थसिद्धिमें जाकर उत्पन्न हुआ। उसका शरीर एक भर धारण करनेवाला था। उसकी कान्ति करोड़ों सूर्य के समान थी। उस सर्वार्थसिद्धि में तेंतीस सागर प्रमाण रहकर उसने नाना प्रकारके सुखभोगोंका उपभोग किया, उन सुखोंका जो अमृतके समान थे । वह देव स्वर्ग से आकर यहाँपर विद्याधरों का स्वामी विद्याधर वालिके रूपमें उत्पन्न हुआ है। उसका प्रताप अडिग है, उसके दर्शन शुभ हैं, जो चरमशरीरी हैं और युद्ध में अत्यन्त असह्य है॥?-१२॥
[२५] उसका यह नियम है कि निम्रन्थ साधुको छोड़कर वह किसी दूसरेको नमस्कार नहीं करता। जो एक क्षणमें समूची धरतीकी परिक्रमा कर समस्त जिनमन्दिरों की वन्दना करता है। जिसने युद्ध में पुष्पक विमान और चन्द्रहास तलवारके साथ संसारको सतानेवाले रावणको खेल खेलमें दायें हाथपर उठा लिया था। बाद में जिसने अपनी दोनों पत्नियों ध्रुवा और शशिकिरणका परित्याग कर, राज्य-लक्ष्मी सुप्रीवको सौंप दी थी। संसारके आवागमनसे विरक्त होकर जिसने जिनदीक्षा ग्रहण कर कैलास पर्वतपर जाकर प्रयत्नपूर्वक तपस्या की है। आतापनी शिलापर बैठे हुए जिसने आकाशसे जानेवाले रावणको क्रुद्ध कर दिया था। फिर एक बार उसने पलभरमें रावणका अहंकार चूर-चूर कर दिया । भला संसारमें उसकी
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२३४
उप्पण्णाणु सो मुणिषरु झावि सत्यम्भु भार
पउमचरिउ
वशी
इस परमचरिय सेसे तिहुयण-सयम्भु-रइए इथ रामएव चरिए कुहयण मणु- सुह-जणणो
पुणु वि चिह्नीसण सीवान्दण
अट्ट दुट्ट क्रम्मारिख । सिद्धि - खेस वर जयरु गज ॥१२॥
[ ८५. पंचासमो संधि ]
सयम्भुवस्स कहनि उच्चरिए । सपरियण-हलीस भवद्दणं ॥ बन्दइ- आसिय सयम्भु सुभ-रइए । चउरासीमा इमो लग्यो ||
|| हेला || संणिसुचि चयणु युवा मुणिवरिन्द्रेण 'सुणि अक्लमि परिओसिय-सुरवरें। वाम एव विष्पों शिक्षा यहाँ । सुप वसुएव सुव वियखण । वाहँ पियर दुइ फिम्मक चित्राह ।
I
पुटिन 'मयण-वियास । कहि जम्मन्तरहूँ मडारा ||
[9]
जग भवण भूसणेणं । सयल भूसणेणं ॥१॥ जर्गे पसिड़े कायन्दी - पुरखरें ॥२॥ सामलीऍ परिणीऍ सहायहाँ ॥ ३ ॥ वियसिय विमल:- जमल-कमले पण ४ विसय-पिय-शाम-संजुतड ॥५॥
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२३५
पंचासीमो संधि तुलना किससे की जा सकती है। आठ दुष्ट काँका संहार करनेवाले उन महामुनिको केवलज्ञान उत्पन्न हो गया है। इस प्रकार ध्यानपूर्वक वह उत्तम सिद्धक्षेत्र नगरके लिए कूच कर गये है ।।१-२।।
इस प्रकार स्वयंभूदेवसे किसी प्रकार अचे हुए, पाचरितके शेषमाममें त्रिभुवन स्वयंभू-द्वारा रचित रामक और उनके परिवारके पूर्व
___भवोका कथन शीर्षक पर्व समाठ हुआ। धन्दइके आश्रित, स्वयंभू पुत्र द्वारा रचित, पण्डितोंके मनको
अच्छा लगनेवाला यह चौरासीवाँ सगं समास हुआ।
पचासीवीं सन्धि फिर भी विभीषण ने पूछा, "हे आदरणीय, कृपया कामदेवको भी विकार उत्पन्न करनेवाले सीतादेवीके दोनों पुत्रों के जन्मान्तरोंको बताइए।"
[१] यह शब्द सुनकर जगरूपी भवनके आभूषण सफलभूषण मुनियरने कहना प्रारम्भ किया। उन्होंने कहा, “सुनो, बताता हूँ । जगमें प्रसिद्ध और देवताओंको सन्तुष्ट करनेवाले महान् नगर काकंदीपुरमें वामदेव नामका एक प्रसिद्ध ब्राह्मण था । उसकी सहायिका उसकी पत्नी श्यामली थी। उससे उसे वसुदेव और सुदेव नामक दो विलक्षण पुत्र थे। उनकी अत्यन्त निर्मल चित्तकी दो पत्नियों थीं। उनकी आँखें खिले हुए कमलाके समान थीं। उनके नाम थे-विषया और प्रियंगु । एक दिन उन
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२३६
पउमरित
एकहि दिणे ममणाय-मइन्दहों। अण्ण-दाणु सिरितिक्रय मुणिन्दहाँ ॥६ विहि मिजणेहि तेहि गुरुएन्तिए (?)। दिग्गु समुज्जक-अविचल मत्तिएँ ।" वह काल अवसाणु पनामा || नहि मि निरिण पल्लई गिवपिशु । मणे चिन्तविय भोग भुप्पिणु ।।९।। पुणु ईमाण-सम्गं हुअ सुरवर । परम-समुग्गय णं रवि-मपहर ।। १०॥
विहि स्यगायरें हि चत्रण करेंवि पुणु
उत्ता महकन्ते हि सम्मय-भरिया । सहें कायम्दिहें भवपरिया ।।११।।
[२] 1 लावद्ध गरिन्हो पर-परायणासु ।
मसि-जिम्मल-जसामु सिंघ-सोकाव-भायणासु ॥1॥ माय वे वि जिणचर-पय-सेविह। पन्दण सुअरिसणा-महाविहें ॥२॥ तहि पहिलारउ सामु पियङ्कर। नणु तणुभउ पुगु अणुउ हिय करु ॥३॥ मोहद दित्तिएँ णाई दिणेसर। णाई माह-पष्टु-बाहुबलीसर ॥४॥ घहु-काले तत्र-घरणु लएप्पिणु। सणासेश सरीरु मुएप्पिणु ॥५|| हुब गजज-शिवासिय सुरवर । स-मउवादिग्व काय-कुण्डल-धा ॥६॥ दुइ-स्या -सरीर-उन्नहिया। अणिमाहिं गुणेहि सई सहिया ।।७।। सूरप्पहें विमाणे विस्थिगणाएँ। जाविह-मणि-गहि वगएँ ॥८॥ नति इच्छियइँ सुहई माणेप्पिण | सायरा, चउबोस गमप्पिगु ॥९॥ चवि जाय पुणु भरि करि-अछुस । सीयहें पन्द्रण इइ लवणकुम' ॥ १०॥
घत्ता तं तेहउ चयणु गिसुणेप्पिणु परम-मुणिन्दहौं । हुर विम्मा गरुड विजाहर-सुरवर-विन्दही ।। ११॥
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पंचासीमो संधि वोनीने कामदेवरूपी महागजके लिए सिंह के समान श्रीतिलक नामः महामुनिको अगादाम दिया . महामुनिके आनेपर उन दोनोंने समुज्ज्वल अच्छी भक्तिसे आहार दान दिया। बहुत समयके बाद जब उनकी मृत्यु हुई तो वे उत्तरकुरुक्षेत्र में जाकर उत्पन्न हुई। वहाँ तीन पल्य आयु बिताकर और मनचाहे भोग भोगकर वे ईशान स्वर्गमें देवरूपमें उत्पन्न हुई। वे ऐसे लगते थे मानो प्रलयकाल में सूर्य और चन्द्र ही उत्पन्न हुए हों। दो सागर प्रमाण आयु बीतनेपर सम्यकदर्शनसे युक्त वे दोनों यहाँसे आकर उस काकंदीपुरमें उत्पन्न हुए ।।१-१५॥
[.] शत्रुओंके नाशक चन्द्रमाके समान निर्मल यशवाले और शिव सुखके पात्र रतिवर्धन राजाके यहाँ जिनदेवके चरणकमलोंकी सेविका सुदर्शना महादेवीसे दो पुत्र उत्पन्न हुई। उनमें पहले का नाम प्रियंकर था और दूसरेका हितंकर । जो छोटा भाई था, कान्ति में वह ऐसा सोहता था जैसे सूर्य हो या राजा भरत या बाहयलीश्वर हो । बहुत समय के अनन्तर उसने तप अंगीकार कर लिया। संन्यास पूर्वक शरीर छोड़कर, बह 4वेयक स्वर्गमें सुरवर बना। उसके पास बढ़िया मुकुट, दिव्य कटक और कुण्डल थे | दो रन प्रमाण उसका शरीर था और वह अणिमादि ऋद्धियों और गुणोंसे युक्त था | नानाविध मणिरत्नोंसे सुन्दर, विस्तृत सूर्य प्रभ विमानमें उसने अभिलषित सुखोंका उपभोग किया और चौबीस सागर प्रमाण आय जीतने पर यहाँसे चयकर वे दोनों शत्रुरूपी गजके लिए अंकुटाके समान यहाँपर सीतादेवीके लष और अंकुश हुए हैं । परम महामुनिके उन वचनों को सुनकर विद्याधरों और देवताओंको बहुत भारी आश्चर्य हुआ ॥१-१६।।
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३३८
पउमरिड
[ ] ॥हेला॥ जाणेवि पुव-वर-सम्बन्धु विहि मि ताह ।
सीय कारणेण सोमित्ति-रावणाह 119॥ अणु वि बहु-दुक्ख-णिरन्तराई । अ-पमाण, सुर्णेवि मवडराई ॥२॥ दहमुह-मायर-जाणइ-बलाह। सुग्गीष-वालि-भामण्डलाह ॥३॥ के वि भासकिय गय भयहाँ के वि । के वि थिय णिय-मणे मारु मुपवित के वि थिय चिन्ता-सायरें बिसेवि । के वि हुब महन्दुस्ल विउद के वि॥५ कवि सयलु परिग्गड परिहरेवि । अस्थाएं-थिय पावन लेवि ॥६॥ अपणक के वि थिय पर धरदि। सम्मत-महरुमा खन्धु देवि ॥७॥ भूगोयर-खयर-सुरासुरे । सयल हि म मुणिहि गारमेय-सिरहिट णासेस-जीव-मम्भीसणासु । कि लाहुकार विहीसणास्तु ॥२॥
'मो मो गुण-उबहि आम्हे हि ऍउ चरिट
घत्ता पर होन्हें विष्णय-सहावें। आयणि मुणिहि पसाएं' ॥१०॥
[ ] आहेला!" तो एघन्तरे सिलोयग-पत्त-प्पामो ।
वृत्त कियन्तवणं सरसेण रामो ॥३॥ 'परमेसर सघर-धरिति-पाल। भई तुज्य पसाएं सामिसाल ॥३॥ सुपषाम-गाम-पट्टण-शिउत्त। श्यणापर देस अगेर भुत्त ॥311 माणियउ पषर-पोवर-धणा। सुरषहु-रुवोहामिय-धणाउ || अच्छिउ विउलेहि जण-मगहरेहि । मिम्बाण-विमाणे हिं वर-घरेहि ॥५॥ आरूतु तुरय-गय-रहबरेहि। कीलिड वण-सरि-सर-यहरो ॥१॥ देवगई वरथई परिहिमाई। इच्ऍ अगार पलाहियाइँ ॥ णिस्वम-गचियई पलोड्याईं। बहु-भय-गैय-धज्नई सुमाई 14
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पंचासीमो संधि
१३९ [३] सीताके कारण जो लक्ष्मग और रावणमें विरोध उठ खड़ा हुआ था, उसका सम्बन्ध उनके पूर्वजन्म के वैरसे है। लोगोंको यह ज्ञात हो गया और भी उन्होंने रावण, विभीषण, जानकी, राम, सुग्रीव, बालि और भामण्डलके सीमाहीन, दुःखमय जन्मान्तर सुने | उन्हें मुनकर कुछ तो आशंकासे भर गये और कुछ डर गये। कितनोंने अपने मनसे ईाको निकाल दिया! कई चिन्ताले सदमें डून ये, नितने ही जहाखी हुए, कईको महान् बोध प्राप्त हुआ । कितनोंने ही, समस्त परिग्रह छोड़कर, अविलम्ब संन्यास ले लिया और दूसरे कितनोंने ही प्रत धारण कर लिये और इस प्रकार उन्होंने अपने सम्यक्त्वको सहारा दिया। उसके अनन्तर मुनियोंके सम्मुख अपना सिर झुका देनेवाले मनुष्यों, विद्याधरों और देवताओंने समस्त जीवोंको अभय देनेवाले विभीषणको साधुवाद दिया। उन्होंने कहा, "हे गुण समुद्र विभीषण, आपके विनयशील स्वभावके कारण ही इम मुनियों के प्रसादसे यह चरित सुन सके" ॥१-१०॥
[४] इसी अन्तरालमें त्रिलोक में अग्रणीनाम रामसे आकर कृतान्तवक्त्रने वेगपूर्वक कहा, "पहाड़ों सहित घरतीके पालन करनेवाले हे स्वामी श्रेष्ठ, मैं आपके प्रसादसे अच्छी प्रजापाले गाँवों, और नगरोंमें नियुक्त होता रहा हूँ। मैंने समुद्र और समस्त देशोंका भोग किया है। देववनिताओंके समान रूपधनवाली महान् पीन स्तनोंवाली सुन्दरियोंका उपभोग किया है, बड़े बड़े अश्वों गजों और रथोंपर मैंने सवारी की है। बड़े-बड़े जन-मनोंके लिए सुन्दर देव विमानोंके समान महाप्रासादोंमें रहा हूँ। मैंने दिव्य सुन्दर वस्त्र पहने हैं, इच्छानुसार अपने अंगोंका प्रसाधन किया है। मैंने अनुपम नृत्य देखे हैं। तरहतरहके गान और वाद्य मैंने सुने हैं। इस प्रकार इस लोकके
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पजमचरिउ
अणुहुसु सयल इहलोय-सोक्तु । जम्मही विणलक्खिाउ अहि मि दुक्ख ९ महु पुस विवाइड देवि जुज्छु। मिय-सत्तिएँ-पसणु कियठ सुझु ॥1.
धत्ता एयहि दासरहि
उबटुकह जाव ण मरण । मुक्क-परिग्गहर
वा लाम केमि तव-धरण ||
[५] ॥हेल|| लमह जग असेसु किय-णरवरिन्द-सेव ।
दुल्लहु णवर एक्कु पावज्ज-रयणु देव || || ते को लहु हत्थुस्थल्लहि। मई परलोय का मोमलहि ॥२॥ श्य-वयणे हि जण जणियाणन्दें। बुतु क्रियन्तवत्तु वलहों ।।३।। 'वच्छ वच्छ पावज लरपिणु । सव्व-सा परिचाउ करेपिणु ||४|| किह चरियण पा-हर हि ममसहि । पाणि-पर्स मोयशु भु सहि ॥५॥ किह दूसह परिसह वि सहसहि । अझै महामल-पल धरेसहि ॥१॥ किह धर्सणयल-सयण सोचेसहि । काणण वियण घोर णिसि सहि ।।।। किह दुकर-उपवास करेस हि। पक्ग्यु मासु छम्मास गर्मसहि ।।८ लष-मूल आयावणु देसहि । तुहिण-कणावलि देहे धरसहि ।। || तो संणागि मणह 'सुह-माणु । जो छमि तुइ प्येह-रसायण ।।१०॥ जा सछीहरु उज्झै वि सरकमि । सो कि अबरइँ सह वि ण सक्कमि ।।११
घाता मित्रु-सुसउहण दह-इरि जाब णिहम्मद । ताव रपणेण बरि
अजरामर-देसह) गम्मत
[६] ॥ हेला || कालेण बि गरिन्द बड़िय-मह व-सोउ ।
होसइ तुह समाणु अवरहि वि स विनोउ ||१||
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पंचालीमो संधि
समस्त सुख मैं भोग चुका हूँ। जन्म भर मैंने कभी दुःखका नाम भी नहीं सुना। मैंने शक्ति भर हे देव, आपकी सेवा की है। मेरा पुत्र मर गया है। हे राम, इस समय सब प्रकारका परिग्रह छोड़कर उत्तम तपस्या स्वीकार करता हूँ-तबतक कि जबतक मौत नहीं आती ॥१-११।।
[५] जिसने राजाकी सेवा की है, वह दुनिया में सब कुछ पा लेता है, परन्तु हे देव, उसके लिए यदि कोई चीज दुर्लभ है तो वह है संन्यासरूपी रत्न। इसलिए. शीव आप थोड़ा हाथ लगा दें और मुझे परलोकको चिन्तासे मुक्त कर दें। यह सुनसुन कर जनोंको आनन्द देशले रमतान्तवनले कहा, "हे वत्स, मंन्यास लेकर और सब परिमहका त्याग कर चयांके लिए दूसरों के घर कैसे घूमांगे हाथके पात्र में भोजन कैसे करोगे, दुःसह परीयह कैसे सहन करोगे, शरीरपर मैलकी परतें कैसे धारण करोगे, धरतीपर कैसे सोओगे, घोर विषम काननमें रात कैसे बिताओगे. कठोर उपवास कैसे करोगे, उपयासमें पक्ष माह छह माह कैसे बिताओगे, वृक्षके नीचे धूप कैसे सहोगे और किस प्रकार हिम किरणोंको शरीरपर सहन करोगे ?" यह सुनकर सेनापति ने कहा, "जब मैं सुखके भाजन और स्नेह के रसाय आपको छोड़ रहा हूँ और जो मैं लक्ष्मीधरको छोड़ सकता हूँ, तो फिर ऐसी कौन सी चीज है, जिसे मैं सहन नहीं कर सकता । हे देव, मृत्युरूपी वसे यह देह-रूपी पहाड़ ध्वस्त हो, इसके पहले मैं अजर-अमर पदको पाने के लिए जाना चाहता हूँ ॥१-१२।।
[६] हे राजन् , समय सबको शोक बढ़ाता रहता है । आपके समान दूसरोंसे भी वियोग होगा। तब बड़ी कठिनाईसे प्राण
१६
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२४॥
पडमचरित
तहम? दुक्कर जीविज छुटइ। बहु-दुक्खेंहि महु हियवर फु' ।।२।। ते कजे ॥ वि पारिड थकमि। खड़-गइ-काणणे ममें विण सकमि ॥३॥ तं णिमुणे वि वस्तु दुम्भपा-वयणउ । बोलई अंसु-जलोल्लिय-गयण ॥४॥ तुहुँ स-कियस्थव जो इट वुषि। महु-सम सिय जर-तिणमिव उधि॥५॥ धीर वीरु सब-चरणु समिठहि । इस सम्में बइ मोम्मु ण पेच्छहि ॥६॥ भवसर परियाणे सार सम्बोहा , प. देवें ॥७॥ जह जाणहि उचयार गिरत। सम्मरेज तो ऍड जं सज ॥८॥ सोविसरवसुस-विणउ पणवेप्पिणु। 'एम करेमि देव' पभणेपिणु ॥९॥
वादवि मुणि-पपर खने कियस्तषषण
घचा 'दिक्ख पसाउ' पमणम्तड । पहु-णरहि समउ मिक्खन्तर 1
॥
[७]
॥ हेला ।। सहसा हुड महरिसी भव-भव-सयाहूँ भीउ ।
सीकाहरण-भूसिड करयलुत्तरी ॥३॥ तो मुणि अहिपन्देवि भमर-सय । णिय-णिप-मवणहँ सहसत्ति गय ॥२१॥ सीरामहो वि संचालहि । सा अच्छा सीपाएपि जहि ॥१॥ दीलाइ अभिय-गण-पस्थिरिय। धुव-तार व ताराममारिय था गं समष-कृषिक विमसम्बरिण। णं सासण-देवय अवयरिय ॥५॥ पेल्लेंवि पुणु पिड भासण्णु बलु । णं सरप-जलप-मारूहें अचलु ॥ चिन्तन्तु परिट्रिट पछु ल । दर-बाह-मस्मि-भषिचन-जपणु ॥७॥ 'जा चिमण-वहाँ वितसह मणे । सोवह हिय-इच्छिप-वर-सपरें ।।।।
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पंचासीमो संधि
छूटेंगे । बहुत दुःखांसे मेरा हृदय फट जायगा । यही कारण है कि आपके मना करनेपर भी मैं अपनेको रोक नहीं पा रहा हूँ। अब चार गतियोंके जंगलमें नहीं भटक सकता।' यह सुनकर रामका मुख खिन्न हो उठा। आँखों में आँसू भरकर उन्होंने कहा, "सचमुच तुम्हारा जोषन सफल है, जो इस प्रकार बोध प्राप्त कर तुमने मुझे और सीतादेवीको तिनकेके समान छोड़ दिया। यदि इस जन्ममें मोक्ष न भी मिले, तो भी तुम ग्वूध तपश्चरण करना । उचित अवसर जानकर हे देव, तुम संक्षेपमें मुझे भी सम्बोधित करना । यदि तुम मेरे उपकारको मानते हो तो जो कुछ मैंने कहा है, उसे ध्यान रखना ।" यह सुनकर उसने भी हर्षपूर्वक प्रणाम किया, और कहा, "हे देष, मैं ऐसा ही कसँगा ।" महामुनिकी वन्दना कर उसने प्रसादमें दीक्षा माँगी । इस प्रकार कृतान्तवक्त्र एक ही पल में कई लोगों के साथ दीक्षित हो गया ।।१-१०॥
[७] शत शत जन्मान्तरोंसे डर कर वह महामुनि हो गया। वह शीलके अलंकारोंसे भूषित था और हाथ ही उसके आवरण थे। उस महामुनिकी सैकड़ों देवता बन्दना कर अपने-अपने भषनोंको चले गये। श्री राघवने वहकि लिए प्रस्थान किया जहाँ सीतादेवी विराजमान थीं। अर्जिकाओंसे घिरी हुई यह ऐसी लगती थी, मानो ताराओंसे अलंकृत ध्रुवतारा हो, मानो पवित्रतासे की हुई शास्त्रकी शोभा हो, मानो शासन देवता ही उतर आयी हो। उन्हें देखकर राम उनके निकट इस प्रकार खड़े हो गये, जैसे मेघमालाओंके निकट पहार खड़ा हो। चिन्तामें पढ़कर वह क्षण भर सोचते रहे। अनकी अविचल आँखोंसे अश्रुधारा प्रवाहित हो उठी। वे सोच रहे थे, “जो कभी मेधके शब्दसे डरती थी, जो मनपसन्द सेजपर
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एउमवरित सा वणयर-सद-मयाउलएँ। बहु हीर-खुण्ट-कुस-सङ्ककएँ ॥१॥ वर-काणणे पगुण गुणन्मयि। कि रणि गमसइ मय-रहिय ॥१०॥
घत्ता
जम्पिय-पिय-दयण सुह-उप्पायणिय
अणुकूल मणोज महालह । कहिँ लक्ष्मइ एरिस लियमइ ।।१।।
[८] धि मई कियउ असुन्दरं जगहुँ कारणेणे ।
जंघल्लावियासि पिय पणें अकारणेणं ॥३॥ चिन्ते वि एव सोय अहिप्पन्दिय । णं जिण-पदिम सुरिन्दें वन्दिय ॥२॥ जिह ते तेम सुमित्तिहें जाएं। तिह पर विजाहर-सधाएं ॥३॥ 'तु स-कियरध जा. सुपसिद्धङ । जिगवर-बयणामिउ उपलबुट॥| जा वन्दणिय जाय गासे सहुँ। वाल-जुषाण-जरकियवसहुँ ॥५॥ कन्स-जणेर-कुल अप्पर जणु। पई उमालिंजसपालु वि तिहुयणु ॥६॥ पुणु णीसल करोव महबल। जाणइ अहिणन्दे धिगय हरि-वल ।।७॥ लवणकस कुमार विच्छाया । रबि-ससहर गिप्पह जाया || गय पर-परवरिन्द-विजाहर। सुन्दर-कश्य-माउर-कुरक-घरमा||
पत्ता दसा-राय-सुय
णस्वर-लक्खेंहि परियरिय । इन्द-परिन्द जिह तिह उजमाउनी पइसरिय ॥१७॥
[२] ॥ हेला ॥ एस्धन्तरे पिएवि वलएर पसरतो।
रिसह-जिणिन्द पठम-णदणहाँ अणुहरन्तो ॥१॥
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पंचासीमो सोधि सोती थी, वही सीता अब क्न जन्तुओंके शब्दोंसे भयंकर, घास, काँटो और कुशोंसे व्याप्त बियावान जंगलोंमें गुणालंकृत होकर कैसे निडरतासे रात बितायेगी। प्रिय वाणी बोलनेवाली, अनुकूल सुन्दर महासती और सुखको प्रसन्न कारोबाकी रही स्त्री कहाँ मिल सकती है ॥१-११||
[८] धिक्कार है मुझे कि जो मैंने लोगोंके कहने से इसके साथ बुरा बर्ताव किया । अकारण मैंने अपनी प्रियपत्नीको वनमें निर्वासित किया ।" अपने मन में यह विचार कर श्रीरामने सीतादेवीका अभिनन्दन किया मानो देवोंने जिनेन्द्र प्रतिमाकी वन्दना की हो । रामकी ही भाँति सुमित्राके पुत्र लक्ष्मण और दूसरे-दूसरे विद्याधरोंके समूहने सीता देवीकी वन्दना की।" उन्होंने कहा, "सचमुच तुम सफल हो जिसने प्रसिद्ध जिनवचनामृतकी उपलब्धि कर ली और जो तुम आबाल वृद्ध वनिता सभोके द्वारा बन्दनीय हो। तुमने पति और पिताके कुलोको, अपने आपको और तीनों लोकोंको आलोकित कर दिया।" इस प्रकार उसे शल्यहीन बनाकर और वन्दनाकर महाबली राम एवं लक्ष्मण वहाँसे चले गये। कुमार लत्रण
और अंकुश ऐसे कान्तिहीन हो उठे मानो सूर्य और चन्द्रका तेज फीका पड़ गया हो। नरवर श्रेष्ठ विद्याधर जो कि मुन्दर मुकुट कटक और कुण्डल धारण किये हुए थे, चले गये । लाखों मनुष्योंसे घिरे हुए दशरथ राजाके पुत्र राम और लक्ष्मणने इन और उपेन्द्रकी भाँति, अयोध्या नगरी में प्रवेश किया ॥१-१०॥
[९] यहाँ भी अयोध्याके नागरिकोंने देखा कि प्रथम सीर्थंकर ऋषभनाथके प्रथम पुत्र भरतके समान राम नगरमें
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पामचरित
जाणा-रस-सम्पुषण-निरन्तरु। जायरिया-पशु वा परोप्पह ॥२॥ ऐंतु लोक्लनिय-मुभ-वल बीयष्ठ। दीसा गिम्मु म निस्सीया ॥३॥ सोह ण पावा उसम-सप्तर। शिण-धम्म दया-परिचतम | गं जोहएँ आमेलिड ससहरु। गं दित्तिएँ जिनउ दिणयरु ॥५॥ पहु सो जे विणिवाइज रावणु। लक्खणु सक्सण-सक्वविय-तणु ।।६।। इस वेणि वि अण ते लवणकुस । सीयाणन्दण करि व गिरक कुस ॥७॥ ताणि-तेय णिबह-महाहव । जेहिं परज्जिय लावण-राहव ॥४॥ पॅहु सो वनजघु बल-सालउ । पुण्डरोप-पुरघर-परिपालउ ॥९५
ऍहु सो ससुहणु भन्दणु सुप्पह
सत्तुहणु समरे अणिवारिड । ने गा महुरारि गरि
[10] ॥ हेला || पंहु मो जगाय-पान्दगो जयसिरी-णिवासो।
रहणेसर-पुराहिदो तिहअणे पयासी ||१|| हु सो सुगीनु बराहिमाणु। पमयय-विजाहर-पहाणु ॥२॥ किहिन्ध-पाराहियु वामि-माई। तारावह तारा-वइ व माइ ॥३॥ ऍहु सो मारुइ अक्खय-विणासु । जे दिण्णु पाउ सिर रापणासु ॥३॥ ऍहु सो सुवियनाएवि-कन्तु । लसु विहीसणु विणय-धन्तु ॥५॥ पहु सो णलु घाइट जेण हरधु । पंहु पीलु विवाइड जें पहरथु ॥३॥ ऐं सो गाउ थिर-योर-बाहु में किउ मन्दोयरि-केस-गाहु ॥७॥ एंड सी पवाउ सुहर-गवर । परिपाका जो भाइच-गयरु ।।८॥
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पंचालीमो संधि प्रवेश कर रहे हैं। तरह-तरह के रसोंसे निरन्तर सम्पूर्ण रहनेवाली नागरिकाएँ आपसमें कह रही थीं-"क्या यह षही राम हैं जिन्हें अपने भुजबलका ही एक मात्र सहारा है, यह तो प्रीष्म ऋतुकी भौति शीत (सीता) से शून्य है। महासत्त्वशाली होकर भी यही प्रकार शो नही ते नि मगर स्या जैनधर्म । जैसे ज्योत्स्नासे रहित चन्द्र शोभा नहीं पाता या कान्तिसे रहित सूर्य । यही हैं वे जिन्होंने रावणका वध किया । यह लक्ष्मण तो लाखों लक्षणोंसे युक्त हैं। क्या ये दोनों लवण और अंकुश हैं, जो सीतादेवीके पुत्र हैं, अंकुश विहीन गजकी भाँति । तेजमें जो सूर्य हैं। बड़े-बड़े युद्धोंके विजेता लक्ष्मण और राम भी जिनसे पराजित हुए। रामका साला यह वहीं वनजंध है जो पुण्डरीक नगरका पालक है। यही है वह शत्रुघ्न, शत्रुओंका हनन करनेवाला जो युद्ध में अजेय है। सुप्रभा का यह बेटा है जिसने मथुराधिप मधुको मार डाला ॥१-१०॥
[१०] यह वह जनकपुत्र भामण्डल है, जो विजयलक्ष्मीका निवास है, रयनूपुर नगरका स्वामी है और जो त्रिलोकमें प्रसिद्ध है । यह यह स्वाभिमानी सुग्रीव है जो वानरविद्याधरोंका प्रमुख है। किष्किन्धाका अधिपति, बालिका भाई, ताराका स्वामी यह चन्द्रमाकी भाँति शोभित हो रहा है। अभयका विनाश करनेवाला यह हनुमान है जिसने रावणके सिरपर अपना पैर जमा दिया था। यह सुविदग्धा देवीका स्वामी है, लंकाका राजा, विनयशील राजा विभीषण | यह वह नल है. जिसने हस्तको मारा था, यह है नील जिसने प्रहस्तका काम तमाम किया। स्थूल बाहुबाला यह वह अंगद है जिसने मन्दोदरी देषीके बाल पकड़ लिये थे। यह वह सुभटोंमें महान् पवनंजय
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पउमचरित
ऍहु सो महिन्दु अक्षणहें साउ। मणवेय-महाएविएँ सहाज ॥१॥ भायड सहि तिणि विजणिउताउ | अबराहय-कहकय-सुप्पहाई 11१०॥
पुपण घणहाँ तणय सत्ति-हउ (?) जाएँ रण
पत्ता सा एह विसाला-सुन्दरि । परिरक्खिा लक्षण-केसरि ||
[१५] ।। हेला ।। णायरिया-यणासु भालाब एवं जावं ।
लक्षण-पडमणाह राउले पइष्टु तावं ॥५॥ सुरसरि-जउण-पवाह व सामरें। ससि-दिवसपर व अस्थ-धराहरें ॥२॥ कसरि म्ब गिरि-कुहरग्मन्तरें । सइत्थ व वापरण-कवन्तर ॥३॥ चिन्तइ पलु पिय-सोयम्मइयड । 'पेक्खु केव सोयएँ तवु लइयउ ।।४।। है। मत्तारु जणहणु देवरु । जणउ जणणु भामण्डलु भायरु ॥५॥ णन्दण वुइ वि एय समणस | भवराइय सासुव दीहाउस ||६|| इह महि एउ रज ऍड पहणु। ऐंड धरू हु अवरु वि वन्धव-जणु 1७॥ इय पुण्णिम-ससि-सरियह-छत्सइँ । कह सम्बइ मि मसि परिचसई ॥८॥ सुरषरह मि असक्छु किड साहसु । बहु-कालहों वि थविउ महियले जसु।।१ एहि उखमासिय-परिवायहाँ। होन्तु मणोरह पय-सड़वायहीं' ॥१||
घत्ता
लगषणु चिन्तवई 'हउँ विणु जाणाएँ
सीया-गुण-गण-मण-रजिउ ।। हुउ अनु जणेरि-पिवजित' 11॥
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पंचासमो संधि
२४९
है जिसे आदित्यनगरका संरक्षण दिया है। अंजनाके तात यह माहेन्द्र हैं। मनोवेगा और महादेवी उसकी सहायिका हैं और भी तीनों मासाएँ आर्मी, अपराजिता कैकेयी और सुप्रभा । यह है पुण्यधनकी बेटी विशल्या सुन्दरी जिसने युद्ध में शक्तिसे आहत लक्ष्मणके प्राण बचाये ॥। १ - ११ । ।
[११] इस प्रकार नागरिकाओं में वार्तालाप हो हो रहा था कि राम और लक्ष्मणने राजकुल में ऐसे प्रवेश किया मानो गंगा और यमुनाके प्रवाहोंने समुद्रमें प्रवेश किया हो, सूर्य और चन्द्र आकाशमें स्थित हों, गिरिगुहाओंमें जैसे सिंह हो, व्याकरणकी कथाके भीतर जैसे शब्दार्थ हो । शोकाकुल होकर राम अपने मन में सोच रहे थे कि देखो सीतादेवीने किस प्रकार तप ले लिया। मैं उसका पति हूँ, लक्ष्मण जैसा उसका देवर है, जनक जैसे पिता हैं, भामण्डल जैसा भाई हैं, लवण और अंकुश जैसे उसके दो यशस्वी बेटे हैं, दीर्घ आयुवाली अपराजिता जैसे उसकी सास है। यह वही धरती है, वही राज्य है, यही वह नगर है, यही घर है, यही वे अन्यान्य बन्धुजन हैं। क्या पूर्णिमा चन्द्रमा समान इन सुन्दर छत्रों को उसने सहसा ठुकरा दिया है। सीतादेवीने इस समय ऐसा साहस दिखाया है, जो बड़े-बड़े देवताओंके लिए असम्भव है। इसमें सन्देह नहीं कि उसका यश बहुत समय तक इस दुनिया में रहेगा । परन्तु इस समय प्रजानाशक लांछन लगानेवालोंकी मनोकामना पूरी हो । सीतादेवीके गुणसमूह से मनोविनोद करनेवाले लक्ष्मण भी यह सोचकर हैरानी में पड़ गये कि सीतादेवी इतनी उदाराशय निकलीं कि उन्होंने देवताओंकी भी विभूतिको ठुकरा दिया ॥१-२१||
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५
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पढमचारिज
[१२] सो एत्तहे दि साथ पा-पुक्त मोह-पत्ता ।
तियसं-इ-णिन्दिया अइ-महम्त-ससा ॥१॥ जा पाउस-सिरि स्व सु-पोहर । आसि तियस-अबइहि वि मनोहर ॥२॥ सातवेण परिसोमिय जाणह। दिवसयरें गिम्भ महा-गइ ॥३॥ दुप्परिणाम पूरे परिसेसिय। वण-मलोह-कञ्चऍण विहूसिय ॥४॥ परमागम-जुत्ति किय-पारण ।। वस्पिकिय पचन्द्रिय-वर-वारण 11५|| हहिर-मंस-परिवजिय-वहीं। जीविएँ जगहों जणिय-सन्देही ।।६।। पाय-अस्थि-णिवाह-सिर-जालो। फरसाण सम्पन्न कराली ।।७।। घोरु वीर तन-मरण करेपिणु। हायणाई वाटि गमेफ्पिण ।।८।। दिण तेसीस समाहि लहेपिणु। थिय इन्दही इन्दत्तण लेप्पिणु ॥९॥ ठियसावा गम्पि सोलहमएँ। घर-विमाणे प्रप्पह-शाम ॥१०॥ करण-सिहरि-सिहर-संकासएँ। विबिह-रपण-पह-किया-विमलासऐं।"
पत्ता
हरिरामुजियठ सग-मोक्ष-मुहर
अवरु वि जो दिक्ख लएसह । सो सम्वा स इँ भु जेसह ।।१२॥
इय पोमचरिय-सेसे
सयम्भुएवस्स कह बि उवरिप । तिहुयण-सयम्भु-रहए
सीया-सण्णास-पक्वमिणं ।। वन्दइ-वासिय-महकइ-सयम्मु-लह-अमआय-चिणिवः । सिरि-पोमचरिय-सेसे
पञ्चासीमो इमो सग्गो।।
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पंचासीमो संधि [१२] उधर पति और पुत्रसे विमुख, देवताओंके भी ऐश्वर्य को ठुकरा देनेवाली, अत्यन्त सत्त्वसे विभूषित सीतादेवी तपमें लीन हो गयीं। वह पाषस शोभाकी भाँति सुपयोधरा (बादल और स्तन ) थी। देव-सुन्दरियोंसे भी अधिक सुन्दर थी । यद्दी साध्वी सीता तपसे ऐसे सूख गयी जैसे ग्रीष्मकाल में सूर्य ने माल को सुखा दिगा हो । हाभाषको त कोसों दूर छोड़ चुकी थी। अत्यन्त मैली कंचुकीसे वह शोभित थी। परमशास्त्रों के अनुसार वह पारणा करती थी । पाँवों इन्द्रियोंरूपी हाथियोंको उसने अपने वशमें कर लिया था। उसके शरीरका जैसे रक्त और मांससे सम्बन्ध ही नहीं रह गया था। यहाँ तक कि लोगोंको उसके जीवन में शंका होने लगी । शरीरके नाम पर हड़ियोंका ढाँचा और नसोका जाल रह गया था। रूखीसूखी उसकी चमड़ी थी और सब ओरसे भयावनी लगती थी। इस प्रकार घोर धीर तप साधते हुए उसने बासठ साल बिता दिये । फिर तैतीस दिनोंकी समाधि लगाकर उसने इन्द्रका इन्द्रत्वं पा लिया। सोरहवें स्वर्ग में जाकर बह सूर्यप्रभ नामक विशाल विमानमें उत्पन्न हुई। उसके शिखर स्वर्गगिरिके शिखरके समान थे। उसमें जड़ित नाना रत्नोंकी आभासे दिशाएँ आलोकित थीं। वासुदेव और उनकी पत्नीके सिवाय
और भी जो दूसरे लोग दीक्षा ग्रहण करेंगे वे स्वर्ग और मोनके सुखोंको स्वयं भोगेगे ।।१-१२।। इस प्रकार महाकवि स्वयंभूरंच द्वारा अवशिष्ट पद्मपरितके शेषमागमें त्रिभुवन स्वयंभू द्वारा रचित 'सीता संन्यास
और प्रयध्या' नामक प्रसंग समाप्त हुआ। चंदइके भानित महाकवि स्वयंभूके छोटे पुत्र त्रिभुवन स्वयंभू नारा रचित, शेष-भागमे यह पचासीवी सन्धि समाप्त हुई।
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[ ८६. छायासीमो संधि ]
उवलद्वेण इन्दसण
तिहि मिं जगहिं जं णित्रमंड
सीय पहुत्त किं वणिज । आइ पर तं जितासु उवमिजइ ॥ ध्रुव०
[]
मणि गौत्तमु मगहंसरेण ||१|| विषय में हुए कि ॥२॥ वदेशी सण्णासण विहाण ||३|| कहि काइँ करइ रामचन्दु ||४|| किं मामण्डलु किं जणउ कमउ ||५|| किं लङ्काहि सुग्गी सा ||६|| चन्दीयरि जम्बवु इन्दु कुन्दु ||७|| मिह सुसंणु अङ्ग तनु ||८|| अणुवि आट विसुअ-साइँ || ९ || अरु त्रि किङ्कर जो वरूहों को वि ॥१०॥ घत्ता
तो उत्तम लाइय करेण 'परमेसर गिर्ने । बोलीणऍ सासऍ सुह-जिहानें । कन्तुज्झि एव दणु विमद्द्दु । किं णु का समोर-तनउ | किं लवणु काई अक्कुसु कुमारु । किं पण दहिहु महिन्दु |
।
45
किं णलु पीलु विसप्तद्दणु अ अट्ट विणारायण-तणय काहूँ । गड गड चन्द्रकरु तुम्मुद्दो वि ।
किं अवराय विमष्ठ मइ किं सुमित्रा सुप्पद गुण-सारा ।
काई करेंसइ दोण-लय ऍड सय त्रिं कजरहि भदारा' ।। ११।।
[ २ ]
य
कथर्णे हि मुणि-क्षण-मणहरेण । वुश्च पच्छिम जिण गणहरेण ||१|| आपणहि संणिय दिव-मणाहँ । बहु-दिवसेंहिं राहब-लक्खा ||२|| दस- दिसि परिममिय-महाजसा है । अमुणिय प्रमाण-कय- साहला सुरवर-प्रण-णयण-मगोहराएँ । मुसुमूरिय अश्विरपुरवराह ||४||
॥३॥
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हिमालीवों संधि
[1] 'इन्द्रपद की उपलब्धि होनेपर सीतादेवीने जो प्रभुता पायी उसका वर्णन कौन कर सकता है ? तीनों लोकोंमें जो भी अनुपम और अद्वितीय है, केवल उसीसे उसकी तुलना सम्भव है। यह सुनकर राजा श्रेणिकने अपने हाथ माथेसे लगाते हुए गणधर गौतमसे पूछा-“हे परमेश्वर, जब विशालकाय
और महाशक्तिशाली पुत्र लवण और अंकुशने दीक्षा ले ली और स्वयं सीतादेवीने शाश्वत सुखका निथान संन्यास अंगीकार कर लिया तब दानवोंके संहारक राम क्या करेंगे? लक्ष्मण क्या करेंगे ? पवनपुत्र क्या करेगा ? भामण्डल, कनक और अनक क्या करेंगे? हनूमान, माहेन्द्र, चन्द्रोदर, जाम्बवान, इन्दु और कुन्द क्या करेंगे । नल, नील, शत्रुघ्न, अंग, पृथुमति, सुषेण, अंगद और तरंग क्या करेंगे, लक्ष्मणके आठों पुत्र क्या करेंगे और साढ़े तीन सौ पुत्र क्या करेंगे? गय, गवार, चन्द्रकर, दुर्मुख तथा रामके दूसरे-दूसरे अनुचर क्या करेंगे। विमलबुद्धि अपराजिता, सुमित्रा, गुणश्रेष्ठ सुप्रभा, द्रोणराजाकी बेटी विशल्या क्या करेगी, हे देव यह सब कृपया बताइए"॥१-११।।
[२] यह वचन सुनकर मुनिजनोंके लिए सुन्दर अन्तिम गणधर गौतमने कहना प्रारम्भ किया, "हे श्रेणिक, सुनो । बताता हूँ। दृढ़ मनवाले राम और लक्ष्मणको जिनका यश दशों दिशाओं में फैला हुआ है जिन्होंने साहसके अगणित काम गिनाये हैं, जो सुरवर और मनुष्योंके मेत्रों के लिए, आनन्ददायक हैं, जिन्होंने बड़े-बड़े शत्रुओंके नगरोंको नष्ट कर दिया है, कंचन
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२५४
पढमवरित
कच्चणथागहों कजणरहेण । पट्टबिउ लेहु कबण-रहेण ।।५।। 'मट्ठगि जनह जोगामिद । सुर मरिन मुबाणिय कुल-बिसुद्धा दुइ दुहियउ साहें वियश्खणाड । अहिणघ-जोन्वणउ स-ठसवणाउ 11|| मन्दाइणि-णाम तहि महन्त । लहु स्वम्दमाय पुणु रूपवन्त ॥८॥
घत्ता ताह सयम्बरकारपण मिलिय सयल महि-गोयर खेयर । तुम्हहि विशु मोहन्ति ण वि इन्द-पढिन्द-रहिय गं सुरवर ॥९॥
ऍट परिमाणेवि सहसति सेहि। सरहसे हि पाम-चोसहि ॥३॥ परिपेसिय भवस-कवण वे वि। इरि-गन्दण अट कुमार जे वि ॥२॥ गं पचलिय अट वि दिस-करिन्द । णे वसु न बट वि विसहरिन्द ॥१॥ अण्णेक तगय साहण-समाण । पट्टबियाहुटु-सब-रूपमाण ॥१॥ मवर वि कुमार दित-कविण-पेह । अधरोप्पर परिवरिय-सणेह ।।५।। स-धिमाण पयह गहाणेण । परिडिय-विजाहरभरणेण ॥५॥ र्ण जुग-सएँ हुअवहु पन्द-सूर । सणि-कणय-केज-गुरु-राहु कूर ।।।। सोयन्त चउरिसु महि समस! संक्रमणथाणु खरोण पत्त ॥
घचा छत्त-चिन्ध-सिगिरि-णियरु दीसह पुरै कुमार-सधाएं । णं विवाह-मणवु बिउलु णिम्मिड लवणसह विहाएं ॥५॥
[ ] तो पहें पेवेवि भागमणु ताहूँ। दससन्दा-गन्दण-णन्दणा ॥१॥ वेयड्न-णिवासिय साणुराय। अहिमुह विजाहर सबक पाय ||२॥
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૨પ
छायासीमो संधि स्थानके राजा कंचनरथने कंचनरथके साथ बहुत दिनोंके बाद एक लेख भेजा है कि मेरी पत्नी जयद्रथ जगमें अत्यधिक प्रसिद्ध है। देवलक्ष्मी के समान सुन्दर और विशुद्ध कुलकी है। उसकी दो सुन्दर कन्याएँ. हैं जो लक्षणोंसे युक्त एवं अभिनव यौवनसे मण्डित हैं। पन में बड़ीमा जाम महाविनी दे और छोटीका नाम चन्द्रभागा है जो अत्यन्त सुन्दरी हैं। उनके स्वयंवरके निमिप्स समस्त घरतीके मनुष्य और विद्याधर इकडे हुए हैं। परन्तु तुम्हारे बिना वे उसी प्रकार शोभित नहीं होते जिस प्रकार देवता इन्द्र और प्रतीन्द्र के मिना ॥१-||
[३] यह जानकर राम और लक्ष्मणने हर्षपूर्वक कुमार लवण और अंकुशको वहाँ भेज दिया । लक्ष्मणके आठ पुत्र भी वहाँ गये। वे ऐसे लगते थे मानो आठों दिशाओंसे दिग्गज चल पड़े हो या आठ वसु हो या आठ नागराज । और भी साधनों एषं सेनाओं के साथ साढ़े तीन सौ पुत्रों को वहाँ भेज दिया। और भी दूसरे कुमार जिनके शरीर गठे हुए थे और एक दूसरेके प्रति बढ़-चढ़कर प्रेम दिखाना चाहते थे, विद्याधरोंके समूहसे घिरे हुए वे लोग विमानों द्वारा आकाशमार्गसे चल पड़े। मानो युगका बिनाश होनेपर आग चन्द्र सूर्य शनि बुध शुक राहु और मंगल हों। चारों दिशाओंमें समस्त घरतीको देखते हुए वे एक क्षण में कंपनस्थान पहुँच गये। छत्र चिह और पताकाओंका समूह नगरमें कुमारोंके समूहसे ऐसा लगता था, मानो लवण और अंकुशके विवाह के लिए विशाल विवाह मण्डप बनाया गया हो ॥१-२॥
[४] इस प्रकार दशरथपुत्र रामके पुत्र लवण और अंकुशका आगमन नभमें देखकर विजयाध पर्वतपर निवास करनेवाले सभी विद्याधर प्रेमके साथ अपना मुख नीचा किये हुए आये।
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परमचरित
स? तेहिं मिलेंवि कणरहासु । गय समुह सयम्बर-मालवासु ||३|| जहि गाद णिविड वह मञ्च वद्ध । पाावइ सकइ-कय कहन-बन्ध ॥१॥ जहि परपर पदिय-बहु-विचार । खणं गर्ले बन्धन्ति मुगन्ति हार ।।५।। खणे लेन्सि आणेयई भूसणाई। घउ दिसु जोयन्ति नियंसणाई ।।३।। जहि सुम्वइ वीणा-वेणु-मद्दुः । पगु-पह-मुख रुना णिणदु ।।। जहि मणहरु के वि गायन्ति गैड । अइ सु-सरु सुहावउ शिविह-मंड ।।८॥ सहित कुमार सयल वि पद्दष्ट। णाणा-मणिमय-म हि णिविट्ट ॥॥
घसा णिय-रूपोहामियामयण सोलह-शाहरणालरिया। माणुस-वेसे धरणि-यले ___ अमर कुमार पाएँ अवयरिया ॥१०॥
तो रूव-पसपण नुः धेपिण वि कण्णा णिरुवम साहनगड करिणि-वलगगड मणि-विमल-कयासहीं मियय-णि घासहों । णव-कमल दलस्टिज सरसह-सच्छिउ । स-विससे भलिउ गं दुह मल्लिर गुण-गण-पडिहश्चित वर-व-लच्छिउ थिय चउहु मि पामहिं मन-सहासहि मोहण-लय-मायर पकहि भारत ण सुकह-णिवदउ कहा रस सोहमग-विसेस ते धवपमें भइ-विसम-विसावउ विसहर-दावन ज रणे दुन्तिर मग्गण-पन्तित
गहिय-पाहणउ । जण-मण्य-विन्धमा । सुह-दिणे णग्मयड । णाई समागयर ॥॥ मयणे मल्लियउ। ण संचालथान || वर जोयन्तियउ ।
मोहन्तियउ || मणे पइसस्तियः । यं णासन्तियउ ॥५॥ णं मारन्तियउ । घिरहु करन्तियः ॥६॥
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लायासीमो संधि
२५७ उन सबके साथ कंचनरथसे मिलकर वे लोग सीधे स्वयंवर मण्डप तक गये। उसमें सघन और मजबूत मंच बँधे हुए थे, जैसे संस्कृतमें निबद्ध काव्यबन्ध हो । वहाँपर मनुष्य तरहतरह के विकार प्रकट कर रहे थे। कोई एक पलमें गले में हार बाँध लेता और कोई उसे छोड़ देता। कोई एक पलमें कितने ही आभूषण स्वीकार कर लेता। कोई चारों ओर अपने वस्त्रोंका प्रदर्शन कर रहा था। कहीं वीणाका सुन्दर शब्द सुन पड़ता था
और कहीं पर घट-पटह, मुरव और मलाकी धनि | वहाँपर कोई सुहावने स्वर में अनेक भेद.प्रभेवोंके साथ सुम्मर गीत नगा रहा था । वे सब कुमार जाकर उन मंचोपर आसीन हो गये। वे ऐसे लगते थे, मानो अपने रूपसे कामदेवको भी तिरस्कृत करनेवाले सोलह प्रकारके अलंकारोंसे शोभित देवकुमार ही मनुष्य रूपमें धरतीपर अवतरित हुए हों ।।१-१०॥
[५] रूपसे खिली हुई दोनों कन्याएँ सजधजकर गयीं। अनुपम सौभाग्यसे भरपूर वे दोनों हथिनी-सी जान पड़ती थी। दोनों ही जनमनको बेधने में समर्थ थीं। एक शुभ दिन, वे दोनों मणियोंसे रचित अपने आवाससे निकली,मानो नवकमलाके समान आँखोंवाली सरस्वती और लक्ष्मी ही आ गयी हो । या मानो कामदेवने विचारपूर्वक दो सुन्दर बरछियाँ छोड़ दी हो । या गुणगणोंसे युक्त वनलक्ष्मी ही चल पड़ी हों । घरोंको देखता हुई वे समीपस्थ हजारों मंचोंके निकट ऐसी खड़ी हो गयीं, मानो सम्मोहनलताकी मादकताने आकर मोहित कर दिया हो, मानो हृदयमें प्रवेश करती हुई सुचि द्वारा रचित कोई रसमय कथा हो, मानो सौभाग्यविशेषके व्यपदेशसे नष्ट करना चाह रही हो, मानो अत्यन्त विषम और नाशक, साँपकी डाढ़ हो, जो मारना चाहती हो! मानो युद्ध में आती हुई तोरोंकी कतार
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१५८
नंगि फुरन्ति णं आह-धार
पचमचरित
दिणयर-दित्तिउ दिष्ण पहार
अग्ग करिणि समारुहिय गावs चारु बसन्त - सिरि
सन्तावन्तिय । मुच्छावतिय ॥७॥
घार सयल रिसाइ णरवर । विहिं कुन्धुम पन्तिहि वरुवर ॥८॥
[ ६ ]
।
जोयवि भू-गोयर चत्त केव । पुणु मल्लिय जिाहर पारिन्द | अरे वि परिहरेंषि गया तेधु जहिं छत्त सण्ड मण्डवु महन्तु । रविकन्त- पहुज्नोइय दियन्तु । पेक् वि लवणल हल तुरिज सच् जेोवरि पुणु मन्दारणीऍ । अङ्गसहाँ चन्दमायाएँ ते । किठ कबलु खुइँ आयाएँ । णं णिहि चुकई वाइय-कुलाइँ |
खम-दऍहिं कुमइाड़-मग्गु जैव ॥ १ ॥ णं गङ्गा-जडणेंहिं बहु गिरिन्द || २ || ते सीमा-णन्दण वे वि जेथु ॥३॥ सुर-मणि-कर-नियरभार-वन्सु ॥४॥ अहि मिमणिहि मह-सोह दिन्तु |५| । गउ परिगलेबि चिरु रूव-मध्यु ||६|| परिचित्त माल गय-गामिणीऍ ॥ ७ ॥ परिओसिय हय सयल देव ||८|| विच्छाग्रहूँ जायहूँ वर स्याइँ || २ || चिन्तन्तिरमण - हिययाइलाई ||१०||
धत्ता
'किं विणिमिन्दहुँ मद्दि गयणु किं साथ गिरि षिवरे पईस । घीसोहग्ग-मगा-रहिय जाते जहिं जगण दीस हुँ' ॥११३॥
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आपसी
२०६
थी जो लोगोंको विरह ( विरथ और वियुक्त ) करना चाह रही हो, मानो ग्रीष्ममें चमकती हुई सूर्यदीप्ति हो जो सन्ताप पहुँचाना चाहती हो, मानो प्रहार करनेवाली शस्त्रकी धार हो जो मूर्छित कर देती है । आगे हथिनीपर बैठी हुई धाय सभी नरश्रेष्ठ उन दोनों को दिखा रही थी मानो भौरोंकी कतारें वसन्त शोभाके लिए विशाल वृक्ष दिखा रहीं हो ॥१-८॥
[६] मनुष्यों को देखकर भी उन्होंने ऐसे छोड़ दिया, जैसे क्षमा और दयाशील लोग प्रगति के मार्गको छोड़ देते हैं। फिर उन्होंने विद्याधर राजाओंको ऐसे छोड़ दिया जैसे गंगा और यमुना नदियाँ बड़े-बड़े पहाड़ों को और भी दूसरे दूसरे राजाओंकी उपेक्षा करती हुई वे वहाँ पहुँचीं, जहाँपर सीतादेवीके दोनों पुत्र बैठे हुए थे। जहाँ छत्रसमूह से शोभित विशाल मण्डप था, उसमें इन्द्रनीलमणियोंके समूइसे अँधेरा हो रहा था । दूसरी ओर सूर्यकान्त भणियोंसे आलोक बिखर रहा था। और भी दूसरे दूसरे मणियोंसे उस मण्डप में अनूठी शोभा हो रही थी। वहाँ लवण और अंकुशको देखकर सभी का अपना रूपगर्व कार हो गया। उनमें से जेठे भाईके ऊपर गजगतिवाली मन्दाकिनीने अपनी माला डाल दी। और चन्द्रभागाने भी उसी प्रकार छोटे भाईके गले में माला पहना दी । यह देखकर आकाशमें सभी देवता प्रसन्न हो गये। उनमें कलकल होने लगी । नगाड़े बज उठे । इससे सैकड़ों वरोंके मुखका रंग फीका पड़ गया । मानो आनेकी हड़बड़ीसे आकुल निघिसे वंचित चोरोंका समूह हो । हताश वे सोच रहे थे कि हम धरती फाड़ या आकाश चौरें। इन कन्याओंके सौभाग्य से वंचित होकर कहाँ जाँय जहाँ मनुष्यों का अस्तित्व न हो ॥१- ११।।
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२६०
पडम चरित
ताव दुग्णिवारि-माणा। सिसय-तीस-वीस-पमाणया। भुणेवि वाल विक्कम-मुरुकया। सपिणयं दुअन्तहि संगण । फणि-उलं च भडन्त-करयं । समर-रस-दिवावल-परियरं । रह-विमाण-हय-गय-णिरम्सरं । जाद वलह किर भीसगाउहं ।
मणे विरुद्ध सोमिप्ति-णन्दण! In पलय-काल-रूवाणुमाया ॥२॥ सयस अवर वर पासें तुझ्या ॥३॥ घण-उलं व णह-यले णिसपणयं ।।५।। दिण्ण-घोर-गम्मीर-तूरयं ।।५।। पाउसम्बरं णं स-धणुहरं || विबिह-चिन्ध-छाइय-दियम्तरं ॥७॥ विहि मि राम-णादणहं सम्मुहं ॥८॥
पत्ता
साव तेहिं अहिं वितहि लसछीहर- महएवी-जाएँहि । धरिउ णियय-मापरेंहिं सहुँ गं तइलोक-चाकु दिसणा' हि ॥५॥
[4] 'अहो अहो मायरहो म काहाँ कोहु । मं वरसारहो रहु-कुले विरोड ॥३॥ जो जाय-दिनही लग्गेवि सणेहु । सो धललक्षणहूँ म खयहाँ णेहु ।।६।। भायहँ पर कपण, कारणेण । भवरीप्यरु काई महा-रणेण ॥३॥ गुण-विणय-सया-खम-णासणेण । तिहुश्रणे धिक्कार-पगासणेण ॥१॥ कलहन्ति ५ वि पर जेच राय। कु-पुरिस विपणाण-कला-अण्णाय ।। तुमहिं पुशु सयलभर समस्थ । गुणवन्त वियाप्पिय-अस्थसस्थ ॥६॥ लजिजइ अण्णु वि राहवासु । किह वयशु पिएसहुँ गम्मितासु ।।७।। सुट्ट वि मय-मत्त मिझिय-भि । किं णिय-करु परिचप्पन मया ॥४॥
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लापासीमो संधि
२६. [५] इसी बीच में दुनिवार शत्रुओंके महारक, लक्ष्मणके पुत्र अपने मनमें विरुद्ध हो उठे। प्रलयकालके रूपके समान तीन सौ पचास विक्रमसे भरे हुए देवताओं के साथ उन्हें बच्चा समझकर वे तथा दूसरे लोग वहाँ पहुँचे। उन दोनोंने मी अपनी सेना सजा ली, वह गर्जन मेघ कुलके समान आकाश में ही सुनाई दे रहा था । नागकुलके समान अन्यन्न भयंकर, घोर और गम्भीर नगाड़े बजाये जा रहे थे । स मरके लिए कमर कसे हुए योद्धा पावस मेघों के समान धनुष धारण किये हुए थे। रथ विमान अश्व और गजोंकी उस सेनामें रेट-पेल मची हुई थी। विविध चिह्नों और पताकाओंसे दिशाएँ ढके चुकी थीं। भीषण आयुध जब तक रामके पुत्रों के सम्मुख मुड़े या न मुड़े, तर तक लक्ष्मीकामाचीसे शE मा पुमारोंजे अपने भाइयोंके साथ उसे ऐसे पकड़ लिया, मानो दिग्नागोने त्रिलोकचक्र पकड़ लिया हो ||..॥
[८] तब लोगोंने कहा, अरे अरे भाइयो, तुम क्रोध मत करो, और इस प्रकार रघुकुल में विरोध मत बढ़ाओ। जन्मदिनसे ही राम और लक्ष्मण में स्नेहकी जो अदद धारा बह रही है, उसे भंग मत करो | दूसरोंकी इन कन्याओंके लिए आपसमें महायुद्ध करना व्यर्थ है | इस युद्ध में गुण विनय स्वजन और क्षमाका विनाश होगा, तीनों लोक धिक्कारेंगे । इस प्रकार जो राजालहते हैं, वास्तबमें वे कुपुरुष हैं, और विज्ञान एवं कलासे अनधगत हैं। परन्तु आप सब समर्थ हैं, गुणवान हैं और अर्थ एवं शास्त्रको समझते हैं। और फिर थोड़ी सी रामसे लज्जा रखनी चाहिए, वहाँ जाकर किस प्रकार उन्हें अपना मुख दिखायेंगे। ठीक है कि मतवाले हाधीकी तूंडपर खूब भौरे भिन-भिना रहे हो, पर इसके लिए क्या वह अपनी सूंड चपा
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पउमचरित
घाता इय पिय-वयणे हि भवरे हि मि ते उवसामिय माण-समुण्णय । पण वर-गुरु-मन्तकखारहि किय गइ-मुख-णिवद्ध षहु पण्णय ॥१॥
[५] पुणते भादलावि तापनार। ग. काहिं लहस-कमार || बहु-बन्दिण बन्दै हि थुम्वमाण। घ3-दिस जण-पोमा जमाण ॥२॥ गिसुवि गिजन्तई मङ्गलाई । तर गहिराइ स-काहलाई ॥३॥ पेक्खेप्पिणु सिय-सम्पय-विहोउ । चर-भाणवडिच्छउ सरलु छोड ॥४॥ अप्पाणउ परिणिन्दन्ति के₹। हरि दसणे सुर सव-होण जेधं 114॥ 'अम्हाँ तिखण्ड-महिव इह पुत्त । लायपण-रूव-जोन्यण-णिरुत्त ॥६॥ चहु-गुण बहु-साहण बहु-सहाय । सु-पयाव अतुल-भुय-बल-सहाय ॥ ण वि जाण होण गुणेण केण। एकही विण घत्तिय माक जेण ॥८॥
अहवद काइँ विसूरिऍण जीव हो मणण समिच्छिउ
पत्ता लगभइ सयलु वि चिरु कय-पुणे । कि संपण्ड किऍहिँ पइसा 141)
[१०] मरि तुरिउ गम्पि तब-चरणु लेहुँ। में सिद्धि-बहुभ-करयल घरे?' ॥॥ ऐंउ चिन्तेवि अपहस्थिय-मयासु । पुणु गय पलेपि लक्षणही पासु ॥२ विपणविड वेपिणु "णिसुणि ताय । पजत्तर विसय-सुकेहि गय ||३|| अम्हाँ संसार महासमरें। पुट्ट-काम-जलयर-रत ॥७॥
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छायासीमो संधि
२६३ लेता है ? इन मीठे शब्दों, तथा दूसरी और बातोंसे महा मानी उन्हें लोगोंने इस प्रकार शान्त किया, मानो वह गुरुमन्त्रोंसे नागरानों के गति मुखको कील दिया हो ॥१-६॥
९] कन्याओं के साथ कुमार लवण और अंकुशको उन्होंने देखा। बहुत चारण भादोंका समूह उनकी स्तुति कर रहा था, चारों दिशाओंमें उनका यशोगान गूंज रहा था। गाये जाते हुए मंगलों, गम्भीर तूर्यों और काहलोंको सुनकर, और उनकी श्रीसम्पदाके विक्षोभको देखकर सब लोग चाहने लगे कि घरको बुलाया जाय । अब वे अपनी निन्दा उसी प्रकार करने लगे, जिस प्रकार इन्द्र को देखकर हीन रूपवाले अपने-आपको हीन समझने लगते हैं । वे कह रहे थे, "हम लोगोंके पिता त्रिलोकके अधिपति हैं, निश्चय ही हम सौन्दर्य रूप और यौवन मेंकिसीसे कम नहीं, हम भी गुणवान् और साधन-सम्पन्न हैं, हमारे भी बहुत-से माई हैं, जो प्रतापी और अतुल भुजबलसे युक्त हैं। फिर भी हम नहीं जानते कि हममें ऐसा कौन सा गुण कम है कि जिससे, एक भी लड़कीने गले में वरमाला नहीं डाली। अथवा व्यर्थ दुःख करनेसे क्या लाभ १ संसारमें जो कुछ मिलता है - वह पूर्वजन्मके पुण्यके प्रतापसे । जीवकी मनो वांछित बात दुर्जनोंके कारण क्या नष्ट हो जाती है ।।१-१।।
[१०] इसलिए अच्छा यही है कि हम तुरन्त जाकर तपस्या अंगीकार कर लें, जिससे हम सिद्धिवधूका हाथ पकड़ सकेंगे। अपने मनमें यह सब सोचकर और अभय होकर, वे मुड़कर लक्ष्मणके पास गये। उन्होंने प्रणामपूर्वक निवेदन किया, "हे तात, सुनिए, विषय सुख बहुत भोग लिये । हमने इस भयंकर घोर संसार-समुद्र में काफी घूम-फिरकर धर्मसे विमुख होनेके कारण बड़ी कठिनाईसे मनुष्य जन्म प्राप्त किया है। यह संसार
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२६४
पउमचरित दुग्गह-गमनसारापार-वीरें। मय-काम-कोह-इन्दिय गहीरें ॥५॥ मिक्स गाय घायन्त-बाएँ। जर-मरण-जाइ-वेला-पिहा ॥६॥ घर-विविह-वाहि-कल्लोल-जुत्ते। परिममणाणसावत्तपत्ते ||७|| मय-माण विउल-पायाल-विवरें। अलियागम-मयल-कुदीव-णियाँ ॥४ मह-मोहम्मड-चल-फेण-माहे। सविभीय-सोय-वरवाणकोह ॥॥ परिम्यि सुइरु अ-लहन्त-धम्मु | कह कह वि लधु पुणु माअ-जम्मु ..
एहि पण कलेवरेण जिण-पाका-तरण्डएण
घप्ता
जहिं कहि बि पन्थि जम-डामरु। जाहुँ पेसु जहि जणु अजरामरू' ॥११
[1] सुय वयणु सुणेवि लकरमणेण । अवलोऍचि पुणु पुणु सकरखणेण ॥१॥ पाचुन्वेंवि मन्यएँ बार-बार । गगर-गिरेण पणिय कुमार ॥२॥ 'इह मिय इह सम्पय एउ रज्ज । छु सुर-तिय-समु पिय-यणुमणोनु । कुल जायर आयउ मायरीउ। आयउ सम्बह मि महत्तरीड ॥४ पामाय एय अइ-सोहमाण । कञ्चम-गिरिषर-सिहराणुमाण ||५|| आयई अवराई वि परिहरेषि ।। किह वणे णिच से सहुँ दिक्रय देवि ॥ हउँ तुम्ह ओह-बन्धणे णितन्तु । कि परिसेसें वि सत्वहु मि जुत्तु' ॥४॥ पश्चिबुत्त कुमार हिं 'काई एण। बहुएषा णि जम्पिएण ॥८॥ मोवल्लि साय मा होङ विग्घु । सिज्माउ' तब-चरण-णिहाणु सिग्घु' ९
घत्ता एम मणेप्पिणु स-रहसे हिं गम्पिणु महिन्दोधुय(१)णन्दण-वर्षे । पासे महच्चल-मुणिवरहूँ लय दिक्ष पीसेस? सकरपणे ॥१०॥
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छायापीमो संधि
२६५ रूपी समुद्र आठकर्मरूपी जलचरोंसे भयंकर है । इसमें दुर्गतियोंका सीमाहीन सारा जल भरा हुआ है। यह भय, काम, कोध और इन्द्रियोंसे गम्भीर है। मिथ्या वादोंके भयंकर तूफानसे आन्दोलित है। जन्म, मृत्यु और जातियोंके किनारोंसे घिरा हुआ है। तरह-तरह की भयावह व्याधियोंकी तरंगोंसे आकुलव्याकुल है, आवागमनले सैकड़ों आवासे यह भरपुर है। मद मान जैसे बड़े-बड़े पातालगामी छेद इसमें है। खोटे शास्त्र रूपी द्वीपोंके समूह इसमें हैं। महामोह रूपी उत्कट और चंचल फेन इसमें लयालय भरा हुआ है। वियोग और शोकका दावानल इसमें धूं-धूं कर जल रहा है। ऐसे अनन्त संसार समुद्र में मनुष्य जन्म हमने बड़ी कठिनाईसे पाया है। इस समय अत्र इस मनुष्य शरीरसे हम जिन दीक्षा रूपी नावसे उस अजर-अमर देशको जायँगे जहाँ पर यमकी छाया नहीं पड़ती।।१-११।।
[११] पुत्रोंके वचन सुनकर लक्ष्मणने बार-बार उनकी ओर देखा, बार-बार उनका मस्तक चूमा और गद्गदस्वरमें कहा, "यह श्री, यह सम्पत्ति, यह राज्य, ये देवांगनाके समान सुन्दर स्त्रियाँ, सुन्दर प्रियजन, अच्छे कुलमें उत्पन्न हुई तुम्हारी ये मातायें, ये सब महादसे महान हैं। सुमेरु पर्वतके स्वर्णशिखरोंके समान, सुहावना यह प्रासाद । यह सब छोड़कर तुम दीक्षा लेकर बनमें कैसे रहोगे? मैं स्वयं तुम्हारे स्नेह सूत्र में बँधा हुआ हूँ। क्या यह सब छोड़ देना ठीक है।" इसपर कुमारोंने प्रति उत्तर में निवेदन किया, "इस प्रकारकी बहुत सी व्यर्थ बातोंके कहनेसे क्या ? हे तात छोड़ो, विघ्न मत बनो । राह कहकर, सबके सब कुमारोंने वेगपूर्वक महेन्द्र ध्वज नन्दन वनके लिए कूच किया और वहाँ जाकर उन सबने महाबल नामक महामुनिके पास दीक्षा ले ली ॥१-१०॥
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पउमचरित
[१२] एत्त व ताम भामण्डला । विहवोहामिय-भाखण्डलासु ॥१॥ रहणेउर-पुर-परमेसरासु । णिण्णासिय-सत्त-णरेसरासु ॥२॥ कामिपिण-मुह-पाय-महुअरासु।। चर-मोगाससहाँ मणहरासु ॥२॥ मन्दर-णियम्ब-कीक्षण मणासु। णिविसु वि अ-मुक्कुमणासु ॥४॥ सिरिमालिणि-मालजियासु1 मयगलहों व सुदृ-मयक्रियासु ।।५।। माहरण-विहुसिय-अवयवासु । श्रच्छन्तहाँ सुर-लीलाएँ सासु ॥६॥ एकहि दिणे सिहि-उल-कय-चमालु। सम्पाइड घासारस्तु कालु ॥७॥ कसणुज्जल-पव-घण-पिहिय-गया। पयस्यि-सुरचार अदिव-तवणु ॥४॥ अणवस्य-धोर-वर-प्योर-धारू । चल-विजुल-कय-ककुहन्धयारु ।।९।।
धत्ता
तेरथ कालें मामण्डलहौ मस्थएँ परिय तबप्ति तद्धि
मन्दिर-सत्तम-भूमिहें थकहाँ । सेल-सिहरें पं पहरणु साहों ॥३॥
[1] जं उत्तम णिवदिउ णिहाउ। सं पाणहि मेलिर जणय-जाउ ॥१॥ गय तुरिय राम-लक्षणहों वत्त । 'मामण्डलकह कालही समस' ॥९॥ तेहि मि पणिउ 'रण-सय समस्थ । अम्हहँ णिवदिड दाहिणउ हत्थु' 1॥३ कषणस-ससुहणेण सहिय । णिसुणेविण सोय-गगण गहिय ।।१।। 'हा माम माम गुण-यण-खाणि । कहिं गड मुएघि गरुमाहिमाणि ५॥
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छायासीमो संधि
२६. [१२] यहाँपर भामण्डल भी निर्द्वन्द्व राज्य कर रहा था । वैभवमें उसने इन्द्रको मात दे दी थी। वह रथनू पुर नगरका स्वामी था। उसने समस्त शत्रुराजाओको जड़से उखाड़ दिया था । कामिनियों के मुख-कमलोंके लिए वह मधुकर था । एक से एक उत्तम भोग भोगने में वह डूबा रहता। सुमेरु पर्वतकी सुन्दर घाटियों में वह विचरण किया करता, मुग्ध अंगनाओंको वह पल भरके लिए भी अपने पाशसे मुक्त नहीं करता। उसकी पत्नी श्रीमालिनी हमेशा उसके अंगमें रहती, मदमाते गजको भौति उन्मत्त रहता, एक-एक अंग आभूषणोंसे विभूषित रहता । इस प्रकार यह देवताओंकी क्रीड़ाका आनन्द ले रहा था, कि एक दिन मयूरकुल में कोलाहल उत्पन्न कर देनेवाली वर्षा ऋतु आ पहुँची। आकाश काले, चिकने, सघन मेघोंसे ढंक गया । सूर्य ओझल हो उठा। इन्द्रधनुषकी रंगीनी फैल गयी। गहरी और तीव्र जलधारा अनवरत रूपसे बरस रही थी । चंचल बिजलियों से दिशाओंका अन्धकार दूना हो उठता था। उस समय भामण्डल अपने प्रासादकी सातवीं अटारीपर बैठा हुआ था। अचानक उसके मस्तकपर तड़ककर ऐसी बिजली गिरी मानो शैल शिखरपर इन्द्रका वन्न आ पड़ा हो ।।१-१०||
[१३] मस्तक पर बिजली गिरनेसे जनकपुन भामंडल के प्राण-पखेरू उड़ गये। यह खबर तुरन्त राम-लक्ष्मणके पास पहुँची। किसीने जाकर कहा, "भामंडलको महाकालने समान कर दिया।" यह सुनकर उन्होंने कहा, "लो सैकड़ों युद्धों में समर्थ हमारा दायाँ हाथ हो नष्ट हो गया है।" शत्रुघ्न सहित, लवण और अंकुशा यह सुनकर शोकसे अभिभूत हो उठे। उन्होंने कहा, ''गुण रत्नोंकी खान, हे मामा, तुम कहाँ चले गये, महाअभिमानी, हमें छोड़कर कहाँ चल दिये । इस समय
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पउमचरित
एनिय-कालहाँ सिहि महुर-वाय । हा मुय अम्हारिय अज्नु माय' ॥६॥ शिमुणाचिउ जणउ वि नुरिउ भाउ। लहु-मायरेण कणएं सहाड ॥७॥ तहों पुणु पुष्ट्रिजइ दुक्खु काई । सो वणिजह नहबहु-मुहाई ।।६।।
घत्ता
म(?मि)ले वि असेसहि वन्ध हिं सोयामणि-संचूरिय-कायहाँ । सहसा लोयाचार किउदिष्ण मलिलु मामाल-रायहरे ॥९॥
[११] तो बहु-दिवसें ईि मारुधिस-जाउ । स-विमाणु कपणकुण्डल-पुराड ॥१॥ परियरियउ वहु-खेयर-जणेण । अन्तेउर-साहिउ णणे ॥॥ गड चन्दण-हस्तिएँ सारेउ मेरु । णं जक्खिगि-जवर हि महुँ कुवेर ३ पंक्वन्तु देस-देसात
वरद-भर-साढहि पुरा ॥४॥ कुल-गिरि-सिर-सरवर-जिगराई । चाघिउ कम्पवुम-लयहराई ॥५॥ गृह-कूदइँ खेसई काणणाहूँ। विणि वि कुरु-भूमिउम्रषणाई॥ सव्या पिय-परिणिहिं दक्खयन्तु । विहसन्तु खणे लणे पुणु रमासु ।। || अरु-रह मुसिय-समत-गत्तु । मगहर-गिरि-मन्दर-सिहरु पसु ॥८॥
पत्ता पत्रर-विमाणलों भोयरे यि करेंवि पयाशिण नुरिय स-कम् । जिम्मक-मसिएँ जिण-मवणे थइ पारम्मिय पुणु हणुवन्ते ॥५॥
_[१५] 'जय जय जिणवरिम्द धरणिन्द-णरिन्द-सुरिन्द-बन्दिया जय जय बन्द-सन्द-वर-विन्तर-बहु-बिम्दाहिणन्दिया ।।३।। जय जय वाम-सम्भु-मग-भजण मयरदय-विणासा
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छायासीमी संधि
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तुम आकर मयूर जैसे मधुर बोल सुनाओ, दा, आज तो हम लोगों की माँ भी नहीं रहीं। यह बात जनकको भी सुना दो, और अपने छोटे भाई कनकके साथ आओ। उसके दुःखोंके बारेमें क्या पूछना, यदि अनेक मुख हों तभी उनका वर्णन किया जा सकता है। शेष सब बंधु-बांधवोंने मिलकर बिजलीसे भ्यस्त शरीर भामंडलका लोक कर्म किया, और जलदान दिया ॥ १-२ ॥
[१४] बहुत दिनोंके बाद हनुमान भी अपने पुत्र के साथ विमानमें बैठकर कर्णकुंडल नगरके लिए गया । बहुत-से विद्याधरों से वह घिरा हुआ था, अन्तःपुर भी उसके साथ था। वह तुरन्त वंदनाभक्ति करनेके लिए मेरु पर्वत पर इस प्रकार गया, मानो कुबेर ही यक्ष और यक्षिणियोंके साथ जा रहा हो । देश-देशान्तर एव विजयार्ध पर्वतकी दोनों श्रेणियोंको देखता - भालता हुआ वह चला जा रहा था । मार्ग में उसने कुलपर्वतकी शोभा जिनवर, वापिकाएँ, कल्पद्रम, लतागृह, गुहा कूट, क्षेत्र, कानन, दोनों कुरुभूमियाँ और उपवन ये सब बातें कभी वह अपनी प्रियपत्नीको बताता, और कभी एक क्षणमें हँसकर रमण करने लगता । प्रचण्ड वेगसे उसका शरीर हिलडुल रहा था। फिर भी मंदराचलकी सुन्दर चोटी पर वह पहुँच ही गया। हनुमान अपने महान विभानसे उत्तर पड़ा और पत्नी सहित तुरन्त प्रदक्षिणा की और तब निर्मल भक्ति से जिनमंदिर में भगवान की स्तुति प्रारम्भ की ॥१९॥
[१५] "हे जिनवरोंके इन्द्र, आपकी जय हो, धरणेन्द्र, नरेन्द्र और देवेन्द्र, आपकी बन्दना करते हैं, चन्द्र, कार्तिकेय, उत्तम व्यन्तर देव और दूसरे समूहोंसे अभिनन्दित, आपकी जय हो, ब्रह्मा और स्वयंभू मनका भंजन करनेवाले, और कामदेवका
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पउमचरिड
जय जय सयल-समग-बुम्भेय- पयासिय चार सास णा ॥२॥ जय जय सुटु-पु दुष्ट-कम्म-दिढ-घन-सोक्षणा जय जय कोह-लोह-अण्णाण-माग-दुम-पन्ति-मोरणा ॥३॥ जय जय मम्व-जीव संहार-समुरही नुरिउ सारणा जय जय हय-तिसाल-जय जाइ-जरा-मरण निवारणा ॥111 जय जय सपल-विमल-केवल-णाणुजल-दिच्च-लोयणा अय अय मव-भवन्तरावजिय-दुरिय-मलोह-बोयणा ॥५॥ जय जय सिजय-कमळ-वय-दय-णय-णि रुषम-गुण-गणालया जय जय बिसय-विराय जय जय दस-बिह-धम्माणुवालया ॥६॥ तुहुँ सम्बाहु सध्व-णिरवेशलु गिरजणु शिकलो परो तुहुँ णिरवप सुहुमु पामप्पड़ परमुलह परंपरो ॥ तुहुँ पिल्लेड अ-गुरु परमाणुड अक्खड वीयरायो मुहुँ गह मइ जणेरु सस मायरि मायरि सुहि सडापो' ॥८॥
पत्ता एवं विविह-योस हि थुणेवि [ पुणु ] पुणु जिणवरु पुज्जे धि वि । पवण-पुत्तु पहकटु णहूँ मन्दर-गिरि-सिहर, परिश्रवि ॥९॥
[१६] तहाँ हणुषहो गयणाणदयासु । जिण बन्दण-अणुराइय-मणासु ॥१॥ णिय-लील एन्तही भरह-खेतु । परिलकि दिवसु अत्यमिड मितु ॥॥ अणुस्त सम्म णं वेस आय । णं रक्खसि स्तारत जाय ॥२५ पहलन्भधार पुश हुक राइ। मसि-खप्पहविहिठ समस्थ(१)मा ।।।
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छायासीमी संधि
नाश करनेवाले, आपकी जय हो, दुर्भेय सुन्दर शासनको समग्र रूपसे प्रकाशित करनेवाले आपकी जय हो। अच्छे खासे मजबूत पुष्ट आठ कर्म के बन्धनको तोड़नेवाले आपकी जय हो, क्रोध, लोभ, अज्ञान, मान रूपी वृक्षोंकी कतारको मोड़ देनेवाले आपकी जय हो, भव्य जीवोंको संसार समुद्र तुरन्त तारनेवाले आपकी जय हो, तीन शल्यों और जन्म, जरा और मृत्युको नष्ट करनेवाले आपकी जय हो, सब ओर से पवित्र, विमल केवल ज्ञानसे उज्ज्वल दिव्य लोचनोंवाले, आपकी जय हो । जन्मान्तरोंसे शून्य, और पापसमूहका नाश करनेवाले आपकी जय हो । त्रिलोककी लक्ष्मी व्रत और दयाको मार्न दिखानेवाले, अनुपम गुणांसे युक्त, आपकी जय हो, विषयोंसे हीन, आपकी जय हो, दशविध धर्मके अनुपालक आपकी जय हो; तुम सर्वज्ञ हो, सबसे निरपेक्ष हो, निरंजन, निष्फल और महान हो ! तुम अवयवोंसे हीन अत्यन्त सूक्ष्म परम पदमें स्थित, अत्यन्त हलके और सर्वोत्कृष्ट हो। तुम निर्लेप अगुरु परमाणु तुल्य, अक्षय और वीतराग हो । तुम्ही गीत हो, तुम्हीं मति हो, तुम्ही पिता हो, तुम्हीं बहन और माँ हो, भाई, सज्जन और सहायक भी तुम्हीं हो। इस प्रकार तरह-तरह के स्तोत्रोंसे जिनेन्द्र भगवान् की स्तुति, पूजा और अर्चा कर, और सुमेरु पर्वत की चोटियोंको परिक्रमा कर हनुमान् आकाशमार्गसे लौट आया || १ - ९॥
[१६] सचमुच हनुमान् नेत्रोंके लिए आनन्ददायक था, और उसका मन जिनेन्द्र भगवान्की वन्दनाके अनुरागसे भरा हुआ था। जब वह क्रीडापूर्वक भरत क्षेत्रको लौट रहा था तो दिन ढल गया और सूरज डूब गया । लाल-लाल संध्या ऐसी आयो जैसे वेश्या हो या रक्तसे रंजित राक्षसी हो, अन्धकार अत्यधिक
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पजमचरित
तहिं काले हणुउ तणु-पह-जियाहु । सुरदुन्दुहि-से के स-सेण्णु य ।। जोबइ कसणुज्जलु जाव गयण। ससि-विरहिउ णिहीधउ व भवणु ॥६॥ सहि ताव णियारिलय मिरु गुरुक । णहयलही परन्ति समुमलुक ॥७॥ सन्बहाँ विजणही सजासु करम्ति । णं बिजुल-लेह परिष्फरन्ति ॥८॥ गह-तारा-रिक्रहिं पाह हस्ति । पलयाण-जालहें अणुहरन्ति ॥१|| सा थोवन्तर अ-मुणिय-पमाण । अस्थाकए णिवि विडीयमाण ॥१०॥
घत्ता
घिमिट णिय-मणे सुन्दरण भिद्धिगत्यु संसार-णिवासु । तं तिल-मिस्तु बि कि पि ण वि जासु ण दोसह भुषणे विणासु ।।१३।।
[७]
दिवसें हि मण-मूतहुँ पारिसाहुँ। एह जे अवस्थ भम्हारिसाईं ॥१॥ हिन्तहूँ गिरिचर-कन्दरे वि। मासर मसिघर-पञ्जरे वि ॥॥ छउ-दिसहि मवन्तहँ अम्बरे वि । लुमन्तहँ सायरे मन्दरे वि ॥३॥ आएँ हि भवहिण मुबह मितु । सो वरि पर-लोयहो दिपणु चिसु ॥३|| जोवणु वर-कुक्षर-कगण-चक्लु । जीविउ सणगाव-विन्दु-तस्लु ।।५।। सम्पय दप्पण-छाया-समाण | सिय मरू-हम-दीव-सिहाणुमाण ॥६।। सरयम्मय-छाहिन्स कछाउ पत्थु । सिण-जलिय-जलण-समु सयण-सस्थु । सुस-मुट्रि व णिरु णीसार देहु । जल-मेह व विट्ट-पण्टा जहु ।।८।।
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छायासीमो संधि
२७६ फैल गया, मानो काला खप्पर ही रख दिया गया हो। थोड़ासा रास्ता और पार करने के लिए हनुमान अपनी सेनाक साथ सुरदुन्दुभि पर्वत पर जाकर ठहर गया। बैठे बैठे वह काले उजले आकाशको देखने लगा 1 इतने में चन्द्रमासे शून्य सारा विश्व जैसे सो गया। थोड़े ही समयमें उसने देखा कि चमकता हुआ एक भारी तारा आकाशसे टूटकर गिरा है । उससे सब लोगोंकी आँखें चौंधिया गयीं मानो बिजलीकी रेखाएँ ही चमक उठी हो । ग्रह, तारा और नक्षत्रोंके पथको साफ करती हुई वह ऐसी लगी मानो मलयानिलकी ज्वाला हो। थोड़ी ही देरमें अकूत आकारवाला वह तारा शीघ्र ही शान्त हो गया। यह देखकर सुन्दर हनुमान अपने मन में सोचने लगे कि संसारमें इस प्रकार ठहरना सचमुच धिक्कारकी बात है । दुनियामें तिल भर ऐसी पीज नहीं है जिसका विनाश न होता हो ॥१-११।। । [१७] इतने दिनोंसे सचमुच हम मनके मूद हैं, और है आलसी। तभी हम लोगोंकी हालत ऐसी है। चाहे हम बड़ेबड़े पहाड़ोंकी गुफाओं में छिपें, तलवारोंसे रक्षित पिटारीमें बन्द हों, चाहे आकाश में चारों दिशाओं में घूमते फिरें, और चाहे समुद्र और पहाड़ोंमें छिपें, इन सब उपायों के बाद भी मौत पीछा नहीं छोड़ती। इससे अच्छा यही है कि हम परलोकमें चित्त लगायें । यौषन महागजके कानोंके समान चंचल है। जीवन तिनकोंकी नोकपर स्थित जलबिंदु के समान तरल है । बैभव दर्पणकी छायाकी भाँति अस्थिर है। श्री हवासे आहत दीपशिखाकी भाँति है। अर्थ ( धन पैसा ) शरदकालीन मेघोकी छायाकी भाँति अस्थिर है। स्वजन समूह तिनकोंकी अग्नि वालाके समान है। यह शरीर भूसे की मुट्ठीके समान सारहीन
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२७४
पउमचरित
घत्ता एउ जागन्नु वि पेषानु किह अच्छमि छाइड मोहण-जालें । य गिरिवर सूरुगमणे कल्ले जि दिक्ष लेमि कि काले' ॥२॥
[ १८!
सिम्तन्तही हियवएँ तासु एव । गय रयणि कमेण कु-बुद्धि जेव ॥१॥ उपसमिउ दिवायरू गहें विहाइ । पावअ-णिहाकड आइ गाई ॥२॥ भाउछेवि पिय महिला-णिहाउ । सन्ताणे ठवेनि णियनजाउ ॥२॥ पीसरवि विमाणहाँ अणिल-पुत्तु । गर-जाणु घरिज मणि-गण-णिउसु ॥४ गउ णस्वर-सहित जिणिन्द-भवणु । चारण-रिसि लक्विंउ धम्मस्यणु ॥५॥ परियषि जिण-वन्दण करवि । पुणु दु-विहु परिग्गहु परिहरेबि ॥६॥ पण्णासहि सप्त-सहि सहाउ। खयरह दिवग्यकिउ साणुराज ॥७॥ वन्धुमइहें पासें सु-पउमराय। दिक्खकिय पहु-मुग्गीय-आय 11८|| साणकुसुम तिह वरहीं धीय । तिह सिरिमालिणि णल-सुय विणीय ९ तिह लङ्कासुन्दरि गुणहँ रासि। जा परिणिय काउरिहि आसि ॥१० अवरउ वि मनोहर लिय : तार। गिवन्त अट्ट सहास जाव 11111
पत्ता इय एकेक पहाणियउ सिरिसइलही अइ-पाण-पियारिट । श्रण पुणु कि जागियड जाउ स्थु पन्चयउ णारित ॥१२॥
[९] वत्त सुर्णेवि रोषन मरु-अन्जग। 'हा हणुवन्त राम-मपा-जण ॥ हा हा उहय-बस-संषद्धष्ण । हा वरुणाहिय-सुय-सय-वनधण ॥२॥ हा महिन्द-माहिन्दि-परायण । हा हा आसाली-विणिवायण शा
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छायासीमो संधि
२७५ है। जलरेखाकी भौति प्रेम देखते ही देखते नष्ट हो जाता है। यह जानकर भी देखो मोहजाल में मैं कैसा फंसा हुआ हूँ। मैं कल ही सूर्योदय होनेपर इस पहाड़ पर दीक्षा ग्रहण काँगा १।१-५॥
[१८] हृदयमें इस प्रकार सोचते-सोचते रात कुबुद्धिके समान बीत गयी। ऊगा हुआ सूर्य आकाशमें ऐसा शोभित हो रहा था, मानो वह हनुमानकी दीक्षा-विधि देखने के लिए आया हो। उसने अपनी प्रिय पत्नियोंसे पूछा और परम्परामें अपने पुत्रको नियुक्त किया। पवनपुत्र अपने विमानसे निकल कर मणियोंसे अड़ित एक शिक्षिकामें बैठ गया। श्रेष्ठ मनुष्योंके साथ जिनमन्विरके लिए गया। वहाँ उसने धर्मरत्न चारणऋषिके दर्शन किये । पहले प्रदक्षिणा, और सब जिनवंदना कर उसने दो प्रकारका परिमाह छोड़ दिया। सातसौ पचास विद्याधरोंके साथ उसने प्रेमपूर्वक दीक्षा ग्रहण की। इसी प्रकार बन्धुमति के पास जाकर सुप्रीव राजाके पुत्र सुपद्म राजाने दीक्षा ग्रहण कर ली। इसी प्रकार, खरकी चेटी अनंगकुसुभ, नलकी विनीत पुत्री श्रीमालिनी, गुणोंकी राशि लंकासुन्दरी, (कि जिसका पाणिग्रहण असने लंकापुरीमें किया था) और भी दूसरी-दूसरी आठ हजार सुन्दरियोंने दीक्षा ग्रहण कर ली। जब हनुमानकी एकसे-एक प्राणोंसे प्यारी प्रमुख स्त्रियाँ दीक्षा ले बैंठी, तो फिर उन सबको कौन जान सकता है, जो उस अवसर पर संसारसे विरक्त हुई ॥१-१२॥
[१९] यह खबर पाकर पवन और अंजना रोने लगे "हे रामका मनोरंजन करनेवाले, हे जुभयवंशोंको बढ़ावा देनेवाले, हे वरुणके सौ सौ पुत्रोंको बाँधनेवाले, हे महेन्द्र और माहेन्द्र
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२७६
पतमचरित
हा हा बजाउह-दरिसिय-धह। सकासुन्दरि-किच-पाणिग्गह ॥५॥ हा गिहवाणरचण-वण-चूरण । अक्सकुमार-सवल-मुसुमूरण ॥५॥ हा घणवाहण-रण-सोसारण। हा विज्मा -ल गुल-पहारण ॥३॥ हा हा माग-पास-बहु-सोरण । हा हा राधण-मन्दिर-मोरण ||७॥ हा हा छता-पउलि-मिलादृण । हा हा वज्जोयस्दलवण (10) हा कक्षण-विसल्ल-मलावण। सय-वारङ जूराविय-नावण ॥९॥ अम्मह है विहि मि पुत्त कहन्तड । किह एकलउ जिणिवन्त' ||10|| एक भणवि सुय-सोयन्मइयई। जिणहरु गम्पि ताई पन्चायई ।।११॥
पत्ता
सो वि मयरखूब बीसमड मारुइ बोर-वीर-तव-तत्तउ । बहु-विवस हि केवल लहें वि जेस्थु सयम्भु-वेउ तहिं पत्तड ।।१२।।
कायस्स विजयसेसियस विस्थारिभो जसो भुषणे। सिद्धयण-सयम्भुणा
पोमचरिय-सेसेण हिस्सेसो ।। इय पोमचरिप-सेसे
सयम्भुएवस्स कह वि लवरिए । तिहुयण-सयम्भु-हए
मारुइ-णिग्वाण-पन्वमिणं ॥ पन्दइ-आसिय-तिहुयण-सयम्भु-परिरहय-रामचरियस्स । सेसम्मि जग पसिद्धे . छायासीमो इमी सरगी ।।
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छायासीमी संधि
२७.७
में तत्पर, हे आशालीविद्याका पतन करनेवाले, हे वज्रायुध के वथको करनेवाले, हे लंकासुन्दरीसे पाणिग्रहण करनेवाले, हे देवताओंके नन्दनवनको उजाड़नेवाले, हा ! अक्षय कुमार और सबलको चूर चूर करनेवाले, हे मेघवाहनको युद्धसे ढकेल देनेवाले. हे विद्या और पूँछसे प्रहार करनेवाले, हे नागपाशको छिन्न-भिनाले मोनेवाले हे लंका कुलोंको नष्ट करनेवाले, हे बखोदरको कुचलनेवाले, हे लक्ष्मण और विशल्याका मिलाप करानेवाले, और रात्रणको सौ-सौ बार सतानेवाले, हे पुत्र, तुमने हम दोनोंसे भी नहीं कहा, तुमने अकेले ही दीक्षा कैसे ग्रहण कर ली ।" यह कहकर, पुत्रशोकसे व्याकुल उन दोनोंने भी जिनेन्द्र मन्दिर में जाकर starr प्रण कर ली। इस प्रकार विस्मयजनक कामदेव के अवतार पवनपुत्रने अत्यन्त कठिन तप तपा और बहुत दिनोंके उपरान्त केवलज्ञान प्राप्त कर वहाँ पहुँचा, जहाँ स्वयं स्वयम्भू देव थे ।।१-१२ ।।
यशःशेष कविराजका यश त्रिभुवनमें फैला हुआ है। त्रिभुवन स्वयम्भूने पद्मचरित शेष भागको समाप्त क्रिया ।
स्वयम्भूदेव से किसी प्रकार बचे हुए पद्म-चरित शेष भाग में त्रिभुवनस्वयम्भू द्वारा रचित 'मारुति निर्वाण प्राप्ति' प्रसंग पूरा हुआ |
बन्दइके आश्रित त्रिभुवन स्वयम्भू द्वारा रचित रामचरित भुवन प्रसिद्ध शेष मागमें यह छियासीचाँ सर्ग समाप्त हुआ ।
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[८७. सत्तासीमा संधि ]
बहु-दिवसें हि ते लक्षण-सुअ वि दुबरु दूसहु तवु कपि । जिह हणुड तेम धुय-का-रण थिय सिव-मास पहले न
मकान।
[ ] तो इय वत्त मुणे वि रिउ-मई। विहस वि वोलिजइ बलहरें ॥३॥ 'सहवि एय वर-भोय मनोहर । हयपर गयचर रहवर परवर ॥२॥ बहु-सीमन्तिाणीउ सुहि-सयण । घण-कलहोय-धण्ण-मणि-श्यण ।।३।। पवि माणन्ति कमल-सगिणह-सुह ।' णारायण-पवणजय-तणुशह ॥४।। महु ण मुणन्तहाँ मघ-भय-लइया । पंखु केव सबळ वि पध्वया ॥५॥ मंछुडु ने बाएँ उद्धा । अहवद कहि मि पिसाए लद्धा ।।६।। जिम वामोहिय जिम उम्माहिय । कुसलु प अस्थि वेज्जे ण वि वाइय . से कम विहोय परिसेसेंवि गय तवेण अप्पाणउ भूसे चि' ॥८11
घत्ता धवकाही सिघ-सुह-मायणही जिणवर-वंस-समुभवहीं। राहवहीं वि जहिं जर-मह हवा तहि भण्णहाँ गघि होइ कहाँ ॥९॥
[२] अण्णहि दिण सुस्वरह परिहा। सहसणवणुणिय-सहणे णिविट्ठल ।। णं सुरगिरि सेस-इरि-सहायड। दिणयर-कोरि-तेय-सच्छाबड ॥२॥ वर-सीहासण-सिहरारुहियउ। पव-तिय-अच्छर-कोलिहिं सहियउ॥
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सत्तासीव सन्धि
बहुत दिनोंके बाद लक्ष्मणके पुत्र भी दुःसह और दुर्द्धर तप साधकर हनुमानकी ही भाँति कर्ममल धोकर शाश्वत सुखमें जाकर रहने लगे ।
,
[१] यह बात सुनकर शत्रुका मर्दन करनेवाले रामने हँसकर कहा, “इतने उत्तम श्री सुन्दर भोग, श्रेष्ठ गज, अश्व, रथ और मनुष्य, बहुत सो सुन्दर स्त्रियों पाण्डर जन, धन, सोना, धान्य, मणि, और रत्न पाकर भी लक्ष्मण और पत्रनंजय के पुत्रोंने कमलके समान सुन्दर सुखको कुछ नहीं माना। मुझे भी कुछ न मानते हुए वे संसारके उरसे इतने डर गए कि देखो सबके सब दीक्षित हो गये। लगता है शायद उन्हें हवा लग गयी है, अथवा पिशाच लग गया है। या तो वे व्यामोह में पढ़ गये हैं, या फिर उन्हें उन्माद हो गया है । उनकी कुशलता नहीं है, उन्होंने किसी वैद्य या मन्त्रवादी से भी अपना उपचार नहीं कराया । यही कारण है कि समस्त ऐश्वर्य छोड़कर उन्होंने तपसे अपने आपको विभूषित किया। गौरांग शिव सुख भाजन और जिनवर वंश में उत्पन्न होकर भी जब रामकी इतनी बुद्धि है, तो फिर दूसरोंकी दुष्ट बुद्धि क्यों न होगी
॥- ॥
[२] एक दिन सहस्रनयन इन्द्र अपने सहायक के साथ बैठा हुआ था, मानो सुमेरुपर्वत अन्य पर्वतों के साथ स्थित हो । करोड़ों सूर्य के तेजके समान उसकी कान्ति थी । वह एक उराम सिंहासनके ऊपर बैठा हुआ था। सत्ताईस
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२८.
पड़मचरित
विविहाहरण-फुरन्त-सरीरख । गिरिव धीह जलहि व गम्मीरउ | मह-रिदिएँ सत्तिएँ सम्पुण्णड। उसम-वल स्वेण पसपणउ ॥५॥ लोयबाल-पमुहह सुह-पवरहे ।। बोललइ समड असेसह अमरहूँ ।।५।। 'जासु पसारी पैड इन्दन्तायु। लकमद् देवसणु सिद्धतणु ॥७॥ जै संसार-चोर-रिषु एक। विणिहउ णाण-समुज्जल-प ।।८।। को भव-सायर-दुहई णिवार। भविय-लोड हलाएँ जि तारह ॥९॥
घत्ता उपरणही जसु मन्दर-सिहरें तियपेन्देंहि अहिसेड किंज। संपालाई सरुवामा सहा -स-
RI
जो सर सयर पिहिमि मुएप्पिणु । थिङ' भुवण-तय-सिहर घोप्पिणु।।३॥ जासु णामु सिषु सम्भु जिणेसह । देव-देषु महएषु महेसरु ॥२॥ जिणु जिणिग्दु कालञ्जय सङ्क। थाणु हिरपणगम्भु तिल्थकरु ॥३॥ बिहु सयम्भु सद्धम्म सयम्पहु। मयत अरुड भरहन्तु जयप्पहु ॥४॥ सूरि जाण-लोयणु तिहुयण-गुरु। केवलि रु? मिण्हु हरु जग-गुरु।।५।। मुहम मोभवु णिरवेवस्तु परम्परु । परमप्पा परमाणु परमपरु । ६॥ अ-गुरु अ-लहुड गिरणु णिकलु । जग-माल हिरवय सु-णिम्मल ।।३।।
घत्ता
इय गामें हिं सुर-गर-बिसहर हि जो संधुवा भुवण-य । तहाँ आगुदिणु रिसह-भवाराही मत्ति लगगहों पय-अवलं ।।८।।
[४] जीव अणाह-जिहणु मत्र-सायरें। काम-वसेण भमस्तु दुहायरें || केम विमणुय-जम्में उप्पल। धम्महों पपवर सहि मि मोहिजहाशा
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सत्तासीमो संधि
करोड़ आसराएँ उसके साथ थीं। उसका शरीर तरह-तरह के आभूषणोंसे चमक रहा था । समुद्र के समान गम्भीर और पहाड़की भाँति धीर था । महा ऋद्धियों और शक्तियोंसे सम्पूर्ण था । उत्सम बल और रूपमें एक दम खिला हुआ था । लोकपाल प्रमुख बड़े-बड़े देवताओं और शेष सभी देवताओंके सम्मुख उसने कहा, "जिसके प्रसादसे यह इन्द्रत्व मिलता है देवत्व और सिद्धत्व मिलता है, जिन्होंने एक अकेले मानसमुज्वल चक्रसे संसारके घोर सानुमा हनन कर दिया है, जिन्होंने सलाह के घोर दुःखोंका निवारण किया है, जो भन्यजीवोंको खेलखेलमें तार देते हैं। सुमेरुपर्वतके शिखरपर देवेन्द्र जिनका मंगल अभिषेक करते हैं, उनको सदा आदरपूर्वक प्रणाम करना चाहिए, यदि हम संसार और मृत्युका विनाश करना चाहते हैं । ॥१-१॥
[] जो सचराचर धरतीको छोड़कर तीनों लोकोंके ऊपर घदकर विराजमान हैं। जिनका नाम शिव,शम्भु और जिनेश्वर है, देषदेव महेश्वर हैं जो। जिन, जिनेन्द्र, कालंजय, शंकर, स्थाणु, हिरण्यगर्भ, तीर्थकर, विधु, स्वयम्भू, सद्धर्म, स्वयंप्रमु, भरत, अरुइ, अरहन्त, जयप्रभ, सूरि, शानलोचन, त्रिभुवनगुरु, केवली, रुद्र, विष्णु, हर, जगद्गुरु, सूक्ष्मसुख, निरपेक्ष परम्पर, परमाणु परम्पर, अगुरु, अलघु, निरंजन, निष्कल, जगमंगल, निरषयव और निर्मल हैं। इन नामोंसे जो भुक्नतल में देवताओं, नागों और मनुष्योंके द्वारा संस्तुत्य है, तुम उन परम आदरणीय ऋषभनाथके चरण युगलोंकी मफिमें अपनेको डुबा दो ! ॥१-८||
[४] भवसमुद्र में जीव अनादिनिधन है, कर्मके अधीन होकर दुःख योनियों में भटकता है। किसी प्रकार मनुष्य योनिमें
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समर्धारण
मिच्छा-तवेंग जाउ होणामह। मुज्मइ चवि होइवि पडिधड रु॥ मह-रिनियही वि सरही सु-वलम्हा होइ णरसे वोहि अड्-दुल्लाह ।।। दुक्खु दुक्ख सो धम्महाँ लग्गह। अगणाजिउ पुणु किर काहि खगह ।।५।। अह देवो वि होधि परिवउ गरु । णरु वि होचि पुणु परिवउ सुरवरु ।। अहाँ देवहीं कल्यहँ मणुभतणें। वोहि लहेसहुँ जिष्णवर-सासणे ॥७॥ भट्ट-दु-कम्मारि हुणेसहुँ। अविचलु सिद्धाकउ पावेस?' । ए सुरेण युक्त तो सुरवइ । 'सगों वसन्तहँ श्रम्ह इय मह ॥९॥ मणुअत्तणे पुणु सम्ब हुँ मुग्नइ। कोह-लोह-मय-माणे हिं रूकाह ॥१०॥ महवाइ जहण विमणे परिमयहि । तो कि एडमणाहुण णियहि ।।1।। चचि घम्ह-मामही सुर-कोपड़ी। किह आससउ मणुम-विहोयहाँ' ।।२
घत्ता बिहसेवि चुन सकन्दणेण 'जीव-निहाय-गिरुम्धगहूँ । संसार सणेह-णिवन्धु दिड मज असेसह वन्धणहूँ ॥१३॥
[५] कशोहरु कसणुज्जा -लेहउ। रामोवरि-परिषदिव्य-गेहउ ||१| एपिणिविसु विनोंउ गइच्छा। उवगरें? पाणे िवि वह ॥२॥ पत्तिउ बाणमि हउँ जहाँ वेवहाँ। मरणहाँ गामेण जि वलएबहीं ॥३॥ गघि जीवइ गिरुनु दामोयरु। रामु मुभउ ते केम सहोयर ।।४।। किह वीसरठ विबिह-उवयारा। जे चिम्सविष-मणोरह-गरा ॥५॥ कह दीसरत भजन मुएवउ। समर सयलें वण-या ममेवर ॥६॥
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ससासीमो संधि
३ उत्पन्न होता है, परन्तु वहाँ भी वह धर्मसे उदासीन रहता है, मिध्यातपसे वह हीनकोटिका देव बनता है। पुष्पमाला मूछित होनेपर वहाँसे आकर मनुष्ययोनिमें जन्म लेता है। जो वैभव सम्पन्न देवताओं के लिए भी असम्भव है, ऐसा मनुष्यत्व पा लेनेपर भी शान-प्राप्नि असम्भव है। धीरे-धीरे वह धर्मका आचरण करता है, फिर वह दूसरी दूसरी बातोंमें कैसे लग सकता है। फिर वह मनुष्य रूपमें जन्म लेता है, और तम देवताके रूपमें । देवतासे फिर मनुष्यत्वमें । मैं जिनशासनमें किस प्रकार बोध प्राप्त करूँगा। कब मैं आठ दुष्ट कोका नाश करूँगा, और अविचल सिद्धालय प्राप्त करूंगा। तब एक देवताने कहा, "स्वर्गमें रहते हुए हमारी यह स्थिति है, परन्तु मनुष्यत्व पाकर सभी मोहमें पड़ जाते हैं।वे क्रोध, मान, माया
और लोभमें फंस जाते हैं। यदि तुम्हें इस बातका विश्वास नहीं होता, तो क्या रामचन्द्रको नहीं देखते। ब्रह्मस्वर्गसे आकर मनुष्य के भोगोंमें पड़कर अपने आपको भूल गये । तब इन्द्रने हँसकर कहा. "जीव समूहको रोकनेवाले अशेष समस्त बन्धनोंमें प्रेमका बन्धन ही सबसे अधिक मजबूत होता है।" ॥१-१३॥
[५] सोनेके समान देदीप्यमान शरीरवाला लक्ष्मण रामके ऊपर इतना प्रेम रखता है कि एक भी क्षण ससके वियोगको सहन नहीं कर सकता। उपकारी प्राणोंसे भी अधिक वह उसे चाहता है । मैं इतना भर जानता हूँ कि रामकी मृत्युके नाम भरसे लक्ष्मण निश्चित रूपसे जीवित नहीं रहेगा 1 अब राम ही नहीं रहे, तो भाई क्या करेगा? वह विविध उपकार कैसे भूल सकता है, जो याद करते ही सुन्दर प्रतीत होते हैं. अयोध्याका छोड़ना
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पडमचरिड
किह वासरउ रउडु महारणु। स-तिसिर-घर-दूसण-सङ्घारणु ॥७॥ किह बोसरउ समरे पहरेवड । इन्दइ वि-र करवि धोवउ ॥८॥ किह वीसरा स-रोसु भिडेवर । लकेसर-सिर-कमल बुबंधउ ।।२।।
पत्ता
नघर वि उषयार जणदणहाँ किह रहुवइ मणे धीसरह । से अच्छा परिउवयार-मह णेह-वसंघउ किं करइ' ॥१॥
[६] पापणेवि इस वयण चवन्तु । अपणु वि जाणेवि आमपण-मिस् ॥ ३॥ जयकारेंवि वासवु चार वेस। गय णिय-णिग-विलय मुर असेस २ नहि णार स-विमम विणि देव । पचलिय लक्षणही विणासु जेव ।।। 'वलु मुयड सुणेषि सणेहवन्तु । पेक्षहुँ सो काई करई अणस्तु ॥४॥ किह रूआइ पजम्पाइ काई बयणु। आरूसइ कहाँ कहिं कुणइ गमणु ॥५॥ मुह सोएं केहट होइ नासु। केरिसड दुक्खु अन्ते इरासु' ।। एउ वयणु पसम्पधि रयणचलु। भण्णेकु वि णामें अभियचूलु ॥ विणि वि फय-णिच्छय गय तुरन्त । णिविसेण्य अज जमा-गयरि पत्त ॥6॥
घता मायामउ घर पुन हों भयण देवहि कलुणु मर गएउ । किंउ जुवह-भिवह-धाहा-गहिरु हा हा राहवचन्दु मुड' ॥९॥
जं हलहर-मरण-सर्दु सुणित। 'हा काई जाउ फुड राहवहीं'।
सं भगा विसपणु सुमित्ति-सुउ ॥१॥ लहु श्रद चवन्तहाँ एव सहौं ।।२।।
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१८५
सत्तासीमो संधि कैसे भूल जायगा, यह भी कैसे भूल सकता है जो वनमें उसके साथ धूमता फिरा । उस महान भयंकर युद्धको कैसे भूल सकता है कि जिसमें त्रिशिर और खर दूषणका संहार हुआ। युद्धमें उसके प्रहारको राम कैसे भूल सकते हैं ? उसने जो इन्द्रजीतको विरथ कर पकड़ा था, उसे वह कैसे भूल सकता है। उसका यह आवेझमें लड़ना वह कैसे भूल सकते हैं: राषणका सिरकमल तोड़ना भी वह कैसे भूल सकते हैं। लक्ष्मणके और भी दूसरे बहुतसे उपकार हैं, उन्हें राम कैसे भूल सकते हैं यदि तुम्हारी प्रति उपकारकी भावना है, तो लेइके वशीभूत क्यों बनाते हो ? ॥१-१०॥
[६] इन्द्रको यह सब कहते सुनकर, यह जानकर कि वह रामका अनन्य मित्र है, सभी देवता सुन्दरवेश में इन्द्रकी जय बोलकर अपने-अपने आवासोंको लौट गये । केवल वहाँपर दो देव बचे, विषयसे भरे वे चले किसी भी तरह लक्ष्मणका विनाश करने के लिए। उन्होंने सोचा, चलो देखें कि 'लक्ष्मण मर गया' यह सुनकर राम क्या करते हैं. क्या रोते हैं ? अथवा क्या शब्द कहते हैं ? उठकर कहाँ कैसे जाते हैं ! शोकमें उनका मुख कैसा होता है ? अन्तःपुरमें कैसा दुख होता है। यह वचन कहकर रत्नचूड़ नामका देवता, और दूसरे अमृतचूलने तुरन्त निश्चित कर लिया। उन्होंने कूच किया, और एक पलमें अयोध्या नगरी जा पहुँचे! रामके प्रासादमें देवताओंने मायामय महाकरण यह शब्द किया "हा रामचन्द्र मर गये"। यह सुनते ही युवतियोंका समूह डाढ़ मारकर रो पड़ा । ॥१-९||
[७] जब रामकी मृत्युका शब्द सुमित्रासुत लक्ष्मणने सुना तो वह कह उठे, "अरे रामके क्या हो गया," वह आधा ही बोल पाये थे कि शब्दोंके साथ उनके प्राण पखेरू उड़ गये,
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२.८६
पडमचरित हुँ वाया कि गिर। इति वहाँ रवि गयउ ॥३॥ वर-जाबरूव खम्भासियउ। सीहासण विस्थिपण' थियउ ॥l भ-णिमोलिय लायणु पद्ध-तण | लेप्पम उ णा घिउ महुमहण ॥५॥ तं परवि सुरवर वे विजण। अप्पर गिन्दन्ति विसपण-मण ॥१॥ अइलजिय परछाताप-कय। सोहम्म-सगु सहसति गय ॥७॥
घसा सुरवर मायएँ चिउरश्चियउ परियाणे वि हरि-गेहि णिहिं । श्रावस्तु पणय-कुवियर करें वि सम्वहि सुट्ट सणेहिगिहि ॥८॥
[] घो पार्से दुक आउल-मणा। सत्तारह सहस-वरङ्गणाइँ ll कवि पणइणि पगएं मणइ एव । 'रोसाविउ कवणे अक्खु देव ॥२।। जो कु-मइ किड अबराह तुज । सो सयस्लु वि एकसि खमहि मस' । सटमा अग्गएँ का वि गडई। कवि दइयाँ चलणा-पलेहि पन्ह ।।। क विमणहरु चीणा-पशु चाह । कवि विविह-मेड गम्धचु गाइ॥५॥ कवि आलिम पिरमर-सणेह। चुम्बा कवोल सोमाल-देह ॥६॥ कवि कुसुमई सीसे समुद्धरेनि। तोसाव सिरे सेहरिकरेवि ।। कवि मुहु जो वि मलियनवा । उढावद किय-कर-साह-भा॥
पत्ता अण्णाद वि चेट्टड बहु-बिहउ जुहहिं जाउ जाउ कियउ । जिह किविण-लो सिय-सम्पयउ सध्व गयउ गिरस्थयउ ।। ५॥
[१] तो ऍह बात णिसुणेविण राम्। सहसत्ति पाड जगें णाय-णामु ।।१।। लक्षणु कुमार जहि तहि पइ टु । बहु-पियाँ मनमें णिय-भाइ दिडु २
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सत्तासमी संधि
मानो लक्ष्मण अपनी देह से रूठकर चले गये । सुन्दर खो खम्भोंसे टिके हुए विशाल सिंहासनपर वह गिर पड़े। खुली हुई आँखें ! एकदम अडोल शरीर ! मानो लक्ष्मण मूर्तिके बने हो।" उसे देखकर वे दोनों देवता विषण्ण मन होकर अपने आपको बुरा-भला कहने लगे। वे बहुत शर्मिन्दा हुए। उन्होंने बहुतेरा पश्चात्ताप किया। वे दोनों शीघ्र ही सौधर्म स्वर्गके लिए चल दिये । देवमायासे अपने प्रियका अनिष्ट हुआ जान - कर, लक्ष्मणकी स्त्रियाँ प्रणयकोपसे भर उठीं। स्नेहमयी उन सबने विलाप करना शुरू कर दिया ||१८||
२८७
[4] तब आकुलमन सत्तरह हजार सुन्दरियाँ शबके पास पहुँची। उनमें से कोई प्रणयवतो प्रेम भावसे बोली, "हे देव कहो, किसने तुम्हें कुद्ध किया है, कुबुद्धिसे मैंने तुम्हारा यदि अपराध किया है, हे देव वह सब मेरे लिए क्षमा कर दीजिए !" कोई सद्भावसे उसके सम्मुख नृत्य करने लगी । कोई प्रियके चरणोंपर गिर पड़ी। कोई सुन्दर वीणा वाद्य बजा रही थी । कोई विविध भेदोंवाला गन्धवं गा रही थी। कोई स्नेहसे भरकर आलिंगन कर रही थी। कोई सुकुमार शरीर और गालोंको चूम रही थी। कोई फूलोंको सिरपर रखती, और शेर बनाकर सन्तोषका अनुभव करती । कोई चन्दन चर्चित मुख देखकर हाथ उठाकर अपनी अँगुलियाँ चटका रही थी। इस प्रकार वे युवतियों तरह-तरह की चेष्टाएँ कर ही रही थीं, पर सब व्यर्थ, ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार समस्त वैभव, कंजूसके पास व्यर्थ जाता है ! ॥१२॥
[९] जब रामने यह समाचार सुना तो प्रसिद्धनाम बद्द सहसा वहाँ आये जहाँ कुमार लक्ष्मण थे, वहाँ आकर बैठ गये। बहुत सी पत्नियोंके बीच उन्होंने अपने भाईको देखा !
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पचमचरेिड
सम्बर ( १ ) विरामै ससि वयण छाउ । निरुणिच्च सिकि परिहरिय कार्ड ३
काकुत्थु चिन्तइ रणे दुसझ तें कवि आर वि गणइ । सिविपणि 'सुन्दरच्छ कहें काहूँ थिग्रड फट्टमड नाइँ' । अवोइड पुणु सचि सरीरु |
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..
जिह तहबरु छिण्णउ मूर्ले ति मरु-हार-गीर-चन्दन- जले हिं
उडि सोमारू रहु-तगउ । तं भाउ निपुषि स-जेवण । 'हा पाह आउ स दास रहि । हा माहत्थाणु समागयहूँ । हा गाइ पण्ण-चित्तु हवहि । एस्थन्तरे विणि वि आइयउ । 'हा सण पुत्त' मणम्सियउ । सिंह भाउ खार्थे सत्तुहणु ।
'मंड कच्छीहरु कुह मज्छु ||४|| शविकाई वि अम्मुस्याणु कुशड़' ॥५ किं मदु आला ण देहि वच्छ ॥ ५॥ परियाणिव चिन्हें हि मुअब माइ ॥७॥ मुच्छावित खर्णे वलए बीरु ||८||
1
घचा
महिहें परि णिच्चेयगड । हुउ कह कह कि स-वेयणउ ॥ ९ ॥
[ १० ]
वहु-वाह-पिडिय दीणागण ||१|| वाहावि हरि अन्तेरें ||२|| किं लोहासों ण ओवरहि ||३|| सम्माणु करहि परवर-सयहँ ||४|| नियमित रुक्षन्ति संथव हि ||५|| सुप्पर-सुमिप्ति-अवराइयब ||६|| अप्प करयल हि इन्तिय ॥७॥ विडिव हरि च हिंत्रिमण-मशु ८
घत्ता
हा हा मायरिशिय-मापरि
धीरहि सोयाउण्णियज ।
पहूँ विणु ध्रुवु जाय अनु महु दिसत असेस सुण्डि ||९||
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ससासीमो संघि प्रभातमें जैसे चन्द्रकी कान्ति होती है, वैसी ही कान्ति लक्ष्मण की थी। एकदम अचल शोभा और कान्तिसे शून्य ! रामने अपने मनमें सोचा, "युद्धमें असाध्य लक्ष्मद, शायद मुझसे नाराज है। यही कारण है कि वह अपनेको भी नहीं समझ पा रहा है ! यहाँ तक कि उठकर खड़ा नहीं हुआ।' फिर मुख चूमकर उन्होंने कहा, 'हे सुन्दरनेत्र, क्या आज तुम मुझसे बात नहीं करोगे, घताओ आज इतने कठोर क्यों हो, लक्षणोंसे तो यही लगता है कि तुम मर गये!" फिर उन्होंने सारा शरीर देखा, और एक ही पलमें राम मूर्छित हो गये । जिस प्रकार जड़से कटा पेड़ धरतीपर गिर जाता है, उसी प्रकार राम अचेत होकर गिर पड़े। हवा, हार, नीर और चन्दनजलके छिड़कावसे उन्हें बड़ी कठिनाईसे होश आया! ॥१-२॥
[१०] शोकसे व्याकुल राम उठे । उनके दीन चेहरेपर आँसू की बूंदें झलक रही थीं। रामका यह भाव देखकर लक्ष्मणका नूपुर सहित अन्तःपुर जोर-जोरसे रोने लगा। "हे स्वामी, स्वयं राम आये हुए हैं, क्या तुम सिंहासनसे नहीं उतरोगे?हा! दरबार में आये हुए सैकड़ों नरश्रेष्ठोंका सम्मान करिए। हे स्वामी, आप प्रसन्न चित्त हो रोती हुई अपनी पत्नियोंको सहारा दें।" इसी बीचमें सुप्रभा, सुमित्रा और अपराजिता, तीनों माताएँ आ गयीं । "हे बेटा लक्ष्मण !'' कहती हुई वे अपनी छाती पीट रही थी। आधे पज़में शत्रुघ्न आ गया और विमन होकर लक्ष्मणके चरणोंपर गिर पड़ा। उसने कहा, "हे भाई, झोकाकुल अपनी भाँको तो समझाओ। तुम्हारे बिना आज हमारे लिए सारी दिशाएँ सूनी दिखाई देती हैं !' ॥१-२॥
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२१.
परमवरित
[1] तो हरि-मायरि सुमिति समा गुण सुमरे वि गरब पाद मुबह ॥ १॥ 'हा घुस पुत कहिं गयउ तुहुँ। हायिक विग्छामट' काइँ मुडु ॥६॥ हा मई अस्थाणे णिमरिछयड । एवहिजे चवन्तर अच्छियड Ain हा काई जाड ऍउ अच्छरिठ। में महु मिलावण णामु किन ॥५ हा पुत्त पुप्त सीयाहवहाँ। कि मणे णिविण्णउ राहवहाँ ५|| एकलाड विजेण गडाहा पुत्त अनुत्तर एग तह १६॥ एस्थरता सुणे चि महाउसे हि असहन्त हि दुहु छवणी हि परियाणेवि जीविड देहु चलु। जयकारें वि रामहाँ पप-जुलनु IIOR
धत्ता गम्पिणु निणहरु अहि अमियसा णिवसइ मुणि भव-भय-हरणु । कइषय-कुमार-णरवरेंहि सहुँ वीहि मि छाइयउ तव-परण १॥
[२] फकीहर-मरण एकत्तहि। रूषणस-विनोउ मपणेतहि ॥१॥ एकेण जि खगेण मुच्छिमाह। विहि दुहेहिं पुणु किं पुषिका ॥२॥ भाह गिऍचि परिवदिय-मलहरु । पुणु घि पुशुविधाहावह बलास
हा समषण लक्षण-लक्सकिय । पेक्यु केम महुसुम दिक्षतिप ।।। पई वि५ को म स ग स-धई । को मीहोयस समर बिम्बा ॥५॥ पर विणु को महु पेसण सारह। बजपणु णायक साहारा पई विण वालिखित को पारम् । कोसं कामुचि विनिवार ।। पर विणु को मना धरणीधा धामणम्वनीको दुवर
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सत्तासीमो संधि [११] इतनेमें लक्ष्मणको माँ सुमित्रा रो पड़ीं। उसके गुणोंकी याद कर वह दहाड़ मारकर रोने लगीं, “हे पुत्र, तुम कहाँ चले गये। हा, आज तुम्हारा मुख फीका क्यों है, अभी मैंने दरबार में देखा था, अभी-अभी तुम बात कर रहे थे। मुझे यह देखकर अचम्भा हो रहा है। आज तुमने मेरा नाम लक्ष्मणसे शून्य बना दिया । हे पुत्र, हे पुत्र, क्या तुम सीताधिप रामसे अब विरक्त हो गये । जिससे तुम उन्हें अकेला छोड़कर चल दिये । यह तुमने बहुत बुरी बात ही " इसी अनाभि में दीय लवण और अंकुशने जम यह बात सुनी, तो वे सहन नहीं कर सके। यह जानकर कि देव और जीवन' दोनों चंचल हैं, उन दोनोंने रामके चरणकमलोंकी वन्दना की। वे दोनों जिनमन्दिर में गये, जहाँ पर भवभय दूर करनेवाले अमृतसर महामुनि थे। वहाँ उन्होंने कैकेयीके पुत्रोंके साथ दीक्षा ग्रहण कर ली ॥ १-९॥
[१२] एक ओर लक्ष्मण की मृत्यु, और दूसरी ओर अंकुश का वियोग । आदमी एकसे ही मूच्छित हो जाता है, फिर यों दुःख आ पड़नेपर क्या पूछना। भाईको देखकर रामका शोक बढ़ गया, वे फूट-फूटकर रोने लगे-“लक्षणोंसे अफित हे लक्ष्मण, देखो किस प्रकार मेरे पुत्रोंने दीक्षा ले ली। अब कौन तुम्हारे बिना मेरा गमन साधेगा, कौन सिंहोदरको युद्धमें बाँधेगा, तुम्हारे विना कौन अब हमारी आज्ञा निभायेगा, राजा वाकर्ण को सहारा देगा । तुम्हारे बिना अब कौन बालखिल्यको ढाढस वेगा और रुद्रभूतिका प्रतिकार करेगा। तुम्हारे बिना अब कौन राजाओंको पकड़ेगा और दुर्द्धर राखा अनन्तवीर्यको अपने वश में करेगा। राजा
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परामचरित
घत्ता सत्ति अरिदमण-णशहिवहीं पञ्च पविमोवि स समरें। पई घिणु लक्षण खमअलिहें कहाँ सम्गह जियपउम करें ॥९॥
[1] हा लक्षण पई विशु गुणहराहूँ। उसगा हरइ को मुणिवराहूँ ॥३॥ पर रिणु अ-किलंस भुवणे कास। करें लग्गा असिषरु सूरदासु ॥३॥ पई विशु को ईलएँ गरुअ-धीरु। चिणिवायई सम्वुकुमार वीरु ॥३॥ पई विणु संदर्भिसय पहु-वियारु । को परिषाणइ चन्दा दारु ॥४॥ पई विणु को जीवित रह साहै। तीहि मि तिसिरय-पर-दूषणाई ।। पई विणु को धारइ पमय-साधु । का कोहि-सिलुरगहुँ समाथु ।।३।। पइँ विशु लङ्का-जयरिद समावें। को निगइ हंसरह हंस-बीये ॥७॥ पई विणु को इन्दइ घरइ माद। को रावण-ससिएँ समुह थाइ ॥४॥ पई विशु कहाँ आप किय-विसल । दिवसयर अशुटुम्लएँ विसच ॥९॥ पई विणु उप्पाइ कहाँ रहनु। को दरिसइ बहुरूपिणि मगु ॥॥ पर विणु कियन्तु को रावणासु। को सिप-दायारु विहौसणासु ॥३३॥
घत्ता पर विणु मणि महु माइणर को मेकावइ पिय-परिणि । पाळेसइ गिह णिरुवाविय को ति-खण्ड-मणिय धरणि ॥१२॥
[१४] हा तवहीं विगय महु पुप्त वे मि। सपछीहर गम्पिणु भाउ लेवि ॥१॥ हा मुगू मार लड्डु पालिक। बदमणगार-मुणिन्द बेड ॥२॥ हा कि म उरि पण? णेहु। हा जणु संथवहि रूपम्तु पहु॥३॥
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संधि
१९३
अरिदमनकी पाँचों शक्तियों को युद्धमें स्वयं झेलकर, अब कौन क्षेमांजलीपुरकी जितप्रभाको अपने हाथ में लेगा ।। १-२ ।।
[१३] हे लक्ष्मण, तुम्हारे बिना गुणधर मुनिवरों का उपसर्ग अब कौन दूर करेगा अब दुनिया में तुम्हारे बिना सूर्यहाए तर बिना कट किसके पास जायगी ? तुम्हारे बिना अब कौन वीर शम्बुकुमारको खेल-खेल में मार गिरायेगा ! तुम्हारे विना अब कौन विकारोंका प्रदर्शन करती हुई चन्द्रनखाको पहचान सकेगा ? तुम्हारे बिना अब कौन खर-दूषण और त्रिशिरका जीवन अपहरण करेगा ? प्रमदाओंके समूह को तुम्हारे विना अब कौन समझाएगा ? अब कौन कोटिशिला उठायेगा ? और अब तुम्हारे बिना लंकाके निकट स्थित हंस द्वीप और उसके राजा हंसरथको जीतेगा ? हे भाई, तुम्हारे बिना अब इन्द्रजीत को कौन पकड़ेगा ? और रावणकी शक्तिका सामना कौन कर सकेगा ? शल्य दूर करनेवाली विशल्या, तुम्हारे विना सूर्योदयके पहले अब किसके पास आयेगी ? तुम्हारे बिना चक्ररत्न अब किसे उपलब्ध होगा ? और कौन बहुरूपिणी विद्याका नाश करेगा ? तुम्हारे बिना अब कौन रावणका यम बनेगा और विभीषण के लिए सम्पत्तिका दान करेगा ? तुम्हारे बिना अब कौन है जो मेरी मनचाही पत्नी सीतादेवी से भेंट करायेगा ? कौन अब तीन खण्ड धरतीका निर्विघ्न परिपालन करेगा ? ।। १-१२ ॥
[१४] अरे मेरे दोनों पुत्र भी तप करने चले गये । लक्ष्मण, तुम जरूर उन्हें लौटा लाओ। यह ईर्ष्या छोड़ो और धरतीका पालन करो। मुनि बननेका समय है। क्या मुझपर तुम्हारा नेह नष्ट हो गया है। अरे, रोते हुए इन लोगों को
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२९४
पउमरिड इह चक्के में हर वहरि-चक्कु । सो विसहति केव किषन्त-चक्कु ॥! हा काई करमि संघरमि केरथु। ण वि सं पसु सुह सहमि जेत्थु ।।५।। णिड्डहाइ जेम भायर-विओउ । तिहणवि विसु विसमुणे पिसुणु लोउ। ण वि गिम्ह-याले खर-दिणयरो वि । ण वि पजालिट बहसाणरो वि ॥॥ हा उझाउरि-पायारु खसिङ । इक्नुक-वस-मयरहरु मुसिउ' ॥८॥
घचा पुणु आलिमा चुम्बई पुसह मकै भवेष्मिणु पुणु रुखाइ। जीविऍण वि मुक्कउ महुमहशु रामु सणे. ण वि मुबह ॥१॥
[५] सखण-गुण-गण मणे सुमरन्ते। दसरह-जेट-सुएण स्त्रम्तें ॥३॥ हष्णु अउमा-अपेण असेसें। अबराइ सुप्पह विसेसे ॥२॥ रुण्णु सलसुन्दरि विसाल। रुपणु विसल्लएँ विह गुणमाफएँ ॥३॥ रुग्णु रयणचूरूप षणमाल। तिह कल्लाणमारल-णामाकएँ ॥॥ रुष्णु सञ्चसिरि-जयसिरि-सोम हिं। दहिमुह-सुम-गुणवइ-जियो हिं ५ रूपणु कमललोयण-ससिमुहियादि । ससिवन्त्रण-सीहोयर-दुहियहि ॥१॥ रुष्णु अणेय हि बन्धन-सपणे हिं। खणे वगणे विदिहें दिण्ण-दुचषणेहि ,
पत्ता
जसु सोएं मुक्कल मुक्क-सर सइँ जय-सिरि हच्छि पि रुबह । सह उहाउरि कमागएँ हि को वि ण गरुम धाह मुभा ॥८॥
[१३] तो दस-दिसु पसरिय एह पत्त। सहसा विज्ञाहरण पत्ता सयम वि स-कळत स-पुस भाम | सुग्गीव-विहीसण-सीहणाय ॥१॥
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सत्तासीमो संधि
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सान्त्वना दो । जिस घकसे तुमने शत्रुसमूहका अन्त किया, भला वह यम चक्रको कैसे सहन कर सका ? हा अब क्या करूँ, कहाँ जाऊँ, ऐसा एक भी प्रदेश नहीं जहाँ जाकर सुख प्राप्त कर सकू। भाईका वियोग रामको जितना सता रहा था, उतना विषम न तो विष था और न दुर्जन समूह । भीष्म-कालका प्रखर सूर्य भी उतना विपम नहीं था और न ही जलती हुई आग । हा, अब तो अयोध्या नगरका खम्मा ही टूटकर गिर गया । इक्ष्वाकु वंशका समुद्र आज सूख गया। राम लक्ष्मणका आलिंगन करते, 'घूमते और कभी पोंछते, और फिर गोद में लेकर रोने बैठ जाते। लक्ष्मण प्राण छोड़ चुके थे, परन्तु राम तब भी स्नेह छोड़ने को तैयार नहीं थे ।।१-९॥
[१५] वे लक्ष्मण के गुण.समूह की याद करते, और बारबार रोते। उनके साथ समस्त अयोध्यावासी रो पड़े। अपगजिता और सुप्रभा तो खूब रोयीं। विशल्या सुन्दरी भी खूब रोयी, विशल्याकी तरह गुणमाला भी खूब रोयी, रतनचूला और वनमाला भी रोयीं, उसी प्रकार कल्याणमाला और नागमाला भी खूब रोयी, सत्यश्री, जयश्री और सोमा रोयी, दधिमुखकी पुत्री गुणवती और जितप्रभा भी रोयी, कमलनयना, शशिमुखी, शशिवर्धना और सिंहोदर की लड़कियाँ भी रोयीं। भाग्यके वशसे लक्ष्मणके अनेक बन्धु-बान्धव और स्वजन, अत्यन्त दीन स्वरमें रो रहे थे। जिसके वियोगमैं स्वयं जयश्री और लक्ष्मी मुक्तस्वरमें रो रही थीं, उस अयोध्या नगरीमें कौन ऐसा था जो फूट-फूटकर न रो रहा हो ॥१-८॥ । [१६] यह बात दशों विशाओंमें फैल गयी। शीघ्र ही विद्याधरोंको यह मालूम हो गया। सभी अपने पुत्रों और पत्नियों के साथ आये | सुप्रीव, विभीषण, सिंहनाथ, शशिवर्धन,
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पवमचरिङ
स- विराट्रिय गवय-गम- कणय ॥19 दहिमुह - सुसे - जम्बच समुह ॥४॥ मयम-रम्स दिवस यर ओति ॥५॥ सुहिणाहय-कमल- विषण्णणायण ॥ ६ ॥
सयल वि अंशुअ-जल-मरिय-यण
वलवहाँ चलहिं पडिय केंवें । तइलोक गुरु मित्राण जेवें ॥ ७ ॥
ससिषण तार-तर-जणय | कोलाहल - इन्द्र महिन्द कुग्द | समिकरणळ-पांख-पसण्णकिति ।
घचा
अक्लोइड पुणु असहन्स ऍहिँ काहि सम्पत्तु र 1 विगय-पहु दर षोणल-सिरु णं किउ केण विलेम || ||
[10]
संगिऍवि सुमिला तण तेहि । 'हा हा काळ हाण-पाल । हा हा करूँ पेस किं पिणा । हा हा जण-मण-जणियाशुराय ।
हा सामिय जय - सिरि-निवास हा हा सामिय सच्चोवयारि । हा सामिय तु दम- रिशु इमेण
कहें कि उ जन्तु तुझु ।
श्राहाविज वर - विवाहरेडिं ॥१॥ अइ-दूरीहू सामिसाल ||२|| हा बजाय अम्इँ अवाह || ३ || कहें को पेसेसह बहु- पसाय ||४|| पइँ विणुण षिं राहब जीवियास 114 || हा हा बरहरावत-वारि ॥ ६ ॥ परिमुज्झह ण वि एक्के मत्रेण 113H जे मुवि जाहि णकन्तु गुज् ॥८॥
।
घत्ता
दम- दिसि काउ सुरवर कि
कलुमा णरवरहँ बणसउ उ मह - जलहि गिरि शेवादिय पर बिसहर वि ||९||
अप्प सन्धवि विडीसणेण । 'परिसहि देव महन्तु सोड ।
[14]
तेण ॥१॥
पुणु
पद्मणि सहवचन्द्र
काण व विभोर ॥ २ ॥
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सत्तासीमो सधि
२५७
तार, तरंग, जनक, विराधित, गवय, गवाक्ष और कनक, कोलाहल, इन्द्र, माहेन्द्र, कुन्द, दधिमुख, सुषेण, जाम्बव, समुद्र. शशिकर, नल, नील, प्रसन्नकीर्ति, मद, शंख, रंभा, दिषाकर और ज्योतिपी। सभीकी आँखों में आँसू भरे हुए थे, सबके मुख हिमाहत कमलोंके समान मुरझाये हुए थे । वे रामके चरणोंमें उसी प्रकार गिर पड़े, जिस प्रकार देवता, त्रिलोकगुरु जिनेन्द्र भगवान के चरणोंमें गिर पड़ते हैं। विश्वास न होनेसे उन्होंने बार-बार देखा कि चक्रवर्ती लक्ष्मण सचमुच कामकवलित हो चुके हैं, निष्प्रभ अपना सिर नीचा किये हुए, मानो किसीने मूर्ति हो गई दी हो ?--
[१७] सुमित्राके पुत्र लक्ष्मणको इस प्रकार देखकर बड़ेबड़े विद्याधर बुरी तरह रो पड़े। “हे कालके आगतको झेलने वाले स्वामिश्रेष्ठ, तुम भी इतनी दूर हो गये। हे स्वामी, कुछ भी तो आना दो। अरे आज तो हम अनाथ हो गये। हे जनमनमें अनुराग उत्पन्न करनेवाले, अब बहुतसे प्रसाद कौन भेजेगा, जय श्रीके निवास हे स्वामी, तुम्हारे बिना अब कौन रामक लिए जीवित गाथा होगा सबका उपकार करनेवाले हे स्वामी, हे समुद्रावतं धनुषको उठानेवाले, तुम्हारा दयारूपी ऋण एक भी जन्ममें पूरा नहीं होगा। इसलिए यही ठीक है कि आप हमें छोड़कर कहीं और न जायें । उन नरश्रेष्ठोके करणविलापसे, दसों दिशाएँ, कन्याएँ, बड़े-बड़े देवता, वनस्पतियाँ, नदियाँ, बड़े-बड़े समुद्र और पहाड़ तथा विषधर भी रो पड़े 12-९॥
[१८] तब विभीषणने अपने-आपको ढाढ़स बंधाया और उसने रामचन्द्रजीसे कहा, "हे देव, यह महान शोक आप छोड़
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पठमचरित म वि एकहाँ एयहाँ भन्तकरणु। सम्बडा विजणही जर-जम्म-मरण ।।३।। बीबहो मव-गहणे का वि मन्ति | पलई सरीर होन्ति जन्ति ॥४॥ अप्पत्ति जेत्र सिद्ध इति । मह काम करतात . कइड वि अम्हे हि सम्हहि पर्व। पहुगमणु करवड ए जेव ॥१॥ जह जीव-रासि आवह ण जाइ। तो मेइणि-मण्डले कथु माइ ॥७॥ जा मरणु नाहि भो रामयन्द। तो कहिं गय कुलयर जिणधरिम्द॥८॥ कहि मरह-पमुह बकवह पवर । कहिण-कण्ड-बकएव अवर ॥९॥
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पत्ता एड जाणे वि सयफागम-कुसळ वयण महार मणे पाहि । शायहि सयम्भु सइलोक-गुरु दुहु दु-कलतु व परिहहि ॥१०॥
इथ पोमचरिय-सेसे विहुभ सयम्भु-हए वन्दइ-आसिय-करायपोमचरियस्स सेसे
सयम्भुपवस्स कह बि उम्परिए । हरि-भरणं णाम पम्यमिणं ॥ सणय-विहुभप-सपम्भु-णिम्मविए । सत्तासीमो इमो सग्यो ।
तिहुअण-सयम्भु णवरं एको कहराय-बहिणुप्पण्णो । पउमचरियस्स चूलामणिय सेसं कयं जेण ॥
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अट्टासीमो संधि दें, संसारमें वियोग किसीको भी न हो, परन्तु यम इसी एकके लिए नहीं है, सभी मनुष्योंका बुढ़ापा, जन्म और मरण होता है। जीवको जन्म लेनेमें कोई भ्रान्ति नहीं है, चंचल शरीर उत्पन्न होते हैं, और नष्ट भी। मनुष्यका जन्म जैसा निश्चित है, उसकी प्रमुभ. उFER निम्ति है. इसलिए लक्ष्मणके लिए तुम क्यों रोते हो हे देव, जैसा इसने महाप्रस्थान किया है, वैसा ही एक न एक दिन मेरा आपका भी कूचका डेरा उठेगा। यदि जीवोंकी राशियाँ इस प्रकार आती-जाती न रहें, तो धरतीपर समायें कैसे हे राम, यदि मौत न होती तो बड़ेबड़े कुलधर और तीर्थकर कहाँ गये। भरतप्रमुख बड़े-बड़े चकवर्ती और भी दूसरे रुद्र, कृष्ण और राम कहाँ गये समस्त आगमों में कुशल, यह सब जानते हुए, आप मेरे षचनमें विश्वास करें, आप त्रिलोकगुरु स्वयंभूका ध्यान करें, और दुःखको खोटी स्वीकी तरह दूरसे ही छोड़ दें ॥१-१०॥ स्वयंभूदेवसे किसी प्रकार बचे हुए, और निभुवन स्वयंभू द्वारा रचित पअचरित के शेष मागमें 'रमणमरण' नामक पर्व समाज हुमा । चन्दइके आश्रित, कषिराजके पुत्र त्रिभुवम 'स्वयंभू' द्वारा रचित पप्रचरिसके शेष भागमें, यह ससासोवा सर्ग समाप्त हुआ। अकंला त्रिभुवन स्वयंभू कविराज चक्रवतीस उत्पश्च हुआ, जिसने पमचरितके चूरामणिके समान यह
शेष माग पूरा किया।
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[८८. अट्टासीमो संधि ]
तहि अवसर सिरसा पणवन्ते हि बलु विष्णविउ सयल-सामन्तें हिं । 'परमेसर उपसोह समारहों लच्छीहर-कुमार संचारहों' ॥ध्रुधक।
[.] पमणइ सोराबहु इय घय हि। 'Heid हि स ग सय में । दज्म' माष-पप्पु-तुम्हारउ । होउ चिराउसु मात्र महारउ ॥१२॥ उहि जाहुँ लकवाग लहु तेतहैं। स्वल-वयण सुध्वन्ति णबेतहें ॥३॥ एवं वधि चुम्बै वि आला वि। पासएड जिय-सन्धैं चहा वि ॥७॥ गड़ बलएड अण्णु थाणन्तरु! पाल तुरन्तु पवर-माणहरु ॥५॥ 'भाइ षिवज्झहि केसिउ सोबहि। पहाण-वेल परिल्हसिय ण जोयहि ॥ पुणु पोटोपरि थवि णपम्हें हि। अहिसिष्ट वर-कश्यण-कुम्मे हि ॥७॥ पुणु भूसह मणि-रयणाहरणे !ि ससहर-सवण-नेय-अपहरणों हिं hall पुणु चोलह समाण सूयारहों। 'मोयण-विहि राहु काहाँ कुमारहाँ' तेण वि विस्थारिट सरि-परिचालु । देइ पिण्ड मुहें मणे मोहिउ बलु १० ण वि अहिलसइ ण पेक्ष लक्रष्णु। जिण-क्यणु व अ-मम्बु अ-त्रियकवणु११
पत्ता तहाँ भाय। अवर वि करन्तहों णिय-सम्धे हरि-मरउ वहन्नहीं। माह-विभोय-जाय-भा-खामही अक्षु वरिसु घोठीणउ रामहीं ॥२
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अठासीवी सन्धि
उस अवसरपर सिरसे प्रणाम कर प्रायः सभी सामन्तोंने रामसे निवेदन किया-"हे परमेश्वर, आप शोक दूर कीजिए, और कुमार का दाना करिश
[५] ये शब्द सुन कर रामने कहा, "अपने स्वजनोंके साथ तुम जल जाओ। तुम्हारे माँ-बाप जलें, मेरा भाई तो चिरंजीवी है । लक्ष्मणको लेकर मैं वहाँ जाता हूँ जहाँ दुष्टोंके ये वचन सुनने में न आयें।' यह कहकर रामने लक्ष्मणको चूमा और प्रलाप करते हुए अपने कन्धोंपर उन्हें रख लिया । वहाँसे राम दूसरे स्थानपर चले गये। फिर तुरन्त स्नानघर में प्रवेश किया। वहाँ जाकर उन्होंने कहा, "भाई जागो, कितना और सोओगे, नहानेका समय जा रहा है, तुम नहीं देखते हो क्या ? फिर रामने भाईको स्नानपीठपर बैठाया और नौ उत्तम स्वर्ण-कलशोंसे उसका अभिषेक किया। उसके बाद उसे मणि और रत्नोंके गहनोंसे विभूषित किया। वे गहने सूर्य और चन्द्रमाके समान तेजवाले थे। फिर रामने रसाइएसे कहा, "कुमारकी भोजनविधि शीन सम्पादित करो।” रसोइएने बड़ी सी सोनेकी थाली लगा दी। राम अपने मन में इतने मुग्ध थे कि उसके मुंहमें कौर खिलाने लगे। परन्तु लक्ष्मण न तो कुछ चाहता और न कुछ देखता। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार, अमव्य और मूर्ख जीव, जिन भगवान्के वचन नहीं सुनता । यह और इस प्रकार दूसरी और बातें राम करते रहे, अपने कन्धोंपर कुमार दक्ष्मणका शव वह ढोते फिरे । भाईके वियोगमें वह बहुत दुबले-पतले हो गये। रामका इसी प्रकार आधा बरस बीत गया ॥१-.२।।
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૦૨
तो नाव उ इयरु सुगेकि । खर- बूसण- रावण सम्भरेवि । परियार्णैव रहुवइ सोय - गहिद । सामरिस-र-णरवर- णिउत्त ।
हँ बजमालि-रव-समुह । 'मरु हिन्दुहुँ अजु कुमार-सीस् । जं इन खग्गु विरु सूरदासु 1 जं खर दूसरा-तिसरयहँ मरणु ।
Hafta
[२]
कच्छीहर-मरण मर्णे मुणेषि ॥१॥ सम्बुक-धहरु नियम घरेवि ॥ २ ॥ जीसेस सेण-वावार- रहिउ ॥३॥ आइये बहु इन्दद्द - सुन्द- पुप्तं ॥४॥ वइय-कियन्त- धणु-मीम- प्रभुह ॥५ बहु काल संभाजीसु ॥ ६॥ जं सम्बुकुमारों किं विषासु ॥७॥ किड अक्खम-रावण-पाण-दरणु ॥८॥
तो सुर्णेवि आप रिशु रावेण । रहें च वि वि उस भाइ । एथन्तरे जे माहिन्द पक्ष । सेतवर्णे आसण-कम्प होथि । गुणसुमरें विसामि भर्तित। विउषि सुरवर-बलु णन्तु । संप्रेक्ष हरिव खि पणटू । वो रणक्तु स-वक्षमाथि ।
धत्ता
जं बहु-ठाएँ हिँ अहँ अणुदिणु दिष्णु भणन्तरु बरु महा-रिशु सब बिमे विनिय बुद्धिऍ फेडहुँ अज्जु सब्बु सहुँ बिडिएँ ॥ ९ ॥
[*]
आयामिड वज्जावत्त ते ॥ १ ॥ जोइस परिवक्व जमेण णाइँ ॥ २४ सुर आ जाइ-कियन्तवत् ॥१३॥ अवहिऍ परियाबि आय के वि ||४|| सम्पाइय उज्झाउरि तुरन्त ||५|| 'मह वहाँ बहों को 'भणन्तु ||६ लङ्घन्ति दिसउ णं हरिण रुटु ॥७॥ 'बुद्धको वण पावद्द किय-वाहि ॥
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अट्ठासीमो संधि [२] इसी बीच, ये सब विन सुनकर और यह जानकर कि कुमार लक्ष्मण मृत्युको प्राप्त हो चुका है। तथा खरदूषण
और रावणकी शत्रता और शम्बूक कुमारका वैर मन में याद कर और यह जानकर कि राम शोकमें पड़कर समस्त सैनिक गतिविधियोंसे हट गये हैं, इन्द्रजीत और खरके पुत्र वहाँ आये | उन्होंने बड़े-बड़े विद्याधरों और नरयरोंको नियुक्त कर दिया ! आकाशमें इस प्रकार वगाली, ग्लाम आदि, बलइय,कृतान्त और धनुभाम आदि राजा आये। वे कह रहे थे, "लो आज हम कुमारका सिर काटते हैं, बहुत समयके बाद यह हवि मिली, जो इसने सूर्यहास तलवारपर अपना अधिकार किया और शम्यूक कुमारका विनाश किया, और खरदूषण और विशिरका वध किया, तथा अभयकुमार एवं रावण. के प्राणोंका अपहरण किया। और भी विविध स्थानोंपर प्रतिदिन लगातार महायुद्ध किया, अपनी बुद्धिसे उस सबको अपनी बुद्धिमें समझकर पूरा करूँगा ।।१-२||
[३] जब रामने सुना कि दुश्मन आ रहे हैं तो उन्होंने अपना वसावर्त धनुष तान लिया। रथमें चढ़कर भाईको गोदमें ले लिया। उन्होंने शत्रुसेनाको इस प्रकार देखा मानो यमने ही वेखा हो। इसी अन्तरालमें, जटायु और कृतान्त-वक्त्र दोनों जो चौथे माहेन्द्र स्वर्गमें देवता हुए थे, उनका तत्काल आसन कम्प हुआ। अवधिहानसे यह सब जानकर वे दोनों वहाँ आये । भक्तिसे भरे वे दोनों अपने स्वामीके गुणोंकी याद कर शीघ्र अयोध्या नगरी पहुंचे। उन्होंने देवताओंकी अनन्त सेना बना दी, जो मरो भागो मरो भागो' कहती हुई, यहाँ आयी। रामकी सेना देखकर शत्रुसेना भाग खड़ी हुई, मानो सिंहके दिशामें प्रवेश करते ही हरिण भाग खड़े हुए हों। बसमालीके साथ
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३०४
पउमचरिउ
अम्हहिं सयक विगछियाहिमाण लिन कुट्ट दुजण भयाण ॥९३
किह न गम्पि सुह-स
ऐक्स
नि!!!
घन्ता
एम मषि इन्दिय दुब्भेयहाँ गम्णुि पायें मुनि रहवेयहीँ । - विरत पर नियराक्क्रिय से सुन्दिन्दर- तुम दिवसक्किय ॥ ११॥
[ ४ ]
तो रिशु मऍ विगयएँ सयले गुणस्य सायरेणं । सेणाणिय-सुरेण राम - चोहण किया हे ॥१५॥ शिम्मिड मिनिमाणु सचिण सुक्क रुखो | सम्पन्ते वसन्त मासें विरहि व सुद्ध सुक्खो ॥२॥ ओलग्गिड कु-पशु का फल अदिष्ण खाओ 1 किविणुस फुल्ल- परिषन्तु समक-काओ || ॥ सह-कलेवर जुअम्म हल थर्वेदि ण-किय खेबो | चाहइ पक्रिड़ वीज सिरुषहँ बीच देवी ॥ ४ ॥ शेष पाहाणे कमळ-उप्पल- - णिहाउ एकरो । पविरोध मन्याएँ पाणिड कियम्त अमरो ||५|| पुणु पीलइ बालुभाएँ वाण्ड डाइनामो । अस्य विरुद्धा ताई अवर मिनिऍविरामी ॥ ६ ॥ पण 'मो मी भयाण तुर्डे मूढ जिय-मणेणं । किं सलिलहाँ करहि हागि जर वरण- सिम्खणं ॥ ७ ॥ मायासहि पियर य-जुअले यवीयसीरे । पण वि कोणिउ होइ परिमन्थिए वि जीरे (१) ॥८ वालुअ-परिपीकपेण तेलादि कसो । इच्छय-फलु किं विगब्धि मायासु पर महन्तो' ||५||
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अटासीमो संधि
३०५ रत्नाझने कहा, “धोखा देनेपर दुःख कौन नहीं पाता। हम भी कितने निर्लज्ज, दुष्ट, दुर्जन और अमानी थे, हमारा भी मान अब गल गया। हमलोग लंका जाकर शुभनन विभीषण के दशन किस प्रकार कर सकते हैं।" यह कहकर इन्द्रियों के लिए अभेद्य रतिवेग मुनिके पास जाकर इन्द्रजीत और खरके पुत्रोंने बहुत लोगों के साथ संसारसे विरक्त होकर दीक्षा ग्रहण कर ली॥१-११॥
[४] इस प्रकार शत्रुका भय समाप्त हो जानेपर उन देवोंने सेना समेट ली। अब उन्होंने सोचा कि गुणरूपी रत्नोंके समुद्र रामको सम्बोधित कैसे किया जाय । उन्होंने एक सूत्रा पेड़ बनाया और उसे पानीसे सींचना प्रारम्भ कर दिया । वसन्तका माह आनेपर भी वह वृक्ष विरहीकी भाँति सूखा जा रहा था, वह वृक्ष खोटे राजाकी भौति था, न तो उसमें फल थे, और न छाया । पत्र-पुष्पके परित्याग हो जाने के कारण कंजूसकी भाँति घह काला पड़ गया था | दो बैल उन देवोंने जुएमें जोत दिये, फिर उसमें हल लगा दिया, और शीघ्र ही दूसरे देवने चट्टानपर हल बलाफर बीज बखेर दिये । इस प्रकार वह पत्थरपर कमलके फूलोंका समूह जगाने लगा। कृतान्त यत्र नामका देवता मथानीसे पानी बिलोने लगा। एक ओर जटायु नामका देवता घानीमें रेतको पेरने लगा। इस प्रकार रामने जब ये और दूसरी परस्पर विरोधी अर्थहीन बातें देखीं, तो उन्होंने कहा, "अरे अज्ञानियो ! तुम अपने मन में महान् मूर्ख हो, पुराने बूढ़े पेलको सींच-सींचकर पानी बर्बाद क्यों करते हा ? तुम व्यर्थ श्रम कर रहे हो, चट्टानपर कमल नहीं लग सकता। पानीको मथनेपर भो नवनीत नहीं बनेगा। इसी प्रकार रेत पेरनेसे तेलकी उपलब्धि किस प्रकार होगी तुम्हारा
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परामचरित
घत्ता तो दुश्चइ कियन्त-गिलाणे 'सुङ मि एड परिवम्मिट पाणे । बहहि सरीरु र धिसिद्ध म ला ९ का पिट
[५] तं णिसुर्णेवि षयणु णीसा । हरि संबवि सुबह मे ॥१॥ "किं सिरि-णिकउ कुमार दुगुकाहि । बाद मुणहि सो सेरव मच्छहि ॥२॥ केसिन पचहि मणि अमालु। दोसु पहकह सड़ पर केवलु' ॥३॥ सम्पद जाव वपशु शड हलहरू । ताव लएविणु सुहर-काळेवरु ॥३॥ आउ जसाइ पहाड बन्धे । पत्तु मलेण भाइ-सोअन्धे ॥५॥ णेह-पसेण विवज्जिय-रज्जें। पॅदु णर-देहु वहहि कि कई || तेण चवित 'माँ किन किं पुश्चहि । श्रप्पाणउ किर काई ण पेच्छाहि ॥७॥ जिह हउँ सेम नहु मि भणे मूळ । अच्छहि सम्में कलेवर-बूटा ॥४॥ पई पेक्वप्पिा मा भगुरूबर। मणे परिभबिट गेहु गरूड ||
पत्ता भो भो मन्पिमुहहुँ चिरु जायई तुहुँ राणा सम्बहु मि पिसायहुँ । माउ दुइ वि मह-मोह-मम्ता हिण्डहुँ गहिलर कोड कान्ता' ||mou
इह घपणे हि इलि-बल-पदम-शामु । महलजिउ सिविलिय-मोहु रामु ।।।। सहसा हुउ वियसिय कमळ-णय । परिचिन्तहुँ कग्गु जिणिन्द-ययणु ॥२॥ जं दुझिय-कम्मर खयहाँ णेह। जं अविचल-सासय-सुहरें । ॥३॥ 'हउँ गेह-वसझाव पेक्षु केव। चाणम्तो वि अच्छभि मुक्खु ओम ॥४॥ धाड तिहुअणे अणरण-नाउ। जो छिन्दैवि मोहु मुणिन्दु जाउ ॥५॥ धरणउ दसरह धिरु आसु सत्ति। कबुइ पेहोपिश हुम विरचि ॥६॥
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अट्ठासीमी संधि
प्रयास तो बहुत बड़ा है, परन्तु इच्छित फलकी प्राप्ति कुछ भी नहीं है। यह सुनकर कृतान्तदेवने कहा, "तब तुम भी प्राणों से शून्य इस अवशिष्ट शरीरको क्यों हो रहे हो, बताओ इसमें तुमने कौनसा फल देखा ।। १-१० ।।
[4] उसके इन असाधारण वचनोंको सुनकर रामने लक्ष्मणको अंक में भर लिया और कहा, "तुम श्रीके निकेतन कुमार लक्ष्मणकी निन्दा क्यों करते हो, यदि तुम नहीं जानते वो चुप तो रह सकते हो ।" तुम कितना अमंगल और अनिष्ट कहो, इससे तुम्हें दोष ही लगेगा। रामने इतना कहा ही था कि जटायु एक योद्धा के शरीर कन्धेपर उठाकर आया। उसे देखकर भ्रातृ प्रेमसे अन्धे, राज्य विहीन रामने स्नेहके वशीभूत होकर कहा, “तुम किसलिए इस मनुष्यको ढो रहे हो ।" उसने कहा, "मुझसे क्या पूछते, अपने-आपको क्यों नहीं देखते। जिस प्रकार मैं अपने मनमें मूर्ख हूँ उसी प्रकार तुम भी हो, तुम भी शवको कन्वेपर हो रहे हो। तुम्हें अपने समान पाकर तुम्हारे प्रति मेरे मनमें भारी स्नेह उत्पन्न हुआ है। अरे अरे मुझ सहित सभी पिशाचोंके तुम प्रमुख हो, हम दोनों ही महामोहसे उद्भ्रान्त और भूतोंसे प्रसित होकर दुनियामें घूम रहे हैं ॥ १-१० ॥
I
[६] इन शब्दोंसे राम बहुत लज्जित हुए और उनका मोह ढीला पड़ गया । सहसा उनकी आँखें खुल गयीं। वे जिन भगवान के शब्दोंपर विचार करने लगे । उन वचनोंको, जो पाप कर्मों का क्षय करते हैं और जो अविचलित शाश्वत सुख देते हैं। मैं नेह के वशीभूत होकर देखो कैसा मूर्ख बना, सब कुछ जानकर भी, मूर्ख जैसा बर्ताव कर रहा हूँ । संसार में धन्य हैं अणरण्ण राज, जो मोहका नाश कर महामुनि बन गये ।
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३.८
पउमरिज धष्णउ भरहु वि जे चतु रजु बोहण वि किउ परलोय-कनु ॥७॥ धण्णउ सेणाणि कियन्तवतु । जें मुणेषि भणागय (1) लइउ तत्तु । धण्या सीय विहय-कुगइ-पन्थ। गवि दिइ जाएँ पही अवस्थ ।।९।। धण्णउ हणुवन्तु वि जो गरूवें। ण विणिचिट इय-मोहन्ध-कूते १० धपणा छवगनुस हरि-सुआ वि। जे दिक्षालकिय णव-जुवा वि ॥११॥
पत्ता
हउँ बई पुणु पारण गएण विभपण बि लच्छीहरण मपण वि । करमि का वि अप्प-हिंय तणु कहाँ णिय-कों का होइ बढतणु' ॥११
[-]
पुणु पुणु रहुकुक-गयणयल-चन्दु । परिचिन्तइ हियवएँ रामचन्दु ॥३॥ 'सबमन्ति कलत्तई मगहराई। छत्तई लमन्ति स-चामराई ।।२॥ लम्म बहु-बन्धव सयण-सत्थु । लमह प्रणाय-परिमाणु अस्थु ॥३॥ लामन्ति हत्यि रह तुरय पयर। अह-दुलहु बोहि-णिहाणु णवर' ! परियाणेवि वलु पडिबुद्ध एव। णियारिदि वे वि दरिसन्ति देव ॥५॥ सुरवहु-सङ्गीउ सुअन्ध-पवशु। अम्पाण-विमाणे हि अण्णु गयशु ॥६॥ 'भही रहुधइ कि गय-दिण-सुहेग' । शेण वि पवुत्तु वियसिय-मुहेण ।। चिरु पुष्ण-विहूणहाँ मन्च एन्थु । मगे मूवहाँ णिविसु वि सोक्स कैरधु ८ श्य मणुय-जम्में पर कुसलु बाहँ । जिण-सासणे अविचल मास जाह ॥ए
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अट्टासीमो संथि धन्य हैं राजा दशरथ जो द्वारपालकी सनदी देखकर विरक्त हो गये। मरत भी धन्य हैं, जिन्होंने राज्यका परित्याग कर दिया और यौवन में ही परलोकका काम साध लिया । सेनापति कृतान्तवक्त्र धन्य है, जिसने भविष्यको ध्यान में रखकर तत्त्व प्रहण किया । कुगतिके मार्गको ग्रहण करनेवाली सीतादेवी भी धन्य है, उसने कमसे कम इस दशाका अनुभव नहीं किया। महान् हनुमान भी धन्य है जो वह मोह के महान्ध कुएँमें नहीं गिरे। लत्रण, अंकुश और लक्ष्मणके पुत्र भी धन्य हैं, जिन्होंने नवयुवक होकर भी दीक्षा ग्रहण की है। इस समय मैं ही एक ऐसा हूँ जो यौवन बीतने और लक्ष्मण जैसे भाईके मरनेपर भी आत्माके घातपर तुला हुआ हूँ। अपने काममें व्यामोह भला किसे नहीं होता ।।१-१२ ।।
[७] रघुकुल रूपी आकाशके चन्द्र राम, बार-बार अपने मनमें सोचने लगे कि सुन्दर स्त्रियाँ पायी जा सकती हैं, चमरों सहित छत्र भी पाये जा सकते हैं। बन्धु-बान्धव और स्वजन भी खूब मिल सकते हैं, अमित परिमाण धन भी उपलब्ध हो सकता है, हाथी, अश्व और विशाल रथ भी मिल सकते हैं, परन्तु केवलझान की प्राप्ति अत्यन्त कठिन है। यह देखकर कि रामको अब बोध प्राप्त हो गया है, देवताओंने अपनी ऋद्धियोंका प्रदर्शन उनके सम्मुख किया। आकाश, जम्पाण
और विमानोंसे भर गया । सुर-वधुओंका जमघट हो रहा था । सुगन्धित इवा बह रही थी। देवताओंने निवेदन किया, "हे गम, बीते दिनोंके सुखोंकी यादसे क्या ।" यह सुनकर रामने हँसकर कहा, "धिरपुण्यसे विहीन मुझे यहाँ सुख कहाँ, मूर्खके मनमें साधारण सुख भी कहाँ होता है। इस मनुष्य जन्ममें उन्हींकी कुशलता है, जिनकी जिनशासनमें अविचल भक्ति
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पजमचरित
पत्ता भण्णु वि णिसुणही कहमि विससे साह कुसलु ते मुक किलेसें । वन परिंग्गह पयहि अलतिय जे जिण-पाय-मूलें दिक्सलिय' ।।१०
[] पुणरधि एष घुस काकुत्थें । 'के तुम्हे अक्षही परमत्थे ॥१॥ के को इय रिद्धि पगासिन । रिनु साहणहाँ पयत्ति विणासिय' ॥२ सरहसु एक्कु पजम्पिड सुरषस् । किं सामिय बीसरियउ गहयरु ।।३।। तुज्य पट्टों चिरु दण्डय-वणे। जो अल्लीणु महारिसि-दसणे ॥४॥ सुह परिणिएँ जो कालिउ तालिब । णियय सीलम जिह पालिउ ॥५॥ सीयाहरणे समुषि गयणहाँ। जो अब्मिपित भासि दहवयणी ॥६ जासु मरन्तहाँ सुह-वारिय। पई चकार पश्च बचारिय ।।।। तुज्झु पसाणं रिद्धि-पसण्णा । सुरु माहन्द-सगों उपपणड ॥॥
घशा
जो असन्त आसि उवयारिउ मघ-सायरें पहन्तु उद्धारित । दउँ सो देव जबाइ महाइड पटिउषयार करेषएँ भाइ' ॥९॥
[१] सो साय कियन्त-दंड वषह। किं मई चीसरित गराहिलह ।।३।। यो सेणाचइ तर होन्तु चिरू। सशक-महारण सहि थिरु ।।२।। जो पेसिस पई सहुँ मायरहीं। ससुहणहाँ समरे कियापरहों ।।३। जे वेवि महर पसम्ब-भुउ। हड रूषण-महपगड महु सुरक्षा जसु फेवलि-पासे गिरन्तरह। प्रायफ वि तुम्ह-मवन्तर ॥५॥ परियाणवि चड-इ-मवण-रु। सहसा वराड जाब पवर ।।।।
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अट्ठासीभो संधि
होती है। सुनिए, मैं और भी हूँ विशेषता कुशलता उन्हीं की है, जो क्लेशसे मुक्त हैं। जिन्होंने परिग्रह छोड़ दिया है, जो त्रतोंसे शोभित हैं और जिन्होंने जिनभगवान् के चरण-कमलों में दीक्षा ग्रहण की है ।। १-१० ।।
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[८] रामने पुनः उनसे पूछा, "तुम कौन हो सच-सच बताओ, किसलिए तुमने इन ऋद्धियोंका प्रकाशन किया ? किसलिए तुमने शत्रुसेना के प्रयासको समाप्त कर दिया ?" यह सुनकर, एक देवने हर्ष पूर्वक कहा, "हे स्वामी, क्या मुझ विद्याघरको भूल गये, जब आपने ause वनमें प्रवेश किया था, उस समय महामुनिके दर्शनके अवसरपर मैं आपको मिला थाः आपकी पत्नी ने अपने पुत्रके समान मेरा लालन-पालन किया था। सीता अपहरण के समय मैं उड़कर आकाश तक गया था और वहाँपर रावणसे भिड़ा था। उससे मृत्युको प्राप्त होनेपर आपने मुझे पाँच नमस्कार मन्त्र दिया था। इस प्रकार आपके प्रसादसे ऋद्धियोंसे युक्त महेन्द्र स्वर्ग में देव उत्पन्न हुआ । मैं आपसे सचमुच बहुत उपकृत हुआ आपने संसार-समुद्र में पड़ने से मुझे बचा लिया। मैं वही जटायु हूँ और आपका प्रति उपकार करने आया हूँ” ॥ १-९ ॥
[२] तब इतने में कृतान्तदेवने कहा, "क्या हे राजन, आप मुझे भूल गये। मैं तो बहुत समय तक आपका सेनापति रहा, सैकड़ों युद्ध में अस्थिर रहा। आपने आदरणीय शत्रुघ्नके साथ मुझे युद्ध में भेजा था । उसने महाबाहु राजा मथुराको घेर लिया था। उसमें मधुका बेटा लवण महार्णव मारा गया । fre केवलीके पास मैंने आपके अन्मान्तर निरन्तर सुने, उससे मुझे चार गतियों में भटकने का डर उत्पन्न हो गया, मुझे सहसा
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पडमचरित जो पइँ पणिउ "भवसरु मुणेवि । वोहिनहि महूँ आयरु कुर्णवि" ||७|| सो हउँ किय-धोर-
स रशु। महिन्ये जर सुरुदि-तY ||jl अवहिएँ परियाणवि हरि-मरणु । भणु वि उद्धाइड बइरि-गणु ॥९|| इह आयउ अरहि किं करमि। तर सम्व-प्यारे उवगरमि' ||१०|| ते वयणु सुणेपिणु समइ बलु। 'ह बोशित मग्गु अराइ-बलु ||३१|| अप्पट दरिसिउ रिद्धी पहुँ। ण पहुच्चइ पण जै काइँ म ॥१२|| इय ययणे हि ते परिमुष्ट मणे। गय सग्गहों सुरवा वे वि षणे ।।१३।।
पत्ता पुणु परिहरै वि सोउ ल भट्टमु वासुएउ वलएवें। णिय स्खवहीं महियले मोयारिउ सरज-सरि सोर संकारिड ||१||
[1] सं रहेंवि सहस्र्थे महमहणु। पुशु पणिउ रामें सत्तुहणू ॥१॥ 'लह वरछ सहोयर रज्जु करें। रहु-कुल-सिरि-णव-बहु धरहि करें ।।र हउँ सयलु परिग्गड पारहरेंवि । तनु केमि सबोषणु पइसरे वि' ॥३॥ सं सुणे वि चवइ महुराहिवइ । 'जा सुहहँ गइ या महु पि गइ' ॥४॥ परियाणेवि पिछड़ वहाँ तणउ । अवलोइड सुर कषणहाँ तणउ ॥५॥ तहों सिर विणिवद्ध पटु पवह । सहसन्ति समप्पिउ रज-मरु ॥६॥ गम्पिणु विणिहर-धनगा-णिसिहें। सुखयहाँ पार्स चारण-रिसिह ।।७।। परिसेसें वि मोहु गुणमहउ। उप्पण्ण-घोहि बलु पबहउ ।।।
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अट्ठासीमो संधि विरक्ति हो गयी। आपने उस समय मुझसे कहा था, "अवसर आनेपर मुझे सम्बोधित करना, इस प्रकार गेा सायर' करना। मैं वही हूँ जिसने घोर तपस्या कर, महेन्द्र स्वर्गमें एक देवरूपमें जन्म लिया । अवधिनानसे मैंने जान लिया था कि लक्ष्मणकी मृत्यु हो गयी है, और दूसरे यह कि शत्रुगण उद्धत हो उठा है। इसीलिए यहाँ आया हूँ, अब मुझे आदेश दीजिए मैं क्या करूँ, मैं हर तरहसे आपका उपकार करना चाहता हूँ।" यह वचन सुनकर रामने कहा, "मुझे बोध मिल गया है और शत्रु सेना भी नष्ट हो गयी है। आपने ऋद्धियोंके साथ दर्शन दिये, जो इससे भी प्रभावित नहीं होता, मधुसे उसका क्या ?" इन वचनोंसे वे अपने मनमें सन्तुष्ट हो गये । दोनों देवता एक क्षणमें अपने-अपने स्वर्गमें चले गये। इस प्रकार धीरे-धीरे शोकका परिहार कर रामने आठवें वासुदेव लक्ष्मणको धीरेधीरे अपने फन्धोंसे उतारा और सरयू नदीके किनारे उनका दाह-संस्कार कर दिया ॥१-१४॥
[१०] इस प्रकार मधुसंहारक भाई लक्ष्मणका अपने हाथों संस्कार कर रामने शत्रुध्नसे कहा, "लो भाई, अब तुम राज्य करो, रघुकुलश्री रूपी नववधूको तुम अपने हाथमें लो। मैं अब सब परिग्रहका त्याग कर तप स्वीकार करूँगा और तपोवनमें प्रवेश करूंगा।" यह सुनकर मथुराके राजा शत्रनने कहा, "जो आपकी स्थिति है, वही मेरी है।" उसके निश्चयको पका जानकर रामने लवणके पुत्रसे इस बारेमें बात की । उसके सिरपर राजपट्ट बाँधकर सहसा राज्यभार उसको सौंप दिया। चार गतियोरूपी रातको नष्ट करनेकाले, सुव्रत' नामक चारण ऋषिके पास जाकर मोह दूरकर गुणभरित और प्रबुद्ध
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उमरि
कता तो गिब्वाण हि दुन्दुहि ताग्यि कुसुम-विटि गयण-यलहों पाडिय। सुरहि-गन्ध-मारूड खण श्रा (1) छउ तूर-महारड जगें में समाज॥९
[1] मेलपि राय-लरिछ-वियसिय-भुछु । णिय-सन्साणे उवि णिय-तणुरुदु ।। १ सप्हणु वि स-मिषु रिसि जायउ । छजजघु गिय-मन-सहायत ॥२॥ छको णिय-पएँ थवि सु-भूसणु । सहुँ तियाएँ पान हउ विहोसणु ॥शा णिय-पर अङ्गम-तणयहाँ देपिणु । सुग्गी वि थिउ दिक्स लएपिणु॥ सिंह शक-गीक सेड हसिखवण। सार तर रम्मु रइवखणु ।।५॥ गवउ गवाखु सखु गउ दहिमुड। इन्दु महिन्दु बिराहिउ दुम्मुहु ।।६।। सम्बर रमणकेसि महुसायरु। मङ्गल अङ्गु सुवेल गुगायह ।।७।। अणत कगड ससिकिरणु जयाधर कुम्दु पसपणकित्ति खेलम्भरु ।।८।। इय अवर वि जिग-गुण सुमरन्ता । सोलह सहस पहुहुँ गितसम्ता १९.
पत्ता हरि-बल-मापरि-सुप्पह-एमुह? सुग्गइ-गमग-परिष्ट्रिय समुहहुँ । पम्बहराई जगें गाम-पगास, जुवइहि सत्ततीस सहासई ॥१०॥
। [२] सो राम-महारिसि विगप-णेहु। प्रदिण-ससहर-कर-धवक-देहु ॥१॥ उदरिय-महण्यम-गरम-मारु। मबषहरि-णिवारशु पहय-मारु ॥२॥ बारह-मिड-बुजुर-तम-णिउसु। परिसह-परिसहणु ति-गुत्ति-गुजु ॥३॥ गिरि-सिहर परिट्रिब एमाश। सम्बरि-उपाइय-अहि-माण ॥
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भट्टासीमो संधि
3 የዓ रामने दीक्षा ग्रहण कर ली। तब देवताओंने दुन्दुभि बजायी। आकाशसे फूलोंकी वृष्टि हुई । भण-क्षण मन सुगन्धित हवा बहने लगी । नगाड़ेकी ध्वनि दुनियामें नहीं समा पा रही थी॥१-२॥
[११] इसी प्रकार शत्रुघ्न भी विकासशील अपनी राज्यलक्ष्मीका परित्याग कर अपनी परम्परामें अपने पुत्रको स्थापित कर अनुचरोंके साथ मुनि पन गया। बजाजघने भी अपनी पत्नीके साथ संन्यास ले लिया। लंकाके अपने पदपर अपने बेटे भूषणको बैठाकर विभीषणने भी बाह्न त्रिजटाके साथ दीक्षा ग्रहण कर ली । अंगदके पुत्रको अपना पद देकर सुप्रीवने भी दीक्षा ले ली। इसी प्रकार, नल, नील, सेतु, शशिवर्धन, तार, तरंग, रम्भ, रतिवर्धन, गवय, गवाक्ष, शंख, गद, दधिमुख, इन्द्र, महेन्द्र, विराधित, दुर्मुख, जम्बष, रत्नकेशी, मधुसागर, अंगद, अंग, सुबेल, गुणाकर, जनक, कनक, शशिकरण, जयन्धर, कुन्द, प्रसन्नकीर्ति, बेलंधर आदि तथा दूसरे और भी जिनगुणोंका स्मरण करते हुए सोलह हजार राजा दीक्षित हो गये। सुप्रभा प्रमुख राम-लक्ष्मणकी माताओंने मी सुगतिमें जानेके लिए प्रयास किया । जगमें अपना नाम प्रकाशित करनेवाली सैंतीस हजार स्त्रियोंने भी दीक्षा ले ली ॥१-१०।।
[१२] महामुनि राम अब स्नेहविहीन थे। पूर्णिमाके चाँदके समान सफेद उनका शरीर था। उन्होंने महावतोंका भारी भार अपने ऊपर उठा रखा था। मदुरूपी शत्रुका निवारण कर दिया था और कामदेवको भी परास्त कर दिया । बारह प्रकारका कठोर तप अंगीकार किया, परीषद सहन किये और युक्तियोंका परिपालन किया । पहाडकी चोटीपर वह ध्यानमें लीन होकर बैठ गये। रातमें उन्हें अवधिज्ञान
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पउमचरित
परियाणिय-हरि-दष्पत्ति-था। सुमरिय-मय-भय-कय-गुण-गिहाणु ५ विडिय-दिन-दुनिय-कम्म-पासु । भइकन्त-पवर-छटोववासु ॥३॥ विहरम्नु पत्तु धण-कणय-पवरू। सन्दणधळिणामु पाटनणयरु ||७|| तहि पाराविड गामिय-सिरण। मत्तिएँ परिणन्दि-परेसरेण ॥८॥
पत्ता
सही सुर दुन्दुहि साहुचारउ मन्ध-बाउ वसु-परिसु अपार । कुसुमलिए समउ विरथरियर अस्थाका पञ्च वि अच्छरियई ॥१॥
[१३]
पुणु पहुहे अपोय. क्यइँ देवि । सं सन्दणयलि-पशु एवि (१) ॥१॥ चिहरइ महियल बलु-मुणिवरिन्दु । णं भासि पहिलउ जिण-वरिन्दु ॥२॥ तष-चरणु परइ अझ-घोरु वीरु। सहसउणु पबइ हिय ऍ धीरु ॥३॥ गय-मासाहारिउ ममत्रा च । सन्चोवरि सीयल उसुवह च ।।।। रम-रहिउ होण-गट्टावड व्य पर-मषण-णिवासिउ पापाज छ ||५|| मोक्सही अइ-उज्जउ लोडउच्च । पयलिय-मय-विन्दु महागड सत्र ॥२॥ बहु-दिणे हि ममेंवि महियलु असेसु । सम्पाइड कोटि-सिला-पएसु ॥७॥ मुणिवरह कोटि जहिं भासि सिद्ध । जा तित्य-भूमि तिहुअणे पसिद्ध ॥८॥ उद्धरिष-भुऍहि जा कपणेण। तहँ देवि ति-मामरि सक्खणेण ।।९।।
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मटासीमो संधि की उत्पत्ति हो गयी। उन्होंने जान लिया कि लक्ष्मण कहाँपर उत्पन्न हुए हैं, यह भी जान लिया कि लक्ष्मणने जन्मजन्मान्तरोंमें उनके साथ क्या धर्ताध किया है। उन्होंने मजबूत दुष्कृतके आठ काँका नाश कर दिया । छठा उपवास समान किया ही था कि वह घूमते हुए वह धनकनक नामक देशमें पहुंचे। उसमें स्यदनस्थली नामका नगर है। उसके राजा प्रतिनन्दीश्वर ने भक्ति और प्रणामके साथ रामको पारणा कराया। देवदुन्दुभियोंने साधुवाद दिया। सुगन्धित हवा बहने लगी। अपार धनकी वृष्टि हुई । कुसुमजिलिके साथ और भी दूसरे पाँच अचरज हुए ॥ १-२॥
[१३] उन्होंने राजाको अनेक व्रत दिये। यह स्यन्दनस्थली नगर गये । इस प्रकार महामुनि राम धरतीपर विहार करने लगे, मानो प्रथम तीर्थकर आदिनाथ ही हों। महावीर रामने घोर तपश्चरण किया। मुनिकी भांति उनके मनमें धीरज बढ़ता जा रहा था, वह सिंहकी भाँति गजमांसाहार (माइमें एक बार भोजन, गजमांसका भोजन ) करते थे, चन्द्रमाकी भौसि सबसे अधिक शीतल थे | निम्न स्तरके नर्तककी भाँति वह रसरहित थे। साँपकी भाँति वह दूसरेके भवन में निवास करते थे । मोक्षके लिए (मुक्तिके लिए और छूटनेके लिए ) वह तीरकी भाँति अत्यन्त सरल ( सीधे ) थे। (छूटना, मुक्ति पाना ही, उनका एक मात्र लक्ष्य था), महागणी भाँति उनके शरीरसे मदयिन्दु (मद या अहंकार) झर रहे थे। इस प्रकार उन्होंने बहुत दिनों तक धरतीपर विहार किया, उसके बाद वे उस कोटिशिला प्रदेश में पहुंचे, जहाँसे करोड़ों मुनियोंने मुक्ति प्राप्त की है और जो तीनों लोकोंमें तीर्थभूमिके रूपमें विख्यात है, जिसे लक्ष्मणने अपने हाथोंसे
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पहा
অয়া उपरि पडेषि पम्बिय-वाहन गं सरुबरु गिरि-सिहर स-साउ । सुग्गीवाइ-मुणिन्द-गणेसरु थिट झायन्तु सयम्भु-जिणेसह ।।१०
इस पोम परिय-सेले सयम्भुपवस्स कह वि अपरिए । तिभण-समाभु-रइए राहब-णिक्षमण-पम्वमिणं ॥ वन्दह-आसिय-कराय-बच-लहु-बाजाय-वजरिए । रामायणस्स सेसे भट्ठासीमो इमो समो॥
[८६. गवासीमो संघि धापरण-दर-वसन्धो मागम-आनो पमाण-विपर-पभो। शिहुमण-सयम्भु-अवको जिण-तिस्थे पहाड कम्ब-मरं ।। वो भवहि जाणेवि सेल्थु राह मुणि थियउ। अजय-सग्गही सीएन्दु तस्वणे आइयउ || ऋषकं ॥
[.] णिमय-मबम्तराई सुमरेप्पिणु। मिण-धम्म) मिपहाउ मुणेपिणु ॥३॥ चिन्ता लक्षणे अनुभ-सुरवह। 'सो मई मणे जाणिक रहनदासा जो मशुश्रतों कन्तु महारउ । असु चकवा माह बहुआरउ ॥३॥ सो मन परवहाँगे उ। एह बि सही विमोएँ पसाइबर |
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पावासीमो संघि
३११ स्वयं उठाया था। रामने तुरन्त उस शिलाकी तीन प्रदक्षिणा दी। हाथ ऊपर कर चे उस शिलाके ऊपर चढ़ गये, वे ऐसे लगते थे मानो डालों सहित वृक्ष किसी पहाड़की चोटीपर स्थित हो। उनके साथ सुग्रीवादि मुनियोंका समूह भी जिनेश्वरके ध्यानमें लीन हो गया ।। १-१०॥ महाकवि स्वयंभूसे किसी प्रकार अवशिष्ट, त्रिभुवनस्वयंभू द्वारा
रचित पभचरितमें राघवसंन्यास नामका पर्व समास हुआ । वन्दइके आश्रित और कविराज स्वयंभूके छोटे पुत्र द्वारा कहे गये
पागम के शेष [in या महासभा समास दुआ।
नवासीकी संधि
त्रिमुधन स्वयम्भूकी यह स्वच्छ काव्यधारा हमेशा जिनतीर्थमें बहती रहे। इस काव्यबन्धकी संधियाँ व्याकरणसे सुदृढ़ हैं, यह आगमका ही एक अंग है, और प्रत्येक पद प्रमाणोंसे समर्थित है।
अफ्युत स्वर्गमें सीता देवी के जीवरूपी इन्द्रने अवधिज्ञानसे यह जान लिया था कि राम कहाँ पर है, वह यहाँसे तुरन्त उनके पास गया।
[१] अपने जन्मान्तरोंकी याद कर, और यह जानकर कि जिनधर्मका कितना प्रभाव है, अच्युत स्वर्गका इन्द्र अपने मनमें सोचने लगा "मैंने अपने मनमें जान लिया है कि यह वही राम है, यह मनुष्य जन्ममें हमारा पति था। इसके छोटे भाई लक्ष्मण पक्रवर्ती थे। स्नेहसे व्याकुल होकर पह नरकने गया है,
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सवय-सेठि आरुताँ आयहाँ । जिह मणु टलह ण होइ पहाड जिह वमाणि जायड़ सुरवरु । पुस मेचि अजिन्हें चि । पचवि मन्दर गर्वेषि सुरोइएँ । पुरु सुमित रहो हो ।
पुशु तहलोक
-ज- मामें ।
पचमश्वरिज
चिन्तन्तु एम सोड तं कोडि-सिला यलु पत्तु
॥५॥
सिंह करेमि इह शाण-सहाय घबलुनल वर केवळ जाणञ्च ॥ ६ ॥
मित्सु मणि मज्मणि-गणन्धकः ॥ ७ सब हूँ जिणं भव है जर्गे वन्देवि ८ जामि दीषु णन्दी सरु सोहऍ ॥ ॥ आषि - कोहि सम्मत जम्पनि सुक्ख हूँ सहुँ रामें ॥११
॥१०॥
तहि विपणें महावणें स्म्मे सुद जाणहरु घरेषि
घत्ता
आर इन्तरण | णिविसमम्लरेण ॥१२॥
[j
पुणु व-पासि तहिं विशु से
कर रखाणु सम्पह-देवें ॥१॥ जं अल-फुल- रिद्धि
जं वल पद- सोडिखउ । वं बहु-कोमल-कोम्पस-फल-दल | जं सोमक-मळ्यानिळ-चालित । जं साहारणिया-अरिवद ।
॥२॥ जं कल कोइरू-कुल- क्रिम - कळप लु ॥ ३ जंच-सहि वयवमाखित ॥४ जं कुसुम-रम- पुञ्ज पिरियठ ||५|| जं सुम-सबई(?) सु-किं.सुश्र - मस्बिर । जं वहुविह विहङ्ग-पंचश्चि ।। ६।। जं दस-दिसि वह पसरिय-परिमलु । तरु परमारम्धारिथ-महि
॥७॥ ||८||
अं सुरपुर-ठाण- समाणउ ।
सम्दरणम्-वण- अणुमा
घत्ता
मन्थरु गाइँ गड | राम पासु गउ || १
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पावासीमी संधि यह भी उसके वियोगमें संन्यासी बन गये हैं। अपक श्रेणिमें स्थित इनके ध्यान में मैं किस प्रकार बाधा पहुँचाऊँ जिससे इनका मन विचलित हो जाय, और इन्हें उज्ज्वल धवल केवलज्ञान उत्पन्न न हो, जिससे यह वैमानिक स्वर्गका इन्द्र हो जाय, मेरा मनचाहा मित्र, बहुतसे रत्नोंका स्वामी । उसके साथ मैं घूमँगी, अभिनन्दन करूँगी: और समस्त मितभालोंनी ना करूँगी, देवसमूहमें पाँचों मन्दराचलकी वन्दना करूँगी, और नन्दीश्वर द्वीपकी यात्रा भी करेगी। सुमित्राका जो पुत्र लक्ष्मण नरकमें है उसे सम्यक् बोध देकर ले आऊँगी और अन्तमें त्रिलोकचकमें अपना यश प्रसारित करनेवाले रामको अपने सुख-दुख बताऊँगी। अपने मनमें ये सब बाने सोचकर वह देव आकाश मार्गसे चल पड़ा। और आधे ही पलमें वह, कोटिशिलाके पास आ पहुँचा ।।१-१२॥
[२] उस स्वयंप्रम देवने बिना किसी विलम्बके उस शिलाके चारों ओर सुन्दर दान बना दिया, जो नयी-नयी कोपलोसे शोभित था, जो गीले-गीले फूलोंसे अत्यन्त सम्पन्न था, जिसमें सुन्दर फल फूल और दल थे, जिसमें कोयलोंका सुन्दर कलरष हो रहा था, जिसमें शीतल मंद दक्षिण हवा बह रही थी, जिसमें चंचल भौरोंके समूह की गुनगुनाहट थी, जो सहकारोंकी मंजरियोंसे लदा हुआ था, जो कुसुमोको धूलसे पीला-पीला हो रहा था, जो सैकड़ों तोतों और देसूके फूलोंसे लदा हुआ था । जिसमें बहुविध विहंग विचरण कर रहे थे, जिसकी सभी दिशाओं में सौरभकी रेल-पेल मची हुई थी। वृक्षोकी बहुलताने धरतीको अन्धकारसे ढक दिया था 1 जो स्वर्गके नन्दनवनके समान था, मन्दर और स्वर्ग उद्यानसे अपनी समानता रखता था ॥१-२॥
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१२२
पउमचरित
[
]
पुणु णियउस्तरें लील डाएँ वि । एवं पदोन्छन अग्गएँ थाऍवि ॥१॥ 'विरह-वसाइयएँ सुमरन्तिएँ। सग्ग-पएस असेसु भमन्निएँ ॥२॥ गिय-पुण्णेहि गरुएहि मणिहउ । वहु-काकहाँ केम वि तुई दिट्टड ।।३।। णिविसु वि सहें विणकामि सहवा दे साइड णिम्यूड-महाहव ॥४॥ पिप-महुराला हि सम्माणहि। किं सवेण महु जोषण माणहि ॥५॥ णिपाल पाहाणुव कि अच्छहि। सबटम्मुहु स-विमारणियच्छहि ॥१॥ साइट पिसाप जेम भनि। कालु म सेवाह वत्थ-विवजित ॥७॥
वत्ता
सो कोयादापड पहु सुन्दरु णन्दन्तान जेम
सरचड पई किया। ओ णिय-णिग्गया था
[४] हउँ सा सीय तुहुँ में सो रहुवइ । पुर में पिहिमि ते जिइम णरवह।।१ सा जि भउज्सा-णयरि पसिनी। घण-कण-जण-मणि-श्यण-समिद्धी ॥२ राउलु तं में ते जि हयगय-धर। पुष्फ-धिमाशु तं में से रहवर ॥३॥ ऍउ मई-पमुह सम्धु मलेउरु। अबहनउ मथरद्धम क पुरु ॥४॥ भुनहि काम-मोय हिम इरिथ्य । हहि छाछीहर-दुक्ख श्चिम ॥५॥ अग्णु वि पड़म होम्ति अइ-सह । चड कसाय वावीस परीसह ।।॥
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णवासीमो संधि
१२३ [३] उस विजन एकान्त सुन्दर महापनमें सीता रामके सम्मुख खड़ी हो गयी, और बोली- मैं विरहके वशीभूत होकर तुम्हारी याद करती रही हूँ और इस प्रकार समस्त स्वर्ग प्रदेश छान मारा। बहुत समयके बाद अपने बचे हुए पुण्यके प्रतापसे किसी प्रकार अपने प्रियतम तुम्हें देख सकी हूँ। अब मैं तुम्हारा घिरह एक झणके लिए भी नहीं सह सकती, बड़ेबड़े युद्धोंके निर्वाह कर्ता, तुम मुझे आलिंगन दो, मीठे आलापोंसे मुझे सम्मान दो, इस तपसे क्या ? मेरे यौवनको मान दो। पत्थरकी चरह अडिग क्या है, विकारोंसे भरकर मेरी ओर देखो । लगता है तुम्हें भूस लग गया है, इसीलिए इतने निर्लज दीख पड़ते हो, वस्त्रषिहीन होकर, व्यर्थ अपना समय गँवा रहे हो। तुमने सचमुच यह कहानी सिद्ध करके बता दी कि जिसमें सुन्दर नामके व्यक्तिने मामाकी लड़कीके प्रेममें अपनी पत्नीको छोड़ दिया था बाद में वह मरकर अपनी पत्नीसे वंचित हो गया ॥१-८॥
[४] मैं वही सीता देवी हूँ, तुम बही राम हो। यह वही धरती है, यह वही राजा है, वही अयोध्या नगरी है, धन-जनमणि-माणिक्य धादिसे समृद्ध । वही राजकुल, अश्व और महागज है । वही पुष्पक विमान, रथश्रेष्ठ हैं, यह वही अन्तःपुर है जिसकी मैं पट्टरानी हूँ | अतः अपने अभीप्सित भोगका आनन्द लो। लक्ष्मणका दुख छोड़ो। हे राम, चार कषाय और बाईस
१. "दक्षिणापय गिरिफूट प्राममें प्रधानका सुन्दर नामका पुत्र या उसने अपनी पत्नीको छोड़ दिया । वह मामाकी लड़कीसे विगाह करना चाहता था, बादमें पेड़की डाकसे लटक कर मर गया।"
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३२४
पञ्च चि इन्दिय सप्त महकभय । जिण तव चरण जाइ कहाँ यहीं ।
तो वरि एवहि लें पण लग्गु सम-भण्ड पसेवि
परमचरिउ
।
कारण पहूँ आसि चढत हूँ । महु महुकार साहसग मारिङ । मह कारण मारुड़ पट्टवियत । महु कारण कोडि - लिम्बाइ महु कारण भग्गर णन्दण षणु । मञ्जु कारण खणायक लक्षित । परिपेसिङ अङ्ग मधु कारणें । इन्द्र बन्धेवि रण लेवाविड ।
कारण काणाहु म सधैं राहवचन्द
को विसहइ पुणु भट्ट महा-मम ॥७॥ मषड काले वि एयहीँ ||८||
घत्ता
हास दिन हिं पर । भग्य अमेय पर ॥ ९॥
[ ५ ]
धात्र सायर-यजावसह ॥ १३३ किकिन्धेसह मिरु उच्चारित || २ || वारणें शिवियत ||३|| ऋष्णु विसाली विशवाय ॥॥॥॥॥ घाउ अक्ल कुमारु म साह
||५||
जिट हंसरहु सेज आसङ्घि ॥ ६ ॥ मारिय हस्थ-पहरथ महारणें ॥७॥ नारायणु सत्तिएँ मिन्दाषिक ||४||
घत्ता
तर पेक्खन्त उववशु गइय । तयहुँ विहरन्ती गुण-मरिया | पुणु तेहिं पवोलिड "दय करहि । जें सो महारु तुरिउ बरहुँ । तो एस्थत सुरवइ-किय
षिणिवाइड समतें | अविचल रज्जु करें ||२||
[4]
जइयहुँ सहसा हउँ पव्व ॥ १ ॥ विजाहर-कर्णेहि अबयरिया ||२|| दरिसाव हि अहहुँ दास रहि || २ || पहुँ-पह गम्पि कील करहुँ" ||४|| पाणाकार बिसिउ || ||
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णवासीमो संधि परीषह असह्य होते हैं, पाँच इन्द्रियों, सात भय, आठ अहकारोंको कौन सहन कर सकता है, जिन-तपस्याका अन्त किसने पाया, समय एक दिन इसे भी नष्ट कर देगा। यदि इस समय नहीं मानते तो कुछ दिन बाद तुम खुद अपने पर हँसोगे। इस संयमके संग्राममें पड़कर कितने ही मनुष्योंका अन्त हो गया ।।:-||
५] मेरे लिए ही आखिर तुमने समुद्रावर्त धनुषको चढ़ाया था। मेरे लिए ही तुमने सहस्रको मारा था, और किष्किंधा नरेशका उपकार किया था। मेरे लिए. ही तुमने हनुमानको दूत बनाकर भेजा था, उसने युद्ध में वायुधका काम तमाम किया था। मेरे लिए कोटिशिला उठायी गयी और आशाली विद्याका पत्तन किया गया, मेरे लिए नन्दनवन उजाड़ा गया और सैनिक सहित अक्षयकुमारका वध किया गया। मेरे कारण तुमने समुद्रको लाँघा और हंसरथ और सेतुका वध किया । मेरे ही कारण अंगदको भेजा गया, और युद्धमें हस्त प्रहस्तका वध किया गया । इन्द्रजीतको रणमें बाँधकर ले जाया गया, और लक्ष्मणको शक्तिसे आहत होना पड़ा। मेरे ही कारण लंकाधिपति रावण युद्ध में मारा गया। मैं वहीं सीता हूँ। हे राम, तुम मेरे साथ अविचल अनन्त समय तक राज्य करो ॥१-१) .
[) तुम्हारे देखते-देखते मैं, उपवनमें गयी, जहाँ मैंने तुरन्त दीक्षा ग्रहण की। वहाँ मैं बिहार कर रही थी कि एक विद्याधर कन्या मुझे यहाँ ले आयी। उसने कहा, "दया कर मुझे रामके दर्शन करा दो जिससे मैं पतिके रूपमें उनका वरण कर सकू, तुम्हारे साथ जाकर क्रीड़ा कर सकूँ।" इसी बीचमें उस इन्द्रने नाना अलंकारोंसे विभूषित दस सौ संख्य उत्तम स्त्रियाँ उत्पन्न कर
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पउमचरित
दस-सय-सङ्घउ वर-मामिणड। पत्तउ स-विकास कामिणि ॥६॥ मण्णा मणहरू गायन्तिथा अण्णउ बीपड बायन्तियउ ॥७॥ अपणउ घउदिसें हिं गडन्तिया । सकल दिष्टि पयन्तियर |॥८॥ कुम-चश्चिक करन्तियउ। अण्पाज थगहरु दरिसस्तियउ ॥१||
धत्ता तोविभन्सि ( म ) उ गिम्मल माशु हय परिसह-धारि । थित पिच्चलु गमु मुणिन्तु
णावइ मेरूगरि ॥१०॥
बं केम वि दुरियन्वयकरासु। मणुदलित का राहव-मुणिवरासु ॥१॥ तं माह-मासे सिय-परखें परें। वारसि-दिणे मिसिह परस्थ-पहरें ॥२ घउ-पाइ-कम्म-जिणियाघमाणु। उप्पण्णु समुज्जलु परम-णाणु ॥3॥' खणे केवल चम्मुहें जाड सपल। गोपय-समु लोयाखोय-जुभालु ।।३।। सहसा पड-देव-णिकाउ भाउ । भइ-रूम-विहूइ अमर-राज ॥५|| किय मत्तिएँ बन्दण जाणवज्ज । घर केवल-णाणुप्पति-पुज्ज ||६|| सो ताव सयम्पह-शाम एवि। सोपन्दु वल इचण करेषि ||७|| पविउत्तमङ्ग सो भणह एव । 'म तुम्हहें अपणाणेण देव ॥4॥
पत्ता 'जो अविणय-बन्ते सुदङ गुरु अवराह किय । ते सपत खमेजहि सिग्घु तिहुमण-जण-गमिय' ।।९।।
[८] अप्पाणर गरह वि सय-बारउ । का वि समावि रामु मकारख । पुणु पुणु यादण-इत्ति कोपिशु । सोमिसिह गुण-गण सुमपिणु ॥२॥ परियोहणहि पथटु स्यम्पाहु । लधेकि पढम-गरब रयणप्पाहु । पुणु महकमें वि पुतवि-समरपहु। सम्पाइड सणेण वालयपहु ॥४॥
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णवासीमो संधि
३२. वीं । वे विलासिनी-सुन्दरियाँ वहाँ पहुँची । एक मनोहर गान गा रही थी, दूसरी वीणा बजा रही थी। एक दूसरी चारों दिशाओं में नाच रही थी और कटाक्षोंके साथ अपनी दृष्टि घुमा रही थी। एक और दूसरी चन्दन और केशरसे रंजित अपना स्तन दिखा रही थी। परन्तु राम विचलित नहीं हुए, परिषद रूपी शत्रुओंको जीतनेवाले निभेल ध्यानसे युक्त मुनीश राम मेरुपर्वतके समान स्थित थे ।।१-१०||
[७] पापोंको जड़से उखाड़नेवाले राधव मुनिवरका मन नहीं डिंगा । माघ माइके शुक्लपझमें बारहवींकी रातके चौथे प्रहरमें उन्होंने चार धातिया कर्मों का नाश कर परम उज्ज्वल ज्ञान प्राम कर लिया। एक ही क्षणमें उन्हें केवल चक्षु ज्ञान उत्पन्न हो गया और उन्हें सचराचर लोक गोपदके समान दिखाई देने लगा। तुरन्त चारों निकायोंके देवता वहाँ आये | इन्द्र भी अपने समस्त वैभवके साथ आया। उन्होंने आकर केवलहानकी उत्पत्तिकी भक्ति भावसे अनिंद्य पूजा की। इतने में उस स्वयंप्रभ नामके सीतेन्द्र ने केवलज्ञानकी चर्चा की। अपना सिर झुका कर उसने कहा, "हे देव, मैंने अहानसे तुम्हारे साथ बुरा बर्ताव किया।" अविनयके कारण जो मारी अपराध किया है, हे त्रिभुवनसे वन्दित, तुम मेरा अपराध क्षमा कर दो ।" ॥-९॥
[4] उसने सैकड़ों बार अपनी निन्दा की और इस प्रकार रामसे क्षमा याचना कर बार-बार उनकी बन्दना-भक्ति की। उसने लक्ष्मणके गुणसमूहका स्मरण किया । लक्ष्मणको प्रतिबोधित करनेके लिए वह स्वयंप्रभ देव वहाँसे चला। पहले नरक रलप्रभको लाँधकर फिर उसने दूसरे शर्कराप्रभ गरकका अतिक्रमण किया और फिर एक पलमें शालुकाप्रभ नरफमें पहुँचा ।
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३१८
पउमचरिउ
कवि सरसूच्छु जेम पीलिज्जइ । कवलि जिद्द दस दिसु
लिन
I
सेर को वि ऋणु जिह कण्डिज्जइ । को वि पुणु रुक्खु जेब खण्डिलइ ॥५॥ तिलु विलु करवतेंहि कपिज्जइ ॥ ६ ॥ को वि मयगल दस्ते हि पेलिजाइ ॥७ कवि को द्विरुझर लुइ ॥ ८ ॥ को वि रु छिज्जद्द छज्जड विज्जइ ॥९ कॉ विज पुणु मूरिजइ ॥१०॥
को वि पिट्टिजड़ वज्झइ मुबइ । कौं वि पुणु दज्झष्ट रहसि
को विमारि खज्जद विज । को त्रिपलिज को वलि दिज्जइ । को वि दजिह को वि मलिजह ॥ ११ को वि पुत्र रिङ मिवि पधावइ ||१२
को विकाइ केन्द्र धाहाव
घता
तर्हि सम्बुकर्क हम्मन्यु गय-पाणि-सन्त-सरीक
धोरारुण-जयणु । दीसह दहत्रयणु || १३||
[ ९ ]
सम्बुकुरो सम ते । 'रे रे खल-मावण असुर पास । अन विदुराउनसमु ण होइ । कुग्त्तणु सुऍ करें विमल चित्तु' । उसम नावों लम्बुकु बुकु | तो गरि विसाणोवरि णिएव । 'कोतुहुँ के कज्जें एत्थु भाड' ।
बोखिति सुराहित्रेण ||१५ ढकाएँ ऍड दुव-भाव ॥ २ ॥ दुट्टु पत्तउ अण्णु जि गाई कोई ॥१३॥ तं निसुनि णं श्रमिण सितु ॥ - ॥ पुणु पुणु वि पवोह साथ-मक्कु ॥५॥ लक्षण - रावण पुच्छन्ति वेषि ॥ ६ ॥ विधिणु अक्सर अमर-राउ 11
'उँ सा चिरु होती जणय-धीय । जा रावण पहूँ अवहरेंषि णीय ॥८॥
जा मर्चे सार रामायणासु । तव चरण पहावें जाय इष्छु ।
बा जम-दिति व णिसियर - जणासु ॥१९ अणु विक्खिटि रामचन्दु ॥ १० ॥
यहाँ कोडि सिलाय पाणु जाट । इउँ पुष्णु तुम्ह पोहणाँ आठ ॥११॥
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३२९
णवासीमो संधि वहाँ उसने देखा कि कोई कण-कण काटा जा रहा है, कोई सूखे वृक्षकी तरह टुकड़े-टुकड़े किया जा रहा है, कोई सरसोंके समान पेरा जा रहा है. कोई लापन तिल-तिल काटा जा रहा है, किसीको बलिके समान दसों दिशाओं में छिटक दिया गया है, कोई मतवाले हाथियोंसे पीड़ित किया जा रहा था । कोई पीटा, बाँधा और छोड़ा जा रहा था। कोई लोट रहा था, रौंधा और लोंचा जा रहा था। कोई जलता-धता और सीनता। कोई छेदा जाता, अष्ट होता और वेधा जाता। कोई मारा जाता, खाया और पिया जाता। कोई चकनाचूर होता। किसीको काट डालते और फिर बलि दे देते। किसीको दलमल दिया जाता। कोई क्रन्दन करता, कोई जोरसे रोता, कोई अपना पूर्व दुश्मन देखकर दौड़ पड़ता । वहाँ उसने देखा कि शम्बूक कुमार रावणको मार रहा है। उसकी आँखें भयंकर और लाल हैं, उसका शरीर बेसिर-पैरका हो रहा था ॥१-१३।।
[९] तब उस सुरश्रेष्ठने सम्बककुमारसे कहा, "अरे अरे दुष्ट, असुर पाप तूने यह दुष्टभाव किसलिए प्रारम्भ किया है । अरे दुराश, तुझे आज भी शान्ति नहीं मिली ! इससे किसी
और को कष्ट नहीं होता। दुष्टताको छोड़ और अपना चित्त निर्मल बना। यह सुनते ही जैसे उसपर किसीने अमृत छिड़क दिया हो। शम्बूककुमारकी परिणति शान्त हो गयी। सीतेन्द्र उसे बार-बार प्रतिबोधित करने लगा । उसे विमानमें बैठा देखकर लक्ष्मण और रावण दोनोंने पूछा, “तुम कौन हो और यहाँ किसलिए आये हो ?" इस पर, उस अमरराजने कहा, "मैं वही पुरानी राजा जनककी लड़की हूँ। जिसका पहले रावणने अपहरण किया था, जो स्त्रियों में सर्वश्रेष्ठ थी और निशाचरोंके लिए यमदृष्टि थी । तपस्याके प्रभावसे मैं इन्द्र हुई और रामचन्द्र
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१३०
पदमवरि
महु कारण विहि मि जहि भव- सायरे कोहवण
घत्ता
[10]
तुर्डे पर भ्रण्ड किय होयऍ जिणन्वयणामय पश्पिीय उ
जाहूँ महता हूँ । दुख पाएँ ||१२||
कोहु मूल सवहुँ वि भणरथहुँ । कोहु विणास करणु दय-भ्रम्म कोड जें मूल जग-सय-मरणहाँ । कोहु से वहरि सम्बहाँ जीवों कोहु चिजहाँ विम-सहावहाँ । हणिसुर्णेवि इव दणाणतरें । 'किंकिदिन
हा हा का पाठ कर बडूउ |
यो परिषद्रिय मनें काहणें । स- परम्पराएँ मम्मीलिय । 'छइ वह एस्थही उद्धारमि । चिणि चि जण सहसा सोहमद एवं भणेषि किर जावहि । अरुणें तुप्पु जेम सिंह तानि । सोमायहि भग्गा
।
कोहु मूल संसारावत्थहुँ ||१|| कोहु जँ मूलु वोर- दुकम्महों ॥२॥ कोहु में मूल परम-पसरण ॥ ३ ॥ में कज्जे अहाँ हरि दहगी वहीं ||४|| अवशेप्पर मित्तत्तणु भाष' ॥५॥ सिणि वि ते समिय खणन्तरे ॥ ६ हुँ ॥७॥
म
जं सम्पाद्य कुहु एवड्डू ||८||
घता
जें छण्डिप कु-मह जाठ सुराशिव' || ९ |
[19]
बासवेण दुध्यहुर-वर्णे ||१|| 'पहु ऐहु' आलाव पभासिय || २ || दुग्गइत्तर-डिणि तारमि ॥३॥ | सम् पराणमि अअ णास्व ॥४॥ छोडि जेम विवि गय तावहिं ॥ ५ अइ-गेज्झ दप्पण -खाय-व थिय ॥३ केम त्रिवि ण सकिय इन्हें ||७||
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जवासीम संधि
३३
ने भी दीक्षा ग्रहण कर ली। उस कोटिशिलापर उन्हें ज्ञानकी प्राप्ति हुई हैं और मैं तुम्हें सम्बोधित करने आयी हूँ, मेरे कारण तुम दोनोंको भवसागरमें कोधके कारण बड़े-बड़े दुःख उठाने पड़े ॥१-१२ ||
[१०] वास्तव में क्रोध ही सब अनथका मूल है, संसारावस्थाका भी ate are frame मूल है. क्रोध घोर पाप कर्मो का मूल है, तीनों लोकोंमें मृत्युका कारण क्रोध है, नरक में प्रवेशका कारण भी क्रोध है। क्रोध सभी जीवोंका शत्र है। इसलिए हे विपमस्वभाव लक्ष्मण और रावण, तुम लोग इस क्रोधको छोड़ दो। आपसमें तुम दोनों मित्रताकी भावना करो।" इस बचनामृतको सुननेके अनन्तर वे तीनों तत्काल शान्त हो गये। वे सोचने लगे कि हमने दयाधर्ममें अपनी दृष्टि क्यों नहीं की, इससे हमें मनुष्य पर्याय तो मिलती, अरे अरे हमने ऐसा कौन-सा बड़ा पाप किया जिसके कारण इतना बड़ा दुःख भोगना पड़ा।" जीवलोकमें तुम धन्य हो जिसने कुमतिका परित्याग कर दिया। तुमने जिन वचनामृतका पान किया और स्वर्ग में जाकर इन्द्र हुए || १-२||
[११] यह सब सुनकर पीतवर्ण उस इन्द्रके मनमें करुणा उत्पन्न हो आयी । परम्परागत शब्दों में उसने उन्हें अभय वचन दिया और कहा - "आओ-आओ, लो मैं हूँ, मैं तुम्हें दुर्गति रूपी नदीके किनारे लगा कर भानूँगा। तुम दोनोंको मैं शीघ्र ही सोलहवें अच्युत स्वर्ग में ले जाऊँगा ।" यह कहकर जैसे ही वह इन्द्र उन्हें लेने के लिए उद्यत हुआ वैसे ही वे नवनीतकी भाँति गायब हो गये | आगमें जैसे घी सप जाता है, अथवा दर्पणकी छाया जैसे अत्यन्त दुर्भाय हो जाती है। इन्द्रने
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२१२
पउमरिट मह जहि जेण जेव पावेव। सुहु व दुहु व तिहुमणे मुझेबद्ध तं समत्थु को विणिधारेवएँ। सासु सत्ति परिरक्ष करवएँ ॥५॥ पुण वह-दुक्खाणल-सन्तत्ता। वे वि चवम्ति एव देवन्ता || 2011
'उबएसु दगावर किं पि जे पुणु वि ण पाघहुँ एह
कहें गिब्याग-वइ । भीसण णस्य-गई' ।११।।
[१] रोग वि पतु 'जह करहाँ धयणु। तो लेख तरिड सम्मत्त रयणु ॥१॥ जं परमुत्तमु तिहुअणे पसिद्ध । मह-दुलहु पुण्ण-पचित्तु सुद्ध ॥२॥ जं कम्म-महणु कल्लाण-तसु । दुग्णेउ अमबह भव-मयन्तु । जं कहिउ परम-तिस्थरहि। परिपुजिट सुर-गर-विसहरहि ।।। जे सुन्दरु कालें वोहि वेह। सासय-सिन-थाणु पहाणु णेई' ५५।। इय-अयणे हिं दजिमय-भएहि। सम्मत्तु विहि मि परिवषणु तेहि ११६|| गज सीया-हरि वि स-सङ्कु तेरथु । वलएज स-केवल-पाणु जेत्धु ॥५॥ समसरणन्भन्तरें पइसरषि । भत्तिएँ पुणु पुणु वन्दण कोवि ।।८॥
वोल्लगहुँ लग्गु 'महु होहि सिंह करें परिछिन्दमि (१)
घता
परमेसर-सरणु । जेम जरा-मरणु ।।१।।
[११] तुर्दू पर एक्कु बियछु वियाहुँ साहुँ सूरु गुण गुणदहुँ ।।१॥ जाण-मेसवाहणेंण मयावणु। जेण दळु मन-चडगइ-काणणु ।।२।।
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मोमो धि
३३३
सब उपाय कर लिये पर वह उन्हें ले नहीं जा सका। उसका सब आनन्द किरकिरा हो गया। अथवा संसार में जो मनुष्य जहाँ जो सुख-दुःख पाना है, वे उसे स्वयं भोगने पड़ते हैं, उसका प्रतिकार कर सकना किसके लिए सम्भव है। किसकी शक्ति है कि उसकी परिरक्षा कर सके। वे दोनों दुःखोंसे अत्यन्त सन्तप्त हो उठे और इस प्रकार बातें करते हुए काँप उठे। उन्होंने कहा, “हे दयावर इन्द्र, तुम मुझे कुछ ऐसा उपदेश दो, जिससे मुझे बार-बार नरक गतिका दुःख न उठाना पड़े” ।।१-११।।
[१२] तब उसने कहा, "यदि तुम मेरी बात मानते हो तो सम्यक दर्शन स्वीकार कर लो, जो तीनों लोकों में प्रसिद्ध और परम पवित्र है, जो अत्यन्त दुर्लभ पुण्य पवित्र और शुद्ध है, जो कल्याण तत्त्व और कर्मोंका नाशक है, संसार नाशक जिसे अभव्य जीव अंगीकार नहीं कर सकते, जिसका व्याख्यान परम तीर्थंकरोंने किया और सुर-नर और नागोंने जिसकी उपासना की । जो सुन्दर है और समय आनेपर जीवको बोध देता है और शाश्वत शिव स्थान में ले जाता है।" यह सुनकर उनका डर दूर हो गया और उन्होंने सम्यक दर्शन स्वीकार कर लिया | तब सीतेन्द्र सशंक उस स्थान पर गया जहाँ पर केवलज्ञानी राम विद्यमान थे। उसने समवसरण के भीतर प्रवेश कर भक्तिसे बार-बार रामकी बन्दना की। उसने कहा, "मुझे परमेश्वरको शरण मिले, ऐसा कीजिए जिससे मैं जरा और मरण का छेदन कर सकूँ ||१९||
[१३] पण्डितोंमें तुम्हीं एक पण्डित हो, शूरोंमें एक शूर और गुणियों में एक गुणी । ज्ञानरूपी अग्निसे जिन्होंने संसारकी चार गतियोंके भयावने जंगलको जला दिया। जिन्होंने उत्तम
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१६४
उत्सम लेस-तिसूलें दुबरु । जें किउ मोह-वहरि सय-सका ॥३॥ दिव-महम्स-बहरगहों पाखिड़। जेण णेह-णाम मि पिण्णासिउ ॥३॥ भण्णु वि एउ काह तब जुत्ता। सिव-पउ एजह वि विडता ॥५॥ सो वि कि मई मुवि जाइज्वह। आवमि जेम हर मि तह किम्बई' ॥६ पभणह मुणिवरिन्दु 'सुणे सुन्दर । दुई पमायहि राज पुरन्दर ५७।। जिहि पगासिट मोक्नु वि-रायहीं । कम्म-वन्धु दिदु छोइ स-रायहाँ'
पत्ता
इप-बयणेहि बिमळ-मणेण अलि -उल-जुएँ हि । सीएम् राम-मुपिन्दु णमिट तय म्भु ऐं हि ।।
इय-पोमचरिय-सेसे सयम्भुए वस्ल कह दि जरिए। सिहुमण-सयम्भु-हए केवल-गाणुप्पत्ति-पव्वमिणं ॥ इय पुस्य महाकावे बन्दा-भासिय-सयम्भु-सणय-कए। रामायणस्स सेसे एसो सम्गो वासीमो॥
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वासोमो संभि
२३५ लेश्या रूपी त्रिशूलसे दुर्धर मोहरूपी शत्रुके सौ-सौ टुकड़े कर दिये । जिसने दृढ़ और महान् वैराग्यके बन्धनस्वरूप स्नेहके
सकको मि.लिया। तुनहरे स्थिा या किसी और को कसे उपयुक्त होता, तुम अकलेने ही शिवपदको प्राप्त कर लिया। तो भी मुझे छोड़कर तुम क्या जाओगे। कुछ ऐसा करिए जिससे मैं भी आ सकूँ ।" तब उन महामुनि रामने कहा, "हे सुन्दर, तुम सुनो, हे इन्द्र, तुम रागको छोड़ो। जिनभगवान्ने जिस मोक्षका प्रतिपादन किया है, वह विरक्तको ही होता है, सरागी व्यक्तिका कर्मबन्ध और भी पक्का होता है। रामके इन वचनोंसे सीतेन्द्रका मन पवित्र हो गया। उसने अपने दोनों हाथ जोड़कर स्वयं मुनीन्द्र रामकी वन्दना की॥१-९॥
महाकवि स्वयंभूसे किसी प्रकार अवशिष्ट त्रिभुवन स्ययंभू द्वारा रचित पमचरित शेषमागमें 'रामज्ञानीपति
नामक' पर्व समाप्त हुआ । बन्दके आश्रित स्वयंभूके पुत्र द्वारा कृत, रामायणके शेष
मागमें यह नबासीहाँ सर्ग समाप्त हुआ ।
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[६०. जवइमो संधि
तिहुमण-सयम्भु-भवलस को गुणे वपिणउं जए तरह । वालेण वि जेण सयम्भु-कम्प-नारो समुम्बूदो ।
सुपर सुः३.इ लाइ ' तइम-णियम-जुङ । परमेसर कहें सीवेण दसरह-रागड केल्धु हुउ ॥ध्रुवक।।
अपणु नि पइँ लक्खिय सुख-मइ । कहें लवणसह मि करण गइ।।१।। का अणयहाँ कणयों केक्का। का अवराइयो सु-सुप्पहहूँ ।।२।। का लक्रपण-मायहें केकय । का भामण्डलही चारु-मइहें ॥३॥ अक्सइ कति सुर-णमिय-पउ । दसरहु लेरहम सा गउ ॥४॥ परमाल वीस सायरई जहि । जार नि परषि उप्पण्णु ताहि ।।५ परिमाणु जेस्थु पाहुट्ट कर। अवर विश्रणेय तहिं जाय गर ॥५॥ अचराइय- केयमुप्पहउ । कइका-साहिया परिसह-सहउ १०॥ अण्ण नि घोर-तप-त्तियउ। सवा देवत्तणु पत्तियड १०॥
धत्ता
जे पुरुव-जम्में तउन्दण लवणकुस-शामालकिय
विणि वि तिहुवर्णक-विजइ । तहुँ होसह पदमिय गइ ॥९॥
णम्दण-वण-भूसिय-कन्दरहों। दाह ग-दिसा गिरि-मन्दरही ॥३॥ कुरू भूमि भामण्डलु वि हुङ । पल-तय-भाउ-पमाण-जुद्ध ॥२।। पुछिउ सुरवहण 'केण फलंण' आयणहि तं पि युत्तु वलेंग ॥३॥
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नन्येव सर्ग
त्रिभुवन स्वयंभू धवलके गुणोंका वर्णन दुनिया में कौन कर सकता है 1 बालक होनेपर भी जिसने स्वयंभू कविके कान्यभार का निर्वाह किया। फिर भी उस इन्द्रने जो तप और संयमके नियमोंसे युक्त था, पूछा, “हे परमेश्वर, संक्षेपमें बताइए कि राजा दशरथ कहाँपर हैं ?"
[१] "इसके अतिरिक्त शुद्धमति आपने देखा होगा कि लवण और अंकुशकी क्या गति हुई, जनक कनक और कैकेयीकी क्या गति हुई, अपराजिता और सुप्रभाकी क्या गति हुई, लक्ष्मी माँ कैकेयी और सुन्दरमति भामण्डलकी क्या गति हुई ।" यह सुनकर देवताओंसे नमित्तन्पद केवली भगवान्ने कहा, "दशरथ तेरहवें स्वर्ग में गये हैं, जहाँपर उनकी पूरी आयु बोस सागर प्रमाण हैं, जनक और कनक भी वहीं पर उत्पन्न हुए हैं, वहाँ साढ़े तीन हाथके लगभग शरीर होता है, और भी दूसरे लोग वहीं पर उत्पन्न हुए हैं। अपराजिता कैकयी सुप्रभा आदि भी जिन्होंने कैकयीके साथ परिसह सहन किये, और भो बोर तप साधनेवाले दूसरोंने देवत्व प्राप्त किया है। जो पूर्वजन्म में, तुम्हारे पुत्र थे और जिन्होंने तीनों लोकोंमें विजय ग्राप्त की थी, उन लवण और अंकुशको पाँचवीं गति प्राप्त होगी ॥ १-२ ॥
[२] दक्षिण दिशा में मन्दराचल है, जिसकी गुफाएँ नन्दनवनसे भूषित हैं। वहाँ कुरु भूमिमें भामण्डल उत्पन्न हुआ है ! उसकी आयु तीन पल्य प्रमाण हैं ।" तब उस इन्द्र ने पूछा, “किस
२२
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२३०
पउमचरिड उनहें चिरु कुरुवह पवर-भुउ। मयरिएँ मणि-मेहलिय-जुध ॥४॥ वजय-णामजि तह तणड । गिय-धण-सम्पत्तिएँ जिय-धगउ 1।। णिवासिय सीय मुणेवि खण। सो चिन्तावियत स-सोज मण ॥६॥ सा दिन्चे हिं गुणे हि अलकरिय। सोमाल-देह मइ-सुन्दरिय ॥७॥ वसरू सिरि-देवयाँ गिह। काऽवत्थ पेषषु वणे पत किह ।।८॥
धत्ता
वहराउत ते मावि पुस्त-कलत्त परिहवि । दुइ-मुणिहें पासें सबु छइया मुणि-सुम्पय-त्रिणु म” धरधि ॥१॥
तासु असोच-तिलय दुप गन्दण | जणण-गेह-किय-गुरु-बहन्दण ॥१॥1 सहे कन्तहिं पाइराएं छझ्या। तेवि दुइ-मुणिहें पासें पग्वया ।।२ बहु-दिवसहि सड घोरु करम्ता। परमागम-शस्तिएँ विहरता।।३।। तम्बचूठ-पुरवरु गय मात्तिएँ। तिमिग वि गय जिण-बन्दण हसिएँ !!४ हावागएँ बालुयनयणाय । दीसह णरउ घटुगम-दुत्तर ॥५॥ तवण-तत्त-चालुन-गिवहालउ। म सप्पुस्तिहों णाई विसाकड ।।६।। सो कह कह वि दुक्खु आसशिउ । सिखें हि मष-संसार व कबिउ ५७॥
पत्ता
ते तिणि वि जण मुणि-पुनष णिपासिय-दु-भय । बजय-असोय-तिक एसर जोषणाई पम्चास गय #4th
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जवइमो संधि फलसे उसे यह सब प्राप्त हुआ?" इसपर रामने कहा, "सुनो बताता हूँ। अयोध्या विशालबाहु कुलपति था। उसकी मनचाही पत्नी मगरी थी । उसके बन्न नाम का एक पुत्र उत्पन्न हुआ। अपनी धन-सम्पत्तिसे उसने कुबेरको भी मात दे दी। एक दिन जब उसने सीतादेवीके निर्वासनकी बात सुनी तो शोकसे व्याकुल होकर वह अपने मन में सोचने लगा, "वह दिव्य गुणोंसे अलंकृत है, उसकी देह सुकुमार है, वह अत्यन्त सुन्दर है, उसम रूपमें वह श्रीदेवीके समान है, देखो उस बेचारीकी वनमें क्या अवस्था हुई" | जब उसने इस बातका विचार किया तो उसे वैराग्य हो गया। उसने पुत्र-कलत्रका परित्याग कर दिया और मुनिसुव्रत भगवान्का नाम अपने मनमें रखकर द्रुतमुनिके पास जाकर तप स्वीकार कर लिया।" ॥१२॥
[३] उसके अशोक और तिलक नामके दो बेटे थे। पिताके स्नेहके कारण वे दोनों फूट-फूट कर रोने लगे । अपनी पलिगेंके साथ उन दोनोंने भी द्रुत महामुनिके पास जाकर दीक्षा ले ली । बहुत दिनों तक उन्होंने घोर तपश्चरण किया और शास्त्रों में बतायी हुई युक्तियों के अनुसार वे विहार करते रहे। वहाँसे ते ताम्रचूर्ण नगर गये। तीनों ने जिन भगवानकी वन्दना भक्ति की । इतनेमें उन्हें रेतका समुद्र दिखाई दिया, जो नरकके समान अत्यन्त दुर्गम दिखाई देता था। सूर्यसे तपे हुए रेतके स्थान ऐसे दिखाई देते थे, मानो सज्जन पुरुषोंके विशाल भन हों। उन्होंने किसी प्रकार बड़ी कठिनाईसे उसे पार किया मानो सिद्धाने संसार-ममुद्र पार किया हो। वे तीनों ही मुनि श्रेष्ठ (वा, अशोक एवं तिलक ) जिन्होंने आठ मोंका नाश कर लिया था, पचास योजन तक चले गये ॥१-८॥
२३
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३४.
परमचरित
तो षण-क्षण-घोरोक्ति दिन्नु। सुरघणु-पईह-गलवन्तु ॥३॥ अइ-धवल-पलाया-पन्ति दातु। जलधारा-चोरणि केसराहु ॥२॥ श्रीसारिय-सूरायव-कर। मिदारिय-गिम्म-महा-मया ॥३॥ हरिवर-वरहिण-रव-रुक्षमाणु । फुलस्त-पीम-ग्रहरहि समाणु ॥४॥ जल-परिय-सरिणि-पवाह-चलणु। वावी-तलाय सर-णियर-सवणु ।। ५५ पचढन्त-महरह-रून्द घयण। दुत्तार-सङ्क-विपिछडू-गयणु ॥३ घक-विज-कहानिय-दीह-जीहु । सम्पाइयउ वासारस-सी ॥७॥
पत्ता हि PिE THEM'वयाएँ महा-वण मय-रहिय । कर-पायय-मूलें सु-विस्थ सिणिण वि जोगु कएवि थिय ॥४॥
तहि अवसर मिरिमाणि -कन्हैं। उझारि गयणकण जन्तें ॥१॥ जणयहाँ णन्दणेग विस्थाएं। गोवि चिन्तिउ बिणय-सहाए ॥२॥ ऍट महन्तु भच्चरित मनोहर । कहि वालुय-समृद्दु कहि मुगिवर ॥३ कहि भव-पहु कहिँ सिद्ध-भडारा । कहि अ-णिउणु कहि गुण-सारा ॥ कहि देसिड कहिं वर-णिहि-रयण है । कहि दुजणु कहिं सुन्दा-घयण ॥५॥ कहि दुग्गन्ध-नण्णु कहि महुपर। कहि मह-गरम-भूमि कहि सुरवर | दूर-मग्दु कहिं कहि सु-पहाण। तव-परित-वय-दमण-णाम ॥७॥ मह जामिय-कासासण्णा। महु पुण्णोदएण सम्पण्णा' ॥८॥
घसा
ऍड मामलण वियप वि वर-विजा-वलेण स्व-देसउ
भवासण्णउ पय-पउह। कि मायामा परम-पुरु ॥॥
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पवहमो संधि
२५० [४] इतनेमें वर्षाऋतु रूपी सिंह आ पहुँचा जो घन-धन शब्दसे घोर गर्जन कर रहा था। इन्द्रधनुषरूपी उसकी लम्बी पूँछ थी। उड़ते हुए बगुलोकी कतार उसकी दादीके समान लगती श्री. निरन्तर हो रही जलधारा उसकी अयाल थी। उसने सूर्यातपके मृगको दूरसे ही भगा दिया था । ग्रीष्मरूपी महागज को उसने कभीका परास्त कर दिया था। मेढक और मयूरोंकी ध्वनियोंसे वह गूंज रहा था, खिले हुए नीमके पेड़ उसके नखों. के समान थे, जलसे भरी हुई नदियों के प्रवाह उसके पैर थे। वापी, तालाब और सरोवर समूह उसके घाव थे । विस्तृत सरोवर, उसका चौड़ा मुख था। और पार करने में अत्यन्त कठिन खडे उसके विशाल नेत्र थे। इस प्रकार वर्षा ऋतुको अत्यन्त समीप देख कर, वे तीनों उस विकट महावनमें एक लम्बे-चौड़े वट पेड़के नीचे, योग साध कर बैठ गये ।।१-८
[५] उसी अवसर पर श्रीमालिनीका पति आकाशमार्गसे अयोध्या जा रहा था। जनकके विख्यात और विनीत स्वभाववाले पुत्रने जब यह देखा तो उसे बड़ा आश्चर्य हुआ कि कहाँ तो ये सुन्दर महामुनि और कहाँ यह बालुका समुद्र ! कहाँ संसारपथ और कहाँ आदरणीय सिद्ध ! कहाँ अकुशल जन और कहाँ गुणश्रेष्ठ जन ! कहाँ देश और कहाँ उत्तम निधियाँ और रत्न ! कहाँ दुर्जन और कहाँ सुन्दर वचन ! कहाँ दुर्गधसे भरा वन और कहाँ मधुकर! कहाँ नरककी धरती और देवश्रेष्ठ ! कहाँ दूरभव्य जीव और कहाँ तप धरित व्रत और दर्शनसे सम्पन्न ये प्रधान महामुनि ! अथवा लगता है, यह वर्षाकाल मुझे पुण्योदयसे ही प्राप्त हुआ है। अपने मनमें यह सोचकर भामण्डलने बिलकुल ही पासमें पियाके पलवृतेपर प्रदेश सहित एक माषामय विशाल नगर बना दिया |
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परमचरिड
[१] णिम्मियाई घिउलाई अ-पमाणई। थामें थामें मणहर उमाई ||३॥ थामें थामें धण-कण-जुभ-णपरहै । गोट्टई गोहण-गोरस-पडरई ।।२।। थामें थाम जिणहर-देवउक है। डिग्मइँ गाई मह छुह-बहुलइँ ॥६॥ धामें थामें पहु-गाम-पुरोवम । थामें थामें आराम मणोरम ॥४॥ थामें थामें पोक्स्परांणड सरवर । वावी-कूव-सहाय लयाहर ।।५॥ थामें थामें णिम्भक णिक पीरइँ। महिय-ससाइ-सिसिर-षिय-खीरई ॥६॥ थामें थामें सालिउ फल-सारठ। इक्खु-महारसु भइ-गुलियारउ ॥७॥ यामें थामें जण-णय, शु: पिछोर निरापदणु
पत्ता तं करवि एव णिविसर्वेण परिया-गय, खम-दम-दरिसि । सकार-गुणालकरिऍण तें भुभाषिय परम रिसि ।।९।।
जिह ते सिंह अवर वि बहु-देसहि । दुग्गम-दीव-समुद्रे सहि ॥१॥ मरह-पमुह-खेत्तेहि गिरि-विवरहि । काणणेहि जिण-विस्य हि पवहिर पिणण-णिपाणिय-दुपवेस हि। मुणि पाराषिय विसम-पवेस हि ।।३।। तेण फळे भरेवि स-कम्त। उसम-भोग-भूमि सम्पत्तड ||४|| तहिं अच्छा जण-गयण-मणोहरु। तुह केरउ चिर-पढम-सहोयरु ॥५॥ दण्ड-सटि-सय-तणु-परिमाण । सिण्णि-पल-परमाउ-समाण ॥९॥ तपिणतुणेवि प्रयणु सिय-इन्हें (1)। पुणु विपच्छिा गुरु-आणन्दें ॥७॥ 'पारायणु दस-कन्धरु दुम्मइ । पिमा वि जण सम्पाइस-दुग्गा ॥६॥
घसा
दुरियहाँ अकमाणे विगिग्गै वि कहें कि होसह महुमहश् । और मि मचारा होसम को होएसइ दहमपशु' ।
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णच इमो संधि [१] स्थान-स्थानपर उसने बड़े-बड़े सीमाहीन सुन्दर उद्यान निर्मित कर दिये । स्थान-स्थानपर धनधान्यसे भरपूर नगर थे। गोधन और गोरससे परिपूर्ण गोठ थे। स्थान-स्थान पर जिनगृह और देवालय थे, मानो चूने से पुते शिशु हों, स्थानस्थानपर नगरतुल्य बड़े-बड़े गाँव थे। स्थान-स्थानपर सुन्दर उद्यान थे। स्थान-स्थानपर पोखर और सरोवर थे। बाधड़ी, कुएँ, तालाब और लतागृह थे। स्थान-स्थानपर सुन्दर जलाशय थे। स्थान-स्थानपर ही, मलाई, घी और दूध था। स्थान-स्थानपर घान्य और अच्छे फल थे और था अत्यन्त मीठा ईखका रस । स्थान-स्थानपर जननयनोंके लिए आनन्ददायक भन्यलोक था जो जिनेन्द्र भगवान् की वन्दना कर रहा था। इस प्रकार आधे पलमें नगरका निर्माण कर क्षमा और संयमका भाव दिखाकर वह परिचर्या में लीन हो गया। अन्त में शुभध्यान और मुणोसे अलंकृत भामण्डलने महामुनियोंको आहारदान दिया ॥१-२||
[७] इसी भाँति और दूसरे मुनियोंको उसने पारण कर. बायो। उसने इसी प्रकार नाना प्रदेशों, दुर्गम द्वीपों, समुद्री देशों, भरत प्रमुख क्षेत्रों, गिरिगुहाओं, काननों, जिनतीथों, निर्जननिष्प्राण प्रदेशों और विषम प्रवेशवाले देशोंमें उसने मुनियोको पारणा करवाया। इसके फलसे वह मरकर अपनी पत्नीके साथ उत्तम भोगभूमिमें जाकर उत्पन्न हुआ। "तुम्हारा पहला सगा जननेत्र सुन्दरभाई इस समय वहींपर है; उसका शरीर तीन कोश प्रमाण है और आयु तीन पल्य की है।" इन शब्दोंको सुनकर सीतेन्द्रने दुबारा आनना के साथ पूछा, "लक्ष्मण और राषण ( दुर्बुद्धि ) दोनोंने दुर्गति प्राप्त की है। बताइये कि दोनोंके दुर्गतिसे निकलनेपर उनका क्या होगा ? क्या मैं होऊँगी और रावण क्या होगा ? ॥१-९॥
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३४४
पउमचरित
[4] तं शिसुणे वि केवल पाण-धरु पमण सीराउहु मुणि-पत्ररु ।।१॥ 'भायणहि पुध्वं सुरगिरिहें जग-पायर-विजयाचह-पुरि ॥२॥ सम्मत्त-धीर-अवलम्वियहाँ। होसन्ति सुगन्द-कुहुम्वियहीं ॥३॥ रोहिणिहें गदमें दिन-कठिण-भुअ । तो अहदास-रिसिदास सुअ॥४॥ वहु-कालं वय-गुण-णियम-धर। होसन्ति सुरालऐं पुणु अमर ॥५॥ तस्थहीं चवेदि णिम्मल-विउले। होसन्ति पढीबा सहि में कुल ५६ ॥ दरियाविय घरविह-दाण-गुणु । हरि-खे थे वि होसन्ति पुणु ॥७॥ तेरथहीं वि पीय-जिण-धम्म-रस। होसन्ति सणय-कुमार तियस ।।८॥
घत्ता सायरई सत्र सुइ भुञ्ज वि चषणु कोप्पिणु सुरपुरिह । हासन्ति परीवा वेगिण वि ताहे जे विजयावह-पुरिह ॥९||
[१] जस-धणहाँ कुमार-कित्ति-पहुई। गम्मकमन्सर लच्छी-बहुः ॥ १।। होसन्ति मणि पहाण सुय । जयकम्त-जयप्पाह-णाम-जुभ ॥ २॥ तहि धरॅवि धोर-तव-मार-धुर। सप्तम सग्ग होसन्ति सुर ।।३।। तहि काले सयल-णिहिनयणबई । सो मरहे हवेसहि चावडा छन्तव-सग्गही चवेषि विषुह । होसन्ति वे वि तउ अहह ॥५॥ णाम इन्दरहम्मोयाह । तियसह वि रणक्षण दुविसह ॥६॥ स्यणस्य णय रनु करें वि। पच्छऍ पुणु दुद्धरु सउ परेंचि 10॥ पार्वेवि समाहि मुहुँ विमल-मणु । होएसहि वेजयन्ते सुमणु ॥४॥ इन्दरहु वि जो चिरु दहश्यणु । जे घसिकिउ णीसेसु वि भवणु ॥९॥
घसा
सो मणुनत्तण देवतणे हि श्रदविह-कम्म-विणियारण
काहि मि म हि भदेवि गरु । होसह काले तित्यया ॥१॥
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णवइमो संधि
१४५ [८] यह सुनकर केवलज्ञानको धारण करनेवाले महामुनि श्रीरामने बताया, “मुनिए पूर्व मेरुपर्वतपर जगत प्रसिद्ध नगरी विजयावती है। उसमें गृहस्थ सुन्दरकी पत्नी रोहिणीसे दृढ़ बाहुवाले अरहदास और ऋषिदास नामक दो पुत्र हुए। गुण और नियमोंसे युक्त वे दोनों कुछ समय बाद स्वर्ग में देवता हुए। वहाँसे आकर वे दोनों विशद और विपुल कुलमें फिरसे उत्पन्न होंगे। चार प्रकारके दानका प्रदर्शन करनेवाले वे फिर भोगभूमिमें उत्पन्न होंगे। वहाँसे जिनधर्म रसायनका पान कर वे सनत्कुमार स्वर्गमें देवता होंगे। वहाँपर सात सागर प्रमाण सुख भोगकर देवभूमिसे वापस आकर फिरसे विजयावती नगरीमें उत्पन्न होंगे।।१-९॥
[१] यशोधन राजा कुमारकीर्तिसे लक्ष्मीरानीके गर्भसे मनचाहे दो पुत्र उत्पन्न होंगे। उनके नाम होंगे-जयकान्त
और जयप्रभ । फिर वहाँ वे घोर तपश्चरण कर सातवें स्वर्गमें उत्पन्न होंगे। उस समय समस्त रत्नों और निधियोंकी अधिपति तू चक्रवर्ती होगी। लांतष स्वर्गसे आकर वे दोनों देव भी तुम्हारे बेटे बनेंगे। उनके नाम होंगे इन्द्ररथ और अंभोजरथ । जो युद्ध में देवताओंके लिए भी असम होंगे। फिर रत्नस्थल नगरमें राज्यकर बादमें तपस्याके द्वारा विमल मन तुम समाधि प्राम कर वैजयन्त स्वर्गमें देव बनोगे। इन्द्ररथ वही पुराना रावण है जिसने निःशेष विश्वको अपने वशमें कर लिया था। इस प्रकार मनुष्यत्वसे देवस्थ और देवत्वसे मनुष्यत्वमे घूम-फिर कर बह आठ कोका विनाशकर शीघ्र ही तीर्थकर होगा ॥१-१०॥
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३४६
अहमिस्ट
अशु पुणु गणहरु होसहि तासु तुहुँ । अम्मर वि जो आसि हरि । सो भर्मे विचारु जम्मन्तरहूँ ।
विदेहें पुक्खर दीवें परें । मरहेसर-मणिहु चचहरु । णाण-सरुडाविय कम्म रउ ।
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[१०]
वर-रापूस गर्छौं र ११॥ हि काले सहि मोक्ष- सुदु ॥ २ ॥ पामेण खि जसु कम्पन्ति अरि ॥१३॥ माविय जिणक्षम्म णिरन्तर हूँ || ४ || होसइ सयवराज्य-पय ॥१५॥ पुणु होस तिरथों तिथयरु ॥६॥ जपसह वर- विष्वाण-पत्र ॥ ७॥
बोली हिं सधैं हिं वरिसें हिं रामणु करेमि हठ मि तर्हि । भरस-समुह बहु-मुणिवर
सहि सुद-मावण-संजुत्त निमील सोया सुरबह
- निवसन्ति जहि ॥ ८ ॥
[11]
सु.वि भविस्स-काल- मव-वइयर | पुणु पुणु पपर्चेवि हलहरु मुणिवरु १ गर मणु जिण भवाइँ वन्दह ॥ २ ॥ केवल - णाणुरगमण-पएसइँ || ३ अनि पुज्जेषि नर्वेवि असे सई ॥४॥
अध्यउ सो सीएन्वु पणिन्दइ । सित्थङ्करसव-परदेस । fèxer-agfa-fasan-foriež | सुद्ध विसा तुङ्ग समन्दर । पुणु गम्पि णन्दोसर - दीवहों । कुरु-भूमि थिरु भाइ गवेर्सेवि । राह-गुण-गण-अणुराइड ।
परिभव पचषि मन्दर ||५|| थुइ करेषि राहलोक - पईव ॥ ६ ॥ भामण्डल स कन्तु मावि ॥४॥ सरसु सुख-सम्भु पराइ ॥८॥
घता
अमर-सहासे हि परियरिज 1 सहूँ अवरहि रमन्तु थिय || ९ ||
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गवाहमो संधि
४. [१०] अहमिन्द्र महासुखका अनुभवकर उत्तम वैजयन्त स्वर्गसे आकर तुम उसके गणधर बनोगे और इस प्रकार मोक्ष प्राप्त करोगे। अम्भोजरथ जो कि पुराना लक्ष्मण है, जिसके नाम मात्रसे शत्रु काँपते हैं वह भी सुन्दर जन्मान्तरोंमें घूमता-फिरता निरन्तर जिनधर्मका ध्यान मनमें रखेगा और पूर्व विदेह के पुष्कर द्वीपमें शतपत्रध्वज नगरमें जन्म लेगा। वह भरतेश्वरके समान चक्रवर्ती होगा, फिर तीर्थका तीर्थकर होगा। मानसे वह कर्मकी धूलिको नष्ट करेगा और महान् निर्वाणपदको प्राप्त करेगा। सात बरस बीतनेपर मैं भी वही मसात कराँगा जहाँ भर बन्न भने-बढ़े मुनि सबसे निवास करते हैं ॥१-८॥
[११] भविष्यकालके जन्मोंका हाल सुनकर और मुनिवर रामको प्रणामकर सीतेन्द्र ने अपनी खूब निन्दा की, मनको बुरा. भला कहा। उसने जिनमन्दिरोंकी वन्दना की। तीर्थकरों के तपस्याके स्थान केवलनानकी उत्पसिके प्रदेश और दिव्यध्वनि और निर्वाणके स्थानोंकी अर्चा-पूजा और वन्दना की। उसके अनन्तर उसने अत्यन्त विशाल और ऊँचे पाँचों मन्दराचलोंकी प्रदक्षिणा की। फिर वह नन्दीश्वर द्वीप गया और वहाँ त्रिलोक प्रदीप जिन भगवानको स्तुति की। तदनन्तर कुरुक्षेत्रमें उसने अपने भाईकी खोज की और पत्नी सहित भामण्डलसे बातचीत की। रामके गुण-गणमें अनुरक्त वह फौरन अच्युत स्वर्ग में वापस पहुँच गया। वहाँ वह शुभभावनाओंसे युक्त हजारों देवताओंसे घिरा हुआ था । वहाँ बहुत समय तक अप्सराओंके साथ लीलापूर्वक रमण करता रहा ॥१-||
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परामचरित
[१२] लवणास वि वि पहु-दिवसें हिं । णाणुप्पण णमिय बर-तिबसे हिं ॥१॥ कप-कम्म-करखय जाणा-तरुवरें। गम णिश्वाणहाँ पावा-महिहरे ||२|| बहु-काले पुणु इन्दह-मुणियरू। णिय सणु तेभोहामिय-दिणयह ॥३॥ देउल-धीतिमा कलाट । मानिसमा बिह सो तिह प्रपत-सुख-धागहों । गउ घणवाहणो वि णिवाणहाँ ।।५।। जसु केरउ. अञ्ज वि अक्षिणम्दह। छोउ महाहु तिस्थु पथम्दइ ।६।। कुम्भयपणु पुणु मासय-सोक्खहाँ। सो वि यह खेड्डु गउ मोक्खहीं ॥७
घचा गड रहुवाइ कहहि मि दिवसें हि तिहुश्रण-मणकगाराहरे। अजरामर-पुर-परिपाकहो पासु सया-महाराही ।।८।।
इय पोमचरिय-सेसे सयम्भुपवस्ल कह दि उपरिए । तिहुमण-सयम्भु-राहए राहव-णिवाण-पपमिण ॥
बन्दइ-आसिय-तिहुयण-सपम्भु-परिविरहयाम्म मह-कम् । योमरियस्स सेसे संपुरणी णवहमो सम्यो ।
॥पोमचरियं समत्तं ॥
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पवइमो संधि [१२] लवण और अंकुश दोनोंको बहुत दिनोंमें ज्ञानकी उत्पत्ति हो गयी। देवताओंने उनकी वन्दना की। अन्तमें उन्होंने कोका नाश कर वृनोंसे शोभित पावागिरि पहाड़से निर्वाण प्राप्त किया। इन्द्रजीत मुनिवरने भी जिन्होंने अपने तेजसे दिनकरको परास्त कर दिया था,देवकुल पीठिकापर झान प्रामकर उत्नम मुक्ति प्राप्त की। मेघवाइनने भी अनन्त सुखके स्थान निर्धाणको प्राप्त किया, जिसके मेघरथतीर्थकी लोग प्रशंसा
और वन्दना करते हैं। कुम्भकर्ण भी बड़गाँव से शाश्वतसुख मोक्षको गया। कितने ही दिनोंके बाद राम भी त्रिभुवनकल्याणकारी अजर-अमरपुरोंका पालन करनेवाले आदरणीय आदिनाथ भगवान के निकट चले गये ।।१-९।।
महाकवि स्वयंभूसे किसी तरह अवशिष्ट और त्रिभुवन सयभू द्वारा रचित पनचरित के शेष मागमें रामका निर्वाण
मामक पर्व समास हुआ। वंदहके आश्रित त्रिभुवन स्वयंभू द्वारा रचित महाकाव्यमें
पमाघरिसके शेषमागका नब्बेवा सर्ग पूरा हुभा ।
पप्रचारित पूरा हुमा
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[प्रशस्तिगाथा: ]
सिरि-विज्जाहर-कण्डे संधीभो होन्न्ति बीस परिमाणा । उज्मा कण्णामि तहा वावीस मुणेह गणणा ॥१॥ चउदह सुन्दर-कण्डे एक्काहिय-वीस झुन्झ-कपडे य । उत्सर-कण्डे तेरह सन्धीओ शवइ सम्बाउ ॥२॥
तिहुमण-सयम्भु नवा एको काराय-पकिणुप्पपणी । पउमरियस्स चूकामणि ख सेस कार्य जेग ।।३।। कहायस्स विजय सेसियस्ल विस्थारिभो जसो भुवणे । तिहुमण-सयम्भुणा पोमचरिय सेसेण हिस्सेसो ॥५॥ तिहुमण-सयम्भु-धवलस्स को गुणे वणि जएतरइ । चालेण घि जेण सयम्भुकम्ध-मारो समुम्बूढो ॥५॥ वापरण-दढ-खन्धो भागम-मानो पमाण-चिय-पत्रो। तिहुमण-सयम्भु-धवको जिण-तिस्थे वहन काव-मर ॥३॥
घउमुइ-सयम्भुएचाण वाणियस्थं अचक्खमाणेण । तिहुश्रण-सयम्भु-राइयं पञ्चमिचरियं मारियं ॥७] सब्वे दि सुभा पार-सुभ प पढियक्सरा, सिक्खन्ति । कामयस्स सुलो पुग सुय म्ब सुब-गरम-संभूलो ॥८॥ सिहुअण-सयम्भु भइ ण होन्तु (1) गन्दगो सिरि-सयम्भुदेवस्स । कम्वं कुलं कवितं तो पच्छा को समुसरह ॥१॥ जाग हुउ छन्दतामणिस्स तिहुमण-सयम्भु लहु-तणो । तो पदरिया-कम्बं सिरि-पमि को समारेड ॥१०॥
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प्रशस्ति गाथा
श्री विद्याधर काण्डमें बीसके लगभग सन्धियाँ हैं । अयोध्याकाण्डमें गिनतीकी बाईस सन्धियाँ हैं।शा सुन्दर काण्डमें चौदह और युद्ध काण्डमें इक्कीस । उत्तरकाण्डमें तेरह सन्धियाँ हैं इस प्रकार कुल नब्बे ॥२|| दूसरा नहीं, त्रिभुवन स्वयंभू ही अकेला कविराज चक्रवर्तीसे ऐसा पुत्र उत्पन्न हुआ जिसने पाचरितके चूडामणिके समान उसके शेषमागको पूरा किया ॥३॥ विजयशेष कविराजका संसार में अशेष यश फैलाया त्रिभुवन स्वयंभूने, पद्मचरितका शेष भाग लिखकर ।।४।। त्रिभुवन स्वयंभू धवलके गुणका वर्णन कौन जगमें कर सकता है।बालक होते हुए भी जिसने स्वयंभू कविके काव्यभारको उठा लिया ॥५|त्रिभुवन स्वयंभूधवल जिन तीर्थ में काव्यभारको वहन करता रहे। इसकी सन्धियाँ व्याकरणसे दृढ़ हैं।यह आगमका अंगभूत है इसके पद प्रमाणोंसे पुष्ट हैं। ॥६|| चतुर्मुख और स्वयंभूदेवकी वाणीका अर्थ जाननेवाले त्रिभुवन स्वयंभू द्वारा रचित पंचमी चरित एक महान् आश्चर्य है. ||७|| सभी पण्डित पिंजरबद्ध सुएकी भाँति पढ़े हुए अक्षरोंको सीखते, हैं परन्तु कविराजका पुत्र श्रुतके समान श्रुतिके गर्भसे उत्पन्न हुआ ॥ श्रीस्वयंभूदेवका पुत्र त्रिभुवन स्वयंभू यदि न होता तो काव्य कुल और कविताका उनके बाद कौन उद्धार करता ॥९॥ यदि न हुआ होता · छन्दचूड़ामणि त्रिभुवन स्वयंभू का छोटा बेटा तो पद्धडिया काव्य श्रीपंचमीकी
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এমখৰি
सन्चो वि अगो गेण्हा णिय-वाय-विहत-दग्व सन्ताम् । सिहुअण-सयम्भुणा पुणु गहियं सुकनका सन्ताम् ।।३।। लिहुण-सयम्भुमेकं मोत्तूण सयम्भु-कम्ब-मयरहरो । की तरह गन्तुमन्तं मझे निस्सेस-गीसाणं ॥१२॥
इस चारू पोमचरियं सयम्भुपवेण रहये ( यम) समतं । तिभण-सयम्भुणा तं समाणियं परिसमातमिणं ।।१।। 'चेष्टितमयनं परितं करणं चारित्रमित्यमी यम्सन्दाः । पर्याया रामायणमित्युक्तं तेन चेष्टितं रामस्म ॥१४॥ बाधयति श्रुगोति जनस्तस्पायुद्धविमीयते पुण्यं च । माकृष्ट-खा-इस्तो रिपुरपि न करोति रसुपनाममेति ॥१५॥
माउर-सुभ-सिरिकहराय-तणय-कय-पोमचरिय-भबसेसं । संपुग्ण संपुष्णं वन्दहलो लहड्व संपुष्णं ॥१॥ गोहम्द-मयण-सुयणत-विरहयं वन्दह-पटम-तणपस्स । बमलदाएँ तिहुमण-सत्यम्भुणा रइयं (?) महप्पयं ॥१७॥ बन्दइय-पाग-सिरिपाक-पहुइ-मययण-गण-समूहस्स। भारोगत-समिद्धी-सन्ति-सुई होउ सम्बस्स ||१८॥ सत्त-महासग्गङ्गी ति-यण-मूसा सु-रामकह-कण्णा । सिहभण-सयम्भु-अणिया परिणड वन्दइय-मण-तणयं ||
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________________ णवमो संधि 353 रचना कौन करता // 10 // सभी लोग स्वीकार करते हैं अपने पिताकी कमाई धन और सन्तान परम्परा। परन्तु त्रिभुवन स्वयंभूने पिताका काव्य परम्पराको महण किया // 19 // अकेले त्रिमुषन स्वयंभूको छोड़कर शेष शिष्यों में कौन है जो स्वयंभूके काव्य समुद्रका पार पा सकता है / / 12 // स्वयंभूदेव द्वारा रचित यह सुन्दर पनचरित समाप्त हुआ। त्रिभुवनस्वयंभूने उसे भी (शेषभाग लिखकर) परिसमाप्ति तक पहुँचाया / / 13|| चेष्टित अयन चरित करण और 'धारित्र ये जो शब्द है-इनका एक पर्याय 'रामायण' यह कहा गया है, इसीलिए यह रामकी चेष्टा है // 14 // जो इसे पढ़या है, सुनता है उसकी आयु और पुण्य बढ़ता है / तलवार खींचे हुए भी शत्रु कुछ नहीं कर सकता, उसका बैर शान्त हो जाता है / / 5 / / 'माउरके पुत्र श्रीकविराज के पुत्र द्वारा रचित पद्मचरितका अवशेष सम्पूर्ण पूरा हुआ वंदइने इसे पूरा करवाया / / 16 / / विंदइके प्रथमपुत्रके वात्सल्यभावके लिए तथा गोविन्द मदन आदि सज्जनोंके लिए त्रिभुवन स्वयंभू ने इसकी व्याख्या की // 17 // त्रिभुवन स्वयंभू कामना करता है कि वंदइ,नाग, श्रीपाल आदि भव्यजनोंको आरोग्य समृद्धि और शान्ति और सुख प्राप्त हो ||18 / यह रामकथा रूपी कन्या जिसके सात सर्ग रूपी अंग हैं जो तीन रत्नोंसे भूषित हैं, जिसे त्रिभुवन स्वयंभूने जन्म दिया. जो बंदइके मनरूपी पुत्रसे परिणीत हो // 19 //