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________________ आपसी २०६ थी जो लोगोंको विरह ( विरथ और वियुक्त ) करना चाह रही हो, मानो ग्रीष्ममें चमकती हुई सूर्यदीप्ति हो जो सन्ताप पहुँचाना चाहती हो, मानो प्रहार करनेवाली शस्त्रकी धार हो जो मूर्छित कर देती है । आगे हथिनीपर बैठी हुई धाय सभी नरश्रेष्ठ उन दोनों को दिखा रही थी मानो भौरोंकी कतारें वसन्त शोभाके लिए विशाल वृक्ष दिखा रहीं हो ॥१-८॥ [६] मनुष्यों को देखकर भी उन्होंने ऐसे छोड़ दिया, जैसे क्षमा और दयाशील लोग प्रगति के मार्गको छोड़ देते हैं। फिर उन्होंने विद्याधर राजाओंको ऐसे छोड़ दिया जैसे गंगा और यमुना नदियाँ बड़े-बड़े पहाड़ों को और भी दूसरे दूसरे राजाओंकी उपेक्षा करती हुई वे वहाँ पहुँचीं, जहाँपर सीतादेवीके दोनों पुत्र बैठे हुए थे। जहाँ छत्रसमूह से शोभित विशाल मण्डप था, उसमें इन्द्रनीलमणियोंके समूइसे अँधेरा हो रहा था । दूसरी ओर सूर्यकान्त भणियोंसे आलोक बिखर रहा था। और भी दूसरे दूसरे मणियोंसे उस मण्डप में अनूठी शोभा हो रही थी। वहाँ लवण और अंकुशको देखकर सभी का अपना रूपगर्व कार हो गया। उनमें से जेठे भाईके ऊपर गजगतिवाली मन्दाकिनीने अपनी माला डाल दी। और चन्द्रभागाने भी उसी प्रकार छोटे भाईके गले में माला पहना दी । यह देखकर आकाशमें सभी देवता प्रसन्न हो गये। उनमें कलकल होने लगी । नगाड़े बज उठे । इससे सैकड़ों वरोंके मुखका रंग फीका पड़ गया । मानो आनेकी हड़बड़ीसे आकुल निघिसे वंचित चोरोंका समूह हो । हताश वे सोच रहे थे कि हम धरती फाड़ या आकाश चौरें। इन कन्याओंके सौभाग्य से वंचित होकर कहाँ जाँय जहाँ मनुष्यों का अस्तित्व न हो ॥१- ११।।
SR No.090357
Book TitlePaumchariu Part 5
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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