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नंगि फुरन्ति णं आह-धार
पचमचरित
दिणयर-दित्तिउ दिष्ण पहार
अग्ग करिणि समारुहिय गावs चारु बसन्त - सिरि
सन्तावन्तिय । मुच्छावतिय ॥७॥
घार सयल रिसाइ णरवर । विहिं कुन्धुम पन्तिहि वरुवर ॥८॥
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जोयवि भू-गोयर चत्त केव । पुणु मल्लिय जिाहर पारिन्द | अरे वि परिहरेंषि गया तेधु जहिं छत्त सण्ड मण्डवु महन्तु । रविकन्त- पहुज्नोइय दियन्तु । पेक् वि लवणल हल तुरिज सच् जेोवरि पुणु मन्दारणीऍ । अङ्गसहाँ चन्दमायाएँ ते । किठ कबलु खुइँ आयाएँ । णं णिहि चुकई वाइय-कुलाइँ |
खम-दऍहिं कुमइाड़-मग्गु जैव ॥ १ ॥ णं गङ्गा-जडणेंहिं बहु गिरिन्द || २ || ते सीमा-णन्दण वे वि जेथु ॥३॥ सुर-मणि-कर-नियरभार-वन्सु ॥४॥ अहि मिमणिहि मह-सोह दिन्तु |५| । गउ परिगलेबि चिरु रूव-मध्यु ||६|| परिचित्त माल गय-गामिणीऍ ॥ ७ ॥ परिओसिय हय सयल देव ||८|| विच्छाग्रहूँ जायहूँ वर स्याइँ || २ || चिन्तन्तिरमण - हिययाइलाई ||१०||
धत्ता
'किं विणिमिन्दहुँ मद्दि गयणु किं साथ गिरि षिवरे पईस । घीसोहग्ग-मगा-रहिय जाते जहिं जगण दीस हुँ' ॥११३॥