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लायासीमो संधि
२५७ उन सबके साथ कंचनरथसे मिलकर वे लोग सीधे स्वयंवर मण्डप तक गये। उसमें सघन और मजबूत मंच बँधे हुए थे, जैसे संस्कृतमें निबद्ध काव्यबन्ध हो । वहाँपर मनुष्य तरहतरह के विकार प्रकट कर रहे थे। कोई एक पलमें गले में हार बाँध लेता और कोई उसे छोड़ देता। कोई एक पलमें कितने ही आभूषण स्वीकार कर लेता। कोई चारों ओर अपने वस्त्रोंका प्रदर्शन कर रहा था। कहीं वीणाका सुन्दर शब्द सुन पड़ता था
और कहीं पर घट-पटह, मुरव और मलाकी धनि | वहाँपर कोई सुहावने स्वर में अनेक भेद.प्रभेवोंके साथ सुम्मर गीत नगा रहा था । वे सब कुमार जाकर उन मंचोपर आसीन हो गये। वे ऐसे लगते थे, मानो अपने रूपसे कामदेवको भी तिरस्कृत करनेवाले सोलह प्रकारके अलंकारोंसे शोभित देवकुमार ही मनुष्य रूपमें धरतीपर अवतरित हुए हों ।।१-१०॥
[५] रूपसे खिली हुई दोनों कन्याएँ सजधजकर गयीं। अनुपम सौभाग्यसे भरपूर वे दोनों हथिनी-सी जान पड़ती थी। दोनों ही जनमनको बेधने में समर्थ थीं। एक शुभ दिन, वे दोनों मणियोंसे रचित अपने आवाससे निकली,मानो नवकमलाके समान आँखोंवाली सरस्वती और लक्ष्मी ही आ गयी हो । या मानो कामदेवने विचारपूर्वक दो सुन्दर बरछियाँ छोड़ दी हो । या गुणगणोंसे युक्त वनलक्ष्मी ही चल पड़ी हों । घरोंको देखता हुई वे समीपस्थ हजारों मंचोंके निकट ऐसी खड़ी हो गयीं, मानो सम्मोहनलताकी मादकताने आकर मोहित कर दिया हो, मानो हृदयमें प्रवेश करती हुई सुचि द्वारा रचित कोई रसमय कथा हो, मानो सौभाग्यविशेषके व्यपदेशसे नष्ट करना चाह रही हो, मानो अत्यन्त विषम और नाशक, साँपकी डाढ़ हो, जो मारना चाहती हो! मानो युद्ध में आती हुई तोरोंकी कतार