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________________ चउरासीमो संधि था। अपने शरीरकी कान्तिसे उसने सूर्यको भी पराजित कर दिया था। उसने दुर्लभ तप अंगीकार कर लिया, जो तरहतरहकी उपलब्धियोंसे समृद्ध था। उसने दुर्द्धर विपयरूपी शत्रुओंको नष्ट कर दिया था। इस प्रकार इसका बहुः समय बीत गया। अन्तमें उसने मुख्य शुक्लध्यानकी आराधना की, जिससे केवलजानकी उत्पत्ति होती है। फिर उसका अन्त समय आ गया और वह सर्वार्थसिद्धिमें जाकर उत्पन्न हुआ। उसका शरीर एक भर धारण करनेवाला था। उसकी कान्ति करोड़ों सूर्य के समान थी। उस सर्वार्थसिद्धि में तेंतीस सागर प्रमाण रहकर उसने नाना प्रकारके सुखभोगोंका उपभोग किया, उन सुखोंका जो अमृतके समान थे । वह देव स्वर्ग से आकर यहाँपर विद्याधरों का स्वामी विद्याधर वालिके रूपमें उत्पन्न हुआ है। उसका प्रताप अडिग है, उसके दर्शन शुभ हैं, जो चरमशरीरी हैं और युद्ध में अत्यन्त असह्य है॥?-१२॥ [२५] उसका यह नियम है कि निम्रन्थ साधुको छोड़कर वह किसी दूसरेको नमस्कार नहीं करता। जो एक क्षणमें समूची धरतीकी परिक्रमा कर समस्त जिनमन्दिरों की वन्दना करता है। जिसने युद्ध में पुष्पक विमान और चन्द्रहास तलवारके साथ संसारको सतानेवाले रावणको खेल खेलमें दायें हाथपर उठा लिया था। बाद में जिसने अपनी दोनों पत्नियों ध्रुवा और शशिकिरणका परित्याग कर, राज्य-लक्ष्मी सुप्रीवको सौंप दी थी। संसारके आवागमनसे विरक्त होकर जिसने जिनदीक्षा ग्रहण कर कैलास पर्वतपर जाकर प्रयत्नपूर्वक तपस्या की है। आतापनी शिलापर बैठे हुए जिसने आकाशसे जानेवाले रावणको क्रुद्ध कर दिया था। फिर एक बार उसने पलभरमें रावणका अहंकार चूर-चूर कर दिया । भला संसारमें उसकी
SR No.090357
Book TitlePaumchariu Part 5
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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