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________________ सत्तासीव सन्धि बहुत दिनोंके बाद लक्ष्मणके पुत्र भी दुःसह और दुर्द्धर तप साधकर हनुमानकी ही भाँति कर्ममल धोकर शाश्वत सुखमें जाकर रहने लगे । , [१] यह बात सुनकर शत्रुका मर्दन करनेवाले रामने हँसकर कहा, “इतने उत्तम श्री सुन्दर भोग, श्रेष्ठ गज, अश्व, रथ और मनुष्य, बहुत सो सुन्दर स्त्रियों पाण्डर जन, धन, सोना, धान्य, मणि, और रत्न पाकर भी लक्ष्मण और पत्रनंजय के पुत्रोंने कमलके समान सुन्दर सुखको कुछ नहीं माना। मुझे भी कुछ न मानते हुए वे संसारके उरसे इतने डर गए कि देखो सबके सब दीक्षित हो गये। लगता है शायद उन्हें हवा लग गयी है, अथवा पिशाच लग गया है। या तो वे व्यामोह में पढ़ गये हैं, या फिर उन्हें उन्माद हो गया है । उनकी कुशलता नहीं है, उन्होंने किसी वैद्य या मन्त्रवादी से भी अपना उपचार नहीं कराया । यही कारण है कि समस्त ऐश्वर्य छोड़कर उन्होंने तपसे अपने आपको विभूषित किया। गौरांग शिव सुख भाजन और जिनवर वंश में उत्पन्न होकर भी जब रामकी इतनी बुद्धि है, तो फिर दूसरोंकी दुष्ट बुद्धि क्यों न होगी ॥- ॥ [२] एक दिन सहस्रनयन इन्द्र अपने सहायक के साथ बैठा हुआ था, मानो सुमेरुपर्वत अन्य पर्वतों के साथ स्थित हो । करोड़ों सूर्य के तेजके समान उसकी कान्ति थी । वह एक उराम सिंहासनके ऊपर बैठा हुआ था। सत्ताईस
SR No.090357
Book TitlePaumchariu Part 5
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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