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सत्तसत्तरिमो संधि आँसुओंसे गीली हो रही थीं। वानर समूहके साथ विश्वविख्यात राम और लक्ष्मणने भी रावणको देखा। लोट-पोट होते हुए, उसके मुकुट सहित सिर ऐसे दिखाई देते थे, मानो पराग सहित कमल हों, गिरे हुए उसके भालतल ऐसे लग रहे थे, मानो अर्धचन्द्र के प्रतिबिम्ब हों, चमकते हुए मणिकुण्डल एसे लगते थे माना अनेक प्रलयकालीन सूर्य हां, भृकुटि से भयंकर उसकी भौंहें ऐसी लगती थीं, मानो धुंधाती हुई प्रलयकी आग हो, उसके लम्बे विशाल मेत्र ऐसे लगते थे, माना मरणपर्यन्त आसक्त बढ्नेवाले युगल हों, दाँतोंसे युक्त मुखकुहर ऐसे लगते थे, मानो यमके अनिष्टतम यमकरण अस्त्र हो । योद्धाओंके समूहने जब रावण की विशाल भुजा देखो तो लगा जैसे वटवृक्षके तने हों, चकसे फाड़ा गया वनस्थल ऐसा दिखाई दिया, मानो सूर्यने मध्याह्नमें दिनके दो टुकड़ कर दिये हों। वह ऐसा लगता था मानो विन्ध्याचलने धरतीको विभक्त कर दिया हो, अथवा अनेक भागों में अन्धकार ही इकट्ठा हो गया हो। युद्धके प्रांगणमें, रावणके मुखों को देखकर, रामने विभीषणको अपने अंकमें भर लिया, और धीरज बँधाते हुए कहा, "हे विभीषण, तुम रोते क्यों हो" ॥१-१।।
[२] "वास्तव में मरता वह है जो अई कार में पागल हो, और जीवदयासे दूर हो, जो प्रत और चरितसे हीन हो, दान और युद्ध भूमिमें अत्यन्त दोन हो। जो शरणागत और षन्दीजनोंकी गिरफ्तारीमें, गायके अपहरणमें, स्वामीका अवसर पड़नेपर, और मित्रोंके संग्रह में, अपने पराभव और दूसरेके दुःख में काम नहीं आता, ऐसे आदमीके लिए रोया जाता है। इसके सिवाय, जो दुष्ट कर्मों का जनक हो, जिसके पापका भार बहुत भारी हो, यहाँ तक कि सब कुछ सहनेवाली धरतीमाता