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________________ एक्कासीमो संधि [८] "जिस प्रकार कालने पिताजीको नहीं छोड़ा, उसीप्रकार मुझे भी नहीं छोड़ेगा, फिर भी मैं मोह में पड़ा हुआ हूँ। राज्यको धिक्कार है, छत्रोंको धिक्कार है, घर परिजन धन और पुत्र-कलत्रोंको धिक्कार है । धन्य हैं वे तात, जिन्होंने दुर्गतिको ले जानेवाले खोदे चरितोंको छोड़ दिया है। मैं ही, कुपुरुष दुर्नयों से युक्त और विषयासक्त हूँ। अब मैं मुनिके पास जाकर दीक्षा ग्रहण करूँगा। स्त्रीके विषयमें अब मैं अपरिप्रह ग्रहण करूँगा। जिस दिन ये तीनों बनवासके लिए गये, और जिसदिन वनवाससे लौटकर नगरमें आये, नसदिन भी मैंने तपोवनके लिए कूच नहीं किया, कौन नहीं कहेगा कि मैं कितना असज्जन हूँ। मुझ दुष्ट स्वभावको कषायोंने घेर लिया।" इसप्रकार रामके आगमनपर भरतने दीक्षा ग्रहण कर ली। "जनकसुताको अग्रमहिषी बनाकर और लक्ष्मणको मंत्रीपद देकर हे राम, :आप घरतीका पालन करें। मैं अब तपोवनके लिए जाता हूँ" || १-६॥ [१] उसने कहा, "पिताजोने यह कौन-सा सच कहा था कि तुम्हारे लिए वन और मेरे लिए राज्य । उस अविनयकी शुद्धि केवल मृत्युसे हो सकती है, या फिर घोर तपश्चरणसे। इसलिए हे आदरणीय, राज्यसे मुझे निर्वृति हो गयी है। अब मैं जाऊँगा और प्रव्रज्या ग्रहण करूंगा।" तम युद्धमें निशाचरोंको जीतनेवाले रामने भरतको बोलनेसे रोका । उन्होंने कहा"आज भी तुम राजा हो, तुम्हारे वे अनुचर हैं, घड़ी अश्व, वही गज और रथ श्रेष्ठ है। वे ही सामन्त हैं और तुम्हारे भाई हैं, वही समुद्रपर्यन्त धरती है। वही छत्र हैं और वाही सिंहासन है। वही स्वर्णनिर्मित चमर और व्यजन हैं, भामण्डल सुग्रीव और विभीषण घरमें तुम्हारी आज्ञाका पालन करते हैं।
SR No.090357
Book TitlePaumchariu Part 5
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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