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पंचालीमो संधि
समस्त सुख मैं भोग चुका हूँ। जन्म भर मैंने कभी दुःखका नाम भी नहीं सुना। मैंने शक्ति भर हे देव, आपकी सेवा की है। मेरा पुत्र मर गया है। हे राम, इस समय सब प्रकारका परिग्रह छोड़कर उत्तम तपस्या स्वीकार करता हूँ-तबतक कि जबतक मौत नहीं आती ॥१-११।।
[५] जिसने राजाकी सेवा की है, वह दुनिया में सब कुछ पा लेता है, परन्तु हे देव, उसके लिए यदि कोई चीज दुर्लभ है तो वह है संन्यासरूपी रत्न। इसलिए. शीव आप थोड़ा हाथ लगा दें और मुझे परलोकको चिन्तासे मुक्त कर दें। यह सुनसुन कर जनोंको आनन्द देशले रमतान्तवनले कहा, "हे वत्स, मंन्यास लेकर और सब परिमहका त्याग कर चयांके लिए दूसरों के घर कैसे घूमांगे हाथके पात्र में भोजन कैसे करोगे, दुःसह परीयह कैसे सहन करोगे, शरीरपर मैलकी परतें कैसे धारण करोगे, धरतीपर कैसे सोओगे, घोर विषम काननमें रात कैसे बिताओगे. कठोर उपवास कैसे करोगे, उपयासमें पक्ष माह छह माह कैसे बिताओगे, वृक्षके नीचे धूप कैसे सहोगे और किस प्रकार हिम किरणोंको शरीरपर सहन करोगे ?" यह सुनकर सेनापति ने कहा, "जब मैं सुखके भाजन और स्नेह के रसाय आपको छोड़ रहा हूँ और जो मैं लक्ष्मीधरको छोड़ सकता हूँ, तो फिर ऐसी कौन सी चीज है, जिसे मैं सहन नहीं कर सकता । हे देव, मृत्युरूपी वसे यह देह-रूपी पहाड़ ध्वस्त हो, इसके पहले मैं अजर-अमर पदको पाने के लिए जाना चाहता हूँ ॥१-१२।।
[६] हे राजन् , समय सबको शोक बढ़ाता रहता है । आपके समान दूसरोंसे भी वियोग होगा। तब बड़ी कठिनाईसे प्राण
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