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________________ पंचासीमो संधि छूटेंगे । बहुत दुःखांसे मेरा हृदय फट जायगा । यही कारण है कि आपके मना करनेपर भी मैं अपनेको रोक नहीं पा रहा हूँ। अब चार गतियोंके जंगलमें नहीं भटक सकता।' यह सुनकर रामका मुख खिन्न हो उठा। आँखों में आँसू भरकर उन्होंने कहा, "सचमुच तुम्हारा जोषन सफल है, जो इस प्रकार बोध प्राप्त कर तुमने मुझे और सीतादेवीको तिनकेके समान छोड़ दिया। यदि इस जन्ममें मोक्ष न भी मिले, तो भी तुम ग्वूध तपश्चरण करना । उचित अवसर जानकर हे देव, तुम संक्षेपमें मुझे भी सम्बोधित करना । यदि तुम मेरे उपकारको मानते हो तो जो कुछ मैंने कहा है, उसे ध्यान रखना ।" यह सुनकर उसने भी हर्षपूर्वक प्रणाम किया, और कहा, "हे देष, मैं ऐसा ही कसँगा ।" महामुनिकी वन्दना कर उसने प्रसादमें दीक्षा माँगी । इस प्रकार कृतान्तवक्त्र एक ही पल में कई लोगों के साथ दीक्षित हो गया ।।१-१०॥ [७] शत शत जन्मान्तरोंसे डर कर वह महामुनि हो गया। वह शीलके अलंकारोंसे भूषित था और हाथ ही उसके आवरण थे। उस महामुनिकी सैकड़ों देवता बन्दना कर अपने-अपने भषनोंको चले गये। श्री राघवने वहकि लिए प्रस्थान किया जहाँ सीतादेवी विराजमान थीं। अर्जिकाओंसे घिरी हुई यह ऐसी लगती थी, मानो ताराओंसे अलंकृत ध्रुवतारा हो, मानो पवित्रतासे की हुई शास्त्रकी शोभा हो, मानो शासन देवता ही उतर आयी हो। उन्हें देखकर राम उनके निकट इस प्रकार खड़े हो गये, जैसे मेघमालाओंके निकट पहार खड़ा हो। चिन्तामें पढ़कर वह क्षण भर सोचते रहे। अनकी अविचल आँखोंसे अश्रुधारा प्रवाहित हो उठी। वे सोच रहे थे, “जो कभी मेधके शब्दसे डरती थी, जो मनपसन्द सेजपर
SR No.090357
Book TitlePaumchariu Part 5
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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