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पडमचरि
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हिदि-हरे हिं
णं सत्य खच्कि पक्कय सहि । णं सुरसरि हिमगिरि- सायरे हि । परिपुष्ण मणोरह जाण हैं । वि-यण-सराणि सन्धइ व । जस-कदमें अगुम्हि व विजेइ व करथल - पल्लव हि । पइसरह व हियऍ हलाउहहाँ ।
मेहलिएँ मिलती हुई है इन्दों इन्दत्तणु पत्तों
पहसन्तहँ बल-णारायण हूँ
पणं सुरहुँ भरन्त धरता हूँ
णं चन्दलेह विहिं जलहरें हि ॥१॥ णं पुण्णम विहिं पक्खन्तरे हि ||२|| णं ह- सिरि चन्द - दिवाय हिं ॥३॥ तर व कायण-महाजइहें ॥४॥ पिs पगुण गुणेहिं विन्ध व ||५|| हरिसंवा सिप्प च ॥ ६ ॥ अव - कुसमें हि गर्ने हिं ॥ ७ ॥ करद व उज्जो दिसमुहहाँ ||८|
पत
खुद्द उप्पण्णउ जेत्तदर । होम ण दोन व तेलदर || १ ||
सकळसट लक्षणु पुण्य-सिरु । 'जं कि खर-दूषण - ति सिर बहु । जं सक्ति पछि समर- मुहँ । जं रणे उपयष्णु चक्क-रवणु । तं देवि पसाएँ त सण । अहिवाराणु किउ सक्खर्गेण जिह सयल विजिय-निय वाह में हिंथिय जय मङ्गल-तुरई सावियहूँ ।
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पमण्डू जलहर-गम्मीर- गिरु ॥१॥ जं इंसदीवें जिउ हंसरहु ||२|| जं लग्ग विसल्छ करम्बु रूहें ॥ ३ ॥ पं हि वलुरु दहवयणु ॥१॥ कुल धवलित जाएँ सहर्णे ||५|| सुग्गीव- पमुह-गरवरहिं सिंह ||६|| । पर-पुर-पवेस सामविंग किय ॥७॥ रि-घरिणिर्हि चित्त पाडियाहूँ ॥ ८ ॥
घता
यह मनोहरु आवडिङ | तुवि सग्ग-खण्ड पवित्र || ९ ||