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अट्ठसत्तरिमो संधि [७] राम और लक्ष्मणने सीतादेवीको इस प्रकार देखा मानो दो महामेष चन्द्रलेखाको देख रहे हों, मानो कमलसरोवर शरलक्ष्मीको देख रहे हों, मानो दोनों पक्ष (शुक्ल और कृष्ण ) पूर्णिमाको देख रहे हों, मानो हिमगिरि और समुद्र गंगाको देख रहे हो, मानो सूर्य और चन्द्रमा आकाशकी शोभाको देख रहे हों। उन्हें देखते ही सीतादेवीकी सारी कामनाएँ पूर्ण हो गयीं। वह ऐसी लगी जैसे सौन्दर्यकी महानदी तिरती-सी, अपने नेत्रधनुषका सन्धान करतीन्सी. अपने महागुणोंसे प्रियको बाँधती-सी, यशकी कीचड़से जगको लीपती-सी, हर्षकी अश्रुधारासे सींचती-सी, करतल-पल्लवोंसे हवा करती-सी, नये-नये नभकुसुमोसे अर्चा करती-सी, रामके हृदय में प्रवेश करती-सी, दिशाओंके मुखौंको आलोकित करती-सी । सीतादेवीसे मिलनेमें रामको जितना सुख हुआ, उतना इन्द्रको भी इन्द्रपद पाकर भी शायद होगा या नहीं होगा ।। १६ ॥
[८] सपत्नीक और प्रपतसिर लक्ष्मण मेघके समान गम्भीर स्वर में बोले, "जो मैंने खर, दूषण और त्रिसिरका वध फिया; हंसद्वीपमें हंसरथको जीता; युद्धभूमिमें शक्तिसे आहत हुआ, विशल्यादेवी हाथ लगी; युद्धमें चक्ररत्नकी उपलब्धि हुई
और युद्ध में अपनी शक्ति से रावणका संहार किया, वह सब, हे देवी! आपके प्रसादसे ही; आपने अपने शीलसे सचमुच कुल पवित्र किया है।" लक्ष्मणकी ही माँति सुग्रीव आदि प्रमुख नरश्रेष्ठो ने भी उस महादेवीका अभिवादन किया। सब लोग क्षपने-अपने वाहनों पर जाकर बैठ गये और महानगरमें प्रवेश करनेको सामग्री जुटाने लगे। विजयके नगाड़े बज उठे; शत्रु-स्त्रियों के दिल बैठने लगे। राम और लक्ष्मणके प्रवेश करते ही समूचा नगर सुन्दरतासे खिल उठा, मानो देव