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भट्ठससरिमो संधि
आवरण था । व्रतों और गुणों से युक्त कान्ति और शशिकान्तिके पास जाकर, आभरण और नू पुरोसे रहित अन्तःपुर के साथ, मन्दोदरीने भी दीक्षा ले ली। इतनेमें आकाशमें सूर्य निकल आया, मानो यह देखने के लिए कि किसने दोक्षा को है, और किसने नहीं ली। सूर्योदय होनेपर, विभीषण वहाँ गया, जहाँ चन्दन वनमें जनककी पुत्री सीता देवी बैठी थीं। वह जिन वस्त्रों और आभरणों को वहाँ ले गया था सीता देवीने उनकी ओर देखा तक नहीं। उसने कहा, "यह सब मेरे लिए कचरेका ढेर है चाहे, मनमें उन्मादक काम ही क्यों न हो, अपने पतिसे मिलते समय कुलवधूका एकमात्र प्रसाधन शील ही होता है" ॥ १-२॥
[६] तब विभीषणने पूछा, "यदि आप निर्भय हैं, तो मैं जाता हूँ। आप हनुमानके साथ, क्यों नहीं गयीं ?" इसपर सीतादेषीने कहा-"बिना पतिके जानेवाली कुलपत्नीपर कुलधर भी कलंक लगा देते हैं, पुरुषोंके चित्त जहरसे भरे होते हैं, नहीं होते हुए भी वे कलंक दिखाने लगते हैं, दूसरोका तो वे विश्वास ही नहीं करते, यहाँ तक कि पुन्न, देवर, भाई और पिताका भी ।" महासतीके उन वचनों को सुनकर, विभीषण रघुपति रामके पास गया; और बोला, "परमेश्वर राम, लंकामें आप बाद में प्रवेश करिए। हे आदरणीय, पहले सीतादेवीसे मिलिए,
और विरह नदीसे उसका उद्धार कीजिए। यह है त्रिजगभूषण महागज; इसके मदभरे कुम्भस्थलपर और गूंज रहे हैं, इसपर चढ़िए ।" यह सुनकर राम और लक्ष्मण सीतादेवीके पास गये, मानो लक्ष्मीके अभिषेकके समय दो महागज आ मिले हो ॥ १-२॥