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पंचासीमो संधि वोनीने कामदेवरूपी महागजके लिए सिंह के समान श्रीतिलक नामः महामुनिको अगादाम दिया . महामुनिके आनेपर उन दोनोंने समुज्ज्वल अच्छी भक्तिसे आहार दान दिया। बहुत समयके बाद जब उनकी मृत्यु हुई तो वे उत्तरकुरुक्षेत्र में जाकर उत्पन्न हुई। वहाँ तीन पल्य आयु बिताकर और मनचाहे भोग भोगकर वे ईशान स्वर्गमें देवरूपमें उत्पन्न हुई। वे ऐसे लगते थे मानो प्रलयकाल में सूर्य और चन्द्र ही उत्पन्न हुए हों। दो सागर प्रमाण आयु बीतनेपर सम्यकदर्शनसे युक्त वे दोनों यहाँसे आकर उस काकंदीपुरमें उत्पन्न हुए ।।१-१५॥
[.] शत्रुओंके नाशक चन्द्रमाके समान निर्मल यशवाले और शिव सुखके पात्र रतिवर्धन राजाके यहाँ जिनदेवके चरणकमलोंकी सेविका सुदर्शना महादेवीसे दो पुत्र उत्पन्न हुई। उनमें पहले का नाम प्रियंकर था और दूसरेका हितंकर । जो छोटा भाई था, कान्ति में वह ऐसा सोहता था जैसे सूर्य हो या राजा भरत या बाहयलीश्वर हो । बहुत समय के अनन्तर उसने तप अंगीकार कर लिया। संन्यास पूर्वक शरीर छोड़कर, बह 4वेयक स्वर्गमें सुरवर बना। उसके पास बढ़िया मुकुट, दिव्य कटक और कुण्डल थे | दो रन प्रमाण उसका शरीर था और वह अणिमादि ऋद्धियों और गुणोंसे युक्त था | नानाविध मणिरत्नोंसे सुन्दर, विस्तृत सूर्य प्रभ विमानमें उसने अभिलषित सुखोंका उपभोग किया और चौबीस सागर प्रमाण आय जीतने पर यहाँसे चयकर वे दोनों शत्रुरूपी गजके लिए अंकुटाके समान यहाँपर सीतादेवीके लष और अंकुश हुए हैं । परम महामुनिके उन वचनों को सुनकर विद्याधरों और देवताओंको बहुत भारी आश्चर्य हुआ ॥१-१६।।