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सत्तमरिम संधि
[१५] वेदनासे व्याकुल इन्द्रजीत इसी बीच उठा । अपनेको वह ताड़ित करता पीटता और निन्दा करता। वह कह रहा था, "हे तात, हे मानोन्नत तात, तुम हजारों देव-युद्धों में अजेय रहे । तुम्हारे अस्त हो जानेसे बोलना, हँसना, रमना और घूमना सब दुनियासे विदा हो गये। सोना-जागना, आना, जाना, पहनना, खाना-पीना, श्रृंगार करना महाना, वन-क्रीड़ा, जलक्रीड़ा, स्नान, पुत्रका उत्सव, विवाह, उत्तम पान गेय नृत्य आदि उत्तम विद्याएँ जाती रहीं। परिजन और अपना राज्य भी अब अपना नहीं रहा। कुमारोंके साथ तोयदवाहन भी सौ सौ यार मूच्छित हो उठा। वह बेदना के अतिरेकमें करुण कन्द्रत कर रहा था। उसकी आँखोंसे आँसुओंकी अविरल धारा बह रही श्री । जो घटना रावणके परिजनों के लिए दुःखद थी, वही सीता, राम और लक्ष्मणके लिए भाग्यशाली थी । कपिध्वजी लोगोंने स्वयं लंका नगरी में प्रवेश किया ।। १-९ ॥
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सतहत्तरव सन्धि
अपने भाईके वियोग में विभीषणको जितना अधिक शोक दोता, राम-लक्ष्मण और वानर समूह भी दुःखके कारण उतना ही रो पड़ता ।
[१] उन्मन और उदास चेहरे से वानर समूह घड़ाँ पहुँचा, जहाँ रावण धरतीपर पड़ा हुआ था । उसकी आँखें