________________
•
एका सीइमो संधि
"
थे। दर्भ, सीर, कुस, कास और मूँज थी। हवासे गिरे हुए बहुत-से पेड़ - पत्तों के ढेर पड़े हुए थे। पेड़ों के घर्षणसे आग लग रही थी । कीड़ों, चीटियों और दीमकों से वह अटवी भरी हुई थी। डाभ, ठूंठ और काँटों से वह बिछी हुई थी । शिला पत्थर और चट्टान के ही उसमें बिस्तर थे । महाभयंकर जंगलमें जो सिंहों से आहत गजरक्तसे लाल-लाल हो रहा था, जो रीछ और पानी वाले साँपों से भीषण था, शिव, शृगाल, बाघ से मयंकर था, सारथिने सीताको छोड़ दिया और कहा, "हे देवी, राम ही जान सकते हैं. इसमें मेरा दोष नहीं है। हलाहल विष पी लेना अच्छा, यमकी दुनिया में चला जाना अच्छा, परन्तु ऐसे सेवाधर्मका पालन करना अच्छा नहीं जिसमें दूसरोंकी आज्ञाओंका दुखदायी पात्र बनना पड़ता है ॥१-१०॥
7
१४९
[११] उसमें हमेशा प्राणोंका डर बना रहता है, दूसरोंकी आज्ञाका सम्मान करना पड़ता है, अपना मस्तक बिका होता है । सचमुच सेवाधर्म पालन करना बड़ा कठिन है, सेवाधर्म खोटे यानकी भाँति होता है । इसमें राजा बाघके समान देखता है। भोजन, शयन, मन्त्रणा, मण्डल, योनि और समुद्रकी चिन्तामें राजा सेवककी ओर ही देखता है । जहाँ राजदरबार बैठा होता है, वहाँ भी सेवक चाहे जितना पुराना हो, वह बैठ नहीं सकता, उसका जीवन बड़ा नहीं होता, वह थूक तक नहीं सकता, पैर पसारना, हाथ ऊँचे करना, चलना, सब ओर देखना, हँसुना, बोलना, दूसरेका आसन ले जाना - आना, शरीर मोड़ना, जँभाई लेना भी उसके लिए दूभर होता है। न वह स्वामीके निकट रह सकता है और न दूर। वह उसके रक्त-विरक्त हृदयको पहचान लेता है । आगा-पीछा छोड़