________________
सत्तसत्तरिमो संधि विजेता रावणके लिए तुम क्यों रोते हो ? जो अजर अमर है, जिसकी संसार में प्रसिद्धि हो चली है हे विभीषण, तुम सौसौ बार उसके लिए क्यों रोते हो? ॥१-१०॥
[४] यह सुनकर प्रधान राजा विभीषणने कहा, "मैं इतना इसलिए रोता हूँ कि रावणने अयशसे, दुनियाको इतना अधिक भर दिया है। यह मनुष्य शरीर अविनयका स्थान है, जलकी बूंदके समान देखते-देखते नष्ट हो जाता है, इन्द्रधनुषकी तरह यह चपलस्वभाव है बिजलीकी चमककी तरह, उसी समय नष्ट हो जाता है; कदलीवृनके गाभकी तरह निस्सार है, पके फलकी तरह यह पक्षियोंका आहार बनता है। शून्य गृहकी भौति इस के सभी जोड़ विघटित हैं, बुरी वस्तुकी तरह यह दुर्गन्धसे भरा हुआ है । अपवित्र घस्तुके ढेरकी तरह जिसमें कीड़े बिलबिला रहे हैं, अकुलीनकी तरह जो पुण्यका विनाश करता रहता है। नगर नालीकी तरह जो कीड़ोंका घर है, जो धरतीपर अपवित्रताका भार है, जो इड़ियोंका देर और मज्जा. का कुण्ड है, पीबका तालाब है, और मांसका पिण्ड है, मलका कूट है, और रकका सर है, गुह्यस्थानसे सहित, जो पसीनेसे भरा हुआ है, हड्डियोंका देर घिनौना, चर्ममय एक खोटा यन्त्र है। इससे नप नहीं किया, अपने मनके घोड़ेका निवारण नहीं किया, मोक्ष नहीं साधा, भगवान्की चर्चा नहीं की-प्रत नहीं साधा, मदका निवारण नहीं किया, अपनेको तिनकेके बराबर इलका बना लिया।" यह सुनकर रामने कहा, "क्या यह निन्दाका अवसर है" | यह कहकर, रामने परिवारको आदेश दिया कि खलके समान कठिन स्वभाववाली लकड़ियाँ शीघ्र निकालो ॥१-१४३॥