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________________ पउरासीमो संधि छू गया हो। उसका अंग-अंग थर-थर काँप रहा था और उसको आँखें लाल थी। उसके ओठ और मुख फड़क रहे थे । उसने कहा, “हे हृदयहीन लज्जाहीन कापुरुष, दुष्ट और नीच, अब तेरा खोटी गतिमें जाना निश्चित है । जो तूने मेरे पिता की हत्या कर, बलपूर्वक अपहरणकर, मेरा शीलापहरण किया है; सो में, भारी कमों में लिप्त रखनेवाली तेरी मृत्युकी कारण यनूंगी।" यह कहकर, वह किसी प्रकार राजासे बचकर जिनमन्दिरमें पहुँची। वहाँ उसने हरिकान्ति के पास दीक्षा ग्रहण की, और बहुत समयके अनन्तर ब्रह्मलोक में पहुँची । जिन-वचनोंसे विमुख राजा स्वयंभू भी वैभव और स्वजनोंसे अलग हो गया। मनमें मिथ्याभिमान रखनेके कारण बहुत दिनों में मरकर खोटी गति में पहुँचा ॥१-२॥ [24] वहाँ बड़े-बड़े दुःखोंसे उसका पाला पड़ा। वह समस्त तिथंच गतियों में घूमता फिरा। फिर सावित्रीके गर्भसे कुशध्य ज ब्राह्मणके पंकजमुख नामका बेटा हुआ । उसका नाम प्रभासकुन्द था । वह दुर्लभज्ञान रत्नसे अलंकृत था । चार ज्ञान से सम्पन्न विचित्रसेन मुनिनाथके पास उसने दीक्षा ग्रहण कर ली। तप करते-करते एक दिन वह आगमके अनुसार जिनेन्द्र भगवानकी वन्दनामस्तिके लिए गया । जब वह सम्मेद शिखरपर पहुँचा, तो उसने देखा कि आकाशमें विद्याधर कनकप्रभ जा रहा है, उसका यभष इन्द्रसे भी महान् था। उसे देखकर कामदेय और चन्द्र के समान सुन्दर अस साधुने सोचा, "वेभय से हीन, शाश्वत सुखोवाले मोक्षसे तो अव दूर रहा । (मैं तो चाहता हूँ) कि जिनागममें दुःसह तपका जो फल बताया गया है, उससे दूसरे जन्ममें यह सब प्रभुता मुझे प्राप्त हो ।।१-१॥
SR No.090357
Book TitlePaumchariu Part 5
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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