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सततरिम संधि
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दशा से ध होकर लोग करुण क्रन्दन कर रहे थे। उसके बाद देवताओंके सतानेवाले राखणको मरघट में ले गये, चिता बनाकर उसमें उसे रख दिया गया। जो रावण हमेशा सुन्दर कामिनियोंके स्तनभागपर चढ़ा, देखो पुण्यका क्षय होनेपर वाह किस प्रकार लकड़ियोंस ठेला जा रहा है ॥१-१०॥
[७] अष्टापदको कँपा देनेवाला रावण चितापर चढ़ा दिया गया। यह देखकर नूपुरों और अलंकारोंसे युक्त अन्तःपुर मूर्च्छित हो उठा; वह बार-बार अचेत होकर गिर पड़ता । बार-बार वेदनासे व्याकुल होकर उठता । बारम्बार मुख ऊँचा कर बड़ रो पड़ता, ऐसा लगता मानो छीजता हुआ शंखकुल हो । रनिवासकी मृत्युकी आशंकासे मारे डरके पताकाएँ काँप रही थीं। बेचारे छत्र भी यह कह रहे थे कि "तुम्हारे बिना अब हम किसपर छाया करेंगे, तूर्य भी यह घोषणा बार-बार कह रहे थे कि तुम्हारे बिना, अब कैसे बजेंगे ! “सैकड़ों लाखों रणभारोंमें भला कौन हमें फूँकेगा, ” – मानो शंख भी यह कह रहे थे। ठीक इसी अवसरपर अपने ही आश्रयका नाश करनेवाली आग, सीता के शापकी तरह चितामें लगा दी गयी । परन्तु वह आग शीघ्र ही लौ नहीं पकड़ सकी । काँपती, झपकती और सिसकती हुई वह टिमटिमा रही थी । मानो वह अपने मन में सोच रही थी कि पहाड़ों और समुद्रों सहित धरतीको कँपा देनेवाला रावण कहीं दुबारा जीवित न हो जाय। आग फिर सोचने लगी, "इसे क्या जलाऊँ यह तो अयशसे पहले ही जल चुका है" ।। १-११ ।।
[८] उस अवसर पर रावणका रनिवास दुःखसे व्याकुल था, उसका मुखकमल मुरझाया हुआ था। वह पानीके पास