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पंचहत्तरिमो संधि दो टुकड़े हो गये हों, मानो मनुष्यके रूपमें कालदुत हों, मानो धरतीने रविरूपी लाल कमल तोड़ने के लिए अपने दोनों हाथ फैला दिये हों । प्रलयमेषके समान सान्द्रम्बर लक्ष्मण और रायण उछल पड़े। यह देखकर सैकड़ों बेताल नाच उठे, उन्हें लगा, चलो आज खूब तृप्ति होगी ॥ १-१०॥ __ [१४] लक्ष्मणको देखकर रावणने कहा, "जो कुछ राघवने किया है, लगता है, वही तुम सब करोगे।" उसने अपने दसों दायें हाथों में दस महातीर निकाल लिये | पहलेमें महान घट वृक्ष था। दूसरे में दुखदायी महागिरि था, तीसरेमें पानी था
और चौथेमें आग थी, पाँचमें सिंह और छठे में नाग था, सातवेंमें महागज था, आठ में विषम स्वभाव निशाचर था। नमें महान्धकार था, दशमें महोदधि था। इस प्रकार जब उसने प्रलय स्वभाववाले दसों महातीर ले लिये और दसों दिशाओंको रोक कर स्थित हो गया, तो विभीषणने कहा, "लक्ष्मण, रावणने अपने दिव्य अस्त्र ले लिये हैं । एक होकर भी उनके अनेक भाग हो सकते हैं। उनमें से एक-एक भी विविध मायाका प्रदर्शन कर सकता है। उनमें एक भी समूचे संसारका विनाश करने में समर्थ है । लो यह है अबसर, बढ़ाओ अपना हाथ । यदि तुमने अपने दोनों बाहुओंको फैलाकर इन अस्त्रोंको नहीं रोका तो न मैं चचूंगा, न तुम, न राम, न सुनीष और न ही वानर सेना" ॥१-१०॥
[१५] यह सुनकर, लक्ष्मणने अपने अग्नि-बाणसे उस यट महावृक्षको भस्म कर दिया और वजदण्डसे मायामहीधरको भी मसल डाला, वायव्य तीरसे उसने वारुण-अस्त्र नष्ट कर दिया और वारुण अस्त्रसे हुताशन अस्त्रको व्यस्त कर दिया । सरभसे