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________________ बालीमी संधि १६९ थी। लवण और अंकुशकी सेना अपने वेगमें, पथ और उत्पथमैं कहीं भी नहीं समा रही थी। वह ऐसी लगती थी मानो क्षयकालका समुद्र ही रेल-पेल मचाता हुआ अयोध्यापर आ पहुँचा हो ।। १-२॥ [११] दर्पसे उद्धत और अंकुशविहीन लवण एवं अंकुदाने अपना दूत रामके पास भेजा। दूत शीन ही अयोध्या नगरी गया और उसने लक्ष्मण सहित सीतापति रामसे भेंट की। उसने कहा-"अरे राम और लक्ष्मण, तुमसे कितनी बार कहा जाय ? लगता है दूसरोकी स्त्रियोंका अपहरण करनेवाले रावण ने तुम्हारा दिमाग आसमान पर चढ़ा दिया है। यह राजा वाघ है, जो समुद्र की तरह अचव्ध और सुमेरु पर्वतकी तरह अलंध्य है। यह उच्च कोटिका शत्रु है, महानुभाव है, देवता और दूसरे लोक इसके प्रतापका लोहा मानते हैं । युद्धवनिताका आलिंगन करने में उसे आनन्द मिलता है । वह दूसरे के धन और स्त्रीको तिनकेके समान समझता है । वह लवण और अंकुशका मामा महाप्रचण्ड है । वह तुम्हारे ऊपर कालदण्डकी तरह आया है। उसके साथ युद्ध करनेसे क्या ? अपना शेष कोष उसे दे दो, और लवण-अंकुशकी अधीनता स्वीकार कर अपनी अयोध्या नगरीमें सुखसे राज्य करों" ।। १-२॥ [१२] यह सुनकर आशीविष साँपकी भाँति विषम चित्त लक्ष्मण आग-बबूला हो गये। उन्होंने कहा, "हे दूत ! तुम जाओ, इस प्रकार निर्जल बादलोंकी भाँति गरजनेसे क्या ? वनजंघ कौन है ? लवण कौन है और कौन है अंकुश ? उसका प्रताप कौन है, जिस तरह भी हो तुम अपनेको बचाओ, हम अस्त्रोंको लेकर तैयार हो रहे हैं।" चिढ़कर दूत फौरन गया ।
SR No.090357
Book TitlePaumchariu Part 5
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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