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________________ पंचहत्तरिमो संधि इस प्रकार तोड़ दिया मानो जैसे रावणकी अनीतिके फल हों। वो फिर चार सिर उठ खड़े हुए, मानो धरती पर गुलाबके फूल खिले हों, उनके काटे जाने पर, फिर आ गिर निभाये, मानो फणसमें फणस (नागफन) निकल आये हों। फिर सोलह, फिर बत्तीस, और चौंसठ, इसी क्रमसे सिर निकलते रहे। तब लक्ष्मणने एक सौ अट्ठाईस सिर धरती पर गिरा दिये, फिर वे दो सौ छप्पन हो गये, लक्ष्मणने उन्हें भी पापोंके समान काट डाला, फिर चे पाँच सौ बारह हो गये, उन्हें भी लक्ष्मणने कमलकी भाँति तोड़ डाला। वे एक हजार चौबीस हो गये, कुमारने बहुरूपिणीविद्याके निवासरूप उन्हें भी तोड़ डाला। सिरोंके काटते-काटते लक्ष्मणकी निपुणता दुनियामें प्रकट होने लगी । इस प्रकार युद्ध में विविध रूपोंका प्रदर्शन कर रावण अपने स्वभावका ही अनुकरण कर रहा था ॥१-१०॥ [१९] जिस प्रकार राषणके सिर नष्ट नहीं हो रहे थे, उसी प्रकार लक्ष्मणके महातीर भी अभय थे। यह देखकर आकाशमें देवताओंकी बातचीत हो रही थी कि युद्ध में कड़ी स्थिरता रहेगी। उसके बाद जनोंके नेत्रों और मनोंको आनन्द देनेवाले, दशरथनन्दन लक्ष्मण शत्रुके सिरोंको तबतक गिराता चला गया, जबतक युद्धभूमि पट नहीं गयी। सिरोंकी ही भौति, उसने उसके हाथ ऐसे काट गिराये मानो गरुड़ने साँपके दो टुकड़े कर दिये हों । सो, हजार,लाख, अगिनत हाथ थे, और हाथोंमें अगिनत तीर थे । मानो वटवृक्षसे उसके तने ही टूट गये हों। या किसीने हाथीकी सूंड़ काट दी हो, पाँचों अंगुलियाँ थीं और उनमें सुन्दर नख ऐसे चमक रहे थे, मानो पाँच फनोवाला नागराज हो। कोई हाथ तलवार लिये ऐसा सोह रहा था मानो वृक्षका पत्ता लतामें जा लगा हो। कोई भ्रमरोंके साथ
SR No.090357
Book TitlePaumchariu Part 5
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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