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तेआसामा संधि
१५३ होने लगा, उसीके बीच आग लगा दी गयी। सारी धरती यालाओंकी लपेटमें आ गयो । उस समय एक भी आदमी वहाँ पर ऐसा नहीं था जो दहाड़ मारकर न रोया हो।। १ ।।
[१२] गड्ढे में लक्कड़ों के साहके जलते ही कौशल्या और सुमित्रा रो पड़ीं। लक्ष्मण रो पड़े। उन्होंने कहा, "आज मेरे अविचारसे माँ मर गयो ।” भामण्डल और जनक भी खूब रोये । पुत्र लवण और अंकुश भी फूट-फूटकर रोये । लंका-अलंकार विभीषण रोये, हनुमान भी खूब रोये, राजा सुग्रीव भी रोये, महेन्द्र और माहेन्द्र भी रोये। सब सामन्त वह दृश्य देखकर रो रहे थे और रामको धिक्कार रहे थे। सीतादेवीके लिए विधाता तक रोया, लकासुन्दरी और त्रिजटा भी रोयी । शोका. तुर अपना मुख ऊँचा किये हुए नागरिक लोग भी विलाप कर रहे थे। वे कह रहे थे कि राम निष्ठुर, निराश, मायारत, अनर्थकारी और दुष्ट बुद्धि हैं । पता नहीं सीतादेवीको इस प्रकार होमकर वह कौन-सी गति पायेंगे।। -५॥
[१३] इसी मध्यान्तरमें एक बड़ी घटना हो गयी। सारा संसार धुसे अन्धकारमय हो गया। उसमें ज्वालाएँ ऐसी चमक रही थीं, मानो मेघोंमें बिजली चमक रही हो। परन्तु सीतादेवी अपने सतीत्वसे नहीं डिग रही थीं। वह कह रही थी, "आम मेरे पास आओ, यदि मेरे गुणोंका अपलाप करनेवाला निर्वासन ठीक है, तो तुम सचमुच मुझे जला दो, जला दो। यदि मैंने जिनशासन छोड़ा हो, तो तुम मुझे जला दो, यदि मैंने अपने गोत्रकी शोभा न रखी हो तो मुझे जला दो, जला दो । यदि मैं किसी भी प्रकार न्यून हूँ तो जला दो, यदि चरित्र. हीन होऊँ तो मुझे जला दो, जला दो। यदि मैंने अपने पतिसे विद्रोह किया हो, तो मुझे जला दो, यदि मैंने परलोकसे विद्रोह