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सत्तासीमो सधि
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तार, तरंग, जनक, विराधित, गवय, गवाक्ष और कनक, कोलाहल, इन्द्र, माहेन्द्र, कुन्द, दधिमुख, सुषेण, जाम्बव, समुद्र. शशिकर, नल, नील, प्रसन्नकीर्ति, मद, शंख, रंभा, दिषाकर और ज्योतिपी। सभीकी आँखों में आँसू भरे हुए थे, सबके मुख हिमाहत कमलोंके समान मुरझाये हुए थे । वे रामके चरणोंमें उसी प्रकार गिर पड़े, जिस प्रकार देवता, त्रिलोकगुरु जिनेन्द्र भगवान के चरणोंमें गिर पड़ते हैं। विश्वास न होनेसे उन्होंने बार-बार देखा कि चक्रवर्ती लक्ष्मण सचमुच कामकवलित हो चुके हैं, निष्प्रभ अपना सिर नीचा किये हुए, मानो किसीने मूर्ति हो गई दी हो ?--
[१७] सुमित्राके पुत्र लक्ष्मणको इस प्रकार देखकर बड़ेबड़े विद्याधर बुरी तरह रो पड़े। “हे कालके आगतको झेलने वाले स्वामिश्रेष्ठ, तुम भी इतनी दूर हो गये। हे स्वामी, कुछ भी तो आना दो। अरे आज तो हम अनाथ हो गये। हे जनमनमें अनुराग उत्पन्न करनेवाले, अब बहुतसे प्रसाद कौन भेजेगा, जय श्रीके निवास हे स्वामी, तुम्हारे बिना अब कौन रामक लिए जीवित गाथा होगा सबका उपकार करनेवाले हे स्वामी, हे समुद्रावतं धनुषको उठानेवाले, तुम्हारा दयारूपी ऋण एक भी जन्ममें पूरा नहीं होगा। इसलिए यही ठीक है कि आप हमें छोड़कर कहीं और न जायें । उन नरश्रेष्ठोके करणविलापसे, दसों दिशाएँ, कन्याएँ, बड़े-बड़े देवता, वनस्पतियाँ, नदियाँ, बड़े-बड़े समुद्र और पहाड़ तथा विषधर भी रो पड़े 12-९॥
[१८] तब विभीषणने अपने-आपको ढाढ़स बंधाया और उसने रामचन्द्रजीसे कहा, "हे देव, यह महान शोक आप छोड़