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छसत्तरिमो संधि
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मसल सकती है। क्या तिलका आधा भाग पातालको भर सकता है ? क्या इंधन आगको जला सकता है ? क्या चुल्लू समुद्रको सोख सकती है ? क्या पोटली हवाको बाँध सकती है ? क्या हाथं चन्द्रमाको ढक सकता है ? क्या तेजपुंज, किरणोंसे असह्य सूरजको जुगनू कान्तिहीन बना सकता है ? क्या कपड़ा प्रभातको हक सकता है ? क्या भगवान् शिव अज्ञानसे जाने जा सकते हैं? क्या परमाणु आकाशको ढक सकता है? क्या गोपद, धरतीमण्डलको माप सकता है ? क्या मच्छर संसारके साथ तुल सकता है, क्या काल मर सकता है। उसके यह वचन सुनकर विक्रममें श्रेष्ठ रावणके इन्द्रजोत प्रमुख, ढाई करोड़ तुम सहसः छिस हो गये।। (-५ ।।
[१४] कुम्भकर्ण भी अपने पुत्रों के साथ इस प्रकार गिर पड़ा मानो नक्षत्रोंके साथ चन्द्रमा ही गिर पड़ा हो, मानो देवताओं के साथ इन्द्र धराशायी हो गया हो। जलके छिड़काव और हवा करनेपर उसे होश आया । दुःखसे व्याकुल वह बड़ी कठिनाईसे उठा, मानो शोकका पहला अंकुर निकला हो। वह रोने लगा, "हे भाई, हे भाई! हिरणोंने सिंहको पछाड़ दिया; हे विधाता, तुम दरिद्री हो गये। तुम सबमें बहुछिद्री हो गये, हे यम, महायुद्ध में तुम्हें मरना पड़ा। हे समुद्र, तुम्हें भी प्यास लग आयो। हे पवन, तुम भी आज बन्धनमें पड़ गये। हे सूर्य, तुमने अपनी किरणोंको छोड़ दिया ? हे अग्नि, तुम भी नष्ट हो गये ? है कामदेव, आज तुम्हारा भी सौभाग्य जाता रहा । हे. अचलेन्द्र, आज तुम डिग गये; प्रजापते, तुम्हें भी भूख लग आयी ? पुण्यका भय होनेसे देखो वनके खम्भों में भी घुन लग जाता है ॥ १-९॥