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सजसत्तरिमो संधि
[१७] यह सुनकर रामने अपना माथा ठोककर कहा, "जिस विभीषणने लक्ष्मणके समान सेवा की, क्या वह अब बदल जायगा ! वह अत्यन्त विनयशील और स्नेही है, और यह क्षत्रियोंका मार्ग नहीं है, जिसका जिससे वैर होता है, उसके अवसानके साथ भी, उसका अन्त नहीं होता | अथवा वे क्रुद्ध होकर भी कर क्या लेंगे। हतमान वे स्वयं सन्देहसे क्षुब्ध हो रहे हैं, वे उखड़े हुए दन्तोंवाले मत्तगजके समान हैं, विषदन्तविहीन विषधरकी भाँति हैं, प्रहरणशील नखोंसे होन सिंहके समान हैं, उन्नतिसे अयरुद्ध पर्वत समूहकी तरह हैं। इस प्रकार रामका आदेश सुनकर सभी अनुचर दौड़ पड़े, वे उठे हुए हथियारों के समूहसे अत्यन्त भयंकर थे। बाकी राजा लांग भी जो दुमन-दीन और गलितमान थे, राम और लक्ष्मणके पास आये । सबने अन्तःपुरके साथ महासरमें स्नान किया। लोकाचारसे दशाननराजको रामने जब पानी दिया तो ऐसा लगा जैसे अञ्ज लिपुटसे वे शरीरका सौन्दर्य ही डाल रहे हो ! ।।१-१०॥ । [१८] इसके अनन्तर धरतीपर पड़ी हुई मूच्छित रावणको प्रियपनीके सिरपर पुनर्जीवनके लिए पानीका छिड़काव किया गया। अथवा धरतीने जो भो अशेष सुख उसके लिए दिया था वह सब अब उच्छिन्न हो गया, और अब वे रोती बिसूरती और काँपती हुई उसे प्रभुको दे रही हैं। फिर वे दुबारा पानी में घुसी, मानों पापात्माओंने नरकमें प्रवेश किया हो। फिर वे उस भयंकर सरोवरसं इस प्रकार निकली, मानो संसार-समुद्रसे भव्यजन ही निकल आये हों, मानो जल सौन्दर्यका त्याग कर रहा हो, या मानो लहरोको त्रिवलिका दान किया जा रहा हो। उन्होंने सरोवरके हंसोंको बड़ी स्थिर