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________________ तमासामो संधि [१७] यह सुनकर स्नेहका परित्याग करनेवाली वैदेहीने कहा, "हे राम, आप व्यर्थ विषाद न करें, इसमें न तो आपका दोप है, और न जनसमूहका, सैकड़ों जन्मोंसे धर्मका नाश करनेवाले खोटे कर्मोका यह सब दोप है । जो पुराना कर्म जीव के साथ लगा आया है उसे कौन नष्ट कर सकता है । हे राम, मैंने आपके प्रसादसे नाना देशों में बंटी हुई धरतीका उपभोग कर लिया है। बहुत बार मेरा पानसे सम्मान हुआ है। मैंने इस लोकका समस्त सुख देख लिया है। बार-बार मैंने तरह-तरहके भोग भोग लिये हैं। आपके साथ पुष्पक विमानमें बैठी हूँ। बहुत बार भुवनान्तरों में भी हूँ। अपने आपको बहुभिध अलंकारोंसे सुशोभित किया है। हे आदरणीय राम, अबकी बार ऐसा करूँ, जिससे दुबारा नारी न बनूं। मैं विषय सुखोंसे अब ऊब चुकी हूँ | अब मैं जन्म जरा और मरणका विनाश करूंगी । संसारसे विरक्त होकर, अब अदल तपश्वरण अंगीकार कलंगी 1१-१०॥ १.] इस प्रकार कहकर तब सीतादेवी ने अपने सिरके केश दायें हाथसे उखाड़कर त्रिलोकको आनन्द देनेवाले श्री राघवचन्द्रके सम्मुख डाल दिये। उन्हें देखकर राम मूर्छित होकर धरतीपर गिर पड़े, मानो हवासे कोई महावृक्ष ही उखड़ गया हो। वह अचेतन धरतीपर बैठ गये। वह किसी तरह होशमें आयें; इसके पहले ही झीलकी नौकासे युक्त सीतादेवीने जिनचरणोंके सेवक देवताओं और मनुष्योंके देखते-देखते, ऋषिके आश्रममें जाकर दीक्षा ग्रहण कर ली। उन्होंने केवलबानसे युक्त सर्वभूषण मुनिके पास दीक्षा ली । तत्काल उन्होंने सब चीजोंका परिग्रह छोड़ दिया, अब उनका शरीर तपसे विभूषित था।
SR No.090357
Book TitlePaumchariu Part 5
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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