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________________ भटुसत्तरिमो संधि ८३ [२] तब केवलज्ञान निधि परमेश्वर निशाचरोंको धर्मविधि बताते हुए कहते हैं : इस त्रिभुवनरूपी वनमें महाकालरूपी महानाग रहता है, विषम, विशाल और अनिष्टकारी; उससे कौन बच सकता है? वह संसार में सबका उपसंहार करता है, उसकी जहाँ कहीं भी दृष्टि जावी, वहाँ-वहाँ मानो विनाश नाच उठता। किन्हींको वह निगल जाता, और निगल कर उगल देता, किसीसे उसकी भेंट जीवनके अन्तिम समय होती, किन्हींको वह नरक विलमें घुसकर दुसताः किसीके पीछे-पीछे घूमता, किसीको स्वर्गमें चढ़कर वहाँ से निकालकर ले आता; किसीके ऊपर पड़कर उसे नष्ट कर देता; किसीको वह पापरूपी विष देकर मार, डालता; और किन्हींको तरह-तरहसे समाप्त कर देता ! उस भूखे और असह्य कालरूपी महानागसे कोई नहीं बचता। इसलिए जिन-वचनरूपी रसायनको शीघ्र पी लो जिससे अजर अमर पद पा सको!" ॥१-२।। [३] यदि कालरूपी महानाग नहीं डसता तो इन्द्र स्वर्गसे क्यों च्युत होता वह इन्द्रका त्रासद रावण कहाँ है? जिसके दस कन्वे, दस मुख और बोस हाथ थे, बहुरूपिणी विद्या जिसकी सेवा करती थी, जिसके नामसे सारा संसार काँपता, जिसके कारण चन्द्रमा और सूर्य आकाशमें नहीं चमकते, यम जिसकी रक्षा करता, आग वस्त्र धोती, हवा जिसके आँगनमें बुहारी देती, कुबेर जिसके कोशकी रक्षा करता था, मेघ छिड़काव करते, सरस्वती मान करती और जिसकी वनस्पतियाँ पुष्पों से अर्चा करती; रावणकी वह सम्पदा कहाँ गयो ? कहाँ रावण ? कहाँ परिजनों का सुख । हम, तुम और दूसरे भी, सब एकमें मिल जायेंगे, देखते-देखते, कालरूपी महानाग, आज-कलमें निगल जायगा ॥१-८
SR No.090357
Book TitlePaumchariu Part 5
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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