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अतरिम संधि
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उनको जीवन दिलाउँगा ॥१-१
[ १६ ] अपने मनके अनुसार गमन करनेवाले महामुनि नारद पवनसे भी अधिक तेज गतिसे लंका नगरी गये। वह वहाँ पहुँचे, जहाँपर अंगद कमलोंके सरोवरमें क्रीड़ा कर रहा था, वहाँ सुन्दर किनारोंपर लतागृह और कुसुमगृह थे । त्रिभुवनकी यात्रा प्रेमी नारद मुनिने ठहरकर पूछा, “विचक्षण कुमार लक्ष्मण, सीतादेवी और राम कुशलतासे तो हैं।" तब अंगद उन्हें अनेक महायुद्धों को जीतनेवाले राघवके आवासपर ले गया । राम उनके अभिवादनमें खड़े हो गये, ओर उन्होंने पूछा, "कहिए किस लिए आना हुआ" । तब तापस नारद महामुनिने कहा, "मैं तुम्हारी माँ अपराजिताके पाससे आया हूँ। वह तुम्हारे वियोग में एकदम उन्मन है, हरिनीकी तरह वह खिल है । जबसे तुम वनवासके लिए गये हो, तबसे उसने एक भी दिन सुख नहीं जाना । वेदनासे व्याकुल वह रोती-विसूरती रहती हैं ठीक उसीप्रकार जिसप्रकार बिना बछनेकी
गाय ।। १-१० ।
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[१७] राम यह सुनकर सहसा उन्मन हो गये । उदास मुखकमलसे उन्होंने कहा, "हे महामुनि, आपने बिलकुल ठीक कहा। मैंने यदि आज या कलमें माँके दर्शन नहीं किये, तो निश्चय ही देखनेकी उत्कण्ठासे पीड़ित माँ अपराजिता के प्राणपखेरू उड़ जायेंगे। अपनी माँ और जन्मभूमि स्वर्गसे भी अधिक प्यारी होती है, हे विभीषण लो, मैं अब अपने घर जाता हूँ, तुम्हें छोड़कर भला अब कौन इस भारको उठायेगा ? इन्द्रके समान सुखवाले ये छह साल इस प्रकार निकल गये, मानो एक ही दिन बीता हो। समुद्रके जलको थाइ सकते हैं, वानर सेनाकी भी ताकत तौली जा सकती है, लक्ष्मणके तीरोंको भी