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पउमचरिउ
घन्ता
खभइ पमाणु जिण मासिन हुँ वयण हुँ विम्बुइ-गाराहुँ । विणिरुवम-गुणहँ सुहाराहुँ' ॥ ५ ॥
परिमाणु बिहीसण
ह ह ण
तो मइ विहीणु पणय- सिरु | 'जह रहुवइ विजन्य-जत्त करहिं । हउँ जाव करेमि पुणपणविय । चल-लक्रवण एव परिधिय । पुणु पच्छऍ विज्जाहर-पवर | भोषड किञ्च वरिसु । घरे घरें मणिकूडागार किया । पुरें घोसण तो वि परिक्रममइ ।
तं पट्टणु कळण घण-पउरु देन्तउ जें अस्थि पर स्यलु जमु
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धुइ-त्रयण-महासुग्गष्ण गिरु ॥१॥ तो सांकह बासर परिहरहि ॥ २ ॥ उज्झाउरि सन्च सुवण्णमिय' ॥३॥ अगएँ, बहावा पट्टविय ॥४॥ पाहुयल भरन्त णं अम्बुहर ॥ ५ ॥ किं पुरवरु कारि- सरिसु || ६ || घर घरे णं णव णिहि सकमिय ॥७॥ 'सो लेउ लएवऍ जासु भइ ||८||
धत्ता
वह पुरन्दर-पर- छबि । जसु दिन सो को वि ण वि ||९||
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सोलहम दिवसें पथ वलु || १ || दावन्तु पिवाण हूँ पिययमहें ॥२॥ ऍडु मलय- धराहरु सुरहि सरु || ३ || इद लिय कुमारें कोटि-सिक ||४||
गउ लङ्क विहीनणु मिट-बलु | - माणुस - सायण वहे। 'ऍहु सुन्दरि दीसह मगरहरु | किक्चिन्ध- महिन्द-इन्दुसइल | हाँ लक्खणु एण पण गय |
सह खर दूसण- तिसिर हम ||५||
इइ सम्बु कुमारहों खुबि सिरु । इह फेडिड रिसिन्डवसतु चिह्न ||६||
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