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अट्ठसत्तरिमो संधि
१०१ मापा जा सकता है, सूर्य की किरणोंकी थाह ली जा सकती है। जिन भाषित वाणीको भी हम माप सकते हैं, निवृत्तिपरायण लोगोंके शब्दोंकी भी टोह ली जा सकती है, परन्तु हे विभीषण, तुम्हारे अनुपम गुणोंकी थाह लेना कठिन है ।। १-२ ।।
[१८] यह सुनकर प्रणत सिर विभीषणने स्तुति और मुसकाम सारमें निम किया, ईशा, यदि आज विजय यात्रा कर रहे हैं, तो सोलह दिन और ठहर जायें । मैं अयोध्या नगरीको फिरसे नयी बनाऊँगा, सबकी सब सोनेको निर्मित करूँगा।” राम और लक्ष्मणको इस प्रकार रोककर, विभीषणने सबसे पहले निर्माणकर्ता भेज दिये। उसके बाद, बड़े-बड़े विद्याधर भेज दिये, मानो आकाश मेघोंसे भर उठा हो, वहाँ सोनेकी खूब वर्षा हुई। उन्होंने सारो अयोध्या नगरी लंकाके समान बना दी। घर-घरमें मणिमय कूटागार थे, मानो घरघरमें नवनिधियाँ आकर इकट्ठी हो गयो। फिर नगरमें यह घोषणा करा दी गयी, "जिसको जो लेना है वह ले ले" । स्वर्ण
और धन प्रचुर, यह अयोध्या नगरी इन्द्रनगरकी शोभा धारण कर रही थी। सभी लोग वहाँ देनेवाले ही थे। जिसे दिया जाय, ऐसा एक भी आदमी नहीं था॥ १-९॥
[१९] विभीषणकी सेना लंका वापस चली गयी। सोलहरे दिन रामने अयोध्याके लिए कूच किया। सेना और विमानके साथ आकाशपथमें वे प्रिय सीताको सुन्दर स्थान दिखा रहे थे, "हे सुन्दरी, यह विशाल समुद्र है, यह चन्दन वृक्षोंका मलयपर्वत है, यह किष्किंधा, महेन्द्र और इन्द्रशिला है। यहाँ कुमार लक्ष्मण ने कोटि शिला उठायी थी | मैं और लक्ष्मण इस रास्ते गये थे। यहाँपर खर, दूषण और त्रिसिर मारे गये! यहाँ शम्बुकुमारका सिर काटा गया, यहाँ हमने महामुनिका उपसर्ग दूर किया था,