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अन्तरिम संधि
[१४] विभीषणका अभिषेक प्रारम्भ हुआ। भामण्डलने कलश अपने हाथ में ले लिया । सुत्रीव, विराधित, नल, नील, दधिमुख, महेन्द्र, मारुति और प्रबल, इन आठोंने शुभदर्शन विभीषणका कलशाभिषेक किया। रघुनन्दनने अपने हाथों स्वयं उसे राजपट्ट बाँधा । बहुत दिनोंतक राम और लक्ष्मण जिनकी ओर ध्यान नहीं दे सके थे, वे सभी इसी बीच वहाँ आ पहुँचे । सिंहोदर और यत्रकर्णकी लड़कियाँ ऐसी लगीं मानो देवांगनाएँ आकाशसे सिर पर हो कल्पन माला, जितपद्मा और सोमा, जो जिनप्रतिमाके समान सुन्दर थीं, कपिश्रेष्ठ और दधिमुखकी लड़की, और शशिवर्धनकी नेत्रोंको आनन्द देनेवाली कन्या भी वहाँ आ गयीं। और भी दूसरे जितने वधूसमूह थे, वे भी वहाँ आ गये। इस प्रकार राम और लक्ष्मणके लंका में रहते-रहते छह वर्ष बीत गये ।। १-९ ।।
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[१५] इस अन्तरालमें सुकोशलकी महारानी कौशल्या पुत्र वियोगमें क्षीण हो चुकी थी। वह रात-दिन रास्ता देख रही थी । पथिकों से उनके बारेमें पूछा करती। कभी घर आँगन में कौआ काँव-काँव कर उठता, मानो वह कहता, “माँ, तुम्हें राम अवश्य मिलेंगे" । इतने में महामुनि नारद वहाँ आये । स्तुतिकर कौशल्याने पूछा - " कहिए, कैसे आना हुआ ।" तपस्वी नारद ने भी उससे स्पष्ट शब्दों में कहा, "हे परमेश्वरी, मैं पूर्व विदेह गया था, वहाँ सैकड़ों तीर्थों की बन्दना करते हुए हमारे सत्रह बरस बीत गये, वहाँसे फिर मैं लंका नगरी गया । वहाँ लक्ष्मणमे चक्र से शत्रुको समाप्त कर दिया है, फिर मैं पूर्वविदेह पहुँचा और वहाँसे अब तेईस वर्षोंमें आ रहा हूँ। लक्ष्मण विशल्या के साथ और राम वैदेहीके साथ, इस समय लंका में राज्य कर रहे हैं। वे वहाँ हैं । हे माँ, तुम आँखें पोंछो, मैं तुम्हें
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