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________________ 934 पउमचरिय सार तरङ्ग रम्भ-पणजय ॥१४॥ स- विहीण - पीक जय । कोस- कड् कड् के क्कय- सुप्पह | साहु वन्दहति करेपिणु । पुच्छिउ जेह महारिसि रामें । सन्तंवर बइदेहि चिणिगय ॥५॥ दस पयारु जिण बम्सु सुणैषिणु ॥ ६॥ 'हुँ फरि तिजगषिसणु जामें ॥१७॥ कबलु छेड् ण दुक्कड् सलिलहों जेम महारिसिन्दु कवि-कलिल हो ||८| घन्ता कुञ्जर-मरत-भवन्तरइँ अक्खियाँ असेसई मुणिवरेंण । केक इ- स [१४] । विकम-गय-विषय- पसाहिए । थिङ भर महारिसिरुबु देवि । तर्हि जुबइ सहि सके कि सो जिविस भरेंवि गाउ । सरहाको वि उप्पण्णाशु | अहिसित्त रामु विजाहरेहिं । सामन्य सहास साहिए || १ || मणि- स्यणाहरण हूँ परिहरेवि || २ || थिय केसुप्पा करेवि सावि ||३|| वस्तुत्तरें सग्गं सुरिन्दु जाउ ||४|| बहु-दिवसेंहिं गड होगाव सानु ||५|| भामण्डळ-किकिन्स रहि ||६|| दहिमुह महिन्द-पवण पूहि || || अवरोह ममहं सहि ||३|| 5 खणीक - विहीण- भङ्गपूहिँ । चन्दोयरसुयजम्युष्ण एहिं । धत्ता वधु पद रहु-णन्दणहों कमण फलसे र्हि असे कि । क्खणु चरण सहित घर स-धर स ई भुखन्तु थिउ || १||
SR No.090357
Book TitlePaumchariu Part 5
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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