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पउमचरिय
सार तरङ्ग रम्भ-पणजय ॥१४॥
स- विहीण - पीक जय । कोस- कड् कड् के क्कय- सुप्पह | साहु वन्दहति करेपिणु । पुच्छिउ जेह महारिसि रामें ।
सन्तंवर बइदेहि चिणिगय ॥५॥ दस पयारु जिण बम्सु सुणैषिणु ॥ ६॥ 'हुँ फरि तिजगषिसणु जामें ॥१७॥
कबलु छेड् ण दुक्कड् सलिलहों जेम महारिसिन्दु कवि-कलिल हो ||८|
घन्ता कुञ्जर-मरत-भवन्तरइँ अक्खियाँ असेसई मुणिवरेंण ।
केक इ- स
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विकम-गय-विषय- पसाहिए । थिङ भर महारिसिरुबु देवि । तर्हि जुबइ सहि सके कि सो जिविस भरेंवि गाउ । सरहाको वि उप्पण्णाशु | अहिसित्त रामु विजाहरेहिं ।
सामन्य सहास साहिए || १ || मणि- स्यणाहरण हूँ परिहरेवि || २ || थिय केसुप्पा करेवि सावि ||३|| वस्तुत्तरें सग्गं सुरिन्दु जाउ ||४|| बहु-दिवसेंहिं गड होगाव सानु ||५|| भामण्डळ-किकिन्स रहि ||६|| दहिमुह महिन्द-पवण पूहि || || अवरोह ममहं सहि ||३||
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खणीक - विहीण- भङ्गपूहिँ । चन्दोयरसुयजम्युष्ण एहिं ।
धत्ता
वधु पद रहु-णन्दणहों कमण फलसे र्हि असे कि ।
क्खणु चरण सहित घर स-धर स ई भुखन्तु थिउ || १||