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अमीहमी संधि
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पर वे दोनों राजा आरूढ़ हो गये। दोनों ही महाभयंकर थे । उनकी आँखें भ्रूलतासे भकुर हो रही थीं, बिजली की तरह चमकते हुए वे एक दूसरेपर अस्त्रोंका निक्षेप कर रहे थे। महाराजने वारणेन्द्रको परास्त किया और कुमारने राजा मधुको। तीरोंसे आहत लोहू-लुहान मधु राजा गजवरपर ऐसा लग रहा था मानो फागुनके माहमें पहाड़पर पलाशका फूल खिला हो ॥१-२॥
[१२] अन्तिम समय जैसे काल आ पहुँचता है और मनुष्य कुछ नहीं कर पाता, उसी प्रकार राजा मधु रघुसुन शत्रुघ्नको नहीं जीत सका, जब पुत्र भी चेमौत मारा गया और शूल भी हाथ में नहीं आया तो इससे राजा मधुको गहरा विपाद हुआ, वह अपने आपमें सोचने लगा, 'मैंने त्रिभुवनके स्वामीकी पूजा नहीं की, मैंने दुर्दम पाँच इन्द्रियों का दमन नहीं किया, कभी मैंने एक भी धर्म-क्रिया नहीं की, पापों में आसक्त मैंने जीते जी जिनदेवकी बन्दना नहीं की। यह संसार एक संयोग है. इसमें कौन किसका होता है, मेरा समूचा जीवन व्यर्थ गया. बस अब तो मैं सल्लेखना करूँगा, महान् कठोर पाँच महात्रतोंको धारण करूँगा। यह कह कर उसने सब परिग्रह छोड़ दिया, उसने अपने हाथोंसे केशलोंच कर लिया । मेरा एक अकेला यह जीव हैं और सब कुछ दूसरा क्या है ? यह रण मेरे लिए तपोवन है। मैं जिन भगवान की शरणमें हूँ, गजवर ही मेरे लिए उपाश्रय हैं ||१-९॥१
[१३] जो भव्यजनों के लिए धर्मकी शुभधारा है, उसने ऐसे पाँच णमोकार मन्त्रका उच्चारण किया, अरहन्तभगवान के सात उन वर्णों का उच्चारण किया जो सब सुखोंके आदि निर्माता हैं। फिर उसने सिद्ध भगवान् के पाँच वर्णोंका उच्चारण किया